9/26/2007

लेडी बर्ड ,मखमल का कीड़ा और खेल खेल

(छुट्टी का अंतिम दिन)


पिछले दरवाज़े के पार थोडी सी ज़मीन थी। उसके अंत में तार के बाड़ के पार दूसरों का अहाता था। बाड़ से सटे सीमेंट के ढाले हुये बड़े पटरे बेतरतीबी से फिंके पड़े थे , जाने किस ज़माने से। फट्टों के बीच में घास की उबड़ खाबड़ पैदावार , कीड़े मकोड़ों की ठंडी अँधेरी दुनिया , भूले भटके गिरे सिक्के , टूटी चूड़ियाँ , इमली के बीज .. माने एक पूरा संसार था। मेरी दुनिया में लॉस्ट एटलांटिस , खोया शहर! नम ठंडी मिट्टी की छुअन नींद तक में सिहरा देती। मेरी बौराहट सुनकर कितनी बार मुझे दुस्वप्न से निजात दिलाने के लिये बेदर्दी से झकझोर कर उठा दिया जाता।

एक किनारे टी रोज़ की झाड़ी दुर्निवार बढ़ती जाती। रोज़ चाय की पत्तियों का खाद शायद इस बढ़वार के लिये ज़िम्मेदार था। पड़ोसिनें रश्क रश्क कर जातीं। पर आज मैं बैठी थी , भरी दोपहर में , अकेले। सबसे नीचे वाले फट्टे पर , सींक के टुकड़े से आड़ी तिरछी लकीरें खींचते। हम आज सुबह ही लौटे थे वापस छुट्टियों के बाद। छुट्टी का अंतिम दिन था। मुट्ठी से भरे खज़ाने का एक एक करके खत्म होना। उफ्फ कितनी उदास पीली दोपहरिया थी। न एक पत्ता न कोई चिड़िया का बच्चा। इन पटरों के बीच की दुनिया कितनी शीतल और सुखद थी तुलना में। उस मखमली लाल कीड़े के पीठ की तरह जो बरसाती दिनों में भीगे पत्तियों के बीच रेंगता दीखता। होड़ लगती माचिस की डिबिया में इकट्ठे करने की। कैसा जादू ! आह! या फिर पतली सूई सी ड्रैगनफलाई जो चमकती धूप में एक चमकीली विलीन होती रेखा सी दिखती। ये सब बरसात में होगा , जाड़ों में होगा।

अभी , अभी क्या होगा ? बस छुट्टी के खत्म होने का उदास उदास गीत होगा। गले से लेकर छाती तक कंठ को फोड़ता , सुबकियों सा हिचकता , रिसता। घर के अंदर सब सोये हैं। आस पास सब सोये हैं। वो बदमाश बिट्टू भी सोया है। और सामने के घर में पपली भी सोयी है। शाम होगी तब सब जगेंगे। बगल वाले मनी भैया , दुष्ट अन्नू , प्रभा दीदी , पपली और उसकी छोटी बहन सुपली और बूनी। गुड़िया सी बूनी । सींक से मैंने लाईन पाड़ कर एक लड़की बनाई है , धूल में। दो चोटी वाली। ये मैं नहीं हूँ। मेरे दो चोटी नहीं है। मेरे बाल छोटे हैं , लड़कों जैसे। पर मैं चाहती हूँ कि मेरे बाल खूब लम्बे हों , कमर से भी नीचे , माँ जैसे। माँ कहती है बड़ी हो जा फिर लम्बे रखना बाल। बड़े होने में अभी बहुत वक्त है। बड़े होकर बहुत कुछ करना है। हर बात में माँ कहती जो है कि बड़ी हो जा फिर। बड़ी होकर मैं सिर्फ अपने मन का करूँगी सिर्फ अपने मन का। छुट्टी के बाद स्कूल नहीं जाने का मन न हो फिर भी जाओ जैसी बात किसी को नहीं कहने दूँगी। पटरे पर डूबते सूरज की तिरछी किरणें पड़ रही हैं अब। छुट्टी का अंतिम दिन अब कुछ घँटे ही बचा है। मैं इस खत्म होने के उदासी को उँगलियों से भींच लेती हूँ। मेरे होंठ रुलाई की याद में बनते बिगड़ते हैं ,गाल पर सूखे पुँछे आँसू के लकीरों की तरह।

मिन्नी मिन्नी , कोई पुकारता है बाड़ के पार से। अन्नू , पपली सुपली सब बुला रहे हैं। खेलने का समय हो गया। माँ भी पुकार रही है। मेरा मन अचानक आहलाद से भर जाता है। इन दोस्तों को महीने भर बाद देख रही हूँ। कितना मज़ा आयेगा छुट्टियों की कहानी सुनाने में। खरीदे गये दूरबीन दिखाने में , आँखें बन्द कर सो जाने वाली नीली आँख और सुनहरे बाल वाली गुड़िया दिखाने में , कल स्कूल के नये टीचर की बात करने में।

“ आई , आई “ । सींक फेंक कर , हाथ झाड़ कर मैं कूद पड़ती हूँ पटरों पर से। मेरी फ्रॉक पर मेरे साथ साथ एक लाल पर काली बुन्दकियों वाली लेडीबर्ड मेरे खेल में शामिल हो जाती है।

माँ देखती हैं लड़कियाँ मगन चहचहा रही हैं , इखट दुखट खेल रही हैं। शाम के झुटपुटे में पंछियों का कलरव जैसे।

9/20/2007

मायोपिक प्रेम

चश्मे की कमानी मोटी थी । टारटॉयज़ शेल की । उसमें मोटा शीशा जड़ा था । टिकाऊ था , मजबूत था । लेकिन उसमें एक बड़ी खामी थी । मुन्नी की आँखें उस शीशे के पीछे उल्लू की आँख सी लगती , मोटी ढेले सी , फटी हुई । आईने के सामने कितनी भी प्रैक्टिस की जाय ज़रा आँखों को सिकोड़ कर छोटा तिरछा करने की पर ऐन वक्त याद ही नहीं रहता । जब याद आती तब तक देर हो चुकी होती । मुन्नी को छोटी तिरछी खिंची हुई आँखें पसंद थीं । पर पसंद होने से क्या होता है । पसंद अपनी जगह और जो होना है वो अपनी जगह । दोनों के अलग स्वायत्त संसार एक दूसरे से दूर दूर रास्ता छोड़ते हुये । मुन्नी को ये पता था । पर पता होने से भी क्या होता है । छोटी तिरछी आँखों की हिरिस अपनी जगह । चश्मे से निजात अपनी जगह ।

अब वैसे तो मुन्नी के जीवन में कई और अरमान भी थे , जैसे गोरा रंग , खडी तीखी नाक और एक अदद तिल , कहीं भी चेहरे पर । असल में रंग तो गेहुँआ सा था , नाक पसरी हुई थी थोड़ी सी और तिल , तिल था तो पर कनपटी पर बालों की रेखा से सटा अपने अस्तित्व को तलाशता हुआ । तो फेहरिस्त जस की तस रही । मुन्नी बडी होती रही । चश्मे का शीशा मोटा होता गया । अलबत्ता मुल्तानी मिट्टी , हल्दी , मलाई और न जाने क्या क्या लीप पोत कर रंग ज़रूर गोराई पर अग्रसर हुआ । तिल की बात बचपन के खेल की तरह भूली बिसरी हँसने योग्य हुई । और रही पसरी हुई नाक , तो उसी पसरे हुये नाक में कोई ऐसी अजीब कमनीयता का वास हुआ कि मोहल्ले के कई लडकों लौंडों का दिल उसके भोले फैलाव पर बार बार रपटा । लेकिन हर बार चश्मे की मारक मोटाई ने ऐसी बेइलाज़ रपटन को पूरी तरह धाराशाई होने से बचा लिया । मुन्नी और बडी होती गई । इंतज़ार करती रही कि कोई उस चश्मे के पार का राजकुमार हो । फिर धीरे धीरे यकीन हो चला कि मेन डोंट मेक पासेज़ ऐट वोमन विद ग्लासेज़ । तो यही सही ।

मोटे मोटे पोथे पर अपनी चश्मेदार आँखों को गड़ाये जीवन का पाठ पढ़ती गई । लेकिन इसी बीच अनहोनी संयोग , नियति , जो भी कह लें , हुआ और ग्यारह बारह के भयंकर मायोपिया को माईक्रोस्कोपिक बनाकर स्लाईड पर फिसलता हुआ नौजवान अवतरित हुआ । अवतरित ही नहीं हुआ बल्कि मुन्नी से ऐसा टकराया कि टॉरटायज़ शेल चकनाचूर हुआ , शीशा चाक चाक । मुन्नी अपने मायोपिक धुँधलके के पार से मुस्कुराई और कोई तीर राजकुमार के दिल में महीन सुराख करता पार हो गया । प्रेम किसी फेरोमोंस हारमोंस की उठा पटक ही तो है । ऐसा ? तो उठा पटक क्या हुई पूरा धमाल हुआ ।

खिड़की के पार जो मियाँ बीबी एक दूसरे की आँखों में झाँकते दिखते हैं , बिना चश्मे के पर्देदारी के वो मुन्नी और उसके मियाँ ही तो हैं । आपको बताया था कि मियाँ की आँखों का पावर मुन्नी की मुन्नी पावर के सामने कितना बड़ा है । दोनों एहतियात से अपने अपने चश्मे को उतारते हैं , प्यार से शीशे को मुँह के भाप से भिगा कर साफ करते हैं , पीले फ्लालेन के रूमाल से , और फिर परे खिसका देते हैं । आँखों में आँखें डालकर देखने के लिये कमबख्त चश्मे की क्या दरकार । उसे मुन्नी की फटी हुई आँख नहीं दिखती । मुन्नी को उसका तोता नाक नहीं दिखता । बेइंतहा प्यार की नदी कल कल बहने लगती है । उसकी फुहार में और आँखों के पावर के नतीज़तन दोनों के चेहरे की लकीरें अस्पष्ट होकर हेज़ी हो जाती हैं । फेरोमॉंस और मायोपिया की थ्री लेगेड रेस चलती है दुलकी चाल ।

9/18/2007

खिड़की के अंदर खिड़की के बाहर

लड़की झुकी थी । बाल उसके गिरते थे चेहरे पर । बार बार कानों के पीछे करने पर भी फिर मिनट भर बाद गाल पर गिर आते । ट्रेन के रफ्तार से हिलती डुलती पढ़ती जाती थी लड़की । ट्रेन गीत गाती थी । उसके चक्के एक बीट पर घूमते थे , छुक छुक छुक छुक एक पैसा एक पैसा । सलाखों से नाक सटाये लड़का गाता था , सपनीली आँखों से देखता था , भागते हुये संसार को , दूर सुदूर किसी धुँधलाये सुबह के कुहासे में डूबा मेंड़ पर एक अकेला छतनार पेड़ , रहट पर पानी उलीचता किसान , भागते हुये धूँये उड़ाती रेल को भौंचक पनीली आँखों से ताकती गाय, बछड़े की बजती घँटी , कोई नया नया संसार । लड़का गाता था । लड़की पढ़ती थी । छिटके धूप में दौड़ लगाते सूरज की रेलगाड़ी से रेस । किसी गुमटी पर पल भर धीमी होती ट्रेन को ताकता खेत का बिजूका , उठंगी छींटदार फ्रॉक पहने बिखरे बालों वाली टोकरी उठाये लड़की , उजबक लड़का और गोबर पाथती औरत ।

फिर रफ्तार पक़ड़ती रेल , पीछे सब छूट जाते , सब । कभी न दिखने के लिये । मन का एक छोटा हिस्सा कैसा टूट मरोड़ जाता । एक बार , सिर्फ एक बार फिर । गले की थूक घोंटता लड़का आँखें बन्द कर लेता है सिर्फ उतनी ही देर तक जितनी देर रेल गुमटी से पार हुई थी । लड़की इस सब से बेखबर , पढ़ती जाती है । रेलगाड़ी भागती है छुक छुक छुक छुक एक पैसा एक पैसा । गले की थूक अटकती है अंदर के संसार में , बाहर के संसार में ।

9/13/2007

हम वहीं के वहीं आज भी खडे हैं

हमारी बिल्डिंग कॉम्प्लेक्स में छोटे मोटे काम करने वालों की एक मोबाईल फौज़ है । घर में काम करने वाली बाई से लेकर साफ सफाई वाले कर्मचारी , माली , रोज़ाना कूडा उठानेवाले , सेक्यूरिटी गार्डस , दूध बाँटने वाले लडके , लौंड्री वाला छोकरा , पेपर बाँटने वाले दो तीन लडके , रोज़ सुबह सवेरे फूल पहुँचाने वाला बालक । कितने लोग हैं । इतने दिन बीतने पर सब चेहरे जाने पहचाने । सवेरे की चाय पीते नीचे झाँकते गेट से एक फौज़ साईकिल चलाकर आने वाली औरतों की होती है । जवान , अधेड , बांगला साडी में , सलवार कुर्ते में अपने अपने गेटपास पकडे तेज़ चाल दौडती भागती औरतें ।

ज़्यादातर बंगाली औरतें । ठीक से हिंदी नहीं बोल पाने वाली फिर भी हँस कर इशारे इशारे में टूटी फूटी हिन्दी में बांग्ला मिलाकर काम निकालने वाली औरतें । कुछ दिन पहले मैंने दरयाफ्त किया अगर कोई खाना बनाने वाली मिल जाय , साफ सफाई वाली मिल जाये । गेट पर गार्ड को कहा । अगली सुबह दो औरतें हाज़िर हुई । मैंने नाम पूछा । अधेड उम्र की औरत ने बताया आशा और उसकी पच्चीस छब्बीस साला शादीशुदा बालबच्चेदार बेटी ने बताया ,मंजू । दोनों काम पर लग गईं । काम ठीक ठाक चल रहा था । पर एक चीज़ मुझे परेशान कर रही थी । जब भी मैं आशा या मंजू पुकारूँ कोई रेस्पांस नहीं । शायद माँ बेटी कम सुनती हैं ऐसा विश्वास होने लगा था । भाषा की समस्या तो थी ही । कुछ पूछने पर पता नहीं किस तरह के आँचलिक बंग्ला में भगवान जाने क्या बोल देतीं । जोड जाड कर कुछ अपनी समझ से मैंने एक नक्शा उनके रहन सहन का खींचा था । बंगाल के किसी अझल देहात के सिकुडते बँटते खेत और मछली के सूखते पोखर , कर्ज , गरीबी , बडे शहर के कमाई के असंख्य मौकों की मरीचिका कितना सब तो था जो इनको खींच कर यहाँ लाया था । ज़्यादातर , घर के आदमी रिक्शा चला रहे थे , गाडिय़ाँ धोने का काम कर रहे थे और औरतें दूसरे घरों में खाना पका रही थीं , झाडू पोछा बर्तन कर रही थीं । गाँव से बेहतर कमाई हो रही है , सेकेंडहैंड साईकिल खरीद लिया है , साडी छोड सलवार कुर्ता पहनना शुरु किया है , साडी साईकिल में फँसती है , ऐसा मंजू एक लजीली मुस्कान से कहती ।

फिर एक दिन गेट पास की समस्या हुई । नया बनवाना था । तब मैंने देखा कि आशा तो आयेशा थी । मंजू मेहरू । दोनों बांग्ला देशी रिफ्यूज़ीज़् शायद । पर अब भी कहती हैं नहीं बांग्ला देशी नहीं हैं । नाम क्यों छुपाया पर सीधा जवाब , कि मुस्लिम समझ कर खाना पकाने का काम कोई नहीं देता । अगर देते भी हैं तो पैसे कम देते हैं । तो उनके बुलाने पर अनसुना करने का राज़ खुला । मैंने कहा मुझे फर्क नहीं पडता । ये और बात है कि अब मुँह पर आशा और मंजू नाम चढ गया है और उन्हें भी अब तक इस नये नाम की आदत हो गई है । ईद की छुट्टी वो लेती हैं , दीवाली की मैं दे देती हूँ ।

बहरहाल इस पूरे प्रसंग से मुझे अजीब तरह का डिज़ोनेंस हुआ । अब भी लोग इन बातों को मानते हैं , छुआ छूत में विश्वास करते हैं । और ये सब किसी गाँव देहात में नहीं बल्कि तथाकथित कॉस्मोपोलिटन , पढे लिखे अपवर्डली मोबाईल लोगों के समाज में हो रहा है । इस बात का ज़िक्र मैंने कुछ लोगों से किया । किसी के चेहरे पर शिकन तक नहीं आई । एकाध ने ये भी पूछा , आप अब भी उनसे खाना पकवा रही हैं ?

मुझे क्षोभ और ग्लानि हो रही थी । और जिस मैटर ऑफ फैक्ट तरीके से आशा मंजू और उनके अन्य साथिनों ने इसका हल निकाला था ,उस मैटर ऑफ फैक्टनेस से भी मुझे समस्या हो रही थी । जैसे कि इससे ज़्यादा और नैचुरल बात क्या होगी कि उनसे खाना कौन पकवायेगा । इस बात का अक्सेपटेंस उनकी तरफ से सहज था । तुम्हें गुस्सा नहीं आता , ऐसा पूछने पर सयानों की तरह मंजू ने कहा था , ऐसा तो होता ही है दीदी , इसमें गुस्सा कैसा । फिर सोचने पर लगा कि उनकी तरफ से और किस तरह के प्रतिक्रिया की मैं उम्मीद कर रही थी । उनके सामने दो वक्त की रोटी की समस्या है , और चीज़ों की चिंता का वक्त और उर्ज़ा कहाँ से लायें । पर जिनके पास रोटी की चिंता नहीं है , जिनके पास कुछ हद तक वक्त है , उर्जा है वो क्या सोचते हैं इस विषय पर । ये किस तरह की शिक्षा है , हम कैसे शिक्षित हैं , कैसे सभ्य सुसंस्कृत हैं जो कई मूलभूत मुद्दों पर , ” ऐसा तो हमारे बाप दादा के ज़माने से होता आया है , तो कुछ सही ही होगा , हम क्यों बदले , या हम ही क्यों बदलें “ वाले जिद पर अडे हैं ।

आप क्या सोचते हैं ? क्या हम वहीं के वहीं आज भी खडे हैं ? किसी मानसिक विकास पथ के यात्री हम क्यों नहीं हैं ? एक बेसिक सहृदयता , तार्किकता , संवेदना क्यों हमारे जीवन में ऐसी दुर्लभ कमोडिटी है ? अब हो गई है या हमेशा से थी ? आप , सच क्या सोचते हैं ?

9/01/2007

किताबों के बीच

कमरे में ड्रेसर के ऊपर मैं कुछ किताबें रखती हूँ । फिर पलंग के पास हाथ बढाकर छू सकने वाली दूरी पर शेल्फ में भी कुछ किताबें रखती हूँ । जो किताबें पढी जा रही हैं वो पलंग के पास और जो पढी जाने वाली हैं या साथ साथ कुछ अंतराल पर पढी जा रही हैं वो ड्रेसर टॉप पर । ये किताबें बदलती रहती हैं । पहले ये रफ्तार तेज़ होती थी । टर्नओवर फास्ट । अजकल काफी धीमा हो गया है । किताबें भी कई कई एकसाथ पढी जा रही हैं । पहले यही बात कोई कहता तो मैं हैरान हो जाती । डूब कर एक किताब खत्म करने के बाद ही दूसरे को हाथ लगाती । लेकिन अब ऐसा छूटता जाता है । दोस्त कम हो रहे हैं और किताबें , एक समय पर पढी जाने वालीं , बढ रही हैं । ड्रेसर पर की किताबों में जो पलटे पढे जा रहे हैं , प्रियंवद की भारत विभाजन की अंत:कथा , नायपॉल की द मिमिक मैन , मार्खेज़ की द औटम ऑफ द पैट्रिआर्क , डगलस ऐडम्स की हिचहाईकर्स गाईड टू द गैलेक्सी , पालीवाल की भक्तिकाव्य से साक्षात्कार , पामुक की स्नो। मुराकामी पलंग के बगल में हाथ से छूने की दूरी पर हैं । बीच बीच में साईनाथ के कुछ चैपटर्स भी पढ रही हूँ ।

गाडी में भी हमेशा कुछ किताबें पडी रहती हैं । पता नहीं कब किस लाल बत्ती पर घंटे दो घंटे की फसान हो जाय , तब मंसूर सुना जा सकता है या फिर किताब पढी जा सकती है । तो ऐसे किसी औचक अवसर के लिये , जो अबतक आई नहीं है , किताबें गाडी में भी रखी रहती हैं , हैदर और इस्मत चुगताई और निर्मल वर्मा , फिलहाल । कल कुर्र्तुलएन हैदर की श्रेष्ठ कहानियाँ गाडी के पिछले सीट पर से उठा लाई । कलन्दर और डालनवाला फिर फिर से पढी । ज़िलावतन पढने की हुमस हो रही है । जितनी किताबें साथ साथ चलती हैं उतनी ही वो भी अपना प्रेसेंस बनाये रखती हैं जिन्हें पहले पढा हो । दिमाग में किताबें कैसे गडमड अपनी अपनी जगह बनाये रखती हैं । टेक्टोनिक प्लेट्स के हिलते रहने जैसे पता नहीं कब कौन सा परत ऊपर आ जाये और कौन सी किताब का कौन सा पात्र दरवाज़ा ठकठका दे । दूसरे कमरे में , जहाँ और किताबें रखी हैं वहाँ कोई याद आई किताब ढूँढ लेना महान काम है । तब जब आपके मन पर उस किताब का कवर , लिखाई सब तस्वीर जैसे साफ हो । किताब का न मिलना तब कैसा त्रास दायी होता है । दाँत में फँसे अमरूद के बीज जैसा कुछ अजीब अटका सा । कल से पानू खोलिया की किताब सत्तरपार के शिखर खोज रही हूँ । एक दोस्त से किताबों की चर्चा हो रही थी । पानू खोलिया का ज़िक्र कुछ याद करते करते हुआ । तब से अटके हैं पानू पर ।

पानू खोलिया नहीं मिले लेकिन और कुछ किताबें मिल गईं , इन्नर कोर्टयार्ड मिली और डार से बिछुडी मिली , तालस्ताय मिले और जेन औस्टेन मिलीं । चाँदनी बेगम मिली और मित्रो मरजानी मिली । ये सारी किताबें ड्रेसर पर आ गई हैं । घर में थोडा हंगामा मचा है कि एक बार में इतनी किताबें कैसे कोई पढ सकता है , कुछ तो हटाओ यहाँ इस कमरे से । और मैं सोचती हूँ थोडा थोडा सबसे मिलूँ फिर से ।