मेरी ज़ुबान सूखी है
जैसे मेरी आँखें
लड़की हँस पड़ती है
एक गीली हँसी
उस नमी में
उगता है कोई दिन
एक जंगल
रात
उसके चेहरे में
कभी कभी
दो फूल
शायद सफेद लिली ?
लैबरनम के फूल
उस अकेली सड़क को
छूते हैं
मैं छूती हूँ
नमी
लड़की छूती है हँसी
जो बजती है
छाती के अंदर
बस ठीक वैसे
जैसे बजाता है
लड़का
सन उन्नीस सौ अड़सठ का
रिकनबैकर गिटार
पीछे पोस्टर से हँसता है
गोल चश्मे में
जॉन लेनन
और काउब्याज़ में
जॉन वेन
नींद के बेहोश झोंके से
गिरता है
फिर बार बार वही सपना
किसी हादसे का
उसके आशंका का
मेरी ज़ुबान सूखी है
मेरी आँख भी सूखी है
लड़की अब भी हँसती है
एक गीली हँसी
जाने कैसे जाने क्यों
बाहर सड़क पर
पीले फूलों वाले सड़क पर
सफेद कपड़े पहने
कोई गुज़र जाता है
बेआवाज़
पीछे से
जैसे किसी नाटक के
नेपथ्य से
आती है
मोहम्मद रफी की आवाज़
सुहानी रात ढल चुकी
लौंगलत्ती गुनगुनाती है
वही गीत
एक ही मिसरा बार बार
फताड़ू के नबारुण
1 month ago
11 comments:
क्या बात है , लौंगलत्ती !
प्रत्याशा जी
बहुत प्रभावी लगी आपकी कल्पना। सुन्दर रचना के लिए बधाई ।
बहुत अच्छी है।
हमेशा की तरह, बेहतरीन
सुन्दर रचना-बधाई.
इसी नमी से उगती है कोई कविता.
बढि़या.
आपका अंदाज ,कल्पना ...ओर कई चीजों को एक साथ जोड़ना ....हर बार एक नई दिलचस्पी दे जाता है....
प्रत्यक्षा ,
कैसी हो ?
हमेशा की तरह ,
कविता अच्छी लगी -
लिखती रहो
-स्नेह,
- लावण्या
सुन्दर कल्पना, खूबसूरत अभिव्यक्ति, बधाई ही बधाई।
कभी कभी
दो फूल
शायद सफेद लिली ?
जैसे बजाता है
लड़का
सन उन्नीस सौ अड़सठ का
रिकनबैकर गिटार
पीछे पोस्टर से हँसता है
गोल चश्मे में
जॉन लेनन
और काउब्याज़ में
जॉन वेन
बाहर सड़क पर
पीले फूलों वाले सड़क पर
सफेद कपड़े पहने
कोई गुज़र जाता है
बेआवाज़
कभी कभी दूसरों का लिखा पढ़कर अपना लिखा सा होने का भ्रम होता है। कुछ वैसा ही हो रहा है।
महोदया,
आपकी असाधारण रचनाओंका यह चिठ्ठा बहुत लुभावना है।
धन्यवाद।
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