कुहासा झम झम गिर रहा था । जाड़े के सर्द दिनों में बारिश का तीसरा अवसाद भरा दिन था । दिन के बाद रात अचक्के नकाबपोश सी आई थी। सड़क वीरान थी। घरों की खिड़कियाँ बन्द थीं , पर्दे गिरे थे । अँधेरे में लैम्पपोस्ट से लटका एक पीला फीका गोला धीरे धीरे हिल रहा था । बारिश झीसियों में किसी पुराने रुदन की धीमी अंतहीन सुबकियों सी गिरती थी । सब रहस्यमय रोमाँचक था , जैसे पुरानी थ्रिलर फिल्मों में किसी अनहोनी घटना के घट जाने का स्टेज सेट हो , किसी लम्बी खींची तान के दहशतपने को उकेरता वायलिन का सुर हो।
ट्रेंचकोट और फेल्ट हैट पहने लम्बा सा शख्स तेज़ कदमों से चलता आया फिर ठिठक कर लैम्प पोस्ट के ऐन नीचे खड़ा हुआ । ऊपर से गिरती रौशनी में हैट के नीचे सिर्फ उसके चेहरे का निचला हिस्सा दिखता था । मज़बूत जबड़े और शायद बाज़ की सी मुड़ी हुई कठोर सी नाक का आभास । वो कुछ देर अँधेरे में जाने क्या देखता खड़ा रहा फिर कोट के भीतरी पॉकेट से निकाल , हथेलियों की ओट में, पानी और हवा से लौ बचाते, तल्लीन होकर सिगरेट सुलगाया । एक पल को भक्क से लौ की तेज़ी भड़की फिर एक लाल बिन्दू में तब्दील हो गई । गहरा कश खींचते उसने कँधे सिकोड़े फिर कोट के कॉलर को खड़ा करते , गर्दन को तीखी हवा और पानी से बचाते तीन चार तेज़ कश खींचे । फिर आधे सिगरेट को बिना पिये ही अचानक किसी बेताबी से नीचे फेंका , बूट के टो से उसे मसला , कोट के पॉकेट में हाथ ठूँसे और जिस तेज़ी से आया था उसी तेज़ी से मुड़ कर अँधेरे किसी रास्ते में विलीन हो गया । उसके सशरीर चले जाने के कुछ देर बाद तक उसके बूट की आवाज़ एक फौज़ी दुरुस्ती में गूँजती रही ।
ऊपर एक खिड़की खुली । एक औरत ने पर्दे हटाते नीचे झाँका , आवाज़ की ओर । कुछ देर सतर्क चौकन्नेपन के टेढ़ेपने में सर बाहर निकाले अँधेरा पीती रही । फिर हताश खिड़की बन्द की । किसी गली में छत से निकले ड्रेन पाइप से हड़हड़ाते पानी का शोर हुआ फिर सब एकदम शाँत हो गया । आग से हाथ सेंकते बूढ़े आदमी ने बेचैन टहलती औरत को देखा । इस छोटे से कमरे में उसका यों टहलकदमी करना उसे परेशान कर रहा था । घर के अंदर यों लगातार बन्द होना भी , और इतनी ठंड में मनपसंद शराब का न होना भी ।
बगल के फ्लैट से , जहाँ वो पीली जांडिस वाली लड़की अकेली रहती थी , संगीत की धीमी सुबकती आवाज़ आने लगी । इन लगातार की बरसाती सर्द दिनों में लड़की का चेलो बजाना बेतरह बढ़ जाता था । सूखते काँपते पत्तों की तरह उसका संगीत फिज़ाओं में थरथराता गूँजता था । बारिश की संगत में हुहुआती बर्फीली हवाओं पर सवार छतों की काई पर जम जाता , स्यामीज़ बिल्ली की गुपचुप चाप पर घूमता उसकी सीधी तनी खड़ी पूँछ के शिखर पर टिक जाता , फायरप्लेस की लकड़ियों पर तड़तड़ाता , पड़ोस के घरों की खिड़कियों पर टपटप दस्तक देता , फिर वापस घूमता लड़की के चेलो बजाते हाथों में समा जाता । उसकी उँगलियाँ कुछ पल को थरथरातीं , उसके होंठ उदासी में नीचे गिर जाते । खिड़की के सिल पर रखे पौधे का अकेला फूल धीमे से मुरझा जाता ।
बिल्ली भीगते दीवार पर कदम जमाये चलती , चौंक कर पीछे पेड़ों पर कुछ देखती । उसकी पूँछ तन जाती , उसके रोंये खड़े हो जाते , उसका बदन अकड़ जाता । पेड़ों के झुरमुट के पीछे ट्रेंचकोट वाला शख्स लम्बे डग भरता , पानी के बौछार के आगे ज़रा सा झुकता , तेज़ी से जाता अचानक मुड़ कर बिल्ली को देखता है ।
द स्टेज इज़ सेट फॉर द क्राइम ...
( जारी.... )
‘आमतौर पर’ ख़ास चर्चा
4 days ago