5/29/2008

वो औरतें

वो औरतें प्रेम में पकी हुई औरतें थीं
कुछ कुछ वैसी जैसे कुम्हार के चाक से निकले कुल्हड़ों को आग में ज़रा ज़्यादा पका दिया गया हो
और वो भूरे कत्थई की बजाय काली पड़ गई हों
या कुछ सुग्गे के खाये, पेड़ों पर लटके कुछ ज़्यादा डम्भक अमरूद की तरह
जिसे एक कट्टा खाकर फिर वापस छोड़ दिया गया हो उनके उतरे हुये स्वाद की वजह से



वो औरतें डर में थकी हुई औरतें थीं
कुछ कुछ चोट खाये घायल मेमनों की तरह
जिबह में जाते बकरियों की तरह
जिनकी फटी आँखों से लगातार बेआवाज़ आँसू बहते हों
या कुछ उन जोकरों की तरह जो हर कलाबाज के करतब पर पाउडर पोते
ठोस ज़मीन पर खड़े अंदर ही अंदर भय से थरथराते हैं

इन औरतों ने पाया कि आखिर एक वक्त ऐसा आया कि
भय और प्रेम इनके अंदर एक हो गया
तब उन औरतों ने
एक जत्था बनाया
खड़िया हाथ में पकड़ा
और लिखा प्रेम अर्थात भय
फिर लिखा
भय अर्थात शून्य और
शून्य अर्थात प्रेम अर्थात मुक्ति


आसमान में अक्षर उभरने लगे
हर अक्षर पर
उनकी उँगलियों की पकड़
मज़बूत होती गई
आग की लपट उँची उठने लगी
भट्टी में शब्द पकने लगे
उन लपटों में आहूति देते एक सुर से गाया
इदमग्नये जातवेदसे इदन्न मम

ओ पवित्र अग्नि जो वर्तमान है हर सृजन में
ये मेरा शरीर , मैं समर्पित करूँ
अपनी आत्मा की गहराई से
इस अग्नि को ये शरीर जो अब मेरा नहीं
कस्मै देवाय हविषा विधेम


बोलती है एक खास लय में साँस रोके दमयंती जिसका नाम पड़ा है अपने
किसी बूढ़ी परदादी के नाम पर
उसी के जिनके डायरी के पहले पन्ने पर से पढ़ती है एक साँस में
दमयंती
कहानी उनकी जो किसी पिछली सदी में थीं
वो औरतें
और जो अगली कई सदियों तक रहेंगी
वो औरतें ...

7 comments:

विजय गौड़ said...

ाआपकी कवितायें ज्यादा सहज और स्वाभाविक लगती है.

डॉ .अनुराग said...

एक शायर है पाकिस्तान की परवीन शाकिर .....उन्ही की एक नज्म वैसा ही संदेश देती है जैसा आप दे रही है ..बस कुछ लफ्जों का ...कुछ ख्यालो का .....फर्क है.......लिखती रहिये......

Udan Tashtari said...

वाह! बहुत खूब.

Sunil Deepak said...

प्रेम में पकने की बात पर बहुत देर तक सोचता रहा. प्रेम में पकना यानि स्वयं को अपनी चाह के सामने, अपनी इच्छा के सामने मुक्त छोड़ देना? शायद बहुत निडरता चाहिये, प्रेम में इतना पकने के लिए ...? प्रेम यानि किसी दूसरे के सामने स्वयं को खुला छोड़ना, चाहे उससे आहत हों या इच्छा पूर्ती का संतोष मिले, क्या अपने बस में होता है कि कितना प्रेम करें और अपने बस में हो तो क्या सचमुच प्रेम है...?

आशीष कुमार 'अंशु' said...

भावपूर्ण कविता।

Sanjeet Tripathi said...

प्रत्यक्षा जी, आप अक्सर खामोश सा कर देती हैं।
:)

neelima garg said...

very interesting...