10/30/2007

चार सौ एक नम्बर की बस रूट माने किस्सा कोताह किसी गुलफाम का

चार सौ एक नम्बर बस में भीड़ की रेलम पेल है । औरत बेहाल है । पसीने से तरबतर । दुपट्टा गले की फाँस है । बैग का स्ट्रैप कँधे पर दर्द की पट्टी छोड़ रहा है । है भी इतना भारी । जाने क्या क्या अल्लमगल्लम ठूँस रखा है , मुड़ा तुसा रूमाल , कँघी , बेबी का दिया हुआ छोटा सा बंद हो जाने वाला आईना , क्रोसिन और डिस्पिरिन की दो पट्टी , जेलुसिल का आधा पत्ता जिसमें सिर्फ दो टैबलेट्स हैं , वो भी एक्स्पायरी डेट पार करता हुआ , सूखा हुआ कत्थी रंग का लिपस्टिक जो कभी लगाया नहीं जाता , बिन्दी के दो पत्ते , एक काला गोल दूसरा कत्थी लम्बा , सेफ्टीपिन का एक गुच्छा , तीन चार क्लिप , मिसेज़ भल्ला का लाया चाँदी के ब्रेसलेट का डब्बा जिसके पैसे अगले महीने के तनख्वाह से दी जानी है , दो दिन से बैग में घूमता सेब , टिफिन का छोटा डब्बा , अधखाया पराठा , आलू का भुजिया और आम के अचार का रिसता तेल , छोटी एडरेस वाली डायरी , एक डिजिटल डायरी के बावज़ूद .. अभी तक डिजिटल छोड़ उसी पर हाथ जाता है पहले , एक पतली कविता की किताब , जिसे रखे रखे , बिन पढ़े भी , कोई कोमल भाव अब तक ज़िन्दा है जैसा सुख कभी रूई के फाहे से सहला जाता है , कुछ ज़रूरी कागज़ पत्तर , फोन का बिल , पिछले महीने खरीदे गये सलवार कमीज़ का सुपर टेक्सटाईल का बिल , लौंड्री का रसीद , डॉक्टर का प्रेस्क्रिप्शन , मोबाईल का चार्जर , गुड़िया की मैथ्स की किताब जिसकी बाईंडिंग करानी है , आज भी कहाँ हुई ..... .. माने पूरी की पूरी दुनिया ।

औरत कँधे सिकोड़ती सोचती उफ्फ कितना भारी है बैग । आज शाम ही हल्का करती हूँ । गर्दन और कँधे की मांस पेशियाँ जकड़ गईं बिलकुल । बार बार उसका बैग कोने के सीट पर बैठे आदमी के सर से टकराता है । आदमी शरीफ है । ये झल्ला कर नहीं कहता , मैडम अपना बैग सँभालो । बस हर टकराहट पर एक बार आँख ऊँची कर औरत को देख लेता है । औरत हर बार शर्मिन्दगी और झेंप भरा मुस्कान देते हुये बैग को अलगाने का नाकाम उपक्रम सा करती है । अगर आदमी ने कुछ कह दिया होता तो लड़ पड़ती , ऐसे ही आराम से चलना है तो गाड़ी करो , हुँह । पर औरत भी शरीफ है , चुप रह जाती है । रोज़ का सफर है । 401 नम्बर की बस से इसी वक्त जाना है । दोनों शक्ल से पहचानते हैं एक दूसरे को ।


आदमी सोचता है क्या होगा इस बैग में । कोई रहस्यमय दुनिया , इस औरत का अंतरलोक ? उसकी इच्छा होती है एकबार बैग का ज़िप खोल कर अंदर झाँक ले । औरत सोचती है स्टॉप आने में अभी आधा घँटा और है । घर जाकर क्या सब्ज़ी पकाऊँ , दाल बनाऊँ कि नहीं , गुड़िया को होमवर्क कराना है , कपड़े धोने हैं , किराना दुकान से चायपत्ती लेकर जाना है , ओह कितनी गर्मी है सबसे पहले नहाना है । आदमी अकेला है । उसे घर गृहस्थी की ऐसी बातें नहीं सोचनी । खाना काके दी ढाबा में खाना है ,टीवी देखना है और पसर के सो जाना है । उसे ये औरत आकर्षक लगती है । ढलके बालों में और टेढ़ी बिन्दी में , क्लांत थके चेहरे में जाने क्या क्या सोचती जाती है । आदमी सोचता है आज कुछ ज़्यादा थकी दिखती है । क्या करूँ अपनी सीट दे दूँ । लगभग उठ सा ही जाता है फिर याद आता है , कितना तो काम किया आज । लेज़र की इतनी पोस्टिंग्स की । सारा बैकलॉग निपटाया , बैंक रिकंसीलियेशन किया । हाय पीठ अकड़ गई । आज तो काके के ढाबे में भी जाने की हिम्मत कहाँ । अपनी थकान की सोचकर फिर फैलकर बैठ जाता है । औरत बैग सँभालती सोचती है स्टॉप अब आ ही चला । आज का दिन तमाम हुआ ।

10/22/2007

या देवी सर्वभूतेषू

पूरी सड़क गुलज़ार थी । कागज़ के रंगबिरंगे गुलाबी पीले हरे तिकोने हवा में लहरा फड़फड़ा रहे थे । लाउडस्पीकर पर फुल वॉल्यूम गीत बज रहा था । छुट्टन के कब्ज़े में होता तो सेक्सी सेक्सी सेक्सी मुझे लोग बोले और निकम्मा किया इस दिल ने , बजने लगता और भोलाशंकर बाबू जैसे ही समझते कि बज क्या रहा है , तिलमिला कर पहुँचते और फट से भक्ति रस की धार फूटने लगती । माँ शेरांवालिये की मार्मिक पुकार साठ के ऊपर के लोगों में माँ के प्रति व्याकुल भक्ति का भाव प्रवाहित करती । इन सबसे बेखबर बच्चों का छोटा झुँड पंडाल के ठीक ओट में बून्दिये के देग पर काक दृष्टि डाले बको ध्यानम करता । क्या पता कब प्रसाद वितरण का कार्य शुरु हो जाये ।

लाल पाड़ की साड़ी , चटक ब्लाउज़ और कुहनी भर चूड़ियाँ पहने औरतें पूजा की थाल लिये माँ के दर्शन की प्रार्थी होतीं । खूब लहलह सिंदूर और गोल अठन्नी छाप टिकुली और खुले बालों की शोभा देखते बनती । पैरों में आलता बिछिया ,लाल लाल तलुये ।

नयी नवेली लड़कियाँ , कुछ पहली बार साड़ी में । माँ से गिड़गिड़ा कर माँगी , फटेगी नहीं , सँभाल लूँगी के आश्वासन के बाद , भाभी के ढीले ब्लाउज़ में पिन मार मार कर कमर और बाँह की फिटिंग की हुई और भाई से छुपाके लिपस्टिक और बिन्दी की धज में फबती , मोहल्ले के लड़कों को दिखी कि नहीं , इसे छिपाई नज़रों से ताकती भाँपती लड़कियाँ , ठिलठिल हँसती , शर्मा कर दुहरी होतीं , एक दूसरे पर गिरती पड़ती लड़कियाँ । ओह! ये लड़कियाँ ।

लड़कों की भीड़ । बिना काम खूब व्यस्त दिखने की अदा , खास तब जब लड़कियों का झुँड पँडाल में घुसे ।
अबे , ये फूल इधर कम क्यों पड़ गये ,
अरे , हवन का सब धूँआ इधर आ रहा है , रुकिये चाची जी अभी कुछ व्यवस्था करवाते हैं
अरे मुन्नू , चल जरा , पत्तल और दोने उधर रखवा

जैसे खूब खूब ज़रूरी काम तुरत के तुरत करवाने होते । जबकि पंडिज्जी ने जब कहा था इन के बारे में तब सब उदासीन हो एक एक करके कन्नी काट गये होते ।

ये तो दिन के हाल थे । जैसे जैसे शाम ढलती , रौनक बढ़ती जाती । रौशनी का खेला , ढोल और शँख की ध्वनि , शिउली की महक , ढाक की थाप , भीड़ के रेले , माँ की सौम्य मूर्ति ..या देवी सर्वभूतेषू शक्तिरूपेण संस्थिता .... महिषासुर का मर्दन करती हुई भव्य प्रतिमा , कैसा अजब जादू , कैसा संगीत जो शुरु होता है महाल्या के चँडी पाठ से । आरती और ढाकियों का नृत्य और फिर विसर्जन के बाद की मरघटी उदास शाँति । जैसे छाती से कुछ निचुड़ गया हो ऐसा दुख ।

( कल विजय दशमी में पटना के दुर्गा पूजा को याद करते हुये )

10/11/2007

राग टाग क्या विहाग

कैसी धम धम धमक थी । पैर के घुँघरू की आवाज़ दब जाती थी । तबले की टनकार हर थाप पर गूँज कर , उठकर तानपूरे के स्वर के साथ कुछ छेडछाड कर लेती । गले की खखास , कुछ तैयारी ,तानपुरे का टुनटुना देना बस एक दो बार । गावतकिये के सहारे सफेद जाज़िम पर बैठे ढुलके अधलेटे स्वर जाने किस तन्द्रा में चौंक चौंक जाते । महफिल की तैयारी थी या समाँ खत्म होने की शुरुआत , पता नहीं चलता था । सुर साधक थे कि राग टाग क्या विहाग जैसे अनाडी थे । हर खम पे सिर डुलाते हाथों से ताल देते किस दुनिया के वासी थे । झूमने वाले रात भर डोलने वाले अधनींदी आँखों से मधुरम मधुरम जपने वाले , सब उसी उजली रात के स्याह सलेटी सलाखों को छाती से लगाये चेतन अचेतन जड थे । आधी रात का राग था कि भरी चटकीली कँटीली दोपहरी का स्वरगान था , कौन जाने पर कोई अधूरी पंक्ति का बिसराया हुआ गीत जरूर था , अटका हुआ था स्मृति के किसी नोक पर , तलवे पर गडे काँटे सा , न निकलते न भूलते बनता । बस एक खोंच सा , लटपटायी ज़बान सा , था तो सही ऐसा ही कुछ अनाम सा ।

किसी सिहरते रोंये का नृत्य था , नसों में दौडता संगीत था , पान खाये होंठों की जालिम ललाई थी , गाढे शहद सी बहती आवाज़ थी ।

10/03/2007

फूहड़ता में भी सौन्दर्य खोजता है कलाकार

डोलती हुई छायाओं से लगातार कैसी और कितनी मगजमारी । हाथ धरे गाल पर सोचता है कवि । मक्खियाँ भिनभिनाती हैं लगातार । सोये बच्चे के मुँह पर और बहते नाक पर स्याही के मोटे भद्दे चकत्ते जैसे । नाली में बहते पानी के साथ तैरते चावल के दाने , आलू के छिलके ,ढंगराये बर्तनों पर बैठा एक काला कव्वा ,चौकन्ना ताकता , गुम्म दोपहरी में । पुराने काठ के बक्से को मेज बना इस्तेमाल करता हमारा कस्बाई कवि लेखक , कव्वे की काँव काँव में ढूँढता है संगीत , लय , ताल । कोई ओवरफ्लोईंग वेस्टपेपर बास्केट तक नहीं , सृजनात्मकता का चमत्कृत मिसाल दे दे ऐसा कोई उद्धरण नहीं , किसी ज्ञानी महापुरुष की तस्वीर तक नहीं । ऐसे में कोई क्या लिखे , कैसे लिखे । पत्नी बेखबर साड़ी के मुसे तुसे आँचल से मुँह ढाँप सोती है निश्चिंत । बच्चा भरे नाक से गड़गड़ाती साँस लिये माँ के ब्लाउज़ का कोना पकड़े हकबका कर पैर फेंकता है फिर करवट करवट बेचैन नींद में ढुलक जाता है ।

जागा है तो सिर्फ हमारा लेखक । पिछले महीने ही तो काव्यप्रभा के तैंतीसवें पृष्ठ पर उसकी कविता छपी थी , “पुकारता रहा प्रिये “। बीस लाईन के इस श्रृंगारिक काव्य रस पर दो अदद पोस्टकार्ड भी प्रसंशिकाओं के मिले । नाम तो नहीं लिखा था पर मजमून के तर्ज़ पर ये मानने को कवि मजबूर हुआ कि ऐसी चिट्ठी किसी विरह रस में सर से पैर तक पगी कोई कन्या की ही हो सकती है । खैर जो भी हो उन दो पत्रों को अनगिनत बार पढ़ने का सुख , पत्नी के पूरे वैवाहिक जीवन के एकमात्र लिखे पत्र से कई गुना ज्यादा था ।

ऐसी ही और कितनी चिट्ठियाँ आयेंगी इस सुख का एहसास मात्र कवि को आगे लिखने की प्रचुर प्रेरणा दे रहा था । पत्नी के चौड़े चपटे मुँह पर से आँचल हट गया था । तेल सनी चुटिया के अंत में मटमैला लाल रिबन और साड़ी के अंदर से झाँकता चीकट पेटी कोट मन की सारी सुरम्यता कमनीयता पर झाड़ू फेर रहा था । आह! कवि होना भी कितना त्रासदायक है । ओह कविमना किधर ढूँढे सौन्दर्य और कहाँ मिलेगा बोध । कविता , सुन्दरता की कैसे रची जायेगी ,बहते नाक और जूठे बर्तनों की खरखट्टे ढेर पर बैठे कौव्वे के बेसुरे काँव काँव में कहाँ से निकाला खोजा जायेगा सुर ?

पत्नी को बेढंगे तरीके से पैर से ठेलकर कवि ने उठाया । पत्नी भकुआई आँख मलती उठी । बेसऊर फूहड़ थी पर गृहस्थिन थी सो उठी और चाय बना लाई , फिर आँचल कमर में कस जुट गई बर्तनों का निपटान करने में । बच्चा सोया है तब तक बर्तन चमचमाने लगे । कवि चाय सुड़कता आसमान ताकता सोचता रहा सोचता रहा । दो शब्दों से आगे बढ़ नहीं पाया । बीती विभावरी जाग री के तर्ज़ पर बीती रात , बीती रजनी के खेल खेलता रहा । मैं थक गया , आता हूँ जरा ताजादम (ताज़ा नहीं ताजा) हो लूँ , कहता एहसान जताता ,चप्पल फटफटाता निकल गया । पान की गुमटी के पास यार दोस्तों संग सिगरेट फूँकी , हँसी ठट्ठा किया , साँझ ढले डूबते सूरज को देख दुखी हुआ । रात अवसाद लेकर सोया । हाय आज कविता लिखी नहीं गई । पर टुमौरो इज़ अनदर डे ।

(गॉन विद द विंड से हमारे कवि को क्या सरोकार पर आशा की जोत जलती है लगातार । फूहड़ता में भी सौन्दर्य खोजता है बारम्बार । तभी तो कवि कवि हैं दिल का महीन नफीस है , लेखक है, कलाकार )

10/01/2007

सूरजमुखी का पीला स्वाद

हर बार शब्द निकलते हैं अर्थ को तलाशते बौराये निपट उदास खोज में। मैं सुनती हूँ खुद को भी दम साधे , चौकन्ना सतर्क ,बजती है आवाज़ लौट लौट आती है बिना छूये हुये किसी हवा तक को भी । अंदर गिरता है बून्द बून्द पानी। कोर्स की किताबें , स्टैलेकटाईट्स और स्टैलेगमाईट्स , बर्फ की पिघलती शिला रिसती है ठंडे सन्नाटे में। ऐसा कैसा मौन , इस शोर में भी ? या फिर रात के अँधेरे में बाथरूम के टपकते नल जैसा, उचटती है नींद, बेखटके देखती है आँखें चीर कर गाढ़े काले अँधकार में चमकती बिल्ली आँखें, कुछ रेंग जाता बचपन का भूला डर? खिड़की से झाँक जाता है एक बार और। और पाती हूँ अपने को कहते हुये किससे ?शायद खुद से बस एक बार और ?

डर का भी एक स्वाद होता है , लटपटायी जीभ पर फुसफुसाता कोंचता स्वाद जो याद रहता है बरसों डर के न होने पर भी । जिसका इंतज़ार करता है मन कैसी सिहरती उत्सुकता से , पैर बढ़ाते ही झट से पीछे खींच लेने का कौतुक खेल ? आगे पीछे पटरी पर दौड़ती है रेल , बोलते हैं झिंगुर बाहर की बरसात में , निकल पड़ते हैं यायावर , मन के ही सही , उतरती है सड़क किसी बियाबान खोह में नीम गुम अँधेरे के । बीतती है रात एक बार और । सुरंग के पार उगता है दिन सूरजमुखी सा । अँधेरे डर के बाद सुलगते दिन का स्वाद , बस एक बार और ।

(वॉन गॉग के सूरजमुखी के फूलों को याद करते हुये )