5/29/2008

वो औरतें

वो औरतें प्रेम में पकी हुई औरतें थीं
कुछ कुछ वैसी जैसे कुम्हार के चाक से निकले कुल्हड़ों को आग में ज़रा ज़्यादा पका दिया गया हो
और वो भूरे कत्थई की बजाय काली पड़ गई हों
या कुछ सुग्गे के खाये, पेड़ों पर लटके कुछ ज़्यादा डम्भक अमरूद की तरह
जिसे एक कट्टा खाकर फिर वापस छोड़ दिया गया हो उनके उतरे हुये स्वाद की वजह से



वो औरतें डर में थकी हुई औरतें थीं
कुछ कुछ चोट खाये घायल मेमनों की तरह
जिबह में जाते बकरियों की तरह
जिनकी फटी आँखों से लगातार बेआवाज़ आँसू बहते हों
या कुछ उन जोकरों की तरह जो हर कलाबाज के करतब पर पाउडर पोते
ठोस ज़मीन पर खड़े अंदर ही अंदर भय से थरथराते हैं

इन औरतों ने पाया कि आखिर एक वक्त ऐसा आया कि
भय और प्रेम इनके अंदर एक हो गया
तब उन औरतों ने
एक जत्था बनाया
खड़िया हाथ में पकड़ा
और लिखा प्रेम अर्थात भय
फिर लिखा
भय अर्थात शून्य और
शून्य अर्थात प्रेम अर्थात मुक्ति


आसमान में अक्षर उभरने लगे
हर अक्षर पर
उनकी उँगलियों की पकड़
मज़बूत होती गई
आग की लपट उँची उठने लगी
भट्टी में शब्द पकने लगे
उन लपटों में आहूति देते एक सुर से गाया
इदमग्नये जातवेदसे इदन्न मम

ओ पवित्र अग्नि जो वर्तमान है हर सृजन में
ये मेरा शरीर , मैं समर्पित करूँ
अपनी आत्मा की गहराई से
इस अग्नि को ये शरीर जो अब मेरा नहीं
कस्मै देवाय हविषा विधेम


बोलती है एक खास लय में साँस रोके दमयंती जिसका नाम पड़ा है अपने
किसी बूढ़ी परदादी के नाम पर
उसी के जिनके डायरी के पहले पन्ने पर से पढ़ती है एक साँस में
दमयंती
कहानी उनकी जो किसी पिछली सदी में थीं
वो औरतें
और जो अगली कई सदियों तक रहेंगी
वो औरतें ...

5/27/2008

ऑरकेस्ट्रा

उस रात घुप्प अँधेरे में चौकस सिर्फ दो आँखें थीं । गीदड़ों का हुहुआना , तेज़ बरछी हवा और झिंगुरों का संगीत था । रात था , अकेलापन निचाट था । और ऊपर चमकते कितने तारे थे , इतने कि छाती भर जाय । इतने कि सब ओढ़ लूँ फिर भी बच जाय । फिर बारिश होने लगी थी । अंदर बाहर सब भीग रहा था । अब सिर्फ चलना था । जैसे समय की कोई सीधी रेखा पर पैर जमाते कोई कुशल नट । और चलते चलते , एक लय से चलते संगीत शुरु हुआ । धीमा मद्धम । मेरे अंदर झरना बहता था । उसकी फुहार बाहर तक आती थी । किसी आरोह पर हिचकी सी अटक जाती थी । फूल खिलते थे , नीले हरे और नदी बहती थी तेज़ शोर करती हुई । और नदी के तट पर तम्बुओं से बाहर झाँकती औरतें आँखों को हथेलियों का ओट देकर देखती थीं दूर कोई घोड़े के चापों की आहट । गदबदे नंगधड़ंग बच्चे लुढ़कते गिरते हँसते रोते , माँओं के कपड़े से लटके पलते बढ़ते बड़े होते , आग पर कन्द और जानवर भूने जाते , मछलियाँ सुखाई जाती , कढ़ाहों में कपड़े रंगे जाते , मोती सीप पत्थर की मालायें बनती और जीवन चलता । उस रात और जाने कैसी कितनी रात , ऐसे ही तारों के नीचे धरती पर , नसों और शिराओं में गीत बजता । नगाड़े के थाप पर उन्माद नाचता , जोड़ता कोई तार जाने कहाँ से कहाँ तक । ऐसी ही सोच को सोचता कोई पगलाता विलाप में । पत्थर पेड़ नदी आदमी । आदमी छूता अपनी त्वचा को अपने शरीर को अपनी आँखों को । उस तेज़ होते संगीत में , किसी और नई सभ्यता के जन्म में , किसी और आकाशगंगा में कोई नर्म रोंयेदार गिलहरी बरामदे में बस एक पल को स्थिर गर्दन मोड़े देखती उस बच्चे को जो बढ़े हाथ में मूँगफली पकड़े देखता है घात लगाये । पर इस बार भी फुर्र होती है गिलहरी ।

आदमी भीगे ज़मीन में चलते चलते आखिर थक कर लेटता है । दूर कहीं एक रौशनी का टिमटिमाता बिन्दू ही काफी है सुकून के लिये । कोई और है तो इस भरी दुनिया में ..एक और इंसान कोई , कहीं । भीगे पत्तों से रामजी का घोड़ा निकल, बैठ जाता है उसकी छाती पर । आदमी के खर्राटे में सुनाई देता है उसको अपना कोई पहचाना प्यारा गीत । थकन से बेहोश आदमी अब भी अकेला है अपने संगीत में, अपनी नींद में ।

5/25/2008

अगड़म बगड़म ठेलठाल

पिछले दो दिन खूब भागदौड़ के रहे । परसों पूरे दिन दफ्तर के बाद कम्पनी के नवरत्न बनने के उपलक्ष्य में सांस्कृतिक संध्या । श्रेया घोषाल और बॉम्बे वाईकिंग्स के नीरज श्रीधर । दोनों अच्छा गाते हैं पर मेरी रुचि के नहीं । फिर कल किसी मित्र ने आईपीएल के पासेस पकडा दिये ... फिरोज़शाह कोटला में मुम्बई इंडियंस वर्सेस डेल्ही डेयरडेविल्स । क्रिकेट एक वक्त जुनून जगाता था अब नहीं । पर दोनों दिन बच्चों के मज़े का ख्याल करके आधी रात का रतजगा किया । इन्हीं अगड़म बगड़म ठेल ठाल के बीच दोबारा पेंसिल पकड़ा । एक स्केच पैड कुछ महीने पहले खरीदा था ..हैंडमेड स्केच पैड 100 % ऐसिड फ्री और खोज निकाल कर स्टेडलर मार्स लुमोग्राफ टू बी , सिक्स बी , ई ई पेंसिल्स ।

खुले पन्ने पर पेंसिल पकड़ते भी घबड़ाहट हो रही थी तो आसान तरीका सोचा ..स्टेफनी रियु का एक स्केच देखकर बनाया । सौ में शायद दस नम्बर भी नहीं मिलेंगे पर इतने सालों के बाद सीधी आड़ी लाईनें खींचने का मज़ा खूब सुख दे गया । उस हेज़ी स्मज्ड आकृति का पन्ने पर थोड़ा थोड़ा उभरना । उसके बाद हाथ साफ किया मिशेल मार्शंड की तेज़ तीखी बोल्ड लाईंस का .. वहाँ सफलता ज़्यादा मिली , पर अब जब हाथ एक कर्व्ड लाईन खींच पा रहे हैं तो असल मज़ा कुछ खास अपना बनाने में आयेगा । फिलहाल पहला प्रयास यहाँ है . बाकी फिर जैसे हाथ साफ होगा स्केच पैड भरेगा ।




















कल पता नहीं
सनथ की बैटिंग देखते
क्यों साल्वादोर डाली की मूँछें
याद आईं
कुछ उसी तरह
जैसे बचपन में हिसाब की कॉपी के मार्जिन
पर औरतों के चेहरे
या फिर मलाई कोफ्ता पकाते
कढ़ाई से झाँक जाते
हेमिंगवे
शायद कोई कनेक्शन होगा
उसी मूवेबल फीस्ट से
जोकि पढ़ा गया बाद में कभी
किसी रद्दी के दुकान से
अचक्के नज़र पड़ने पर
पाँच रुपये में खरीदा गया
जिसके पहले पन्ने पर
किसी अनजान रमेश गुप्ता
की हरी स्याही में दर्ज़
दिन नाम तारीख
कुछ कुछ वैसा ही नहीं ?
जैसे अखबार के पन्ने पर
मेमोरियम पढ़ते
अटक जाती है आँख
किसी सिल्वेरियस डुंगडुंग पर ?

लेकिन आते हैं फिर डाली पर
क्योंकि उसके बाद देखा नहीं गया
एक भी बॉल
क्योंकि देखती रही
मैं पूरे फील्ड में
डाली की ऊपर उठी हुई
ऐंठी मूँछें
उसकी चमकती जुनूनी आँखें
अब आप ये मत पूछियेगा
कल मैच किसने जीता ?
किसी भी रेगुलर सीन में फिट होना
उतना ही आसान है
जितना डाली की मूँछों को याद रखना

5/24/2008

इतनी ज़िम्मेदारी तो निभाईये

पब्लिक में गंदे कपड़े सुखाने का काम मैं करना नहीं चाहती थी , इसलिये बोधी के पोस्ट पर जहाँ उन्होंने साहित्यिक शब्दों और व्यंजनाओं की छटा बिखेरी है , किताब छपवाने का गुर बताया है , मैं चुप रही । जबकि कुछेक अन्य सूत्रों से उनके ऐसे आशय की बातें , खासकर जुगाड़ लगाकर किताब छपवाने वाली बात , उससे वाकिफ होते हुये भी मैं ने हमेशा संयत खामोशी बरती । मैं ब्लॉग तब से कर रही हूँ जब उन्हें उसका ब तक नहीं मालूम था । ब्लोग शिष्टाचार के कुछ पाठ हमने घुट्टी में शुरु से पीकर रखा उसी असर में उनकी बातों को नज़र अंदाज़ किया ।

उन्होंने एक पोस्ट लिखा जिसके संदर्भ में मैंने "सीधी बात" लिखी और उसमें अगर कोई 'अशालीन' शब्द था तो वो "डिग्रेड" था । इसका अर्थ शायद हिंदी के वरिष्ठ कवि ने कुछ और समझा वरना उनके तिलमिलाहट भरे पोस्ट का आशय और सबब मेरी समझ में नहीं आया । लीद , मस्ती , प्रकाशक और बूढ़े मालिक को साधना जैसे शब्द लिखे , हाँ अभय के अनुसार ये रामायण महाभारत के ज्ञाता हैं , गुणी हैं , साहित्यकार हैं , भले मित्र हैं पर ऐसी भाषा और ऐसी सोच को न सिर्फ सोच सकते हैं बल्कि खुलेआम एक पब्लिक डोमेन पर बिना सच जाने या जानने की कोशिश किये बिना हुल्लड़ी भाषा में सार्वजनिक भी कर सकते हैं । डिफेंस क्या लिया ..कि मैंने किसी का नाम नहीं लिया । पर मैं या अन्य ब्लॉगर्स अबोध बालक बालिका तो नहीं कि मेरी पोस्ट के इन लाईंस को इस तरह प्रासंगिक व्याख्या सहित और किताब छपवाने के साथ जोड़ कर लिखा जाय और वो समझ में न आये।

इनके स्तर पर आने के लिये मैं भी वरिष्ठ हिन्दी कवि लिख कर चार वाकचाबुक चला दूँ फिर कहूँ कि ऐसे तो कितने कवि हैं आपकी बात नहीं हो रही । इन्हीं की पत्नी जो खुद अपने अनुसार कभी भी किताबवाली हो सकती हैं , उनके किताबवाली हो जाने पर क्या ये उनको भी प्रकाशक मालिक को साधा है , कहेंगे ? अगर नहीं कहेंगे तो इनका क्या अख्तियार बनता है कि बिना मेरे विषय में जाने ये अबतक ऐसी बातें सेलेक्ट सर्कल में तो करते आये थे अब पब्लिक डोमेन में भी कर रहे हैं ..कि ऐसा ही होता है । फिर उम्मीद रखें कि स्त्री है ऐसी बात पर चुप्पी साध लेगी । अज़दक ने इनके बारे में चार बातें कहीं ..इनको बेहद तकलीफ हुई , चार जगह इन्होंने फोन किया , मैंने जेनेरल बात कही , कहा , पर इनके पोस्ट की भाषा और कंटेंट पर कोई आहत होगा इसकी समझ इनको नहीं थी ?

परिपक्व इंसान होते तो मेरी पोस्ट पर अपना तर्क उसी भाषा में देते जिसमे मैंने दी थी । शायद ऐसे नहीं हैं तो जो आसान तरीका दिखा कि मेरे लेखन को किसी को साधने जैसा टिपिकल मेल स्तीरियोटाईप रंग दे कर गिराने की क्षुद्र कोशिश की । अच्छे कवि होंगे लेकिन कैसे इंसान हैं ये अभय के सर्टिफिकेट के बावज़ूद मुझे खूब समझ आ रहा है । सामान्य शिष्टाचार होता तो मुझसे फोन कर सकते थे , मेरी पोस्ट से कोई आहत होने की बात लगी होती जो कि मेरे समझ से बिलकुल ऐसा नहीं था , तो बात किया होता ... पहले इन्होंने मुझे फोन किया है इसलिये ऐसा भी नहीं कि पहली मर्तबा बात करने की हिचक हो ।

प्रमोदजी किसी के प्रहरी नहीं । पहला , मुझे या किसी भी स्त्री को प्रहरियों की ज़रूरत नहीं , हम अपनी लड़ाई खुद लड़ सकते हैं । मैं नौकरी करती हूँ और लोगों को हैंडल करना मुझे आता है । प्रमोदजी ने पोस्ट लिखी तो वो हमेशा से मँहफट ब्लॉग्गर रहे हैं जो अपनी बात खरी खरी करता है और मेरी ही नहीं जब भी कोई मसला उठता है जहाँ उन्हें कुछ कहना होता है वो खरी बात कहते हैंउनके बारे में कई ब्लॉगर क्या सोचते हैं , उनके लिखे का कितना सम्मान करते हैं इसके लिये हमें किसी बोधी सर्टिफिकेट की ज़रूरत नहीं । दूसरे अपने पोस्ट में बोधी ने उन्हें भी लपेटा था । बोधी ने क्या समझा कि साधू साध्वी कह देने से साधू जैसी ही प्रतिक्रिया पायेंगे ? इतने भोले अबोध तो बोधी उम्र के इस पड़ाव पर नहीं ही होंगे ।

मेरे शालीन बात का जवाब उन्होंने अशालीन होकर दिया । फिर जब उन्हें उनकी ही भाषा में जवाब मिला तो तिलमिलाये क्यों ? हिन्दी साहित्यकार की यही मिसाल वो रख रहे हैं ब्लॉग्गर्स के सामने ? कुछ वरिष्ठ साहित्यकार जो ब्लॉग कर रहे हैं उनके प्रति भी यही लिहाज़ वो दिखा रहे है? फिर दूसरों से लिहाज़ की उम्मीद रख रहे हैं ? कीचड़ में हाथ डाला था दूसरों पर फेंकने के लिये और अब रो रहे हैं कि हाथ गंदे क्यों हुये ?

अभय ने लिखा कि बोधी अकेले पिट रहे हैं । पिट रहे हैं कि पीट रहे हैं ... अभय आप को इतना ही दिखा , उनकी क्षुद्र सोच नहीं दिखी ..दूसरों का पिटना नहीं दिखा ? आप दोस्ती के नाम पर गलत को सही ठहराईये इसलिये कि बात आपके खिलाफ नहीं की गई है । जब ऐसी स्थिति आयेगी तब शायद आप अकेले खड़े दिखाई देंगे ।

माफ करें साहित्यजगत में मेरी एंट्री जुम्मा जुम्मा कुछ दिनों की है और आपकी सोच के विपरीत जो भी मेरा लेखन छपा है वो किसी को साधे बिना छपा है ..शायद आपका छपने का अनुभव दूसरा रहा हो । अपने अनुभव के आधार पर कीचड़ कादो मत फैलाईये ... पानी अगर गंदा है तो उसे साफ करने में अपनी उर्जा लगाईये ..कृपा करके और गंदा मत करिये और उस गंदगी को ब्लॉग जगत में तो मत ही लाईये । साहित्यकार आप हैं , लोकप्रिय ब्लॉग्गर आप हैं .. कमसे कम इतनी ज़िम्मेदारी तो निभाईये ...

पुन: इस प्रसंग में दो नये ब्लॉगरों ने ( नंदिनी और गौरव ) जितनी समझदारी और परिपक्वता दिखाई है , जितना पूरे प्रसंग का नब्ज़ पकड़ा है उतना वरिष्ठ ब्लॉगरों ने भी नहीं जिन्हें इसमें या तो हँसी ठिठोली दिखी या मसाला दिखा । उम्मीद है कि मेरी इस पोस्ट में एक गलत बात के खिलाफ तकलीफ और गुस्सा दिख रहा होगा कोई रंगीन मसाला नहीं ।

5/22/2008

सीधी बात

लोगों की अपनी रुचि होती है अपने पाठकवर्ग होते हैं । कुछ लोग बहुत बढ़िया लिख रहे हैं इसका यह मतलब नहीं कि जो साहित्य रच रहे हैं वो सिर्फ टिप्पणी के आधार पर कमतर हैं । ऐसा सोचना सिर्फ अपनी सोच को गिराना है , अपने बेंचमार्क को लोअर करना है ।

जैसा ज्ञानदत्तजी ने कहा ब्लॉग लेखन पाकशाला नहीं लिंकशाला है । यहाँ हम आपसी सौहाद्र और आत्मीयता की फसल उगाते हैं । लिंक का खेल , इंटरऐक्शन का खेल , सामाजिकता का खेल , सौहाद्र का खेल यही सब तो है यहाँ । इसी में हम अपनी भाषा से भी पहचान रिनियू कर रह हैं । लेकिन अगर इस मुगालते में रहें कि ऐसे रिन्युअल से हम कोई साहित्यिक माप दंड की मिसाल रच रहे हैं , ये गलत होगा । पॉपुलर और क्लासिकल का फर्क शाश्वत है , रहेगा । इसे बराबरी पर ला कर दोनों की एहमियत समाप्त करने की ब्लासफेमी क्यों की जाये ।

जो साहित्यकार ब्लॉग कर रहे हैं वो शायद वहाँ पहुँच गये हैं जहाँ हम सब जाना चाहते हैं और उसके आगे भी । तो इस पहले कदम को मंजिल मान लेने की गलतफहमी न माने सो ही हमारी लिखाई के लिये बेहतर ।

एक और बात ...पॉप या क्लासिक ? आप पॉप सुनते हैं , मज़ा लेते हैं इसका ये अर्थ नहीं कि शास्त्रीय सुनने की संवेदनशीलता खो दें । ब्लॉग पढ़े , ब्लोग़ लिखें पर साहित्य भी पढ़ें .. उसे किसी छिछले मापदंड के आधार पर डीग्रेड न करें ।

5/20/2008

स्लीप इन हेवेनली पीस

साइलेंट नाईट होली नाईट
ऑल इज़ काम ,
ऑल इज़ ब्राईट
राउंड यू वर्जिन मदर एंड चाईल्ड
होली इंफैंट सो टेन्डर ऐंड माईल्ड
स्लीप इन हेवेनली पीस
स्लीप इन हेवेनली पीस

विली बैनिस्टर की भारी बैरीटोन आवाज़ गूँज रही है । लुलु गोडफ्रे कीबोर्ड पर उँगलियाँ चलाते लीन हैं । पीछे बगीचे में डक रोस्ट और मटन मलकटवानी , विंडालू और फिश मॉली , लाईम राईस और बॉल करी , साल्ट मीट और मार्ज़ीपान , कुलकुल और पेस्ट्रीज़ की महक उड़ रही है। कीथ सटन बाहर अकेले पेड़ के नीचे व्हिस्की ऑन रॉक्स हाथ में थामे जाने कहाँ खोये हैं । शायद शायद ये यहाँ आखिरी बार । तीन दिन बाद सिडनी रवाना हो रहे हैं । टिकट वीसा सब तैयार । मैकलीयोड्सगंज में ये आखिरी क्रिसमस । जीवन गुज़र गया । जीवन साथी गुज़र गया । अब ट्वाईलाईट ईयर्स । अपनों से दूर ,अपने से दूर ।

इस लोको कॉलोनी में जीवन के पैंसठ साल निकले । मेल ट्रेन ड्राईवरी की ..खूब सफर किया ..छोटी लाईन बड़ी लाईन , डब्लू पी स्टीम लोकोमोटिव इंजिन उनके इशारों पर चली , कोयला धूँआ , गर्मी सर्दी । गोरा चेहरा लाल भभूका हो जाता । ठीक अपने उस बाप की तरह .... डडली सटन ...फौज में कप्तान । एक परिवार यहाँ और दूसरा लिवरपूल में । परिवार के उस शाख से कीथ का वास्ता सिर्फ बाप के सूटकेस के तल में रखे फोटोग्राफ्स से था । सुनहरे बाल और नीली आँखों वाली एडना ...फोटो के नीचे लिखे लव के एल के घुमावदार पेंच से , उस अंग्रेज़ महक से ... उसकी अपनी ममा से कितनी अलग , कितनी रंगीन । पर डडली को दिखा होगा कुछ तो उस साँवली लम्बे काले बालों वाली सुवर्णलता बंगालन में जिसे रख लिया था और चटपट सूज़ेन बना डाला था । कीथ हुआ था जब तब इस बंगालन माँ की कोई छाप नहीं थी । पक्का पूरा अंग्रेज़। न कहो तो लिवरपूल एडना का कोखजाया बेटा ही लगे । डडली ने एकाध दफे सोचा भी था ..इंग्लैंड में पढ़ ले फिर एडना के तेज़तर्रार गुस्से का ध्यान आया ।

कीथ पढ़ता रहा लिलुआ में फिर कलकत्ता सेंट ज़ेवियर्स .... सब साथी ऐसे ही बने बनाये रास्तों पर चले... लोरेटो , डोन बोस्को फिर लामार्तिनेयर , सेंत ज़ेवियर्स फिर आगे आगे , कुछ पीछे , कुछ बाहर । कुछ गोरे , कुछ भूरे , न इधर के न उधर के आधे अधूरे जड़ों को तलाशते , भागते भागते , तब नहीं तो अब इंगलैंड औस्ट्रेलिया और थकहार कर आखिर समझते कि यहीं इसी काली धरती पर , इसी लोको कॉलोनी में , इसी ऐंग्लो कम्यूनिटी में निजात है ।

कीथ जाना नहीं चाहते । यहाँ का लाल ईंटों वाला चर्च , ब्रिज के पास रेलवे क्लब , बॉल डांस , पिकनिक , म्यूज़िक ,घर सब अपना है । कब्रिस्तान में मार्बल टूम्बस्टोन के बीच रखे फूलों के गुच्छे , सुज़ेन और ऐमी सटन के कब्र। फिर कौन फूल चढ़ायेगा । मेरी ऐमी मेरी ऐमी मेरी एस्मेराल्डा । किसी डांस में पहली मुलाकात हुई थी । छोटी सी साफ रंगत पर भूरी आँखों वाली , बॉबकट बालों वाली ऐमी , जिम रीव्स के गाने पर झूमती ऐमी , पीले पोल्का वाली फ्रॉक और पीले क्लचबैग थामे ऐमी , सैक्सोफोन बजाते डैशिंग पर्सी फोरन पर जान न देती ऐमी और बदले में शाँत स्थिर कीथ के साथ शाम बिताती ऐमी ।

और अब कीथ को जाना होगा । जब जाना चाहा ..शिद्दत से ... शिद्दत से अपने को गोरा साबित करना चाहा तब जो ऊपर से भूरा काला खून दिखता नहीं , अंदर से भी होता नहीं , उसकी छाया उनके चेहरे को मलिन करती रही । अब जब पीस से हैं आखिर आखिर ठहराव तब जाना पड़ेगा । सेरा उनकी बेटी सिडनी में डॉक्टर ..अकेले नहीं पापा , ममा के बाद बिलकुल नहीं । व्हिस्की का अंतिम घूँट खत्म हुआ । अंदर से हालेलूजाह की आवाज़ बाहर तैर रही है ।

लौटेंगे लौटेंगे ज़रूर । लोको शेड के पार उस आईरन ब्रिज के पीछे उस हरियाली के बीच , ऐमी के पास , न इधर न उधर बस ऐमी के पास । ग्लास वहीं श्रबरी में लुढ़का कर कीथ चल पड़ते हैं । हाथ में एक गुलाब का मसला फूल फँसा है ।

सुबह सेरा परेशान है । इंडिया से फोन । अंकल हार्वी का । कुछ कह रहे थे पापा के बारे में । आवाज़ कितनी भारी । कुछ समझ नहीं आ रहा ।
ज़ोर से बोलिये हार्वी अंकल ..सेरा लगभग चीख रही है ।
थरथराते हाथों से रिसिवर थामे उसकी आवाज़ पतली हो गई है , घबड़ाहट और उत्तेजना से ।
हनी यू कम बैक फास्ट ।

सेरा थक कर बैठ जाती है सर हाथों में थामे । वास में लाल गुलाब पर पानी की बून्द बिलकुल वैसी है जैसे सुबह सुबह ऐमी के कब्र पर मसले गुलाब पर ओस की बून्द ।

5/19/2008

रेड इज़ डेंजर

उन लड़कियों ने बाथरूम के शीशे तक
रंग डाले थे
चौकोर टुकड़े धानी और नीले
और समन्दर का गहरा हरा नीला पानी
फैले रेत का सुनहरापन और
लहराते नारियल के पेड़
पानी का झाग और
धुँध में धुँधलाता
कोई पानी का जहाज़

फिर वो कमरे की दीवारों तक आईं
वहाँ उन्होंने बनाया
जंगल
घना डरावना नहीं
खुशनुमा सुकूनदेह
जहाँ आसमान से पत्तियों तक
रौशनी छनती थी
ज़मीन पर
छोटे नन्हे फूल खिलते थे

फिर बाहरी कमरों की बारी आई
फिर दरवाज़ों की
जहाँ घुड़सवार सफेद अरबी घोड़ों पर
चुस्त मुस्तैद
परचम लहराते
धूल उड़ाते जाने कहाँ
किस नई दुनिया की खोज में
कूच करते


इस तरह उन लड़कियों ने
पूरा जहान रंग डाला
एक सफर कर डाला
पूरी दुनिया देख डाली


पर उनके रंग
अब भी बाकी थे
कुछ ठहर कर
उन्होंने अब रंगना शुरु किया
अपना मन
और पाया कि
चाहे कितनी मन मर्जी
कूची चला लें
कैसे भी शोख रंग चुन लें
पीले पड़े चेहरों पर
बिना आँख़ नाक होंठ वाले चेहरों पर
वो सिर्फ एक रंग डाल सकीं थी
लाल बिन्दी
सिर्फ बिन्दी
उस पीले चेहरे पर
बस और कुछ नहीं

और अंत में
थकहार कर
उन्होंने लिखा
रेड इज़ डेंजर !
और कहा
ये सफर यहीं समाप्त होता है

5/16/2008

एक ही मिसरा बार बार

मेरी ज़ुबान सूखी है
जैसे मेरी आँखें

लड़की हँस पड़ती है
एक गीली हँसी
उस नमी में
उगता है कोई दिन
एक जंगल
रात
उसके चेहरे में
कभी कभी
दो फूल
शायद सफेद लिली ?

लैबरनम के फूल
उस अकेली सड़क को
छूते हैं
मैं छूती हूँ
नमी
लड़की छूती है हँसी
जो बजती है
छाती के अंदर
बस ठीक वैसे
जैसे बजाता है
लड़का
सन उन्नीस सौ अड़सठ का
रिकनबैकर गिटार
पीछे पोस्टर से हँसता है
गोल चश्मे में
जॉन लेनन
और काउब्याज़ में
जॉन वेन

नींद के बेहोश झोंके से
गिरता है
फिर बार बार वही सपना
किसी हादसे का
उसके आशंका का
मेरी ज़ुबान सूखी है
मेरी आँख भी सूखी है
लड़की अब भी हँसती है
एक गीली हँसी
जाने कैसे जाने क्यों

बाहर सड़क पर
पीले फूलों वाले सड़क पर
सफेद कपड़े पहने
कोई गुज़र जाता है
बेआवाज़
पीछे से
जैसे किसी नाटक के
नेपथ्य से
आती है
मोहम्मद रफी की आवाज़
सुहानी रात ढल चुकी

लौंगलत्ती गुनगुनाती है
वही गीत
एक ही मिसरा बार बार

5/09/2008

कैसा सुंदर नाचती है मैत्रेयी

कमल के विशाल फूल के अंदर चुकुमुकु बैठे बस एक चिंता थी । बडी गहरी चिंता । ये जो सफेद कपडे पहन रखे थे , सफेद मोज़े सब पर कमल के फूल का गुलाबी गेरुआ रंग लकीरें खींच रहा था । कल कुकी और बेबी को कैसे दिखाऊँगी ये झक्क सफेदी । बाहर संगीत बज रहा था । अगली पंक्ति के बाद झन्न से करताल बजेगा फिर ढोलक की थाप और फूल खुलने लगेगा । मुझे सिर्फ मुस्कुराते हुये हाथ को सर के ऊपर सटाये खडे हो जाना था । लेकिन अचानक लगा कि पैर इतनी देर में सुन्न से हो गये । ओह ! कैसे खडी होऊँगी । कहीं गिर न जाऊँ । माँ ने क्या कहा था , पैर सुन्न हो जाते हैं तब उँगलियाँ मोडो , हिलाओ और उस दुष्ट बेबी के भाई ने चिढाते हुये कभी कहा था कौन सी लाईन दोहराओ तो सुन्न अंग जागने लगता है । जैसे हम नीद से जागते हैं ।

लेकिन अभी तो बेबी के शैतान भाई का चेहरा तक ठीक से याद नहीं । किसी दूर बहुत दूर स्कूल में रहता था । छुट्टियों में आता तो सबकी शामत आती । पर कैसे मज़े के किस्से सुनाता । और रात को भूत की कहानी । सटे हुये छत पर गर्मी के दिनों में कतार से चौकी लगती । पानी से छत पर छिडकाव होता । कैसे हिस्स की आवाज़ से दिन भर की चटक धूप की गर्मी भाप बन कर उड जाती । ठंडी सफेद चादर बिछती । गावतकिये और किस्म किस्म के तकिये , कडे , ढीले , लुंजपुंज तकिये के नाम पर कलंक । फिर चौकी के दोनों ओर बांस की कमानी को क्रॉस करके मसहरी लगती । रात की सफेद चाँदनी रौशनी में एक कतार से सफेद बिछे इंतज़ार करते बिस्तरे । मुंडेरे के पार सुनील की कहानियाँ शुरु होतीं । धीमी फुसफुसाती भर्रायी आवाज़ में स्वर के नाटकीय उतार चढाव पर तैरते बिछलते रात के अँधेरों में भूत और पिशाच हवाओं में डोलते । हम चिहुंक चिहुंक डरे मुड कर देखते अपने पीठ पीछे , कोई है तो नहीं । पीठ पर कंधों की हड्डियों के बीच डर सुरसुराता जैसे कनगोजर । डर के कितने पाँव होते । गर्दन पर के रोंये किसी भयभीत आशंका में सिहर कर खडे हो जाते । डर का स्वाद भी कैसा रोमांचक होता । और हम सब मंत्रमुग्ध सम्मोहित बँधे रहते , भागने न भागने के बीच , सुनने न सुनने के बीच , बँधे हुये कठपुतलियाँ । फिर किसी माँ चाची की डाँट कडकडाते हुये झन्न से शीशे को तोड देती और हम सब सिटपिटाये चिंटियों की तरह अफरा तफरी में तितर बितर हो जाते । पर अगली रात सुनील की फुसफुसाती आवाज़ उस पार से तैरती आती

आज नहीं सुनना क्या ?

मजमा फिर तुरत जमता । ये सब चोरी किये हुये पल थे । कब जाने कौन बडा आकर रात का ये अबूझ जादू भेड देता ।

उफ्फ पर अभी तो मुडे हुये पैर जान ले रहे थे । उस कमबख्त सुनील ने क्या बताया था । फूल खुलते ही कहीं गिर न जाऊँ । आगे की कतार में माँ , बाबा बैठे होंगे । ओह माँ क्या मंत्र जाप करती थी बिगडे काम सुधारने के लिये । अभी कुछ भी क्यों याद नहीं आ रहा । गाने का अंतिम स्टैंज़ा चल रहा था । वो पागल मल्लिका कितना सुंदर तो तैयार हुई थी । लाल लहंगा पर हाय कैसी पतली सलमा सितारे वाली गोटे किरण वाली ओढनी । चेहरे पर चंदन की बुंदकियाँ भौंहों के ऊपर , गालों पर लाली और होठों पर भी । और कैसे सुंदर गहने चम चम चमकते । पाँवों के घुंघरू कैसे छम छम बोलते । काश मल्ली वाला नाच उसके हिस्से पडता । कितना तो इतराती थी जब सुतपा बहन जी ने उसे चुना था इस नाच के लिये । जरूर उसके गोरे रंग पर चुना होगा वरना तो मैं उससे अच्छी ल्गती हूँ । नहीं शायद वो ही ज्यादा अच्छी है । कितना तो देखा था आईने के सामने खडे हो होके । कितनी बार साबुन से मुँह धोया था , दीदी की क्रीम भी छुप छुप के लगाई थी पर ज़रा सा भी असर कहाँ पडा था ।

सुतपा बहन जी ने कहाँ मल्लिका को हटा कर उस मेन डांस के लिये उसे चुन लिया था । कितनी बार बिस्तर में आँखे धँसाये कल्पना की थी सुतपा बहन जी अपनी कडकडाती फडफडाती ताँत की लाल धारियों वाली साडी में तेज़ तेज़ आयेंगी । कहेंगी , अपने माथे पर हाथ मार के , की कोरी आमी ? एई जे मल्लिका , तुमी किछु सीखने पाडेगा नेई । फिर इशारा करेंगी उसकी तरफ , तुमी आओ । बाँह पकड के ठीक बीच में कर देंगी । फिर किनारे से ताल से हाथ के थाप देकर शुरु करायेंगी । और मेरे शरीर में लय रच बस जायेगा । मेरे डंडे से हाथ पाँव किसी जंगली लता से हवा में लहरायेंगे । मेरा शरीर कैसे लोच खायेगा । और सुतपा बहन जी कितना मंत्र मुग्ध देखेंगी ।

ये देखो कैसा सुंदर नाचती है मैत्रेयी । मल्लिका तुमी कोभी सीखती पाडेगा नेई ।

मल्लिका सिर झुका लेगी और मैं ? मैं अपने काल्पनिक लहंगे के घेर सी झूम झूम जाऊँगी ।

“क्या दिन दहाडे बिस्तर में सर गोते पडी है ? उठ “ की माँ की ऐसी निर्मम गुहार मेरे कितने दिवास्वपनों पर झाडू फेर गई है । लेकिन बावज़ूद कितनी शिद्दर के ऐसा सोचने के , मुख्य नर्तकी मल्लिका ही रही और मैं पूरे नृत्य नाटिका में उस विशाल कमल के फूल में कैद तितली । ऐसी तितली जो अब सुतपा बहन जी की भद्द करायेगी जब फूल खुलते ही लंगडाई तितली भद्द से गिर जायेगी । ओह कितना मर्मांतक होगा ये दृश्य । आने वाले अपमान से चेहरा दहकने लगा ।

ओ काली कलकत्ते वाली
तेरा वचन न जाये खाली


रात में सोते वक्त पक्का विश्वास हुआ कि ऐन वक्त पर अगर ये जाप याद न आ गया होता तो सब भडभीस हुआ होता । लेकिन ऐसा नहीं होना था सो ऐन वक्त याद आ गया और तीन बार जाप पूरा होते ही , ठीक तीन बार , कमल का फूल ढोलक के थाप पर खुला और मैं मुस्कुराते हुये खडी हुई । मेरे चमकीले पँख साबुत सलामत रहे । मेरे पैर बिना हिले थरथराये टिके रहे । तीन मिनट तीन साल जैसे । पर पर्दा गिरने तक मैं स्थिर खडी रही तेज़ लाईट की दमकती रौशनी में , स्टेज पर के धूम धडाके में , संगीत के शोर में , कोने के प्रज्जवलित दीपशिखा के घूमते तन्द्रिल धूँये में , दर्शकों की कतार की कतार के चुप्पी के सामने । जैसे सबकुछ फट पडने को बेताब हो । मेरा शरीर भी ।

5/07/2008

उलट पलट कोलाज किधर

लाल लाल मिट्टी ... सब लाल ... सुबर्नरेखा ... सर्पीली धार ... अलस्त ... मस्त... मुर्गा लड़ाई... मड़ई ... बढ़ई ... हड़िया ...बासी भात ... सूखी मछली ... बिसाईन बिसाईन गँध ... फिर लाल लाल मिट्टी ... सूखे पत्ते ... टेसू के फूल ... फूलगेंदवा चमके ... सफेद सफेद दाँत.. काले सुच्चिकन चेहरे ... फक्क फक्क हँसी ... अब भी अब भी ...रात भर ... दिन भर ... तेज़ कटार धूप ... झुलसा ... धरती ... आँगन ... मन ... हाय रे मन

हरा सब ... सब ... सब ... बीड़ी की लौ ... रात अँधियारी ... पूनम की रात ... बोलता सियार ... अझल देहात ... ट्रेकर पर लाउडस्पीकर ... नगपुरिया गीत .... वोट दो ... वोट दो ... निर्मला मुंडा को ... वोट दो वोट दो ... चर्च का क्रॉस ... गॉस्नर कॉलेज .. चोगे में फादर ... खुली जीप ... अमरीकी डॉलर ... ऑवर लेडी फातिमा ... निर्मल हृदय .. सचमुच !

जंगल ... जंगल ... चीत्कार ... हाहाकार ..बन्द पिंजड़े में ... कैद ... कौन ... पानी में मछली ... जंगल में शेर ... शेर शेर बब्बर शेर... फिर जलता अलाव ... भुनता है मुर्गा ... नारंगी बोतल में ... देसी ठर्रा ... हड़िया में हड़िया ... झूम झूम नाच ... लाल पाड़ साड़ी ... छापे की साड़ी ... टेरलीन का बुशर्ट ... प्लास्टिक की चट्टी ... सोनमनी सोनमनी ... ओ सोनमनी ... चल मिल के गायें ... गोदना रचायें ... किधर गया घोटुल ... इन्द ... मेला ... ओझा गुनी .. पीसे पत्ते और जड़ी बूटी ... कादो सटे पैर की बिवाई ... फक्क फक्क फतिंगा ... छाती पर चक्कर ... घूमा माथा ... मंदिर पर काहे गाये ... जय माता दी ... छाती फटी ...दुनिया हटी ... सूरज देवता ... ओ देवता ... तू भी गया ... बिसार दिया सब ... बुझ गया ... आखिर ... अंतिम धुँआ

अंत में ... अंत में .. सिर्फ पैर नीचे ... चुरमुर सूखी झरी पत्ती ... सिर्फ सूखी झरी ... सन्नाटे ... दोपहर में ... बंसी की ऊपर नीचे होती लड़ी ... जोहार ... जोहार


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5/06/2008

आभार

इस बेहद कठिन समय में , जब लगता है वक्त रुक गया है , तब , ऐसे में ... आपका .. सबका साथ , स्नेह ,संबल ... सहारा देता रहा है । ये विश्वास है कि उनको कहीं न कहीं .. कैसे भी ..इस बात का एहसास रहा होगा ..
आप सबों का आभार ... तकलीफ में मेरे साथी बने रहने का ..