9/30/2005

मेरे अंदर का जंगल

सुना था
कुछ ऐसे वृक्ष
होते हैं,जो
निगल जाते हैं
मनुष्य को समूचा

मेरे अंदर भी
उग आया है
एक पूरा जंगल
ऐसे वृक्षों का
सोख रहा है जो
धूप का हर एक कतरा

आँखों से जब कभी
खून के आँसू
ट्पकते हैं
तब पता चलता है
काँटों से बिंधा शरीर
और क्या उगल सकता है ?

एक कँटीली बाड
ओढ ली है मैने
कहीं ये जंगल
जो मेरे अंदर
पनप रहा है,
बाहर निकल कर
समेट न ले
मेरे आसपास की
दुनिया को भी
अपनी पुख्ता शाखों में

ये कँटीली बाड
इस जंगल को तो
रोक लेगी
बाहर अगने से
पर मैं ये भूल गई थी
कि बाहर की धूप भी तो
बहिष्कृत हो गई है
अंदर आने से

9/20/2005

सपनों की वह सोनचिरैया

मोर पँख से रंग सजे थे
नभ नीला भी गाता था
पलकों पर सपनों सा तिरता
एक ख्याल सो जाता था

नींद भटकती रात की गलियाँ
सूरज भोर जगाता था
अँधकार की चादर मोडे
दिवस काम को जाता था

तब मैं याद तुम्हारी लेकर
मन ही मन में गुनती थी
इंतज़ार के इक इक पल में
तेरी याद के मोती चुनती थी

सपनों की वह सोनचिरैया
छाती में दुबकी जाती थी
उसकी धडकन मुझसे मिलकर
बरबस मुझे रुलाती थी

सपनो की भर घूँट की प्याली
मन मलंग बन उडती थी
याद को तेरी फिर सिरहाने रख
चैन की नींद सो जाती थी

9/13/2005

बस यूँ ही

हर सुबह,
गर मय्यसर हो
एक चाय की प्याली,
तुम्हारा हँसता हुआ चेहरा
और एक ओस में भीगी
गुलाब की खिलती हुई कली

तो सुबह के
इन हसीन लम्हों में
मेरा पूरा दिन
मुकम्मल हो जाये
बस यूँ ही

9/08/2005

मल्लिकार्जुन मंसूर

उनकी आवाज़ गूँजती नहीं
धीरे से आकर
हल्के कदमों से,
कच्ची नींद में सोये शिशु को
ज्यों माँ ओढाती है, चादर
हौले से, कहीं जाग न जाये
वैसे ही
ढक देती है मन को......

पानी के सतह पर
धीरे से पैठ जाना
हर साँस पर
थोडा नीचे और,
जब तल पर पहुँचो
तो शरीर भर
खुशबूदार पानी
जहाँ फूलों की पँखुडियाँ
तैरती हैं......
उस निशब्द संसार में
एक तान
एक आलाप
सिर्फ आँख ही तो बन्द है
मन खुला है
विस्तार
अपरिमित

उस सुर के संसार में
खडा याचक
थोडा और माँगता है मन