12/31/2010

सोचें खुशी

रंग अक्रिलिक , नृत्यरत
शाम के उदास फीकेपन में
किसी गीत का बजना जैसे
ये सोचना कि
उदासी का रंग हर सिंगार क्यों है
उमगती खुशी क्यों नहीं
जैसे बच्ची हँसती है , अनार खाती है
उसके अनार से दाँत में फँसी हँसी हँसती है
कानों के पीछे खुँसा जबाकुसुम का फूल ढलकता है
कैलेंडर पर कतार में नीले हाथी चलते हैं
सूँड़ उठाये
रसोई से उठती है महक हींग की
और कहीं बाहर से आता है स्वर
रेडियो सीलोन का
रात के बारह बजे हम गले लगते हैं
और थक कर सोते हैं नींद में
सब सपनों को फिलहाल मुल्तवी करते
मुकेश का गीत कभी इतना मार्मिक
पहले नहीं लगा था जैसे इस वक्त
शाम की उदासी में लगता है
जबकि हम कहते रहे एक दूसरे को
खुश रहो खूब खुश रहो
जानते हुये कि ऐसा कहना
अपनी सब सद्भावना देना है लेकिन
खुशी निश्चित कर देना नहीं
फिर भी ऐसा कहना अपनी ओर से
कोई कमी नहीं छोड़ना है

कैलेंडर के हाथी मालूम नहीं इकतीस दिसंबर के बाद
कहाँ जायेंगे
मालूम नहीं अनारदाँत लड़की बड़ी हो कर
कितना दुख पायेगी
मालूम नहीं उदास गाने क्यों न हमेशा के लिये बैन कर दिये जायें
क्यों नहीं किसी भी चीज़ के खत्म होने के खिलाफ कड़े नियम बनाये जायें
क्यों नहीं तुम मेरा हाथ पकड़ कर भाईचारे में सूरज की तरफ उठे चेहरे
की खुशी के पोस्टर बनाओ
और ये न कहो कि कागज़ चारकोल से गंदे करो
जबकि मैं पानी के रंग की खुशी चाहूँ
जबकि मैं गाने बिना शब्द के गाऊँ
जबकि मैं आग में पकाऊँ बैंगन का भरता
और अपने लिये खरीदूँ नई किताबें
और कहूँ तुमसे , सुनो तुम को मेरी सब सद्भावना
और ये संगीत तुम्हारे लिये
और ये शब्द तुम्हारे लिये
और ये रंग तुम्हारे लिये
और चाहूँ कि तुम भी चाहो यही सब
मेरे लिये
यही सब सबके लिये
कि भीड़ में खड़े हम सब
आमने सामने खड़े गायें कोरस में
कि भाषा के पहले भी प्यार था भले वो
उस लड़की के दो चोटियों और मनुष्य के जानवरों की नकल में था
शायद खलिहान में लगे उस कनकौव्वे में या फिर उस पाजी की गुलेल में था
लोर्का की कविता और चवेला वार्गास के गीतों में था या फिर बाउलों की संगत में था
किसी फकीरी फक्कडपने का ठसक भरा राग था
या किसी बीहड़ महीनी का अंतरंग रंग था
जो था सब था
तुम्हारी आँखों के सामने जस था
रूठे बच्चे की आधी सिसकी था
किसी के भय का खट्टा स्वाद था
कहीं दूर सुदूर से आते साईबेरियन क्रेन सी उड़ान था
किसी टीवी चैनेल पर जोश उन्माद भरा बीच बहस
किसी जोकर का रसरंग था
इस चिरकुट सी दुनिया के भ्रष्ट अफसाने और
व्हाई इज़ लाईफ सो ब्लडी अनफेयर का रिफ्रेन था

सुनो अब भी , इतना सब होने पर भी हम कहते रहे
दॉन कियोते न बन पाये कोई साँचो पाँज़ा ही बन गये होते
क्यों हम कभी अल बेरुनी फहियेन या मार्को पोलो न बन सके
कभी सोचा कि अलेक्सांन्द्र या कोलम्बस होना क्या होना होता होगा
कि शब्दों की नौका पर सवार अटलांटिक ही घूम आयें ? या फिर
अफ्रीका की धूपनहाई धरती पर एक झँडा , न सही आर्कटिक
और ग्रीनलैंड , न सही एस्कीमो या ज़ुलु या फिर कोई मुंडा ओराँव भी चलता
किसी टोटेम की पूजा और पत्तों पर खाना , जँगल के जँगल
की पहचान
कितने प्रश्न हैं , लेकिन तुम कहते हो सोचा मत करो
मैं सोचती नहीं , न हरसिंगार न जबाकुसुम
मैं सोचती हूँ , खुशी
सोचने से मिलती है चीज़ें जैसे किसी साईंस फिक्शन या फंतासी साहित्य में
पढी  गई कहानी , जो हर होने को सँभव बनाती हैं
तो आज के दिन , जो कि हर किसी और दिन की तरह खास है
आओ हम मिलकर सोचें , खुशी
और सोचें उम्मीद
और सोचें , उस सोच को जो हर इन एहसासों को मूर्त करता है
जैसे बच्ची के चेहरे पर हँसती मैना
जैसे गाने का कोई भूला मुखड़ा
गोगां के पैलेट का कोई चहकता रंग
या फिर हमारी साझी हँसी का तरल संसार
इन टैंगो , ईवन इफ इट इज़ द लास्ट वन
क्योंकि इस विशाल विस्तृत संसार में सुनियोजित है
हमारा इस तरह कभी उदास होना और
कभी तरल , कभी कहना बहुत और सुनना और ज़्यादा
कभी तुम होना और कभी मैं
और हमेशा , अकेलेपन , तीव्र अकेलेपन के बावज़ूद
उड़ान लेना किसी पक्षी के जोड़े की तरह , इन टैंडेम
वाल्ट्ज़िंग इन द इनर स्काई
अपने भीतर के संगीत की संगत में
होना
ऐसे जैसे इस भरपूर संसार में खुद से बेहतर और कोई न हुआ
खिली धूप , नीले आसमान में सबसे सफेद
सबसे खूबसूरत परिन्दा

12/21/2010

स्टिल लाईफ

कुछ सिलसिलों में इधर चीन पर बहुत कुछ सामग्री पढ़ने देखने में गुज़री । यांगत्से पर एक डॉक्यूमेंटरी , फिर जिया ज़ांगकी  की स्टिल लाईफ । थ्री गॉर्जेस डैम पर बहुत सारे आलेख । नदी की कहानी , शहरों की कहानी , बाढ़ से विस्थापित लोगों की कहानी , चीनी सभ्यता की कहानी , उनका खान पान , इतिहास , संगीत .. बहुत कुछ । उतना सब जो चीन घूम आने के बावज़ूद नहीं दिखा था , नहीं देखा था ।
स्टिल लाईफ , दो लोगों के थ्री गॉर्जेस डैम की पृष्ठभूमि में अपने जीवन साथी की तलाश  की कहानी है , साथ ही कलाकार लियू ज़िअओदांग पर बनी वृत्त चित्र दान्ग साथ साथ चलती है ।

यांगत्से डॉक्यूमेंटरी एलेन पेरी ने बनाई है और फिल्म में ऐसे बहुत मौके हैं जब नदी की महिमा अपने पूरी गरिमा में दिखती है । नदी के किनारे रहने वाले लोग जिन्हें बाँध की वजह से विस्थापित किया गया , नदी में भयानक बाढ़ के दृश्य , चीनी सरकारी पक्ष , बाँध की वजह से होने वाले नुकसान और नफे की कहानियाँ , सरकारी भ्रष्टाचार के किस्से , उनके आँकड़े , आम आदमी की सोच , स्थानांतरित लोगों की तकलीफ , बहुत बड़े बड़े आँकड़े , पश्चिमी नज़रिया ..कहते हैं थ्री गॉर्जेस डैम इज़ अ मॉडेल फॉर डिज़ास्टर किसी सीसमिक फॉल्ट लाईन पर बना बाँध कभी भी भीषण विपदा का कारण बन सकता है । जैसे कैलीफोर्निया के सियेरा नेवाडा पहाड़ियों की तलहटी में बना ओर्वील डैम । या फिर जिसे कहते हैं रिज़रवायर इंडूस्ड सीस्मिसिटी । इतना जल कि उसके दबाव से भूकंप आ जाये ।

इन सब आँकड़ों की बौछार के परे यांगत्से और स्टिल लाईफ में हम वही दुनिया देखते हैं जो बहुत कुछ हमारी ही दुनिया है ।स्टिल लाईफ् का नायक हान सान मिंग पूरी फिल्म में एक बनियान में दिखता है । उसके चेहरे पर बिना किसी नाटक के अथाह दुख है । फिल्म के पात्र फुंगशी के विरान ढहते हुये शहर में बिना जड़ों के घूमते दिखते हैं । शहर बाँध बँधने की वजह से बाढ़ की प्रत्याशा में ध्वस्त किया जा रहा है । फिल्म मलबों के ढेर से गुज़रती , छोटे घरों के सफेद मटमैले चूने लगी दीवारों और काठ के दरवाज़ों से गुज़रती नदी तक पहुँचती है । ये दृश्य भारत के किसी भी छोटे शहर का हो सकता है , बिलासपुर , चक्रधरपुर , चाईबासा , कहीं का भी । और हान सान मिंग भी यहीं कहीं का हो सकता है । जिसके चेहरे के निर्विकार स्वरूप में तकलीफ को झेल लेने की असीम शक्ति दिखती है । फिल्म शेन हॉंग की कहानी भी है जो अपने दो साल से गायब पति की खोज में फुंगशी पहुँची है । ऊँचे पहाड़ और विशाल नदी की प्राकृतिक सुंदरता के बीच मनुष्य द्वारा बनाया ध्वस्त शहर के मलबे की विलोम दुनिया है , एक बच्चे का गीत है अपने बालपन की निर्दोष आवाज़ में , हान सान मिंग की पत्नी के भाई हैं जो उसके सामने पतली सी जगह में अड़से नूडल खाते हैं बिना उससे आग्रह किये हुये और हान है , वापस शाँग्सी लौटने के पहले साथियों में सिगरेट बाँटता , एक साथी हाथ जोड़ कर विनम्र मनाही करता है , शेन हॉंग अपने पति के कँधे से लग कर नदी के किनारे , डैम की पृष्ठभूमि में नृत्य करते फिर कुछ हैरत से अलग होते , हमेशा के लिये अलग होने और शहर के घरों की दीवारों पर अंकित जल स्तर की ग्राफिति कि यहाँ तक शहर जल प्लावित हो जायेगा ।
यांगत्से इन्हीं कहानियों को आँकड़ों और तर्क के साथ पेश करती है । किसी भी आधुनिक औध्योगिक परियोजना को बनाने में नैतिक , पर्यावरणीय , अर्थशास्त्रीय और राजनैतिक मूल्यों के इर्द गिर्द उसका निष्पक्ष आकलन कर लेना आसान नहीं होता ।

स्टिल लाईफ और यांग्त्से में जो दुनिया है वो हमारी दुनिया है , उतनी ही कंगाली और भुखमरी की दुनिया जबकि यूरोपियन सिनेमा में गरीबी भी हमारी नज़र में एक रूमानी गरीबी है जैसे ज़्यां द फ्लोरेत में जेरर्द देपारदियू वाईन पीते दुखी होता है कि इस मौसम अगर बरसात न हुई तो वो तबाह हो जायेगा । उसके कपड़े , जूते , हैट तक सलामत साबुत होते हैं , उनकी गरीबी में भी एक किस्म की डिगनिटी होती है । हनी अबु असद की पैराडाईज़ नाउ में भी सईद का घर , जिसे वो कहते हैं कि यहाँ रहने से मर जाना बेहतर है , नाब्लुस में रहना किसी जेल में रहने जैसा है , भी हमारे यहाँ किसी मध्यम वर्गीय रहन सहन जैसा दिखता है । मजीदी की सॉंग ऑफ स्परोज़ में भी ऐसी बदहाल गरीबी का आलम नहीं होता या फिर बरान में भी अथाह गरीबी के आलम में भी बरान के पैरों में जूते होते हैं । जबकि हमारे यहाँ गरीबी माने शरीर को सही तरीके से ढकने को कपड़ों का न होना , दो जून भोजन का न होना , मौसम की मार बचाने को सलामत घर का न होना ।अलग सभ्यताओं में गरीबी की परिभाषा भी अलग होती है ये समझना मुश्किल नहीं फिर भी किसी भोलेपन में इस फर्क को देख लेना हैरान करता है ।

ऐसी और कितनी फिल्में होंगी जो जाने कितनी अलग दुनिया के वितान बुन रही होंगी । जिया की फिल्म अपने दिखने के बाद छाती में उस संगीत की तरह धँस जाती है जो आपकी ज़ुबान पर अटका रहता है , आप चाहे उसे लाख भूलें कोई धुन आपके भीतर बजती है । हो सकता चीन पढ़ते पढ़ते उसकी दुनिया भीतर फैल गई हो , पिछले दिनों किसी तिब्बती मार्केट में सुना संगीत भी कहीं अपना लगा था , हो सकता है किताबें और सिनेमा आपके साथ यही खेल करती हों कि जो दुनिया अपनी न हो वही खूब खूब अपनी लगे , कि कोई बू सान या ली फेन किसी दिलीप हेम्बरम या राफेल तिग्गा जैसा अपना लगे , कि कोई चॉंगचिंग की गली में चाईबासा का रास्ता दिख जाये और यांग्त्से देखते ऋषिकेश के भी ऊपर चढ़ते गँगा की विशाल धारा की याद आये और यांगत्से में चलते नावों को देखते कोथाय पाबो तारे के मुर्शेद गाज़ी की याद आ जाये ।

सिनेमा लगभग एक कविता की तरह चलती है , धीरे धीरे , क्षय और पतन की कविता , उम्मीद और निराशा के बीच सहज मानवीय उष्मा का जनमना और लाख मुसीबतों के बावज़ूद ज़िंदगी किसी भरोसे के बल पर गरिमा से जी लेना ।  

किसी भी अच्छी किताब और अच्छी फिल्म की संगत आपके साथ यही करती है कि आप बहुत बाद तक एक गुफ्तगू में उसके साथ बँधे होते हैं जैसे किसी अंतरंग का साथ आपको अमीर करता है ठीक वैसे ही .. जैसे इस फिल्म के साथ या जैसे अभी खत्म की गई वाईनसबर्ग ओहायो पढ़कर पानी में धीमे बैठ जाने की अनुभूति हो , वैसे ।

11/24/2010

एक दिन माराकेश

सुग्गा कहता है लिखता हूँ किसी और दुनिया में रहता हूँ , कोई जीवन हो तो सुनाओ , लिख दूँगा उसे

मैं कहती हूँ जाओ जाओ किसी की जान अटकी है , हरी मिर्च खाओ और किसी और को बहलाओ

बहंगी वाला टेर लगाता है , चाहा , तीतर , बटेर , लाल्शेर , मुर्गाबी , बत्तख या फिर चूड़ी , बिन्दी, आलता, रिबन,

गर्दन टेढ़ी करते ऊँट अपने दाँत दिखाता है , सारे , कहता है , मेरी दुलकी चाल चलो तो एक दिन मराकेश पहुँच जाओगे

मैं कहती हूँ , जाऊँ भी तो माराकेश ? बस ?

सुग्गा टपक पड़ता है बीच में , नक्शे पर चोंच रखता है , भाग्य फल बाँचता हो जैसे , रेगिस्तान के बीच किसी नखलिस्तान का नाम ढूँढता है

मैं जिरह में फँसी हूँ खुद से , नीली नदी की रात में तारों को देखती , खोजती हूँ माराकेश , ठंडी हवा छूती है त्वचा , समंदर, समय, तुम्हें

हाथ बढ़ाये , आँखों पर काली पट्टी चढाये , एक पैर पर कूदती बच्ची हँसती है , झपक कर ताली बजाती है , मेरे खेल में कुछ भी सोचना मना है और सब कुछ लिख डालना वाजिब

काला कौव्वा, काग भुशुंडी, द वाईज़ ओल्ड मैन , द वाईज़ ओल्ड क्रो , गंभीर बुज़ुर्गियत में , धीमी गहरी आवाज़ में कहता है रात और कहता है दिन , कहता है एहसास और कहता है कहानी और अंत में कहता है नींद , और उसके बाद कहता है जाग

चुटकी बजाता ऊँट , अपने पीले खपड़े दाँत निपोरता ऊँट जाग जाता है और चल पड़ता है , पीछे सूरज का नारंगी गोला , रात की स्याही में डूबता है , कैलेंडर का वो पन्ना फड़फड़ाता है

नींद से जागती , उनींदी  देखती हूँ कागज़ पर सजे शब्द और खुश होती हूँ , कि लिखना प्यार करने जैसा होता है और प्यार किसी दिन माराकेश जाना होता है , नींद में सपने में एक समय में कई समय का होना होता है , तुम्हारे साथ कोई और हो जाना होता है , खुद के भीतर हज़ारों संसार का जनमना होता है , उम्मीद का भोलापन होता है और सुग्गे की चोंच में लाल मिर्च का होना होता है और बहुत सारी बकवास से रुबरू होना होता है , हर दिन कई बार

माराकेश में फिर एक नया दिन हुआ । ऊँट सवार  रेत के कण पोछता , रूमानी सपना दिखाता लौटता फिर सजता है कैलेन्डर में , कल फिर जायेगा किसी और देस किसी और के सपने का उड़ता पतंग बना

10/12/2010

नीम -बिस्मिल कई होंगे


असफुद्दौला तुम्हारे जूते की नोक पर किसका तस्मा फँसा है ? तस्मा ?

असफुद्दौला नीचे देखते हैं , वहाँ कुछ भी तो नहीं है, न तस्मा न जूता न पाँव । फिर ठठाकर हँसते हैं , अच्छा तस्मई और तासीर

बेग़ैरत बेवफा बे नियाज़

पीछे मेंहदी हसन गुनगुनाते हैं ,नमक घुली तासीर

नावक -अंदाज़ जिधर दीदा –ए -जानाँ होंगे
नीम -बिस्मिल कई होंगे कई बे -जाँ होंगे

आवाज़ की नमक घुल जाती है , त्वचा की ?

आज हम अपनी दुआओं का असर देखेंगे
तीरे नज़र देखेंगे , ज़ख्मे जिगर देखेंगे

तस्मे का एक रेशा फँसा है , एक केसर का । जीभ की नोक बार बार वहीं लौटती है कमबख्त

कहते हैं ये वही समय है जब धूप छिटकती है बदन पर , और स्याह सदा मन पर

असफुद्दौला धीमे बुदबुदाते हैं परिन्दा फ़ाख्ता , बदजात
पहाड़ा रटते हैं , हिज्जे ..आलिफ बे ते

शाम के समय ऐसे बदसगुन न उचारो .. धानी चूड़ियों की किरचें समेटती औरत उसाँस भरती है ।
कहती है हम तो सदा से ऐसे ही थे , ज़रा मक्कार ज़रा भोले , गर्मी के दिन में पानी के छपाके
सुरमई तसमई तासीर , ठंडी सर्द तासीर जैसे ठंडी आह के रसीले लजीले अफसाने

औरत झुकती सचमुच शरमाती है , नीम बिस्मिल कई होंगे ....


(बी प्रभा की पेंटिंग)

10/07/2010

क़िस्साये मुख्तसर

(पिछले  भाग से आगे )

वे


उनका शरीर एक दूसरे में बैठ गया था , जैसे ऐसा ही होने को बना था । उनकी साँस एक सुकून में , एक गर्माहट में एक साथ चलती थी । जैसे बस यही घर था । जैसे पँछी शाम को नीड़ में लौटता हो , जैसे खेलता बच्चा माँ की गोद में ढुलक कर निढाल शाँत सो जाता हो ऐसे सुकून में उनका शरीर एक दूसरे में लिपट गया था । उनकी त्वचा ऐसे टकराती थी जैसे अपनी ही त्वचा हो , वे दोनों एक थे , ऐसे एक थे जैसे साँस भी एक होकर निकलती थी , कि जो हवा उनके बीच थी वो भी उनकी बाँटी हुई थी , कि उनका शरीर , उनके अंग प्रत्यंग सब साझे अंग थे । जीभ के कोर पर जो अनुभूति थी , उँगलियों के नाखून पर जो स्पर्श था , नाक के नुकीले कोने पर जो थरथराहट थी वो दोनों से होकर गुज़रती थी , जो एक महसूस करता था वही दूसरा भी और इस महसूस करने में भी वो एक थे । उन्हें शब्दों की ज़रूरत नहीं थी । उनके बीच किसी पुल की ज़रूरत नहीं थी । ये कोई आवेग नहीं था .. बस था उनका यों इस तरह एक होना ।

...........................................................................................................

जे

पी के साँवले बदन पर मेरे आँसू कैसे फैल गये थे । मेरी उँगलियों के नीचे उसकी हड्डियाँ कोमल पिघलती थीं । मैं और वो नदी की तरह बह रहे थे । अगर इस वक्त वो कुछ भी पूछती कहती मैं टूट कर बिखर जाता । अपने पौरुष में टूट जाता । उसे मैं कैसे बताता कि बस यही एकमात्र सच है । कैसे बताता कि मेरे सब शब्द बेकार हैं , कि सिर्फ वो है सिर्फ वो .. उसकी छाती पर पर मैंने अपनी उँगली से अपना नाम लिखा है ..कैसे बताता .. ...............................................................................................................

पी
उसके बदन में सिमटी हुई मैं हिलग रही थी । मेरे आँखों के कोने से मेरा प्यार बह रहा था । अपनी उँगलियों से उसकी छाती पर मैं उसका नाम लिख रही थी । उसे कुछ नहीं पता ,कुछ भी तो नहीं ..

.......................................................................................................

पी


आज उसने मेरे आधे स्केचेज़ लौटा दिये ।

नहीं ये उस मूड से बिलकुल अलहदा है जैसी मैं चाहता था

मैं बहस कर रही थी । वो मान नहीं रहा था । मैं गुस्से में निकल आई थी ।

बहुत देर तक सड़क पर निष्प्रयोजन चलती रही थी । शाम उतर रही थी । सड़क के दोनों ओर बत्तियाँ जगमगाने लगीं थीं । मुझे एक दूसरा अस्साईनमेंट मिला था जिसे छोड़ना नहीं चाहती थी । जे की किताब का काम खत्म होता तो इस पर शुरु करती लेकिन जे की किताब खत्म होने को दिखती नहीं लग रही थी ।

अभी तक जे ने कभी मेरी तारीफ नहीं की । बुरा नहीं है ये हाँ , इससे ज़्यादा उसने कभी कुछ कहा नहीं । और मैं जो इसकी आदी थी कि लोग सुपरलेटिव्स इस्तेमाल करते मेरे इलस्ट्रेशंज़ की .. मैं जे से ... व्हाई शुड आई टेक दिस शिट फॉम हिम ? व्हाई ?

डॉक्टर सूस की ग्रीन एग्स ऐंड हैम याद करो ..मे विल्सन प्रेस्टन के स्केचेज़ याद करो.. चार्ल्स डाना गिब्सन कुछ देखा है तुमने ? सीखो सीखो पी .. अपने को अलग हटा कर देखो .. कीप यॉर आईज़ ओपेन , वाईडेन यॉर सेन्सिबिलिटीज़


जॉन शेली के ब्लैक व्हाईट चिल्रेंस इल्लस्ट्रेशन देखे ? ये देखो .. किसी दराज़ से तुरत कोई फोलियो निकाल कर जे मेरी तरफ बढ़ाता .. ये देखो ..उसकी उँगलियाँ किसी दो चोटी वाली डस्टबिन उठाये हैरान लड़की , किसी गोल चश्मे वाले लड़के या किसी औरत के पीछे कटखने कुत्ते पर प्यार से फिरतीं ...

देखो ज़रा सी उठी भौं , ये देखो ये गोल होंठ ? एक्सप्रेशंज़ देखो .. एक पेन स्ट्रोक से ..बस एक पेन स्ट्रोक ..

जे की आवाज़ किसी अव्यक्त पैशन से गहरी हो जाती । मैं गुस्से से निकल कर उसकी आवाज़ के रौ इंटेंसिटी पर सवार ऐसी दुनिया में पहुँच जाती जहाँ अपनी सीमायें पार की जा सकती थीं ।

अपने में विश्वास रखो पी .. किसी के भी कहने पर मत जाओ

तुम्हारे भी ?

हाँ , मेरे भी .. उसका चेहरा संयत और आवाज़ शाँत होती


पार्क के बेंच पर बैठी मैं कुछ भी नहीं सोच रही थी । कल रात देखी वॉंग कार वाई की चुंगकिंग एक्स्प्रेस सोच रही थी । फे वॉंग की विस्फरित आँखों से झलकते प्यार की सोच रही थी । उस पुलिस वाले की सोच रही थी जिसकी दोस्त उसे छोड़ जाती है और वो दर्जनों टिन पाईन ऐप्ल्स खा जाता है । पाईन ऐपल टिन के एक्सपायरी डेट की तरह उसका प्यार भी एक्सपायरी डेट के साथ आया था ।


मैं सोचती हूँ केतकी ने क्यों छोड़ दिया जे को , या जे ने उसे ? केतकी का दिलकश चेहरा याद आता है । कैसे कोई उसे छोड़ सकता है , कैसे ? मैं याद करना चाहती हूँ एक एक बात जो जे ने बताया था केतकी के बारे में .. बुनना चाहती हूँ उन शब्दों और वाक्यों से कोई ऐसी चादर जिसे बिछाकर मैं देख लूँ कि उस पर लेटे दोनों कैसे लगते हैं , क्या बातें करते हैं ? उनके बीच क्या दिखता है ? प्यार जो खत्म हुआ ? प्यार जो स्वार्थ में बदल गया ? क्या क्या क्या ?

या जैसे मैंने नीश को जाने दिया बिना तकलीफ के ..सिर्फ ये जान लिया था कि ऐसा ही सही है और इस जानने में सिर्फ एक आदत का छूटना है बस , कि अब साँस छोटी लेनी है अब लम्बी गहरी । नीश और उसके बाद सुजोय । पर सुजोय के साथ तो कोई बँधन नहीं था । कोई कमिटमेंट भी नहीं । हम सिर्फ तूफान में बहते दो समुद्री जहाज़ थे , कुछ देर के लिये साथ चले थे , अपनी रौशनी की गर्माहट का सुकून दिया था , इस बात का सुकून दिया था कि और कोई भी है , बस ।

ओह ! जे .. बताओ मुझे ..कुछ भी ..


घर लौटते मैं अकेली थी एकदम अकेली ।

............................................................................................................

जे

उसका चेहरा उसके भावों को दर्शाता है । के जैसे नहीं कि पता ही न चले कि क्या महसूस कर रही है । प्यार के अंतरंग पलों के चरम पर भी भावहीन ।

पी तुम्हारे आँसू का खारापन अब भी ज़ुबान की नोक पर चरपराता है । जब तुम नाराज़ होती हो , तुम्हारा साँवला चेहरा दहकता है । जब उदास होती हो , होंठों के कोने गिर जाते हैं । पी , मैं तुम्हें नाराज़ देख सकता हूँ , उदास नहीं ।

तुम किसी चोट खाये हिरण की तरह इधर उधर भागती हो , मैं सब्र से तुम्हारा इंतज़ार करता हूँ , तुम आती नहीं मेरे पास ।


किताबों की सफाई करता हूँ । एक एक किताब प्यार से पोछता हूँ । ये स्टाईनबेक , के ने दिया था । ये कल्विनो मैंने उसे दिया था जो वो छोड़ गई । ये ब्रोदेल हमने साथ साथ खरीदा था । कुछ ग्राफिक नॉवेल्स हैं जिनके तर्ज़ पर कुछ बनाने की सोची थी कभी । के ने तंज़ किया था , तुम सिर्फ हवाई उपन्यास लिखो , सच में लिखना , ग्राफिक्स बनाना तुम्हारे बस का नहीं । मैंने गुस्से में उसके हाथ से क्रैग थॉमसन छीना था , किताब के साथ उसकी पतली वॉयल की कमीज़ भी फटकर मेरे हाथ आ गई थी । मेरे अंदर एक दूसरा उन्माद पनपा था । मैंने खींचा था उसे अपनी तरफ । ऐसे वहशी प्यार में उसे मज़ा मिलता था । ऐसे वहशी प्यार के बाद मुझे शर्मिंदगी महसूस होती थी ।

मेरे अंदर का आदमी ज़रा ज़रा मर जाता था । के के साथ रहना अपने अंदर के आदमी को शनै: शनै: मरते देखना था । मैं मरना नहीं चाहता था , मैं अपनी पूरे आदमियत में जीना चाहता था ।

पी ..मुझे फोन करो ..मैं इंतज़ार कर रहा हूँ । मैं पहल कर तुम्हें दूर कर दूँगा क्या ? मैं तुम्हें पोज़ेस करके मारना नहीं चाहता , मैं तुम्हें उड़ते देखना चाहता हूँ ।

रात तीन बजे तक जगा रहा । किसी सेमिनार की तैयारी करनी थी नहीं की । पिछले दराज़ से स्टेडलर लुमोग्राफ पेंसिल्स निकाले , चारकोल निकाला , कुछ पीले पड़े हैंडमेड कागज़ निकाले । आड़े तिरछे लकीरें खींचता हाथ साधता रहा । लेटी हुई औरत के बदन की तस्वीर बनाई , पीछे से उसके रीढ़ की हड्डियों की लम्बी गहरी लाईन खींची , उसके नितम्ब के गोलाई के मादक कर्व को एक सधे हाथ बहते हुये रेखा में खींचते रुक गया ।

नीना सिमोन आई वॉंट सम शुगर इन माई बोल गा रही थी । उसकी आवाज़ की थरथराहट मुझे अंदर से भिगा रही थी । ब्लू ब्लूज़ !


इस माया का अंत कहाँ है आखिर ?

...............................................................................................................

पी

तीन दिन हुये । उसने फोन नहीं किया , न मिलने आया । मैं हवा में टँगी हूँ ।

अंदर ही अंदर कुछ रिसता है , छाती के अंदर , शिराओं में , नब्ज़ के भीतर , त्वचा के भीतरी सतह पर । बारिश होती है लगातार । मैं काम में जी लगाना चाहती हूँ । सब स्केचेज़ आड़े तिरछे बनते हैं । बालों में खूब सारा तेल लगाकर पीछे समेट कर बाँध लेती हूँ । अपने आप को भी कस कर समेट लेना चाहती हूँ । नहीं मैं फोन नहीं करूँगी । अगले ही पल हाथ फोन पर जाता है । सोचती हूँ ऐसे बेकार छलना का ऐसे वाहियात इगो का क्या करना । क्या करना जब इतना जीवन निकल गया , और भी ऐसे ही क्यों निकालना । सोचा था कि उम्र बढ़ती है तो साथ साथ मन बढ़ता है । अब पाती हूँ कि उम्र बढ़ती है मन घटता है । मान मनौव्वल में समय ज़ाया करना बेवकूफी है ।

मुझे पता नहीं उसकी खोज मेरे लिये है या नहीं । मैं एकबार उससे पूछना चाहती हूँ , मुझे खोजोगे ?

मेरे पूछने में और उसके खोजने में इतना फासला क्यों है ? कागज़ निकालकर पेन से कुछ लाईंस घसीटती हूँ .....

मैं चिलकती धूप में और तड़तड़ाते माईग्रेन के नशे में तुम्हारी कमीज़ के पॉकेट में खुद को नहीं भर पाने की स्थिति में कुछ और भर रही थी , खुद को झुठला रही थी , फिर भी बार बार फरेब खा रही थी । तुम किसी गुस्से के झोंक में औंधाये पड़े थे , आईने में खुद को देखते खड़े थे । तुम्हें मनाना था लेकिन हर बार की तरह थकहार कर मैं मना रही थी , लाचारी में खुद को गला रही थी , अपनी तकलीफ का हार बना रही थी । तुम्हारे तने रहने में कहीं खुद को छोटा बना रही थी । भीड़ का हिस्सा होते हुये भी भीड़ से अलग खड़ी थी , देखती थी तुम्हें धीरे धीरे भीड़ में गुम होते और तुम इतना तक नहीं देखते कि मैं अब भी भीड़ से अलग तुम्हें देखते खड़ी हूँ...

मैं चाहती हूँ गुम हो जाऊँ , आसमान ज़मीन में खो जाऊँ , सोचती हूँ कहूँ हद है ऐसी नाराजगी ? फोन उठाऊँ और तुम्हारी नाराज़गी पर नाराज़ होऊँ , फिर याद आता है , कुछ याद आता है और बढ़ा हाथ खिंच जाता है । मैं चाहती हूँ ऐसे गुम हो जाऊँ कि तुम खोजो फिर खोजते रहो । मैं चाहती हूँ तुम्हारी खोज तक गुम रहूँ । पर तुम्हारी खोज कब शुरु होगी ये पूछना चाहती हूँ । मैं चाहती हूँ ..कितना कुछ तो चाहती हूँ । फिर मैं फोन उठाती हूँ .. गुमने और खोजने के अंतराल में अब भी बहुत फासला दिखता है ..

किसी वक्त रात के नशे में कोई आवाज़ बोलती है । कहीं बारिश होती है । यहाँ सिर्फ गरम हवा चलती है । जब बारिश होती है तब भी कुछ भीगता नहीं क्योंकि गरम हवा चलती है । रात में भी धूप चिलकती है । किसी दरवाज़े के बाहर कोई कब तक रहे , कब तक ?

..................................................................................................................

वे

कल पढ़ा था उसने साईनाथ का एक चैप्टर , एक इस्ताम्बुल का और ब्रोदेल के कुछ पन्ने , किसी से चर्चा की थी पन्द्रहवीं से अठारवीं सदी में योरप और उसने कहा था आठवीं सदी का भारत , और चर्चा की थी रोमिला थापर और कुछ देर योग साधना की , फिर देखी थी रात में एक्स्ट्रा टेरेस्ट्रियल्स पर एक फिल्म , शायद एम नाईट श्यामलन की और खोजते रहे थे कोई इंडियन कनेक्शन । और इन सब के पीछे घूमती रही थी सिर्फ एक बात ..आखिर इस दिन का ..इन दिनों का अर्थ क्या है ? ठंडी पड़ी कॉफी के प्याले को परे सरकाते अब भी वो सोचते हैं ..इतना क्यों सोचते हैं पर बाहर अब भी चिलकती धूप ही है ..कोई समन्दर क्यों नहीं है ?

(जारी...)
 
(ऊपर फोटो पिछले साल इंटरलाकेन से लौटते हुये ली हुई  )

10/01/2010

चलो जी क़िस्सा मुख्तसर

 पी

कोई ताला था जिसकी चाभी बस मेरे पास थी । नीम अँधेरी रातों में अपने भीतर की गर्माहट में उतर कर देखा था मैंने ..ठंड से सिहरते किसी ऐसी अनजान लड़की को बाँहों में भरकर ताप दिया था और फिर पाया था , अरे इसकी शकल तो हू बहू मेरी है । उसके चेहरे को हथेलियों में भरकर कितने प्यार से उसके भौंहों को चूमा था । उस हमशकल की आँखें कैसी मुन्द गई थीं सुख से । उसके नीले पड़े होंठ पर जमी बर्फ पिघल रही थी । किसी ने कहा था न कभी कि ऑर्किड के फूल पास रखो तो उम्र बढ़ती है ..बस ऐसे ही उसके नीले ऑर्किड होंठ अपने पास , अपने होंठों पर रखने हैं । अचानक खूब लम्बी उम्र हो ऐसी इच्छा फन काढ़ती है ।

पीछे से कोई अपनी उँगलियों से गर्दन सहलाता है । ठीक बाल के नीचे का हिस्सा । एहसास के रोंये हवा में लहराते झूमते हैं । फिर ऐसी झूम नीन्द आती है कि बस ।

...............................................................................................................

वे

आजकल उसने पाया है कि हर रात सपने आते हैं । जब से उससे मिली है तबसे । उससे मिलना भी क्या मिलना था । किसी बिज़ी ट्राफिक सिग्नल पर अगल बगल दो गाड़ियों के चालक , शीशे के आरपार एक दूसरे को पलभर नाप लें । काले चश्मे और सॉल्ट पेपर दाढ़ी में अटकी आँख एक बार फिर देख ले । उसके चेहरे पर कोई भाव नहीं था । क्षण भर को अपना चेहरा मुस्कान में खिंचता सर्द होता है इस भावहीनता पर । रात वॉशबेसिन पर दिनभर की गर्द धोते शीशे में नज़र जाती है । उसकी आँखों से देखती हैं होंठों की बुनावट जब मुस्कान इतनी फिर इतनी फिर इतनी होती है । क्या दिखा होगा कि उसने कुछ नहीं देखा ..कुछ भी नहीं देखा ।

उसने कुछ अस्फुट मंत्र बुदबुदाये थे । अब मैं तुम्हारे सपने में मिलूँगी । उन नीली कुहासे ढँक़ी पहाड़ियों की तराई में , नीले हाथियों के झुंड के पीछे किसी पत्तों भरी टहनी से ज़मीन बुहारते तुम्हारे पदचिन्ह खोज लूँगी ।

...............................................................................................................

जे

गाड़ी के शीशे के पार गीयर न्यूट्रल करते बेपरवाही से मुड़ा था । उसका साफ शफ्फाक चेहरा और पीछे समेटे सारे बाल में खिलता उगा चेहरा अचानक एक मुस्कुराहट से भीग गया था । जबतक उसकी मुस्कान को मैं छूता पकड़ता गाड़ी आगे बढ़ गई थी । मेरे बाँह पर के रोंये अचानक खड़े हो गये थे । स्टीरियो पर लियोनार्दो कोहेन ‘ डांस मी टू द एन्ड ऑफ लव ‘ , गा रहा था ।

मेरे पिछले चार सालों का अकेलापन हरे हाथी घास की तरह बेतरतीब बाढ़ में बढ़ आया । रात देर रात अकेला बैठा जार्मुश की कॉफी ऐंड सिगरेट देखता रहा ..सिगरेट का धूँआ पीता रहा , ब्लू वोदका कटग्लास के भीतर छलकता रहा । अल्फ्रेड मोलिना का चेहरा मुझे खींच रहा था । बार बार रिवाईंड करके ‘कजंस” वाला हिस्सा देख रहा था ।

बड़े दिनों बाद के की तस्वीर देखने की इच्छा हुई । खोजता रहा । आखिर गिंज़बर्ग के पीछे और निकी जोवान्नी के आगे धूल से अटा मिला ।किसी नशे की बहक में फ्रेम को झाड़ पोछ कर सामने रखा । जार्मुश की ब्लैक ऐंड व्हाईट फ्रेम्स की सफाई , उनका लय , क्लियर बोल्ड स्ट्रोक्स ... । मन उसी सुर पर घूम रहा था । उस रात कई दिनों बाद , कई कई दिनों बाद के मेरे साथ थी । अपने देह के साथ मेरे साथ थी । उसके जंगली घुँघराले बालों की महक और उनका कड़ा स्पर्श मेरे हाथों में था । उसका शरीर मेरे शरीर से लिपटा था । नीले अँधेरे में उसके पेट के नीचे नाभि के फूल पर मेरे होंठ गीत गा रहे थे । एल्ला फिट्ज़ेराल्ड की ‘आई गॉट अ फीलिंग आ ऐम फॉलिन “ ।

उसके बदन की रेखायें लम्बी और नाज़ुक थीं , मेरे पोरों के नीचे दहकती हुई । उसका अनावृत शरीर सहज नैसर्गिक था जैसे मेरा प्रेम , मेरा उसको बाँहों में जकड़ लेना , किसी पागल उन्माद के हवाले खुद को कर देना , उस धीमे नृत्य का किसी छाती धौंकते कगार से उन्मत्त गिरने का विराट विशाल खेल । जार्मुश के फिल्म की तरह ब्लैक ऐंड व्हाईट में कोई सांगीतिक चित्रकारी ।

इन चार सालों के बाद अब भी के मेरे साथ थी । मेरे मुँह में सुबह हैंगओवर का खट्टा बासी स्वाद था ।

................................................................................................................................

पी


दिन में बड़ी मेज़ पर पोस्टर्स और कागज़ फैलाये मैं धूप पीती हूँ । बारीक महीन इलस्ट्रेशंज़ । मेरे पास दो महीने का समय है । उसके मन्यूस्क्रिप्ट के शब्दों को मैं जीभ पर घुलते महसूस करती हूँ । हर शब्द के अर्थ तीन चार । तलाशती हूँ गुप्त संकेत । शब्दों और वाक्यों के ऊपरी मायने के भीतर बहती नदी जो सिर्फ मेरे लिये कही गई है । उन अर्थों के संदर्भ खोजती हूँ ।

उस दिन मैंने कहा था जाना चाहती हूँ कहीं अज़रबैजान ,या पेरू या फिर काहिरा की किन्हीं तंग गलियों में ।

उस दिन उसने लिखा था उस लड़की की कहानी जो कहीं नहीं जाती , जो सिर्फ पूरा जीवन एक जगह बिताती है ।

फिर कहा था मैंने , छिटके हुये धूप में उदास रंग और उदास क्यों लगते हैं ?

उस दिन उसने लिखा था .. रंग रंग होते हैं । वॉन गॉग के उस कमरे की बात की थी जहाँ रंग चटक धूप से खिलते थे किसी ख्वाब में ।

फिर उसने कहा था , सुनो मैं के से ज़रा ज़रा नफरत करता हूँ ।

और मैंने सुना था , सुनो मैं के को अब भी नहीं भूल पाया हूँ ।

फिर उसने कहा था ये इलस्ट्र्शंज़ अगर सही न बने मैं इन्हें फेंक दूँगा ।

मैंने कहा था जहन्नुम में जाओ ।

शाम को उसने फोन किया था ।

मैंने पूछा था , कहाँ ?

उसने कहा था वहीं जहाँ तुमने मुझे भेजा था .. जहन्नुम में ।

उसके आवाज़ की हँसी मुझे लहका गई थी । उसने फोन रख दिया था । मैंने फोन बहुत देर तक नहीं रखा था । उस दिन मैंने ढेर सारे स्केचेज़ बनाये थे । हैरान भौंचक लड़के की , एक कतार में तालाब के किनारे चलते बत्तखों की , जंगल के छोर पर एक अकेले घर की , मूड़ी निकाले कछुये की , दौड़ते चूहों की और अंत में दो आँखें बस । मेरी उँगलियाँ तड़क रही थीं । रात के बारह बजते थे । मैंने उसे फोन किया था ..

सुनो आ जाओ ।

उसने कहा , क्यों ? मैंने कहा, इसलिये कि मेरी गर्दन दुखती है , मेरी पीठ अकड़ती है , आ जाओ ।

मेरी आवाज़ की अकड़ खत्म हो गई थी । उसने फोन रख दिया था । मैं सो गई थी ..थकी नींद में ।

................................................................................................................................

वे

दिन में वो पाँच बार मिलते थे । गिनकर पाँच बार । और पता नहीं कितनी बार फोन करते थे । वो ब्यालिस साल का नामचीन होने की राह का लेखक था , ये नामचीन होने की राह पर अड़तीस साल की इल्सट्रेटर थी , पेंटर थी । कवितायें लिखती थी अंग्रेज़ी की महीन पैशनेट दिल तोड़ने वाली जंगली आग सी कवितायें । वो पढ़ाता था , थियेटर करता था । कभी पेंट किया करता था , मिनिमलस्टिक , सफेद और काले । अब सारे पेंटिंग्स कहीं ऐटिक में धूल खाते हैं । ये पीछे दो टूटे सम्बन्ध छोड़ आई थी । वो एक पत्नी और जाने कितने दिल छोड़ आया था ।

................................................................................................................................

पी

जब उसने पूछा था उससे , बस ऐसे ही

सो ओ गी मेरे साथ ? मैंने क्यों उसे उसी वक्त थप्पड़ नहीं मार दिया ? क्यों उसी वक्त उसका मन्यूस्क्रिप्ट उसके मुँह पर नहीं फेंक दिया ? क्यों नहीं दुनिया को सर पर उठा लिया ?

क्यों चुपचाप सारे कागज़ फोल्डर में समेट कर उठ आई । क्यों इंतज़ार किया कि फिर से ऐसी बात वो कहे । क्यों रात को सालों सालों बाद किसी के शरीर को अपने शरीर के साथ सोच कर रोमाँच हुआ । क्यों उसका चेहरा अपने चेहरे पर झुका हो सोचते ही शिद्दत से तलब हुई कि बस अभी , अभी अभी अभी .. ऐसा हो जाये
 ................................................................................................................................

जे

मैं उसके साथ सोना तक नहीं चाहता था । मैं सिर्फ के के साथ सोना चाहता था अब भी । मैं सिर्फ उसकी शकल देखना चाहता था उसे ऐसा सुनते हुये । मैं सिर्फ के को देखना चाहता था । मैं के को बिलकुल बिलकुल नहीं देखना चाहता था । मैं उसे देख रहा था । मुझे लगा था कि अब वो तमक कर मेरे चेहरे पर सारे स्केचेज़ फेंक मारेगी । मैंने सिगरेट हथेलियों की ओट लेकर सुलगाया

और कहा

तीन दिन बाद , तीन दिन हाँ , और मुझे पहले लॉट वाले स्केचेज़ चाहियें ।

मैं उसे जाते देख रहा था । और मुझे उसे ऐसे ठंडे प्रतिक्रिया विहीन जाते देख कर नफरत हुई थी उससे । उस दिन ढेरों काम थे , भागा दौड़ी थी , कमसे कम सौ किलोमीटर ड्राईव किया था , दफ्तरों के चक्कर काटे थे , किसी से उलझा था । इन सब के बीच उस नफरत को मुट्ठी में दबाये घूमा था मैं सारे दिन । शाम को पुराने साथी पलाश का फोन आया था । तुम्हें पता है ? के इज़ इन टाउन । अच्छा ! गुड । अपनी ठंडी आवाज़ पर मुझे हैरानी हुई थी ।

....................................................................................................

पी

उसने बताया के शहर में है । मैंने उसके चेहरे को टटोलने की कोशिश की । उसकी आवाज़ को पकड़ने की कोशिश की ।

मिलने जाओगे ? मेरी आवाज़ संयत थी । कसे तार जैसी ।

देखेंगे ।

उसकी आवाज़ में लापरवाही थी । मुझे चौकन्नापन दिखा , लापरवाही की कोशिश की सतर्कता दिखी ।

...........................................................................................................

जे


के बहुत बदल गई थी । बहुत । उसका चेहरा दमक रहा था । उसने अपने बाल एकदम छोटे करा रखे थे । पिक्सी लुक । सिगरेट पीते उसकी दुबली कलाईयों की हड्डी इतनी नाज़ुक और सुबुक लग रही थी । जाने कितनी बार उसकी इन कलाईयों को अपनी हथेलियों की गोलाई में जकड़ा था । अब छू भी नहीं सकता । अजीब । के क्या उन अंतरग क्षणों को सोच रही होगी ? मेरा शरीर उसे याद होगा ? मैंने एक ठंडी जिज्ञासा से सोचा ।
के


अब तक भी ..इस पर कुछ भी नहीं बीता । मैं थी साथ , मैं न थी साथ , अभी इतने साल बाद हम बैठे हैं साथ .. लेकिन इसके चेहरे पर कुछ नहीं ..कुछ भी नहीं । अपने काले चश्मे और साफ माथे में अपनी भूरी सफेद दाढ़ी में .. ओह ही इज़ स्टिल अ हैंडसम ब्रूट , हार्टलेस ऐंड हैंडसम । सिर्फ एक कॉफी बस । उसकी छाती के बाल हवा में ज़रा सा हिलते हैं । मैं अगर अपनी उँगलियाँ बढ़ाकर सहला लूँ एक बार , जैसे प्यार करने के बाद हर बार ...

मैं बैग से सेल फोन निकालती हूँ । किसी का फोन आया है । जय मुझे बात करते देखता है । उसके चेहरे पर एक मुस्कान है । कुछ कुछ उस तरह की मुस्कान जैसे वो किसी चहेते एडिटर या पब्लिशर को देता जो उसकी कहानी , किताब छाप रहा हो ।

जय के साथ रहकर हमेशा ऐसा ही महसूस किया । जैसे मेरी रौशनी पर उसका अँधेरा भारी पड़ता हो ।

मैं उसे अपनी किताब दिखाती हूँ । बच्चों के लिये लिखी किताब । मेरी तीसरी किताब । किताब के कवर पर बकटूथ खरगोश किसी छिले घुटनों वाले , गिरे बालों वाले छोकरे की पीठ पर सवार था । छोकरे के सिर पर एक लम्बी चोंचवाला तोता और कमीज़ की पॉकेट से शैतान गिलहरी झाँकती थी । महीन बारीक रेखाओं की डीटेल्स वाला शानदार स्केच ।

..........................................................................................................

जे

उसकी किताब मोहक थी । बढ़िया कवर , चमकदार कागज़ , सुन्दर छपाई । मैंने किताब हाथ में ली । किताब का कवर इलस्ट्रेशन उम्दा था , बेहद । इन रेखाओं को मैं पहचानता था । उनके एक एक पेंसिल स्ट्रोक और ब्लैक पेन की शेडिंग मेरी अपनी थी । मेरी छाती में एक दुख सवार हो गया ।

के हँस रही थी । अपने पब्लिशर के सनकपने के किस्से सुना रही थी , आईरिश कॉफी के घूँट भर रही थी । बगल की मेज़ का लड़का उसे ताक रहा था । के इस बात से लापरवाह थी । इसी लापरवाही में उसकी खूबसूरती छुपी थी । पुराने दिनों हम कहीं जाते और लोग उसको देखते , मुझे कहीं अच्छा लगता । अब भी कहीं अच्छा ही लग रहा था । उसपर अचानक एक उद्दात्त प्यार उमड़ा ।

के , तुम बिलकुल नहीं बदली

लेकिन तुम बदल गये , उसकी आवाज़ अचानक कोई सीक्रेट शेयर करने वाली फुसफुसाहट में बदल गई ।

अच्छा ! मैंने भी फुसफुसाकर जवाब दिया ।

फिर मुझे याद आया पलाश ने कहा था , के आजकल किसी रिकार्दो अयेर्ज़ा नाम के लातिन अमरीकी के साथ है । कुछ बिज़नेस है उसका , कुछ पब्लिशिंग हाउस भी चलाता है , पैसे वाला है । के को हमेशा खूब पैसे चाहिये होते थे ।

उसकी नाज़ुक उँगलियों में हीरे जगमगा रहे हैं । के वाज़ अल्वेज़ वेरी अम्बिशियस । अम्बिशियस तो मैं भी था । अब भी हूँ ।

अफसोस बदले में मैं तुम्हें अपनी किताब नहीं दे सकता । मैं कुछ घटिया मज़ाक करना चाहता था ..कुछ अमेज़िंग विट का नगीना पेश करना चाहता था ।

मैंने तुम्हारी किताब के रिव्यूज़ पढ़े थे । यू हैव ज्वायन्ड द लीग । के की आवाज़ में एक नकली उत्साह था ।

शायद लेकिन के , अब मैं निकलता हूँ ..फिर मिलते हैं । उसकी किताब मैं काँख में दबाये निकल आया था ।

...............................................................................................................


पी

उसका फोन तीन बार आया और मैंने तीनों बार नहीं उठाया । आज कई दिन बाद माया मिली थी ।

क्या करती रही हो इन दिनों ? उसने पूछा था । एक किताब का कवर और अंदर के स्केचेज़ बना रही हूँ ।

किसकी ?

मैंने भरसक आवाज़ को सपाट बनाते हुये जे का नाम लिया ।

यू बी केयरफुल हाँ

मतलब ? मेरी आवाज़ अब भी सपाट बनी रही । तुम्हें पता है उसकी बीवी ने उसकी पहली किताब में उसकी बहुत मदद की थी ।

क्या ? के ने ? माया की भौंह ऊपर उठी थी .. अच्छा वो उसे के बुलाता है । पर के तो कोई .. मैं चुप हो गई थी । सच मुझे तो बिलकुल नहीं पता था कि के कौन थी क्या करती थी । फिर मैंने ये कैसे सोच लिया था कि के कोई सनकी पागल फितूरी लड़की थी जिसने जे को छोड़ दिया था । अच्छा कभी जे ने ऐसा खोल कर कुछ कहा भी नहीं था । लेकिन वो शब्दों का जादूगर था । कुछेक शब्दों की ज़मीन पर पूरी कहानी पूरा दृश्य रच लेने की उसकी क्षमता से क्या मैं वाकिफ नहीं थी ।

मेरा खून दौड़ना बन्द हो रहा था । मैं सर्द हो रही थी ।

किताब जब लगभग पूरी हुई तुम्हारे जे ने अपनी बीवी को छोड़ दिया । उसे लोगों का इस्तेमाल बखूबी करना आता है ।

रिफ्लेक्स ऐक्शन में मैं अपनी बाँहें और हथेलियाँ गरमाने के लिये रगड़ रही थी ।


देर रात नींद में ही बजते फोन को उठाया तो जे की आवाज़ किसी गुस्से के तीखे भाले पर सवार मुझे बींध रही थी । उसकी आवाज़ तेज़ थी लगभग चिल्ला रहा था । फोन क्यों उठा नहीं रही थी ? क्या तमाशा है तुम्हारा ? मत चीखो मुझपर , मैं घबड़ाये गुस्से में काँपने लगी थी ।

दो मिनट में दरवाज़ा खोलो मैं नीचे हूँ ।

अंदर घुसते ही उसने दरवाज़ा बन्द किया । सिगरेट सुलगाते उसके हाथ काँप रहे थे ।

दो मिनट की चुप्पी के बाद उसने संयत आवाज़ में कहा , तुमने बताया क्यों नहीं कभी कि केतकी के किताब का कवर तुमने बनाया है ?

मैं जैसे आसमान से गिरी । केतकी ? के ?

मुझे कहाँ पता था कि तुम्हारी के केतकी रैना है । तुमने कभी बताया ?

मुझे लगा तुम जानती होगी । सब जानते हैं .. उसकी आवाज़ थकी थकी थी । उसने बालों को माथे के पीछे उँगलियों से समेटा , फिर अपनी दाढ़ी के बाल उँगलियों से सँवारे । मैं किसी सम्मोहित जानवर की तरह उसकी तरफ देखती रही ।

पी , मैं बहुत थका हूँ बहुत ..

धीरे से वो सोफे पर पसर गया ।

मुझे एक कॉफी पिला सकती हो ? फिर मैं निकलूँगा ।


कॉफी लेकर जब मैं आई वो किसी शिशु सी मासूमियत चेहरे पर ओढ़े सोफे पर अधलेटा सो रहा था । उसकी उँगलियाँ निकोटीन से पीली थीं । उसके कान के लव लाल थे , उसके सफेद भूरे बालों के पीछे उसकी कनपटी साफ स्वच्छ थी , उसकी कुहनी सख्त नहीं थी । मुझे सख्त कुहनी वाले और सख्त पैर वाले लोग बेहद नापसंद थे । नीश के पैर सख्त थे , कड़े खुरदुरे और मोटी चमड़ी वाले । मिलने के दौरान मैंने उसके पैर नहीं देखे थे । जब हम साथ रहने लगे थे तब हर रात मैं उसे क्रीम की शीशी पकड़ाती थी । रात को मेरा पैर उसके सख्त चमड़े वाले घड़ियाली पैर पर पड़ता तो मैं किसी गिजगिजाहट से भर जाती । फिर भी मुझे उससे स्नेह था । एक बच्चे की मासूमियत भरा स्नेह था । मैं उसे खुश करना चाहती थी हर वक्त । वो मुझसे खुशी लेना जान गया था । देने की सीखने की उसने ज़रूरत कभी नहीं समझी । जब दो साल साथ रहने के बाद एक दिन बस ऐसे ही किसी बेचैनी में उसने कहा था

मैं निकल जाऊँगा एक दिन पियाली ...

मेरे चुप रहने पर उसने झुँझलाहट भरी आवाज़ में कहा था , तुम समझोगी नहीं , इस दुनिया में क्या हम सिर्फ औरत और मर्द बने रहने आये हैं ? कुछ और चीज़ें हैं जिन्हें करनी है और यहाँ रहकर वो चीज़ें नहीं हो सकतीं । और मकसद हैं जीवन के...

मैंने कहा था ,

तुम्हें रोकूँगी नहीं ..

उसके चेहरे पर रिलीफ और दुख का एक अद्भुत मिश्रण था । छूट जाने का , छोड़ जाने का ।

जे को सोता छोड़ कर मैं अपने कमरे में आ गई थी । सुबह नींद में लगा कि कोई बगल में लेट रहा है । किसी के साथ सोने की आदत कितने वर्षों से नहीं रही थी । कुछ अनग्वार जैसा लगा था ।

..................................................................................................

जारी....


(कभी पिछले दिनों या फिर पिछले साल छपी (लिखी और पहले की ) एक कहानी का पहला अंश और ऊपर आग्स्त मॉक की पेंटिंग )

9/24/2010

अरे मोरे बचवा,होना तो जाने क्या क्या चहिये थे

क्या क्या होते और कितना होते?इतने होते जितना खुद को न समझ सके और इतने जितना आपने न समझा ,जितना आपने देखा उतना भी हुये और उससे ज़्यादा भी और खुद के देखे खुद के बाहर भी हुये

ऐसा कहते उसकी कंठ एक पल को थरथराई पर आवाज़ एक सम पर आकर अब रुकना चाहती है का उदास संगीत भी बजा गई ।

हमारे दायरे में जितने लोग आये हम उतने उतने भी हुये ,उनके देखे जितने हुये ,उनके देखे के बाहर भी हुये और उनके देखने में खुद को देखते , और भी हुये । तो ऐसे हम हुये कि एक न हुये , जाने कितने हुये

होना कितनी तकलीफ को कँधों पर टिकाये घूमना है । सोते हुये सपने देखना है और उससे भी ज़्यादा जागे हुये देखना है । बिलास इतना तो जानता है , कई बार इसके आगे भी जानता है लेकिन सब जाना हुआ सब बताया जाये ऐसा ज़रूरी तो नहीं ।

आपको मैंने अपने सब सपने सुनाये । है न ?

इस बार उसकी आवाज़ में पहाड़ी तराई में घुमक्कड़ भेड़ों के झुँड की टुनटान घँटी थी ।

बिलास ने कुछ नहीं कहा था । उसका कुछ कहना लाजिमी नहीं था । सिर्फ सुनना लाजिमी था । शायद सुनना भी नहीं था । सिर्फ होना ज़रूरी था । ठंडी रात में किसी का होना सिर्फ ।
शीशे पर अँधेरा डोल रहा था । उसकी आवाज़ किसी गुफा से निकलती थी ,जिसमें मर्मांतक टीस की रेखा थी । बीच रात इस प्रश्न का क्या जवाब हो सकता था ?

मेरे पास ऐसी बातों को सहेजने के औजार नहीं । बिलास अपने मन के कोने पर एक उँगली रखता देखता है । मैं कहीं और चला आया हूँ , तुम तक नहीं हूँ ।

उसकी पतली देह सतर सीधी आगे पीछे डोलती है । उसके कँधे थरथराते हैं । वो दोहराती है

आपको मैंने अपने सब सपने सुनाये , है न , वो भी जो मैंने अबतक देखे नहीं

बिलास के सपने से बाहर निकलते देखती है खुद को और इस देखने में खुद से बहुत बड़ी हो जाती है । कितना मैं होना चाहती हूँ , तुम्हारे देखे के भी आगे कितना कितना कितना


ऐनी आपा किताब की एक पंक्ति से हुलक कर निकलती हैं कहती हैं ,बस इतनी कहानी ,मोरे बचवा होना तो जाने क्या क्या चाहिये था ?

( बैम्बू पर रंगाई के मज़े के साथ किसी होने न होने वाली किताब का बीज गोकि ये मेरी पूरी अपनी नहीं है कुछ बहुत कुछ बी एस साहब की भी है )

9/11/2010

मछलियाँ बिल्ली नहीं होतीं

 

goldfish_1212487c फिरंगी , पियर , नेरो, कालू ,  लिला और पन्ना ..यही नाम तय किये गये थे । नेरो लैटिन में काला , ऐसा बताया गया था । इस तथ्य की पुष्टि नहीं की गई थी , बस मान लिया गया था क्योंकि नेरो अच्छा सुनाई पड़ रहा था । दो काली थीं इसलिये नेरो और कालू । एक गुलाबी थी इसलिये लिला , जर्मन में फूल , गुलाबी नाज़ुक फूल । फिर जो नारंगी थी सो फिरंगी थी और जो पीले थे सो पियर , भोजपुरी वाला पियर और बाकी थी पन्ना , इसलिये कि पन्ना मुझे पसंद थी । पन्ना पीली पन्ना पुखराज । तो ये थे हमारे बाबू गुलफाम नये मेहमान !

बच्ची ने पूछा ,मैं इनको चूम नहीं सकती ? मैं इनको बाँहों में नहीं भर सकती ? मैं इनकी पीठ सहला नहीं सकती ? बच्ची शीशे के गोल मर्तबान को बाँहों में घेर बैठ जाती ।

माँ काम करती इधर उधर गुज़रती , देखती बच्ची मर्तबान के आगे ठुड्डी टिकाये तन्मय बैठी है , जो कभी मिनट भर चुप न होती हो सो चुप हो और मछलियाँ बेखबर। आईपॉड से निकलते धुन के परे उनका नृत्य चलता । बच्ची विश्वास करना चाहती कि उनकी हरकत धुन की संगत की है । उसकी उँगलियाँ शीशे पर धीमे फिरतीं । मछलियाँ अचक्के कभी उस तरफ आतीं फिर सूई की तेज़ी से फिर फिर जातीं ।

बच्ची बेजार होती कहती ओह ये कभी पालतू होंगी ? मैं कहूँ लिला तो लिला आयेगी उधर ? जिधर मेरी उँगली पुकारती उसको ? माँ उबासी लेती कहती तुम पहचानती हो लिला है कि फिरंगी है ? माँ गुपचुप मुस्कुराती , देखती बच्ची कितनी तो बच्ची है अब तक ।

बच्ची हफ्ते भर तक देखती परखती आखिर निराश होती कहती , माँ क्या अच्छा हो अगर तुम मुझे एक बिल्ली ला दो या फिर कोई प्यारा नन्हा पिल्ला ? माँ कहती तुम्हारी मछलियाँ ये सुन दुखी नहीं हो जायेंगी ?

बच्ची दुखी भारी आवाज़ में कहती , माँ लेकिन मछलियाँ बिल्ली नहीं होतीं । एक दिन पाया गया कि बच्ची मर्तबान में हाथ डाल कर उन्हें सहलाने दुलारने की कोशिश में है । पियर बाबू भागे भागे फिरे । लिला तो सबसे नाज़ुक नन्हीं परीजान दुबक कर तल में छिपी बैठी , नेरो और कालू प्यारा कार्लो काली गोल गोल भागम भाग चक्कर घिन्नी खाये और मेरी पन्ना चौंक चौं गप्पा गप्प मुँह फकफक किये उँगली के गिर्द फिरती दिखें । फिरंगी जाने किस शोक शॉक के असर में अगले दिन सतह पर उलटे दिखे । फर्स्ट कैज़ुअलटी । बॉलकनी के कोने में रखे बड़े गमले की नम मिट्टी में उनका डीसेंट बरियल हुआ । अब पाँच रह गईं । माने लिला जो गुलाबी होने के नाते फिरंगी नारंगी से सबसे नज़दीक थी , सो रह गई अकेली । पर इस हादसे के बात तय बात थी कि बच्ची को समझाया जाय कि बाबू बच्चा प्यारा मछली मछली होती है , नर्म रोयेंदार ऊन का गोला नहीं , प्यारी दुलारी किटी नहीं जिसके रोंये की नरमाहट हाथ को सुख दे । मछली तो सिर्फ नयन सुख देती है , आँखों की हरियाली । शीशे के पारदर्शक बरतन में घूमती नाचती रंगीन तितली , लहराती तिरती तैरती परियाँ ।

बच्ची को , सोचते हैं एक बिल्ली ला दें । बिल्ली अपने ऐटीट्यूड में घर भर घूमेगी । मछलियाँ अपने मर्तबान में । फिर सोचते हैं मछली और बिल्ली का कॉम्बिनेशन खतरनाक है । बच्ची आजकल मछलियाँ देखती है , तन्मय हो कर । फिरंगी को तल कर खा जाने की बात भूल चुकी है । बच्ची आजकल गाना गाती है ,मर्तबान के आगे बैठकर होंठ शीशे से सटाये । पियर या पन्ना मुँह गप्प गप्प करती बच्ची के होंठ की तरफ आती हैं । घर के एक खाली कोने में आजकल बहुत सारा लय है ।

8/23/2010

भीतर भी जंगल था

पहाड़ की तराई में घूमते , गोह और टस्कर देखे , मेरी जान कॉरबेट , मेरी जॉन , जाने क्या क्या क्या ..दलदल , पत्थर , नदी पानी , इतनी हरियाली कि पूरे साल का कोरम पूरा कर लिया जैसे , पालतू हाथी , पैर में सीकड़ , देखकर जाने क्यों बड़ी टीस , मुड़ कर उसका सड़क पर चुपचाप देखना , पनियायी आँखें , उफ्फ , लौटते मालूम हुआ किसी जीप का शीशा तोडा , दूसरे को तहसनहस किया , तब स्कूल से लौटता , खेलने न दिया जाता दुखी बच्चा दिखा था , सच क्या देखना और कितना देख लेना भी अजब माया है , उसने भी मुड़ कर देखा ही तो था , बारह घँटे से ज़्यादा का सफर , सफर में खुद से बात करता मन भी कुछ देखता था , जाने कितना सच था ये देखना , घनघोर बारिश , शीशा पीटते पटकते , भीतर कोई चैन नहीं , बाहर का हाहाकार ही था , भीतर भी जंगल था , भीतर भी बारिश थी..



7/17/2010

बाबू ! अब और क्या ?

हुस्नआरा का हुस्न देखने लायक था । रसूल यों ही नहीं जाँनिसार हुये जाते थे । हुक्का गुड़गुड़ाते अपनी नमाज़ी टोपी सिरहाने सहेजते मिची आँखों से नीम के पत्तों का सहन में गिरना देखते । लम्बी दोपहरी होती , बहुत बहुत लम्बी । इतनी कि साँझ का इंतज़ार करना पड़ता । इतनी कि ऊब छतों की बल्लियों से चमगादड़ जैसी उलटी लटकती पूछती , बाबू अब और क्या ?


लम्बी और ऊब उकताहट भरी दोपहरी जिसका एक एक लमहा इतना खिंचता कि एक साँस फिर दूसरी गिननी पड़ती । वक्त जब बीतता तब न बीतता हुआ दिखता और बीत जाने के बाद एक अजब से स्वाद के साथ वापस आता ।

रसूल कहते , उन दिनों की बात है जब दिन लम्बे हुआ करते थे , खूब लम्बे , भूतिया कहानी वाले लम्बे हाथ की तरह लम्बे .. हुस्नआरा तिनक कर कहतीं , तुम्हारी बात जितनी लम्बी ? हाथी के पूँछ जितनी लम्बी ? या फूलगेंदवा के हनुमान जी की पूँछ जैसी ?

रसूल अपनी दाढ़ी खुजाते हँस पड़ते । पर होता था एक वक्त दिन ऐसा । कूँये के पास वाली मिट्टी में पुदीना हरहरा कर उगता। मेंहदी की झाड़ के साये में गौरेया फुदकती , लोटे की टपकती टोंटी से चोंच सटाये दो बून्द पानी तर गला करती ..ऐसी लम्बी बेकाम की दोपहरी ।

छत पर चढ़े कोंहड़े के बेल से सुगन्ध फूटती , नम मिट्टी के गंध से घुलती धीमे से दीवार के साये सुस्ताती बैठ जाती । पिछले बरामदे से सिलाई मशीन की आवाज़ गड़गड़ निकलती रुकती फिर शुरु होती । हुस्न आरा के पैर मशीन की भाती पर एक लय में चलते । कपड़ों की कतरन , धागे का बंडल , तरह तरह के बॉबिन और सूई , गट्ठर के गटठर । इसी सबके के बीच चूल्हे पर अदहन खदबदाता , सूप में चावल और राहड़ की दाल चुन कर रखी होती ।

रसूल कान पर फँसाई बीड़ी एहतियात से निकालते , सुलगाते और हथेली की ओट में भरके सुट्टा खींचते । सारा दिन दोपहर होता । सुबह फट से दोपहर हो जाती और साँझ जाने कब आता नहीं कि रात हो जाती ।


ऐसे होते थे दिन जब हाथपँखा हौंकते चित्त लेटे जाने क्या सोचते दिन निकलता । एक दिन के बाद दूसरा फिर तीसरा फिर जाने और कितना । सब दिन एक दूसरे में गड्डमड्ड् सब एक जैसे कि तफसील से कोई पूछे कि फलाँ दिन क्या तो खूब खूब सोचना पड़े कि अच्छा ? उँगली पर जोड़ें और कहें अच्छा अच्छा उस दिन जब प्याज़ लाल मिर्चा का कबूतरी खाके ऐसा झाँस पड़ा था कि खाँसते खाँसते बेदम हो गये थे ?

मुड़ के देखो तो मालूम पड़े कि एक कतार से सब दिन जाने कितने साल में बदल गये । मटियामेट कर देने वाली उदासी छाती में गहरे धँस गई है । कैसा हौल समा गया है कि चलते भी हैं तो लगता है उलटा चलें और पाँव के निशान बुहारते चलें ।

बाहर गली में आटा चक्की के मशीन की फटफट फटफट फटफट गूँजती है , मोटी बेसुरी और बेहया । जबसे रसूल का हाथ कटा है हुस्न आरा सिलाई करती है । रसूल खटिया पर लेटे देखते हैं और खूब सोचते हैं । जीवन के मायने और मौत के भी । फिर सोचते हैं यहीं है सब जन्नत भी और दोज़ख भी । फिर सोचते हैं उन दिनों के बारे जो कितने लम्बे होते थे । कितनी ज़िंदगी थी तब । दिन जैसी ही लम्बी । आँख के सामने धुँधलका छा जाता है ।

सहन में अरअरा कर नीम की पत्ती गिर रही है । हुस्न आरा के चेचक भरे चेहरे पर पसीने की धार है । टूटे कमानी के मोटे चश्मे से भी अब इतना नहीं दिखता कि धागा पिरोया जा सके । हताश सर दीवार से टिकाये चुप बैठ जाती है । अब नहीं होता , अब नहीं ।

चुप्पी दबे पाँव आती है फिर ढीठ बच्चे सी फैल जाती है । कितने दिन बीतते हैं जब दीवारों से कोई आवाज़ नहीं टकराती । रसूल चौंक कर देखते हैं किस बात पर जाँनिसार हुये थे ? जाना था इस औरत को ? और उसने मुझे? किस ज़माने की बात है । कोई और रहा होगा , कोई और समय , कोई और भूगोल । मैं नहीं , मैं नहीं , मैं नहीं ..

मुड़ कर देखते हैं चारो ओर हैरत से , बेगानेपन से । काँपते घुटनो को थामे अचानक उठ खडे होते हैं फिर डगमग बाहर । हुस्न आरा एक बार चौंक कर देखती है , फिर मशीन के पास ही सिमट कर ढुलक जाती है ।

समय की फितरत ऐसी ही होती है , बेवफा !

7/15/2010

किसी दिन

किसी दिन
अपनी समस्त बुराईयों के साथ देखोगे तुम , मुझे , चकित होगे कि क्या
जाना था अब तक मुझे ?

***

सहलाती थी जैसे जब पिता का हाथ , जानती थी अब नहीं देखेंगे कभी हँस कर मेरी तरफ

***

समय का स्वाद टूट गया विक्षिप्तता में , सब किताबें , सब संगीत , सब सब कहते हैं मेरा निजी कुछ था कहाँ , तुम तक नहीं

***

किसी भीड़ में खड़े हम सब खोजते थोड़ी सी जगह जहाँ सबसे छुपाकर साँस ले सकें , भदेस तरीके से मुँह खोले ज़ोर ज़ोर की साँस , बिना तमीज़ की परवाह किये बगैर और उसी तरह से खा सकें

***

कहते हैं अमिश लोगों में मृत्यु को कहते हैं कॉल्ड होम , घर से बुलावा , सोचते ही लगता है कितना सुकून , मौत भयानक शून्य नहीं कोई नर्म घोंसला है जहाँ दुबक कर सोया जा सकता है आखिरी नीन्द

***

सपने में देखे जा सकते हैं नीले हाथी और सफेद फूल , सीखी जा सकती है एक नई ज़ुबान , कोई संगीत , हुआ जा सकता है उदार और महान

***

ऐसा क्या सुन लिया मैंने कि कान अब तक दुखते हैं ?

***

मेरी चीज़ें सब मेरी नहीं थी , कुछ कुछ सबकी थीं , और सबकी चीज़ बहुत मेरी । फिर किसी भी चीज़ पर अपना नाम न देखना दुखदायी था

***

अपने भीतर आत्मा की तलाश ? कहते हैं तलाश शब्द गलत है और आत्मा भी । कहते तो ये भी कि सब माया ही है अंतत: गोकि माया तक आखिर एक शब्द ही है जिसका पूरा अर्थ हम अब तक नहीं जानते

***

लोगों की चलती भीड़ के ऊपर चलता है आसमान और कभी कभी एक मंडराती चील , भीड़ से अलग जिस चीज़ का स्वाद है उसे अब तक तय नहीं किया कि अच्छा है या बुरा है । अकेला होना भी एक स्वाद है , जीभ पर बेमज़ा होते च्यूइंग गम जैसा , थका देने वाला

***

गाल की हड्डी के पास साँप पूँछ फटकारता है , बाहर आसमान जो दिखता नहीं , ज़रूर नीला होगा , ऐसा विश्वास है , शायद चाँद भी निकला होगा । विश्वास के आसपास दर्द की लक्ष्मण रेखा है , बार बार लाँघती कुछ वैसे जैसे बचपन में पढ़ी निसिम एज़ेकियेल की नाईट ऑफ स्कॉरपियन

***

किसी की किताब पढ़ी अच्छा लगा , कुछ लिखा अच्छा लगा , अच्छा लगना अच्छा लगा , किसी दिन कोई गाता था अल्हैया बिलावल , मैं देखती थी खुद को , लिखते किसी दिन

( विंसेंट वॉन ग़ॉग )

6/05/2010

ऐसा जिसे प्यार कहा नहीं जा सकता

नदी बनती है , पहाड़ बनता है तुम बनते हो
प्यार बनता है

***

तुम्हें चूमना खुद को चूमना होता है तुम्हें छूना खुद को , आईने में तुम देखते हो जिधर मैं भी वहीं देखती हूँ

***
रात में तकिये के नीचे तुम्हारी आवाज़ सिरहाने
***

कँधे से कँधे सटाये साथ बैठना सिर्फ और कुछ न बोलना
क्योंकि बोलती है चिड़िया

***

हमारे बीच एक संसार हम देखते हैं उसे स्नेहिल

***

तुम कहते हो
हाथी उड़ते हैं मैं हँसती हूँ पर विश्वास कर लेती हूँ
कछुये की पीठ पर तुमने लिख दिया है नाम देखती हूँ
मेरा

***

सान्द्र उदासी में डूबे तुम तुममें डूबी मैं

***

पानी के तरंग में
रखती अपनी उँगली
बीच ओ बीच देखती तुम देखते हो

***

स्मृति सिर्फ बीती नहीं उसकी भी जो आगत है , स्मरण उन सब का गिनती हूँ तुम्हारे उँगलियों के पोरों पर , तुम्हारी उँगलियाँ खत्म होती हैं , मेरा स्मरण
तब भी चलता है

***

फाख़्ता
कहते तुम हँसते हो
कितना दुलार

***

रंगते हैं हम कागज़ पर धान के खेत
पीला सरसों
नीली नदी हरे पहाड़ और एक छोटा घर

****

चिड़िया के चुगने को , चावल के दाने , देखती है टुकुर टुकुर गौरया
शाँत मन
मैं भी
***

रात भर
बात झरती रही चाँदनी सफेद चादर पर

***

तुम तक
मेरी सब बात मुझ तक तुम्हारी
कहें हम बारी बारी
हमारी
***

नींद में अकबक
ख्याल , तुम जो पास नहीं , सोउँगी तब जब होगा सब
पूरा संसार तुम्हारी बाँहों में

***

प्रेम कुछ नहीं होता मुझे चूमते तुम कहते हो मैं कहती हूँ , हाँ फिर सोचती हूँ
तुम्हारे लिये फिक्र
और सोचती हूँ बहुत बहुत सारा
ऐसा जिसे
प्यार कहा नहीं जा सकता

(गुस्ताव क्लिम्ट की पेंटिंग चुँबन )

5/30/2010

हम दोनों

दिन में बड़ी मेज़ पर पोस्टर्स और कागज़ फैलाये मैं धूप पीती हूँ । बारीक महीन इलस्ट्रेशंज़ । मेरे पास दो महीने का समय है । उसके मन्यूस्क्रिप्ट के शब्दों को मैं जीभ पर घुलते महसूस करती हूँ । हर शब्द के अर्थ तीन चार । तलाशती हूँ गुप्त संकेत । शब्दों और वाक्यों के ऊपरी मायने के भीतर बहती नदी जो सिर्फ मेरे लिये कही गई है । उन अर्थों के संदर्भ खोजती हूँ ।

उस दिन मैंने कहा था जाना चाहती हूँ कहीं अज़रबैजान ,या पेरू या फिर काहिरा की किन्हीं तंग गलियों में ।

उस दिन उसने लिखा था उस लड़की की कहानी जो कहीं नहीं जाती , जो सिर्फ पूरा जीवन एक जगह बिताती है ।

फिर कहा था मैंने , छिटके हुये धूप में उदास रंग और उदास क्यों लगते हैं ?

उस दिन उसने लिखा था .. रंग रंग होते हैं । वॉन गॉग के उस कमरे की बात की थी जहाँ रंग चटक धूप से खिलते थे किसी ख्वाब में ।

फिर उसने कहा था , सुनो मैं 'के' से ज़रा ज़रा नफरत करता हूँ ।

और मैंने सुना था , सुनो मैं 'के' को अब भी नहीं भूल पाया हूँ ।

फिर उसने कहा था ये इलस्ट्र्शंज़ अगर सही न बने मैं इन्हें फेंक दूँगा ।

मैंने कहा था जहन्नुम में जाओ ।


शाम को उसने फोन किया था ।

मैंने पूछा था , कहाँ ?


उसने कहा था वहीं जहाँ तुमने मुझे भेजा था .. जहन्नुम में ।

उसके आवाज़ की हँसी मुझे लहका गई थी । उसने फोन रख दिया था । मैंने फोन बहुत देर तक नहीं रखा था । उस दिन मैंने ढेर सारे स्केचेज़ बनाये थे । हैरान भौंचक लड़के की , एक कतार में तालाब के किनारे चलते बत्तखों की , जंगल के छोर पर एक अकेले घर की , मूड़ी निकाले कछुये की , दौड़ते चूहों की और अंत में दो आँखें बस । मेरी उँगलियाँ तड़क रही थीं । रात के बारह बजते थे । मैंने उसे फोन किया था ..

सुनो आ जाओ ।

उसने कहा , क्यों ? मैंने कहा, इसलिये कि मेरी गर्दन दुखती है , मेरी पीठ अकड़ती है , आ जाओ ।

मेरी आवाज़ की अकड़ खत्म हो गई थी । उसने फोन रख दिया था । मैं सो गई थी ..थकी नींद में ।

(पिछले दिनों छपी कहानी का एक अंश और मतीस की पस्तोरल )

4/27/2010

अमेज़िंग ग्रेस

आज उदास होने का दिन नहीं जबकि आँख की नमी कुछ और कहती है । छाती पर जमी कोई टीस है , कई स्मृतियाँ हैं । जो सबसे नज़दीक की हैं , उन्हें भूल जाना चाहती हूँ , जो पुरानी हैं आज सिर्फ उन्हें याद करना चाहती हूँ , आज खुश रहना चाहती हूँ , आपके लिये

आपकी सब तकलीफें बिसरा देना चाहती हूँ , आपकी हँसी याद रखना चाहती हूँ । कैसी चकमक आपकी आवाज़ की बुलन्दी , उसकी चादर ओढ़ हँसना चाहती हूँ , लेकिन हँसते हँसते कैसी रुलाई फूट पड़ती है , देखते हैं न आप । दिन बीत चला रात ढलने को हुई और संगीत का ये सुर भीतर कहीं बजता है , बस आपके लिये

(नाना मस्कूरी ..अमेज़िंग ग्रेस )


4/23/2010

खुद से

मुर्गाबियों का झुँड पानी की सतह पर उतरता है । जैसे साँझ उतरती है । पानी पर पहले उतरती है , पेड़ की पत्तियों से छनकर । आसमान में जबकि अब भी दिन का आभास बाकी है । ये दिन का वो समय है जब खुद से बात की जा सके,रफ्ता रफ्ता ,सोचकर रुककर समझकर टटोलकर,अपनी आत्मा को खुरचकर । अंतरतम का कोई कमरा जिसका दरवाज़ा ज़रा सा खुल जाये , कोई रौशनी की लकीर दिख पड़े । ऐसे बात , जैसे किसी से न की हो , मोहब्बत से , कोमलता से , विवेक से । छाती के भीतर कुछ घना सघन जंगल उगता है , उसकी महक मारक है , उसके काँटे बींधते हैं ।
ऐसे गहरे गहन समय में जब खुद से बात की जा सके
***

पानी में डूब जाना दुनिया भुला देना होता है क्या ? हर बार उन्हीं अँधेरों में चलना , किसी बन्द गली के आखिरी मकान का कभी न खुलने वाला दरवाज़ा , सिर पटकना फिर सिर झुकाये कँधे गिराये रुकना कुछ देर फिर लौट आना , हर बार
हर बार अंतरंगता की चादर ओढ़ना , साथ साथ उदास गलियों के भूल जाने वाले नामों में भटकना , कहना कि मुझे खींच लो बाहर , मेरे लिये सिर्फ मेरे लिये , मुड़ना मुड़ना मुड़ना और चाहना , कितना कुछ , हाथ बढ़ाना इस उम्मीद के साथ कि थाम लोगे , हर बार , ओह निष्ठुर मन , कितना निर्विकार तुम्हारा ऐसा चाहना , क्यों न निस्संग ? आखिर ?
किसी घने वृक्ष के नीचे लेटना और आसमान तकना , किसी पुराने खंडहर मंदिर के गर्भगृह में मौन बैठना , हर बार खुद से बात करना , और कहना आसमान , और कहना कोई लम्बी कथा , छाती फट जाये ऐसी कथा , सोच लेना और खुश हो लेना

***
दुख की बड़ी जानी पहचानी वही कहानी होती है , सुख आता है हर बार नये रंग में । लौटना फिर परिचित रास्तों पर ? सुकूनदेह है । सुख , कहते हैं अब पोसाता नहीं , उस काली बिल्ली जैसे जो हर रात दूध पीकर निकल भागती है सड़कों पर आवारागर्दी करने ।
पानी के किनारे चिड़िया चहचहातीं हैं कुछ देर , क्रेसेंडो में उठता ऑरकेस्ट्रा फिर नीरव शाँति , फिर अँधकार । फिर खोजना उसमें मायने , फिर भर लेना अर्थ , फिर जीना तरंगित हो कर , हाथ बढ़ाना फिर मुस्कुरा कर , गहरी साँस भरना , पूरा और लौट आना रौशनी में , हर बार
***
भीतर एक नमी थी । छूओ तो उँगलियाँ भीग जायें । मैं तुमसे कहती , आज मेरे भीतर उदासी है , धीमे संगीत जैसा , जैसे भीतर कोई कूँआ हो जिसका तल न दिखता हो । और उसका पानी हथेलियों में भरो तो हाथ न दिखता हो । और बस ये कि इतना भर ही मैं खुद को जानती हूँ , फिर इससे ज़्यादा तुम मुझे क्या जानोगे ।
मेरे भीतर मुझसे भी बड़ी तस्वीर है जिसका ओर छोर नहीं , मीठा संगीत है , मन मोह लेने वाला , खुद को मुग्ध कर देने वाला , ऐसे रंग हैं जिन्हें आँखों ने देखा नहीं , ऐसा लय है जो शरीर के भीतर भी है और बाहर भी , मेरे भीतर मैं हूँ , मैं , जो तुम देख नहीं पाते उतना मैं , जितना मैं समझ पाती हूँ उससे भी ज़्यादा मैं ।
***

धुँधले अँधेरों में , जब कुछ न दिखता हो तब खुद को देखना अच्छा लगता है

(गोगां की ताहितियन लैंडस्केप )

4/14/2010

कि ज़मीं से भी कभी आसमाँ मिल गया

बम्बई की खाली सड़कें , मरीन ड्राईव का कर्व , बारिश के झपाटे , नवीन निश्चल और प्रिया राजवंश , हँसते ज़ख्म रोते दर्शक , रात में शहर , ऑरकेस्ट्रा के बीच गाड़ी तेज़ी से गीले सड़क पर भागती घूमती , रौशनी , अँधेरा , बारिश प्यार , तेज़ तेज़ मीठा मीठा फिर हँसी और धुँआ और समन्दर की बौछार ..
डेडपैन एक्स्प्रेशंस दोनो ऐक्टर्स के .. फिर उसी डेडपैन चेहरे और चलती फियेट के पीछे नकली भागते शहर के बीच संगीत का ऐसे सेंसुअस तरीके से भरना , कैफी मदन मोहन और रफी .. सचमुच थोड़ा सा दिल किसी अरमान में टूट जाता है , किस गये समय का जादू , नकली सेट के बेतुकेपन के बीच अचानक कैसे मीठे रूमान का खिल उठना ..


4/10/2010

बिना ज़मीन जंगल पानी के ..हम कहाँ जायें ?

ऐसा समय है किसी का किसी पर विश्‍वास नहीं । आप पर मेरा और आपको मेरा विश्‍वास नहीं । उस दूसरे पर तो हम दोनों को ही भरोसा नहीं जो अपनी पहचानी भूमिका, बहत हद तक हमारे ओर से आरोपित, से अलग किसी नयी शक्‍ल में हमारे सामने आ रहा है। उसकी शक्‍ल क्‍या बनती है से ज्‍यादा चिंता की बात है अपनी इस नयी भूमिका में हमें वह डरा रहा है । जिस बात से हमारा सीधा सीधा संबँध न हो उसे हमारे आँखों के सामने थोप रहा हो , कि देखो देखना ही पड़ेगा । किसने ऐसी परिस्थिति पैदा की हम भय और आतंक के साये में जियें ? अपने जलते जंगलों को हमारे जीवन के बीचोंबीच भय के बलबलों की तरह लिये आयें, यह ‘हमारा’ लोकतंत्र कब तक, क्‍यों बर्दाश्‍त करेगा ? जंगली लोगों को किसी ने लोकतंत्र की शिक्षा नहीं दी ? जंगली अंधेरों ने उन्‍हें आखिर कैसी शिक्षा दी है जो हमारी तरह नहीं, हमारे लोकोपकारी शासन के सामने सिर नवाने की जगह जो हथियार उठा रहे हैं.... गंवार, हमेशा के ग़ुलाम !
***
शोषण का इतिहास पुराना है, गुलामी के प्रमाण लिखित दस्तावेजों के भी पहले के हैं। हमुराबी के कोड में सबसे पहले इसका ज़िक्र मिलता है और बाईबल में भी। सुमेरियन, प्राचीन मिस्र, भारत, ग्रीस, रोम और इस्लामिक खलीफाई सभ्यता से लेकर आज तक के समय काल में इसका ज़िक्र मिलता है। अरस्तु ने यहाँ तक माना था कि कुछ मनुष्य प्रकृति से गुलाम होते हैं।
अमेरिका में रेड इंडियंस, अफ्रीकी गुलाम, औस्ट्रेलिया में लॉस्ट जेनेरेशन, गुम पीढ़ी का इतिहास, मौरिशस फीजी सूरीनाम में बिहारी अनुबंधित मज़दूर, भारत में छोटानगपुर पठारी इलाकों के आदिवासी.... कितनी लंबी लिस्‍ट होगी । सांस फूलती है । लिस्‍ट फिर भी पूरा नहीं होगा । अंतहीन...
***
मैं सच कहता हूँ , ये ज़मीन उस ज़मीन के वासियों की है और अगर आप पागलपन रोकना चाहते हैं तो पहले ज़मीन को बचाईये , बहुत देर हो जाये , उसके पहले । उन लोगों का कर्ज़ चुकाईये जिनकी ये ज़मीन है । याद रखिये इस गोरे देश का एक काला इतिहास है । ये भी याद रखिये कि यहाँ की लोक स्मृतियाँ क्या हैं , यहाँ का समय , सपना क्या , यहाँ की संस्कृति क्या है । इतिहास कभी नहीं भूलता कि आप कहाँ से आये हैं । उन्होंने डाका डाला , बलात्कार किया , लूट खसोट की , इस ज़मीन को तहस नहस किया , ईश्वर और विज्ञान के नाम पर , भूल गये कि यहाँ लोग बसते थे । मेरा टोटेम , कुलचिन्ह सफेद वक्ष वाला चील है । मैं आदिवासी हूँ , शुद्ध आदिवासी और उस परियोजना का हिस्सेदार था जिसमें हमें गोरों के साथ समावेशित होना था । हम क्यों एक दूसरे के साथ भेदभाव करते हैं , कैसे करते हैं जबकि हम सब मनुष्य हैं ?

***
दूर क्षितिज ने संवेदना के आँसू बहाये होंगे हमारे लोगों की बदहाली पर .. मेरे शब्द उन सितारों की तरह हैं जो कभी बदलते नहीं .... एक समय था जब हमारे लोग इस धरती पर ऐसे थे जैसे हवा से बहती लहर समन्दर के तल पर होती है .....

आपके देवता आपको मज़बूत बनाते हैं इतना कि वो पूरी धरती भर देंगे जबकि हमारे लोग एक कभी न लौटने वाले सिमटते हुये लहर की तरह तेज़ी से खत्म हो रहे हैं , गोरे लोगों का ईश्वर कभी हमारे लोगों को स्नेह नहीं दे सकता और न ही हमारी रक्षा कर सकता है । हम उन अनाथों की तरह हैं जिनका कोई सहारा नहीं है । फिर हम और गोरे भाई कैसे हो सकते हैं ? आपका इश्वर हमारा इश्वर कैसे हो सकता है , वो कैसे हमें समृद्ध कर सकता है और हमारे अंदर उन सपनों को फिर से जीवित कर सकता है जो हमें हमारी प्राचीन कीर्ति और ऊँचाई तक फिर ले जाये ?अगर हमारा एक ही ईश्वर है तो उसे निष्पक्ष होना होगा क्योंकि वह अपने गोरे बच्‍चों के पास गया , हमने तो उसे कभी देखा ही नहीं । उसने आपको कानून दिये लेकिन अपने रक्तवर्णी बच्चों के लिये उसके पास कहने को शब्‍द नहीं थे ? , उन लोगों के जो एक वक्त इस विशाल महाद्वीप में उस तरह फैले हुये थे जैसे तारे आसमान में । नहीं, हम दो प्रजाति के हैं , हमारे स्त्रोत और उत्पत्ति भिन्न हैं हमारी संस्कृति भिन्न है और हमारा विधान भिन्न है । हमारे बीच कोई समानता नहीं है ।

हमारे लिये हमारे पुरखों की अस्थि पवित्र है और जहाँ वो दफनाये गये हैं वो हमारे लिये प्रतिष्ठित स्थान है । आप अपने पुरखों के कब्र से दूर भटक चुके हैं और आपको उसका अफ़सोस तक नहीं है । आपका धर्म पत्थरों की शिला पर आपके ईश्वर की लौह उँगलियों द्वारा खुदा है ताकि आप भूल न पायें । हम रक्तवर्णी लोग इसे समझ नहीं पाते । हमारा धर्म हमारे पुरखों की विरसे में दी गई परम्परा है .. हमारे बुज़ुर्गों का स्वप्न है जो महान देवता ने उन्हें दिया रात्रि के उन गंभीर प्रहरों में , हमारी दिव्यदृष्टि और हमारे गुण चिन्ह ..जो अंकित हैं हमारे हृदयों में ।

इस धरती का हर कण हमारे लिये पवित्र है । हर पहाड़ हर तराई , हर मैदान , हर वन उपवन किसी न किसी सुख या दुख की घटना की छाप अपने अंदर समेटे है , उन दिनों की स्मृति जो अब बीत चुकीं । वो पहाड़ जो कड़ी धूप में मौन खड़े हैं शाँत तटों के संग संग, सब उन स्मृतियों से गूँजते हैं जो हमारे लोगों ने जीये थे , और वो धूल जिसपर आज आप खड़े हैं वो हमारे पदचापों को को ऐसा स्नेह देता है जो आपने कभी महसूस नहीं किया होगा क्योंकि वो धूलमिट्टी हमारे पुरखों के रक्त से अमीर हुई है । हमारे नंगे पाँव धरती की सँवेदना महसूस करते हैं । हमारे शहीद हुये वीर, हमारी प्यारी माएं, हमेशा हंसती रहनेवाली लड़कियाँ और वो नन्हें बच्चे जो यहाँ एक ऋतु जीये और उल्लसित रहे , वो इस नितांत अकेलेपन को दुलार देंगे और सँधि वेला में उन लौटती छायायों सी आत्माओं का स्वागत करेंगे । और जब हमारे वंश का अंतिम व्यकि नष्ट होगा और हमारे कबीले की स्मृति आपकी याद में एक मिथक मात्र रह जायेगी , तब इन तटों पर हमारे अदृश्य मृत विचरेंगे , और जब आपके बच्चों के बच्चे इन खेतों खलिहानों , इन सड़कों और दुकानों , इन मौन बीहड़ जँगलों में सोचेंगे अपने आप को अकेले, तब वो अकेले नहीं होंगे । इस धरती पर कोई स्थान ऐसा नहीं होगा जो एकांत के लिये समर्पित होगा । रात को जब आपके गली मुहल्लों में शाँति होगी और आप समझेंगे कि सब निर्जन है तब वो हमारे उन मृतात्माओं से भरा होगा जो कभी यहाँ जीये थे और जो इस भूमि से अटूट मोहब्बत करते थे , तब भी करेंगे । गोरे लोग कभी भी अकेले नहीं होंगे । वो न्यायप्रिय हों और उदार हों , हमारे लोगों के साथ क्योंकि मृतत्मायें शक्तिविहीन नहीं होतीं । मृत ! मैंने कहा ? यहाँ मृत्यु कुछ नहीं होता सिर्फ एक संसार से दूसरे संसार में बदलाव होता है ।
***
पूरे देश में आदिवासियों को अपने वनभूमि अपनी अजीविका से बेदखल किया जा रहा है । विकास के नाम पर अपनी जीवन पद्धति से मरहूम किया जा रहा है । बाँध , कारखाने , खदान , खनन , सेज़ ..हर बार आदिवासियों की ज़मीन है जिसे झपट लिया जाता है । आदिवासी अब संगठित होने लगे हैं । मुथंगा , केरल में जहाँ वो तीरधनुष से लैस सामने आये और लालगढ़ जहाँ उनके पास कोई हथियार तक न था । थी सिर्फ लाठी और कुल्हाड़ी । तो ये सब सिर्फ सतही अभिव्यक्तियाँ हैं दशकों की निर्मम , निरंकुश सभ्य आक्रामकता के खिलाफ ।
***
वृत्तचित्र निर्माता के.पी. ससी द्वारा एक जागृत कर देने वाला संगीत वीडियो यू ट्यूब पर है । यह एक छह मिनट का आदिवासियों की दुर्दशा का संक्षेपित मोंताज़ है जिसमें मुख्य नारा है 'हम अपनी जमीन नहीं देंगे, हम अपने जंगल नहीं देंगे, न ही हम अपना संघर्ष छोड़ेंगे। यह मुख्यधारा की पूंजीवादी विकास मॉडल की आलोचना है जिसने सिर्फ कुछ दशकों में ही उन जंगलों और नदियों को नष्ट कर दिया जिसे आदिवासियों और उनके पूर्वजों ने सदियों से संरक्षित कर रखा था । यह लगभग एक सुझाव देता है कि क्यों देश को एक आदिवासी के नजरिए से पुनर्विचार करना चाहिये अगर उसे खुद को बचाना है । इसे एक गान के रूप में आने वाले दिनों के बड़े संकेत के रूप में देखना चाहिये।

***
सामाजिक मानवविज्ञानी वेरियर एल्विन, जो 1940 के दशक में गोंड बस्तर मरिया और मुंडा आदिवासियों के बीच में रहे थे और उनके जीवन और संस्कृतिक मूल्यों के बारे में इतना हृदय स्पर्शी विवरण लिखा था, उनकी अंतर्दृष्टि ने भी राष्ट्रीय चेतना पर कोई प्रभाव नहीं बनाया । एल्विन के श्रमसाध्य काम करने के बाद, कोई भी भारतीय शिक्षाविद ने इस विषय के विस्तार का काम नहीं चुना । यह काम महाश्वेता देवी और गनेश एन देवी जैसे साहित्यिक हस्तियों के लिए छोड़ दिया गया । चाईबासा रिसर्च सैंटर के विस्तृत अनुसंधान कार्य पर भी ध्यान नहीं दिया गया। राष्ट्र राज्य ने आदिवासियों के खिलाफ एक विरोधात्मक रुख अपना लिया जिसकी वजह से पूर्वोत्तर और छोटानगपुर के पठारी इलाकों के आदिवासी क्षेत्रों में सामूहिक असंतोष की लहर फैल गई । राज्य झारखंड और छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा की 1980 के दशक के आदिवासी संघर्षों को बेअसर करने में सफल हुई और उन्हें 'राष्ट्रीय' विकास के ढांचे में शामिल करने का प्रबंधन भी किया बावज़ूद इसके अभी भी एक वृहत संख्या उन गरीब शोषित प्राणियों की है जो हाशिये पर हैं और जिनके लिये इस दुर्दशा से निकलने का कोई अवलंब नहीं है ।

***

अगर आप उन क्षेत्रों में कभी गये या आपने अखबारों और टीवी स्क्रीन पर देखा तो देखेंगे उनके चेहरे और शरीर .. कृश, दुर्बल, नंगे पांव, और चिथड़ों में । हज़ारों की तादाद में । किस अबूझ रसायन क्रिया द्वारा वे राष्ट्र या बंगीय वाम (लालगढ़ के संदर्भ में ) के दुश्मन घोषित हो गये ? क्या गरीब सर्वहारा वर्ग के विचार में फिट नहीं है? अगर आप उनके लिए बात नहीं करते, तो माओवादी करेंगे । लेकिन उस दिन के लिए इंतजार मत करें जिस दिन वे खुद के लिए बात करना शुरू करेंगे क्योंकि तब वो सचमुच कोई और ही दिन होगा।
***
अठारह सौ तीस में, अमेरिकी दक्षिणी भाग के अधिकांश मूल निवासी अमेरिकियों को मिसिसिपी नदी के पश्चिम में उनके स्वदेश से हटा कर विस्थापित कर दिया गया इसलिये कि संयुक्त राज्य अमेरिका से यूरोपीय मूल के अमेरिकी विस्तार को समायोजित करना था । कुछ समूह रह गये अलबामा, फ्लोरिडा, लुइसियाना, मिसिसिपी, उत्तरी केरोलिना, और टेनेसी में ।
***
 पुलिसकर्मी मरते हैं , नक्सल मरते हैं, गाँव वाले गरीब आदिवासी मरते हैं । जो पुलिसकर्मी मरे हैं वो भी उतने ही शिकार हैं सरकारी नितियों के जितने की अन्य । सरकार और निगमों के लिये वो भी उतने ही नगण्य हैं जितने कि आदिवासी । डिस्पेंसेबल । क्योंकि यहाँ खेल बहुत बड़ा है , इस खेल की बाह्य भूमिका रचने के लिये ये सब छोटे मोहरे हैं , गिरते रहेंगे ।

सरकार के भारी अन्याय के प्रतिकार में किया गये आंदोलन को उसके समकक्ष रखना जो अन्याय को लागू कर रहा है , बेतुका है । अहिंसक प्रतिरोध के सब दरवाज़े क्यों बन्द किये गये ? जब आमजन हिंसा की तरफ अग्रसर होते हैं तब हर किस्म की हिंसा सँभव बनाई जाती है , क्रांतिकारी , आपराधिक , दहशतगर्दी , गुँडागर्दी। ऐसी राक्षसी स्थितियों के लिये कौन ज़िम्मेदार है ?

सलवा जुड़ुम और नक्सल , इनके बीच आदिवासी .. जिनके लिये कोई रिकोर्स कहीं नहीं है।

बिना ज़मीन जंगल पानी के ..हम कहाँ जायें ..मछली मर गई , पंछी उड़ गई , जाने कहाँ कहाँ .... 
***
 हाल ही में भारत में ग्रामीण विकास मंत्रालय की रिपोर्ट जारी हुई जो छत्तीसगढ़ के भीतरी प्रदेश के अधिग्रहण का दोष सरकार और टाटा और एस्सार जैसी कंपनियों को देती है । यह रिपोर्ट दावा करती है कि यह ज़मीन की सबसे बड़ी हड़प है कोलंबस के बाद । और यह महज इत्तेफाक नहीं है कि भारत का खनन गढ़ माओवादी गढ़ भी है ।

कर्नाटक में रेड्डी बंधुओं के कारनामों‘ पर हमारी कोई नज़र है ? हम चाहें उससे भविष्‍य का एक सबक ले सकते हैं, लेकिन सबक लेने की हमारी आदत है ?
***
1885 और 1969 तक के वर्षों में आदिवासी बच्चों को उनके परिवारों से अलग ले जाया गया घरेलू नौकरों के रूप में काम करने के लिए और सफेद लोगों के सरकार द्वारा नियंत्रित मिशनों और भंडार पर रहने के लिये। यह सफेद ऑस्ट्रेलिया के शर्मनाक इतिहास की दास्तान है। न्यू साउथ वेल्स राज्य में आदिवासी जनजातियों को अपने आदिवासी भूमि छोड़ने के लिए मजबूर किया गया और सरकार नियंत्रित सुरक्षित क्षेत्रों में खदेड़ दिया गया । आमतौर पर सफेद सेटलर्स द्वारा माना जाता था कि आदिवासी जल्द ही लुप्त हो जायेंगे और आरक्षित भूमि बेचा जाएगा और खेती के लिए इस्तेमाल किया जायेगा ।

जब यह स्पष्ट हो गया कि आदिवासी खत्म नहीं होंगे तब संरक्षण बोर्ड ने सभी आदिवासी समुदायों को तोड़ने का फैसला किया। उनकी ज़मीन नव कृषि के लिए यूरोप पहुंचे लोगों को बेचा गया । बोर्ड ने आदिवासियों से उनके भूमि संबधित सभी अधिकार छीन लिये । उनका न सिर्फ अपनी ज़मीन पर से बल्कि सभी चीज़ों पर से स्वामित्व खत्म कर दिया गया । आरक्षित क्षेत्र आदिवासी बच्चों को नौकर बनने के प्रशिक्षण केन्द्र बन कर रह गया । बच्चों को उनके परिवार से हटा कर उनके सफेद मालिकों के नियंत्रण में रख दिया गया । और इस तरह ये हटाये गये बच्चे फिर दोबारा कभी घर नहीं लौटे ।

बीसवीं सदी के मध्य में, आदिवासी आटा, चीनी और चाय के बदले काम कर रहे थे , उत्तरी, मध्य और पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया के पशु स्टेशनों पर। आदिवासी महिलायें स्टेशनों पर अक्सर पुरुषों की तुलना में अधिक कठिन काम कर रही थीं । पुरुष मवेशियों के साथ काम कर रहे थे ।महिलाओं न सिर्फ घरेलू काम जैसे खाना पकाना , सफाई, धुलाई, और बच्चों की देखभाल बल्कि बाहर के काम भी जैसे पशुओं चालकों के रूप में , ऊँट की टीमों के साथ, चरवाहे के रूप में, सड़क मरम्मत, पानी वाहक, घर बिल्डरों, और माली के रूप में भी कर रहीं थीं । अगर वे भागने की कोशिश करते उन्हें पकड़ लिया जाता और निर्ममता से पीटा जाता ।

जनजाति मूल के बच्चों को ज़बरदस्ती हटाने का काम ऑस्ट्रेलिया के हर राज्य और क्षेत्र में हुआ ।बच्चों की जुदाई 1885 में विक्टोरिया और न्यू साउथ वेल्स में शुरू हुई और, कुछ राज्यों में, 1970 तक बंद नहीं किया गया। 85% आदिवासी परिवार इस योजना से किसी न किसी तरह से प्रभावित हुये । न्यू साउथ वेल्स में 1885 से 1996 तक आठ हज़ार बच्चों को उनके परिवार से अलग किया गया ।
***
प्रश्न: नक्सली सहानुभूति रखने वाले को परिभाषित करें

जवाब: एक व्यक्ति जो आदिवासियों को मुफ्त स्वास्थ्य सेवा प्रदान करता है, उनको आश्रय देनेके लिए आश्रम खोलता है, उन बैठकों में शिरकत करता हैं जहाँ नक्सल युद्ध में मारे लोगों के रिश्तेदारों का सम्मान होता है आपरेशन ग्रीनहंट पर स्वतंत्र जांच आयोजित करता है , उदाहरण के लिए, बिनायक सेन, हिमांशु कुमार, संदीप पांडे, नंदिनी सुन्दर

***

जनजातीय समय सपना धरती के अस्तित्व को गाती हैं । आदिवासी और भूमि एक है । धरती को गाने से ही धरती का अस्तित्व है , पहाड़ का , रास्तों का ...

आदिवासी निर्माण मिथकों में वे पौराणिक प्राणी है जो स्वप्न समय में महाद्वीप पर फिरते थे गाते थे सभी उन चीज़ों को जो उनके सामने आते , पक्षी , जानवर , पौधे, चट्टान,पानी , और इन्ही गीतों से संसार का जन्म हुआ

***
मैंने पहले कहा था पहाड़, जंगल, आदिम जीवन के ढेरों ‘नैरेटिव्स’ हैं, प्रताड़ना, तिरस्‍कार, घेराबंदी करके अमानवीयीकरण के यंत्रणाकारी किस्‍से, हम भूले नहीं उन्‍हें, उनकी रौशनी में भविष्‍य की तैयारी करें । अगर समाज और जीवन को हम  सफेद और काले के विभाजन में नहीं देखते , इतिहास और सभ्‍यता से अगर सीखना चाहते हैं । अंतत: सवाल यही बनता है कि सीखना चाहते हैं ? लोकतंत्र को उसकी समूची गरिमा में इज्जत देने का नैतिक बल रखते हैं?











साभार

सदानंद मेनन का लेख


अबॉरिजिनल चिल्रेन ,”अ लॉस्ट जेनेरेशन “ रेबेका बर्क और ट्रेसी ले


चीफ सियेटल का 1854 का भाषण


ब्रूस चैटविन सॉंग लाईंस


नेहा दीक्षित तहलका



4/02/2010

सिर्फ एक प्रेम कथा

गीली मिट्टी ,गेहूँ की बाली, तुम और मैं....

तुम्हें याद है गर्मी की दोपहरी खेलते रहे ताश, पीते रहे नींबू पानी, सिगरेट के उठते धूँए के पार उडाते रहे दिन खर्चते रहे पल और फिर किया हिसाब गिना उँगलियों पर और हँस पडे बेफिक्री से
तब , हमारे पास समय बहुत था

***

सिगरेट के टुकडे, कश पर कश तुम्हारा ज़रा सा झुक कर तल्लीनता से
हथेलियों के ओट लेकर सिगरेट सुलगाना
मैं भी देखती रहती हूँ शायद खुद भी ज़रा सा
सुलग जाती हूँ
फिर कैसे कहूँ तुमसे धूम्रपान निषेध है

***
तुम्हारी उँगलियों से आती है एक अजीब सी खुशबू, थोडा सा धूँआ थोडी सी बारिश थोडी सी गीली मिट्टी , मैं बनाती हूँ एक कच्चा घडा उनसे क्या तुम उसमें रोपोगे गेहूँ की बाली ?

***

सुनो ! आज कुछ
फूल उग आये हैं खर पतवार को बेधकर हरे कच फूल क्या तुम उनमें खुशबू भरोगे
भरोगे उनमें थोडी सी बारिश थोडा सा धूँआ थोडी सी गीली मिट्टी

***

अब , हमारे पास
समय कम है, कितने उतावले हो कितने बेकल पर रुको न धूँए की खुशबू तुम्हें भी आती है न गीली मिट्टी की सुगंध तुमतक पहुँचती है न
कोई फूल तुम तक भी खिला है न

***

जाने भी दो आज का ये फूल सिर्फ मेरा है आज की ये गेहूँ की बाली सिर्फ मेरी है इनकी खुशबू मेरी है इनका हरैंधा स्वाद भी
मेरा ही है

आज का ये दिन मेरा है, तुम अब भी झुककर पूरी तल्लीनता से सिगरेट सुलगा रहे हो मैं फिर थोडी सी सुलग जाती हूँ.

***   ***   ***

हरी फसल, सपने मैं और तुम

हम सडक पार करते थे हम बात करते थे तुम कह रहे थे मैं सुन रही थी तुम सडक देखते थे मैं तुम्हें देखती थी
फिर तुमने हाथ थाम कर मुझे कर दिया दूसरे ओर
तुम्हारी तरफ गाडी आती थी
तुम बात करते रहे मैं तुम्हें देखती रही
राख में फूल खिलते रहे गुलाबी गुलाबी

***

तुम निवाले बनाते मुझे खिलाते रहे तुम ठंडे पानी में मेरा पैर अपने पाँवों पर रखते रहे तुम मुझे सडक पार कराते रहे
तुम मुझे गहरी नींद में चादर ओढाते रहे
मैं मिट्टी का घरौंदा बनती रही मैं खेत की मिट्टी बनती रही
मैं हरी फसल बनती रही
मैं सपने देखती रही मैं सपने देखते रही

***   ***   ***


नीम का पेड , सोंधी रोटी..मैं और तुम

नीम के पेड के नीचे कितनी निबौरियाँ कभी चखा उन्हें तुमने ? नहीं न कडवाहट का भी एक स्वाद होता है मैं जानती हूँ न
तुम भी तो जानते हो

***

हम बात करते रहे अनवरत, अनवरत कभी मीठी , कभी कडवी सच !
उनका भी एक स्वाद होता है न

***

बीत जायें कितने साल जीभ पर कुछ पुराना स्वाद अब भी
तैरता है
तुम्हारी उँगली का स्वाद नीम की निबौरी का स्वाद अनवरत बात का स्वाद !

***

जंगल रात आदिम गंध, मैं पकाती हूँ लकडियों के आग पर मोटे बाजरे की रोटी निवाला निवाला खिलाती हूँ तुम्हें
मेरी उँगली का स्वाद, सोंधी रोटी का स्वाद मीठे पानी का स्वाद.

***

 परछाईं नृत्य करती है मिट्टी की दीवार पर, तुम्हारे शरीर से फूटती है,
गंध ,रोटी का स्वाद नीम की निबौरी का स्वाद मेरी उँगली का स्वाद

***

मैंने काढे हैं बेल बूटे, चादर पर हर साल साथ का एक बूटा, एक पत्ता फिर भरा है उनमें हमारी गंध, हमारी खुशबू हमारा साथ हमारी हँसी, आओ अब इस चादर पर लेटें साथ साथ साथ साथ

***   ***   ***

मैं और तुम..हम


तुम और हम और हमारे बीच डोलती ये अंगडाई, आज भी .....
कल ही तो था और कल भी रहेगा

***

स्पर्श के बेईंतहा फूल मेरी तुम्हारी हथेली पर, कुछ चुन कर खोंस लूँ बालों में
कानों के पीछे

***

टाँक लूँ तुम्हारी हँसी अपने होठों पर , कैद कर लूँ तुम्हें फिर अपनी बाँहों में ?

***

तुम्हारे सब जवाबों का इंतज़ार करूँ ?
या मान लूँ जो मुझे मानना हो , सुन लूँ जो मुझे सुनना हो

***

ढलक गये बालों को समेट दोगे तुम ?मेरी हथेलियों पर अपना नाम
लिख दोगे तुम ?

***

मेरे तलवों पर तुम्हारे सफर का अंश क्या देखा तुमने , मेरे चेहरे पर अपने सुख की रौशनी तो
देख ली न तुमने

***

मैं क्या और तुम क्या , मेरा और तुम्हारा नाम मेरी याद में गडमड हो जाता क्यों
क्या इसलिये कि अब हम सिर्फ हम हैं ?
सिर्फ हम


***   ***   ***

 हम

एक फूल खिला था कुछ सफेद कुछ गुलाबी , एक ही फूल खिला था फिर ऐसा क्यों लगा
कि मैं सुगंध से अचेत सी हो गई

***
मेरी एडियों दहक गई थीं लाल, उस स्पर्श का चिन्ह , कितने नीले निशान , फूल ही फूल
पूरे शरीर पर
सृष्टि , सृष्टि कहाँ हो तुम ?

***
कहाँ कहाँ भटकूँ , रूखे बाल कानों के पीछे समेटूँ कैसे ?
मेरे हाथ तो तुमने थाम रखे हैं

***
मेरे नाखून, तुम्हारी कलाई में , दो बून्द खून के धीरे से खिल जाते हैं ,तुम्हारे भी
कलाई पर

अब ,हम तुम हो गये बराबर , एक जैसे फूल खिलें हैं
दोनों तरफ

***

आवाज़ अब भी आ रही है कहीं नेपथ्य से , मैं सुन सकती हूँ तुम्हें
और शायद खुद को भी , मैं चख सकती हूँ , तुम्हें और शायद अपने को भी
लेकिन इसके परे ? एक चीख है क्या मेरी ही क्या ?

***

न न न अब मैं कुछ महसूस नहीं कर सकती , एहसास के परे भी
कोई एहसास होता है क्या

*** *** ***
(एडिथ पियाफ ..ला वियाँ रोज़ )