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आप किसी लेखक को प्यार करते हैं तो उसके बारे में उमग कर बात करना चाहते हैं , उनकी लिखी पंक्तियाँ आप हँस कर एक प्यार भरी हैरानी से दूसरों के साथ बाँटना चाहते हैं । आप इश्क में होते हैं और सबको बता देना चाहते हैं । शब्दों की दुनिया के चमकीले संसार की रौशनी आपकी आत्मा में भरी होती है । हैरानी होती है कि दूसरे उसे देख नहीं पा रहे , शब्दों के जादू की थाह नहीं पा रहे । कैसी नज़र है ? कैसी आत्मा है ? और कैसी गरीबी है । कुर्तुल ऐन हैदर के बारे में बात करते हमेशा ऐसा ही महसूस हुआ । लेकिन कहीं भी उनका नाम लिया , उत्साह से छलकते किताबों का ज़िक्र किया ..
ओह , अच्छा ..आग का दरिया हाँ हाँ , फिर बात बदल गई..। जैसे कोई दीवार खड़ी हो ।
उनकी "गर्दिशे रंगे चमन" पाँच सात साल पहले पढ़ी थी । कुछ बहुत कुछ पागल हुई थी । कुछ मित्रों से ज़िक्र किया । इस मुगालते में थी कि कुर्तुल की किताब है , कहीं भी मिल जायेगी । ऐसे भोलेपन का टूटना ही था । तब तक हिन्दी साहित्य समाज की गरीब दिशाहारेपन से वास्ता न पड़ा था । आग का दरिया तक जो उनका मैग्नम ओपस समझी जाती है , उस तक पहुँचने के लिये भी कम तकलीफ नहीं उठानी पड़ी । भला हो श्रीराम सेंटर की पुस्तक दुकान (अफसोस अब वो जगह भी बंद हुई )जिन्होंने मिन्नत करने पर कहीं से एक प्रति उठवाई । ये कहानी अलग है कि उसकी छपाई , कागज़ की क्वालिटी सब , कई कई बार अपने कंगलेपन में आपका दिल तोड़ दें और आप फिर याद करें कि किसी भी और विदेशी भाषा के क्लासिक्स कैसे चमकीले साज सज्जा में आपका दिल जुड़ाते हैं । खैर , वो उनके लिखे के प्रति मेरी अगाध अनुरक्ति है कि उस घटिया कागज़ के बावज़ूद उस दुनिया ने मुझे जकड़ पकड़ लिया , छू लिया । रंगे चमन अब तक खोज रही हूँ। तमाम लोगों को कह रखा , वैसे लोग भी जो उस दुनिया के हैं। हर जगह बड़ी ठंडक दिखी और मुझे इस बात से हैरानी भरी तकलीफ और न समझ में आने वाला गुस्सा ।
आमेर हुसैन, टाईम्स लिटररी सप्प्लीमेंट में लिखते हैं कि आग का दरिया उर्दू साहित्य में वो जगह रखता है जो हिस्पानिक साहित्य में वन हंड्रेड ईयर्स ऑफ सॉलिट्यूड का है । और ये कि अपने समकालीन लेखकों, जैसे मिलान कुंडेरा और मार्खेज़ से उनकी तुलना की जाये तो उनके लेखकीय संसार की वृहत्ता , उनकी दृष्टि , उनका अंतरलोक . समय के पार और उसके परे जाता है । अमिताव घोष कहते हैं कि वो बीसवीं सदी की सबसे महत्त्वपूर्ण भारतीय आवाज़ हैं । फिर वो सबसे महत्त्वपूर्ण आवाज़ क्यों हमें उपलब्ध नहीं है ? क्यों जब हम महत्त्वपूर्ण किताबों की बात करते हैं तो कुर्तुल का नाम अमूमन उस आसानी से नहीं लिया जाता ? किसी ने कभी मुझे कहा था कि वो उर्दू की हैं , डोंट क्लेम हर ऐज़ योर ओन (यहाँ ओन मतलब हिन्दी साहित्य )
एक बार मैने किसी से शिकायत की थी क्यों नहीं उनकी सब चीज़ें एक जगह एकत्रित की जा सकती हैं । मुझे कॉपीराईट रूल्स और पब्लिकेशन के नियम बताये गये थे । मैं नहीं जानती उनकी चीज़ों के कॉपीराईट्स किसके पास हैं, मुझे नहीं पता कि पब्लिशिंग़ हाउसेस उन चीज़ों को नहीं छापता जो किसी और ने छापी हैं पहले से । मुझे सचमुच इन नियमों के बारे में कुछ नहीं मालूम। मैं सिर्फ एक अदना पाठक हूँ जिसको उनके लिखे से बेपनाह मोहब्बत है। मैं सिर्फ ये जानती हूँ कि उन जैसी लेखिका के लिये शायद ऐसे सब नियम तोड़े जा सकते हैं और इस बात का क्षोभ कि मैं सिर्फ अदना पाठक क्यों हूँ । मैं ऐसे किसी समाज का हिस्सा क्यों नहीं जहाँ एक पाठक की हैसियत इतनी महत्त्वपूर्ण हो कि किताबें उनके माँग को ध्यान में रखकर मुहैय्या करायीं जायें ।
मैं याद करती हूँ कि चाँदनी बेगम, सीताहरण या गर्दिशे रंगे चमन मे उन हिस्सों को जहाँ कहानी खत्म होती है और लूज़ली स्ट्रक्चर्ड बातचीत के ज़रिये वो हमें कहीं और ले जाती हैं , वहाँ जहाँ जीवन अपनी संपूर्णता में, अपने कच्चे पक्केपन में धड़कता है । उन हिस्सों को पढ़कर कई बार मुझे लगा है कि उनसे बात करना ऐसा ही होता , अगर मिल लेती तो और अगर वो मुझे प्यार से , ए लड़की इधर बैठो ..कहतीं ।
नेट पर खंगालते मुझे उनके बारे में बहुत कुछ नहीं मिला ..लेकिन रज़ा रूमी के उनसे मिलने की दास्तान मिली, उनकी कुछ औडियो लिंक्स , यहाँ भी , कुछ उनपर लिखे पुराने ब्लॉग लिंक्स मिले ..यहाँ
बस इतना सा ही । कुछ दिन पहले ज़ुबानबुक्स पर सीताहरण का अंग्रेज़ी तर्ज़ुमा अ सीज़न ऑफ बिट्रेयल्स देखकर मन प्रसन्न हुआ था । इस उम्मीद में हूँ कि ऐसे ही "कारे जहाँ दराज़" और "मेरे भी सनमखाने" कहीं मिल जायें ।
उनके बारे में कुछ यहाँ भी पढ़ा जा सकता है।
ये भी तकलीफ की ही बात है कि नेट तक पर उनसे संबंधित कितनी कम सामग्री है । ऐनी आपा होतीं अभी, कहतीं, अच्छा लड़की , तू इतना ही समझती है?
शी वुडंट हैव केयर्ड अ डैम ..