12/29/2008

धूप के खेत में ... काश काश काश !

अकॉर्डियन पर कोई धुन बजाता है , घूम जाता है , पुराने चिरमिखी बटुये से सोने की धूल छिटक पड़ती है , दिन बीतता है रात आती है , कुहासे में कोई महीन चीख कौंधती है , गुम होता है मन , छाती डूब डूब डूबती है , पूरे भरे तालाब में जैसे एक , सिर्फ एक कमल का फूल , गुम जाता है धुँध में , पानी से उठता है जाने क्या ?

चेहरे पर गर्म भाप की नमी का सुकून है , बेचैन दिल की राहत है , ठहरा हुआ मन तैरता है कागज़ के नाव सा डोलता है , उबडुब .. सपने की उड़ान में मुस्कुराता है , जी कहीं ठौर नहीं लगता ? ऐसा क्यों है भला ? का भोला प्रश्न हवा में टंगा है दीवार की कील सा , अकेला , खुला , अनुत्तरित .. बेआवाज़ ?

भीतर इतना शोर है , बाहर कैसी अबूझ शाँति । कोहरे के पार हाथों हाथ न सूझता संसार है , पीली कमज़ोर रौशनी है , मुँह से निकली , बात की जगह , भाप का गोला है , गर्म है नर्म है , चाँदी की महीन दीवार है । मन की टेढ़ी मेढ़ी पगडंडियों के ठीक उलट कितना साफ , कितना फीका ..ये कैसा सरल संसार है । गज़ब !


ऐसा संसार जहाँ खुशी चहकती हो चिड़िया की चोंच से , धूप उतरता हो गर्माहट में , पीठ से , कँधों से , मन के भीतर , अंजोर फैलता हो आत्मा में , किसी बच्चे की खिलखिल हँसी सी तृप्ति में , चित्त लेटे धरती पर देखें आसमान को , नीले आसमान में फाहे आवारा बादल को और घर लौटने की जल्दी न हो , दिन बीतने की जल्दी न हो , धूप आँख को लगे तो बाँह रख लें चेहरे पर ओट में .. ऐसी दुनिया ऐसी ही दुनिया..


क्लोद मोने की फील्ड ऑफ पॉपीज़ ..खसखस के खेत में ..काश काश काश !

12/23/2008

बाघ की आँख

बाघ की आँख एक बार घूम जाती है अंदर

- यहाँ हँसना मना है , उसकी आवाज़ में संजीदगी है
- पर मुझे हँसे बिना रहा जाता नहीं
- देन आयम सॉरी

गर्म पानी के कुंड में घुसते ही कोई बर्फबारी कर दे , दूर खच्चरों की कतार बोझ से दबे, सर झुकाये , पहाड़ों के साये में चलती जाती है , बिना हरी घास के , उनके आभास के , यहाँ तक कि बिना उसकी आकांक्षा के ..

- मुझे ऐसे ही तुम बदल देना चाहते हो ?

आज मैंने पहनी है फूलों वाली रंगीन साड़ी ,इतने फूल कि हर कोई आ कर कह जाता है
आज धूप खिली है, तितलियों का मौसम है शायद ..

बाहर जब की कुहासा है और मैं तुमसे कुछ नहीं बोलना चाहती। जैसे हाईबरनेशन की कोई प्रक्रिया शुरु हो गई है । हलाँकि अमूमन सर्दियों में मैं बहुत अच्छा महसूस करती हूँ , बरसों से । लगता है जैसे जीवन की शुरुआत ही हुई है अभी , सफर पूरा बाकी है और रास्ते के सब अजूबे बाकी हैं देखने को अभी ।

गहरे कोहरे में, रात को गाड़ी चलाते , फॉगलाईट की रौशनी टकरा कर वापस विंडस्क्रीन तक लौट आती है । और हज़ार छोटे कणों में छिटक जाती है । गाड़ी सड़क के किनारे खड़ी कर मैं साफ करती हूँ शीशा और किसी धुन में बना देती हूँ एक चेहरा , उसकी उठी भौंहों में जाने किस कौतुक का राज़ है । पानी और भाप की बून्दें मिलकर चेहरे को गडमड कर देती हैं , बनते बनाते मिटा देती हैं । सड़क के किनारे रद्दी कागज़ और कूट जलाते दो लोग लोई ओढ़े आग तापते देखते हैं मुझे । मेट्रो का काम चल रहा है । कुहासा थमे तो फिर शुरु होगा , वेल्डिंग से निकली चिंगारियाँ धूल में गिरकर विलीन होंगी , एक पल की नीली गर्मी का संकेत।

पर सर्दी इनको पसंद नहीं करती जैसे ये नहीं करते होंगे । गर्म कपड़े और साबुत घर जो रोक सके तेज़ बरछी ठंडी हवा को , हड्डियाँ जमती होंगी , बच्चों के नाक बहते होंगे , पैरों हाथों की उँगलियाँ अकड़ती होंगी । हमेशा ठिठुरता शरीर किधर खोजता होगा गर्मी ?

मौसम की पसंद भी स्थिति पर निर्भर करती है । ये बात अचानक मेरे दिमाग में धँसती मुझे ऐसा त्रास देती है । जो सहूलियतें सहज स्वाभाविक तरीके से मयस्सर होनी चाहियें वो कहाँ और क्यों गायब हो जाती हैं ?


तुम कुछ नहीं समझोगे । सिर्फ कहोगे , हँसना मना है और मैं कहूँगी , सुनो ये बाघ की आँख दिखती है तुम्हें ? मुझे दिखती है , क्यों दिखती है ?


( ये स्केच बहुत पहले बनाया था , कल कुछ आड़ी तिरछी लकीरें खींचते उन्हें इतना आड़ा तिरछा पाया कि अपने को रिमाईंड करने के लिये ये फिर से यहाँ चिपका रही हूँ )

12/18/2008

खुश होना इतनी बड़ी बात है क्या ?


"To take a photograph is to align the head, the eye and the heart. It's a way of life."





वो सपने में हमेशा मुस्कुराते दिखते हैं । तस्वीरों में नहीं ।

अच्छी तस्वीर लेना उम्दा ज़िंदगी जीने जैसा है दिल दिमाग और आँख सब एक सुर में..। वो सपने में ऐसे ही दिखते हैं । हँसते हुये भी नहीं , उदास भी नहीं और थोड़ा गहरे सोचने पर , शायद मुस्कुराते हुये भी नहीं ..
कुछ कुछ ऐसे जिनकी जड़ें ज़मीन में गहरी गईं हो और टहनियाँ आसमान तक । कुछ खुरदुरे रूखे , सख्त दरख्त , फिर भी कहीं सेमल से हल्के जो उनको जाने कहाँ कहाँ उठा देता है , किस आसमान तक । उनकी ली हुई तस्वीरों को देखती हूँ। कुछ उजाले और अँधकार के खेल हैं , आँखों में किसी नम उदासी को पकड़ लेने के पल हैं , वीरानी है , भयानक उदासी है , खुशी के क्षणों में भी चीरने वाली उदासी , रौशनी के आगे सिलुयेट ..छाया !

सपने में भी मद्धम सुर में संगीत बजता है । मार्था अर्गरीच शुबर्ट बजाती हैं । वो कहते हैं मुझे समझ नहीं शुबर्ट की । मैं हँसती हूँ , मुझे भी नहीं फिर बहुत उदास होती हूँ , बहुत । कितनी चीज़ें रह जायेंगी बिना समझ के ? इस एक ज़िंदगी में।

मैं ज़िद करती हूँ , मेरी एक भी तस्वीर क्यों नहीं ली ?
इसलिये कि तुम्हारे दिल और दिमाग के बीच गहरी खाई है ।
मैं कहती हूँ , ठीक , और सपने से बाहर निकल आती हूँ ।

वो सपने में हमेशा मुस्कुराते दिखते हैं । तस्वीरों में नहीं ।

मैं खुली नर्म घास पर चित्त लेटकर आसमान देखना चाहती हूँ । बड़ी चीज़ें छूट जायेंगी । छोटी चीज़ें पकड़ लेना चाहती हूँ । मैं तस्वीरों में भी मुस्कुराना चाहती हूँ । सचमुच भी , सचमुच भी । खुश होना इतनी बड़ी बात है क्या ?

(कार्तिये ब्रेसों की तस्वीर , उन्नीस सौ बत्तीस , मार्से )

12/13/2008

प्लेटफॉर्म पर


जाड़े की सर्द रात में खेस ओढ़े बूढ़ा नींद में चमक जाता है । सपसप हवा रात बहाती चलती है और रेल की सीटी कुहासा चीरती जाने कहाँ विलीन हो जाती है । मेरी नींद भी बीहड़ में भटकती कुनमुनाती है । कँधे पर कोई चिंता सवार है , क्या है ? नींद की बेहोशी में भूलता है सब फिर भी कहाँ छूटता है , किसी कसाईन स्वाद सा आत्मा में गहराता है । दिखता है सपने में खुद का कमज़ोर पड़ना , भीड़ में गुम होना ,चमकते शिखर पर अकेले खड़ा होना कहाँ दिखता है ?

कोई चील डैने फटकारती गोल गोल उड़ती है फिर अचानक झपट्टा मारती है । आँख खुलने पर दिखता है छाती पर कोई गोल सुराख , कोई उजली मुस्कान नहीं दिखती है ।

12/08/2008

इस समय का मैं नहीं..

सराय के आगे घुड़सवार रुकता है । घोड़े के मुँह से फेनिल झाग नीचे गिरे उसके पहले गर्द भरे चेहरे से उलटी हथेली थकान पोंछते, हारे गिरे कँधे को समेटता , अस्फुट बुदबुदाता है , इस समय का मैं नहीं , ये समय मेरा नहीं ..

भट्टी के आगे , सुलगते अंगारों पर कड़कड़ाते, हथेलियों से ताप उठाते , जोड़ती है , मन ही मन गुनती है , झुर्रियों के जाल में खोजती है सब सपने जो मर गये , अंगारों के फूल भरती छाती में , हुक्के के तल पर गुड़गाड़ाता है पानी , समय ? पीरागढ़ी का सराय इस वक्त भी खुला है , मुसाफिरों के लिये..

चौड़ी सड़क शहर का सीना चीरती है , बचपन में देखा कोई साई फी दृश्य हो । घुमावदार फ्लाईओवर्स , जगमगाती रौशनी के तले बंजरपने का गीत हो । घुड़सवार भौंचक है , देखता है , घोड़े की नाल बजती है , पीछे कोई गूबार नहीं छूटता ..

(नेकचन्द सैनी के रॉक गार्डेन में )

12/03/2008

आज के समय में सब भारमुक्त हैं ..


इतना चौकन्ना रहें ? इतना जितना दो हज़ार साल पहले थे , गुफाओं में ? जंगली नरभक्षी जानवरों की गुपचुप मारक पदचाप से ? उफनते नदी के पानी से ? बेकाबू , बेलगाम आग़ से ? चौकन्ने चौकन्ने , आतंकित ? सहमे ? फिर हमने डर काबू किया , जैसे आग किया , पानी की , तूफानी थपेड़े और कबीलाई हमले किये , प्यार नफरत और मृत्यु की , बीमारी की । हम विकसित हुये । चार पैरों से दो पैर वाले हुये , बड़े माथे से सारिक मस्तिष्क वाले सोचने समझने तौलने वाले बुद्धिमान हुये । जंगल से शहर , देहाती से नागरीय ..क्या क्या नहीं हुये सिर्फ चौकन्ने नहीं हुये ।

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फिर बम फूटे , आगजनी हुई , गोली चली । लोग मरे , पुरुष नारी बच्चे । गलत समय में गलत जगह ? या सही समय में सही जगह । हम बचे , वो मरे ..गनीमत गनीमत । जब कल वो बचेंगे , हम मरेंगे तब उनकी गनीमत । मन ऐसा ही सुन्न हुआ । न गुस्सा , न दुख , न क्षोभ न आक्रोश । ऐसे समय में जीना भी कोई जीना है ? ईश्वर ने हमारी प्रार्थना सुन ली , हमें बख्शा ..या ईश्वर ने हमारी सुन ली ..ऐसी दुनिया से निज़ात दिला दी ..


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चारों ओर किसी प्रहसन का अंतिम भाग खेला जा रहा है ..देख भई खेल, नौटंकी ? तमाशा ..बोल बोल कर गर्दन की नस रस्सी बनी है , कोई न सुने ..क्यों सुने भला ? बस इतना की चौकन्ने रहो , मुड़ मुड़ कर पीछे देखो , अँधियारी रातों में डर सींचों , बिलों में रेंग जाओ , तूफान की आशंका में जहाज़ छोड़ चलो , भागो भागो ..फिर भी चौकन्ने रहो । पुरखों का चौकन्नापन उनकी कब्रगाहों की मिट्टी से उठा ताबीज़ बनाओ ..सातवीं इन्द्रीय विकसित करो ..उस बिल्ली की तरह जो शिकार पर घात लगाये , दबे पाँव , सतर्क चाल हमला करती है ..


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हमारे शब्दकोश से चुन चुन कर उन शब्दों को खारिज़ कर दो जो किसी अन्य भाव को दर्शाते हैं । फिर देखा कि शब्दकोश कुछ आड़ी तिरछी रेखाओं का संकलन मात्र रह गया है ..किसी ने आदेश का पलन किया और सभी शब्दों पर सफेद रंग पोत दिया । अब गनीमत है ..किसी के पास कुछ भी व्यक्त करने को शब्द नहीं ..सब भारमुक्त है सब ..

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