2/29/2008

विरोध करें बैन नहीं

किसी ब्लॉग का कंटेंट मुझे पसंद न आये तो मैं क्या करूँ ....

फ्लैग कर दूँ?...
अपने ब्लॉग पर विरोध दर्ज़ करूँ और उम्मीद करूँ कि लोग मेरी बात से सहमति प्रगट करें ?
ब्लॉग बैन करने की करवाने की कोशिश करूँ?
उस ब्लॉग को नज़र अंदाज़ करूँ?...

ब्लॉग पब्लिक डोमेन है । इनकी गलियाँ अगर मुझे नहीं भाती मैं वहाँ नहीं जाऊँगी। अगर मेरे घर में कोई गन्दगी फेंकता है मैं चुपचाप उसे कूडे में डालूँगी , लोगों को बुलाकर उसका प्रदर्शन नहीं करूँगी। लेकिन अगर सार्वजनिक तौर पर कोई गाली दे तब? मैं विरोध करूँगी । अभद्र भाषा का प्रयोग किसी भी स्थिति में उचित नहीं। लेकिन बैन भी उचित नहीं। जब संजय बेंगाणी और बाज़ार का मसला हुआ था तब और इस मसले में सिर्फ डिग्रीज़ का ही फर्क है लेकिन किसी के भी बुरा लगने की हद की रेखा अलग हो सकती है। तब जो सही था .. बैन न करना वही आज सही कैसे हो सकता है। भड़ास ने जो किया उसका सिर्फ एक जवाब है ..वहाँ न जाना । किसी इशू को नॉन इशू बना देने का सबसे सही तरीका है उसके असर को खत्म करने के लिये खास तब जब अगला ऐसी भाषा और नीयत पर उतर आये जिसमें गंदगी के अलावा कोई और तर्क न हो। उसी लेवल पर गिरना उसके जैसे ही बनना है और कोई और तरीका सिर्फ भड़ास को हाईलाईट ही कर रहा है।

फिर क्या ? चुपचाप फ्लैग करें । वैसे ये भी किसी तरीके के ब्लॉग होलोकौस्ट जैसा हो जायेगा। मेरे गुट ने आपको फ्लैग किया और आपके ने मुझे। अंतत एग्रीगेटर्स पर कोई ब्लॉग नहीं बचा .. ऐसा बचकाना खेल क्या साबित कर देगा। कोई रिस्पोंसिबल बिहेवियर की परिभाषा तो नहीं ही लिख देगा । शायद फिर एक ही रास्ता बचता है .. अपने ब्लॉग पर विरोध दर्ज़ कीजिये .. आपकी बात सही है तो समर्थन खुद बखुद मिलेगा , मिलना चाहिये ( ये उम्मीद कि लोग फेंससिटर्ज़ नहीं हैं , विज़डम वाले लोग हैं .. बार बार इसके ओपोसिट साबित होने के बावज़ूद उम्मीद अब भी बरकरार है)

और जैसा यशवंत ने लिखा ..किसको- किसको बैन करेंगे ? ऐसे ब्लॉग हाईड्रा ब्लॉग्स हैं , किसी और नाम से उग आयेंगे। आज कम संख्या में हैं .. आपकी नज़र पड़ती है ..कल इतने होंगे कि आपका ध्यान तक न जायेंगा .. फिर किसको बैन करेंगे .. कोई अगर सार्वजनिक टॉयलेट बनना चाहता है .. बनने दें .. टॉयलेट दीवार पर लिखी भद्दी अश्लील ग्राफिटी बनना चाहता है .. बनने दें .. ये उनकी मानसिक दशा दर्शाता है ..हमारी नहीं । हमारी इच्छा कुछ बढ़िया सार्थक पढ़ने की है तो हम वैसी जगह जायें जहाँ ये मिलें , किन्हीं और जगहों से क्या वास्ता ? नालियों की तरफ नाक बन्द कर निकल लें.. लेकिन एक संयत विरोध दर्ज़ करने के बाद।

विरोध करें बैन नहीं। मनीषा और मसिजीवी के साथ इस विरोध में हम सब साथ हैं।

2/28/2008

उसने तो कहा ही नहीं था प्यार !

किसी ने कहा प्यार नहीं
कि बस !
बस,अंदर बहने लगती है नदी
उसने कहा बहो
बढ़ाया आगे झोला
कहा , कुछ गम हैं इनमें
और दूसरे में क्या ? मैंने बच्चों की तरह मचल कर कहा
उसने कहा , पहले इसे खोल लो न
मैं उसके "न" पर खिंच अटकी रही , असमंजस
नीबू की पतली फाँक से चुआती रही बून्द
जीभ पर
बहती रही
सोखती रही
प्यार
फूलों को मसल कर कहा
अब?
नीबू की पत्तियों को मसल कर कहा
अब?
ये तो बड़े दिनों बाद पता चला
उसने तो कहा ही नहीं था
प्यार !
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2/27/2008

सब रौशनी का खेल है

पिता की याद स्मृति गह्वर से निकल रेंगती है चीटिंयों की कतार सी। पिता अब फोटो में रहते हैं। कमरे में टँगे एकमात्र बल्ब की रौशनी खूब खेल खेलती है उनके साथ। व्यस्क पत्रिकायें छुपाकर पढ़ता हूँ और किसी आहट पर चौंक कर चोर नज़र उठाता हूँ तो लगता है अभी अभी उन्होंने अपनी दाहिनी आँख मारी। मुझे पता है ये सिर्फ रौशनी का खेल है। पिता ऐसे नहीं कि इस बात पर राज़दारी से आँख मार सकें। आखिर पिता हैं दोस्त यार नहीं। पर अब मैं भी बच्चा कहाँ हूँ। क्या पता जब पिता मेरी उम्र के रहे हों ऐसे ही छुपा कर पढ़ते रहे हों। जेनेटिक्स हम में अपनी थ्योरी ऐसे साबित करवा रही हो। पिता की छुपा कर पढ़ने की आदत , किसी पूर्वज की हुक्ड तोता नाक , माँ का कुछ भी नहीं , नानी का अगले दाँतों के बीच का फाँक।

खैर, तो पिता न रहकर भी बहते हैं मेरी नसों में इस तरह। अगले बीसेक सालों में मैं पिता, जब गुज़रे, तब की उम्र में आ जाऊँगा। शायद शुगर और हाई ब्लडप्रेशर की बीमारी के चपेट में भी आ जाउँगा। और फिर एक दिन बिना किसी के आसपास रहे, सन्नाटे से बिना धूमधड़ाका किये , बिना सेवा सम्हाल काराये खत्म हो जाऊँगा जैसे पिता गये। माँ अब तक अचंभित होकर कहती हैं , ये गये तब मुझे खबर तक न हुई। मैं उस दिन उस वक्त आलता लगा रही थी, नई चूनर की धानी साड़ी पहन रही थी। मुझे भनक तक न पड़ी कि मैं जब इतने उल्लास से शृंगार करती थी ,ये दर्द से तड़पते थे।

कई बार मुझे लगता है कि माँ के दुख से कहीं बड़ा है उनका इस अनजानते भाव से पिता के चले जाने की हैरानी। माँ सब परंपराओं को तोड़ कर अब भी रंगीन कपड़े पहनती हैं , काँच की सादी चूड़ियाँ भी। हल्के फीके रंग , पर रंग रंग , सादी किनारी वाले कोर की सफेद साड़ी नहीं। पिता के गुज़रने के साल हमने सब त्यौहार भी मनाये। दादी गुम्म नाराज़ पर माँ हमेशा की मज़बूत । बस किसी की बात नहीं मानी। कुछ हंगामा नहीं किया , कुछ बोला बहस नहीं किया। मुँह बन्द रखा और सब करती गईं। हमेशा की भीतरघुन्नी। दादी बकझक कर आखिर चुप हो गईं।

माँ जब जब कमरे में आती हैं पिता की आँख हँसती है। मुझे पता है सब रौशनी का खेल है। सोचता हूँ , अपनी पत्रिका दराज़ में छुपाते हुये , एक बार ये बल्ब की जगह बदल कर देखूँ , पिता तब भी आँख मारते हैं , हँसते हैं? कि सिर्फ फोटो में जड़े हमारी यादों में चुपके से रहते हैं। पिता के साथ मेरा खेल भी चलेगा जैसे बचपन में चलता था। रौशनी फिर से अपना खेल कर रही है। अबकी बार उनकी बाँयी आँख बन्द हुई है।

2/20/2008

कोई ऐसे भुलाता है क्या ?

मिट्टी क्या रोड़ा ही था , सब तरफ लाल लाल ,खालिस धरती का रंग , धूसर मटमैला नहीं बस ऐसा जैसे अभी अभी पैदा हुआ नवजात छौना कोई। साँझ के धुँधलके में पत्तियाँ झर रही थीं। पंछियों का कलरव था । ऐसे शैतान जैसे अभी टूट पड़ेंगे। लेकिन एक पल था और अगले निर्बाध शाँति। जैसे सब बिला गये हों किसी खोह गुफा में। और मैं रात का स्याह घूँट भरती एकदम अकेली थी इस संसार में। बस एकमात्र जीव। मेरी छाती धड़कती थी। ऐसा ही कुछ महसूस करते होंगे पूर्वज जब बिछड़ जाते होंगे समूह से। जंगल तब घेर लेता होगा। देता होगा कोई सुकून, अपनी नर्म पत्तियाँ, थोड़ी सी नमी और मुलायम अँधेरा। पसीने की बून्द टपक जाती होगी छातियों से नाभि तक। सदियों के अंतराल को पलक झपकते वही बून्द पार कर लेती है। लोक लेती हूँ उस अनचाहे बून्द को अपने शरीर पर।

”कहाँ जात हिस रे ssssss …. “ की टेर फँसती है पेड़ों के बीच , झाँकती हैं दो छायायें , “अरे छउआमन ..” फिर भौंचक रुकती हैं ,”कौन ? “ प्रश्न टँगता है , भिनभिनाता है मच्छरों फतिंगो संग । दो अँधेरे चेहरे में चमकती उजली आँखों की कौंध।

पीछे से टॉर्च की रौशनी पड़ती है। “आप यहाँ हैं फुआ। हम समझे भुला गईं।“ पकड़ कर मेरे कँधे तक पहुँचता बच्चा घेर लेता है स्नेह में मेरी बाँहें।“ चलिये घर चलते हैं। मैं आज्ञाकारिणी बनी चल देती हूँ बच्चे के साथ। पकड़ लेती हूँ उसका हाथ कस कर। उसे क्या पता उसकी फुआ सचमुच भुला गई थी।

2/19/2008

जैसा बे-टैग मैं जीना चाहती हूँ

(एक नॉन पतित औरत की डायरी के पन्ने)

लेकिन मैं पतनशील नहीं बनना चाहती । पतित तो बिलकुल नहीं । मैं सिर्फ मैं बनना चाहती हूँ , अपनी मर्जी की मालिक , अपने फैसले लेने की अधिकारी , चाहे गलत हो या सही , अपने तरीके से जीवन जीने की आज़ादी । किसी भी शील से परे । किसी भी टैग के परे । मैं अच्छी औरत बुरी औरत नहीं बनना चाहती । मैं सिर्फ औरत रहना चाहती हूँ , जीवन डिग्निटी से जीना चाहती हूँ , दूसरों को क्म्पैशन और समझदारी देना चाहती हूँ और उतना ही उनसे लेना चाहती हूँ । मैं नहीं चाहती कि किसी कोटे से मुझे शिक्षा मिले , नौकरी मिले , बस में सीट मिले , क्यू में आगे जाने का विशेष अधिकार मिले । मैं देवी नहीं बनना चाहती , त्याग की मूर्ति नहीं बनना चाहती , अबला बेचारी नहीं रहना चाहती । मैं जैसा पोरस ने सिकंदर को उसके प्रश्न “तुम मुझसे कैसे व्यवहार की अपेक्षा रखते हो ‘ के जवाब में कहा था ,” वैसा ही जैसे एक राजा किसी दूसरे राजा के साथ रखता है , बस ठीक वैसा ही व्यवहार मेरी अकाँक्षाओ में है , जैसे एक पुरुष दूसरे पुरुष के साथ रखता है जैसे एक स्त्री दूसरी स्त्री के साथ रखती है , जैसे एक इंसान किसी दूसरे इंसान के साथ पूरी मानवीयता में रखता है ।

मैं दिन रात कोई लड़ाई नहीं लड़ना चाहती । मैं दिन रात अपने को साबित करते रहने की जद्दोज़हद में नहीं गुज़ारना चाहती । मैं अपना जीवन सार्थक तरीके से अपने लिये बिताना चाहती हूँ , एक परिपूर्ण जीवन जहाँ परिवार के अलावा मेरे खुद के अंतरलोक में कोई ऐसी समझ और उससे उपजे सुख की नदी बहती हो , कि जब अंत आये तो लगे कि समय ज़ाया नहीं किया ,कि ऊर्जा व्यर्थ नहीं की , कि जीवन जीया ।

मैं प्रगतिशील कहलाने के लिये पश्चिमी कपड़े पहनूँ , गाड़ी चलाऊँ , सिगरेट शराब पियूँ , देर रात आवारागर्दी करूँ ऐसे स्टीरियोटाइप में नहीं फँसना चाहती । मैं ये सिर्फ तब ही करना चाहूँगी जब ये करना मेरी मर्जी में होगा , सिर्फ किसी और के बनाये ढाँचे में फिट होने या मात्र फॉर द सेक तोड़ फोड़ करने के लिये नहीं । मेरे चुनाव मेरे अपने होंगे किसी और के थोपे हुये नहीं । मेरे रास्ते मेरे होंगे , उनके काँटे भी मेरे , फूल तो मेरे ही । पुरुष के ही बनाये मापदंड से खुद को नहीं आंकू । मैंने अपनी मर्जी का किया तो पुरुष मुझे गलत समझेगा पतन शील समझेगा तो मैं पतनशील ही सही वाला रवैया भी मेरा नहीं । ऐसा जैसे लो सिर्फ तुम्हें दिखाने के लिये मैं ऐसी बनी , विरोध करने के लिये मैं ऐसी बनी ।

मैं अपनी मिट्टी खुद गढ़ना चाहती हूँ , अपनी मिट्टी , अपना चाक और खुद ही कुम्हार भी। बिना शोर शराबे के , बिना हीलहुज्जत के । आराम से , शाँति से , इज़्ज़त से । आप दबेंगे आपको दबाया जायेगा । आप लड़ेंगे आपको हराया जायेगा । मैं अपने आप को इस निरर्थक लड़ाई से ऊपर उठाऊँगी । ऐसे जीयूँगी जैसे जीवन ऐसे ही जीने के लिये बना था ।



एक बात और कहना चाहती हूँ । चोखेर बाली एक मँच है ,एक समुदाय है ,अपनी बात कहने का ऐसा लाउडस्पीकर है जिससे बात सब तक पहुँचे ,लेकिन शोर के रूप में नहीं , सार्थक अर्थों और शब्दों के साथ पहुँचे । लेकिन बात अगर डिसटॉर्ट हो , डाईल्यूट हो , तो उसकी तेज़ी फीकी पड़ती है । कुछ मानवीय पक्ष को सामने लाते हुये सयंत बातों का विमर्श हो । चोखेर बाली की मंशा क्या हो इसके बारे में कुछ छिटपुट सोच । सुजाता से कई बातें हुईं । बहुत चीज़ें पक रही हैं । एक सही दिशा की ओर कैसे बढ़ें इस पर चोखेर बाली में ही आगे फिर । तब तक आप सब भी सोचें और खूब सोचें ।

2/18/2008

आपकी नींद हराम क्यों ? दूसरों के सेट पर डाह क्यों ?

आईये सेट सेट खेलें । मैं आपको सेट करूँ आप मुझे । कितना मज़ा आयेगा । मुझे और आपको तो आयेगा ही । हो सकता है जो सेट के बाहर हों उन्हें नहीं आयेगा । पर उससे क्या ? जो हमारी सेट बिरादरी से बाहर उससे हमें क्या ? गाहे बगाहे हमारे सेट में आया तो हड़का देंगे बाहर । कमीज़ उतारेंगे उतरवायेंगे । अरे आपका । अपना नहीं । आपको मेरी उतरी दिखे तो आपकी नज़र का दोष । हमारा क्या ? हमारे लिये तो सिर्फ मेरा इलाका मेरा सेट । आमची मुम्बई आपका बलिया बिहार । मज़ाल किसकी ।

आखिर मनुष्य में पशुत्व तो विद्यमान है । उसका सबूत देते रहना चाहिये , अपने आप को भी और दूसरों को भी । अपने इलाके की रक्षा के लिये चौकन्ने । हाँ अगर मुस्कुराते हँसते तारीफ के पुल बाँधते आईयेगा तो स्वागत है । हम भी आयेंगे आपके वहाँ , कुछ सुगन्धी फूल गिरायेंगे वहाँ , आपके सेट को सैटेलाईट सेट बनायेंगे .. ज़्यादा स्नेह उमडेगा तो अपना छोड़ आपके सेट को अपनायेंगे । लेकिन हरबार सेट सेट ही खेलेंगे ।

ब्लॉग अरेरे दुनिया में शान से जीने का पहला नियम अभी तक नहीं समझे तो क्या खाक समझे ? कितने साल बीते ? फिर भी नहीं सीखे ?

बनाईये न आप भी अपना सेट । शुरु करिये इस घोषणा से हाँ हम सेट होना चाहते हैं । क्या आप भी ? अरे शर्माईये मत । आईये न , सेट बनाईये न !

2/15/2008

अजनबी शहर में ..मेरे शहर में

रात भर खिड़कियों के बाहर
कोई ट्रेन सीटी बजाती रही
नींद के सुरंग में
हल्ला बोलती रही

बचपन किसी कस्बे
शायद चक्रधरपुर
या चाईबासा
रेल ट्रैक के पास अचंभे से धुँआ उड़ाती
कूँ वाली , पें वाली और बिदली ?
मैं घूमती रही बचपन के बीच
कोयले के धूँये और पत्थर के बीच
हाथ बढ़ाकर छूती रही उस भली लड़की को
और उसके भोले भाई को
भागती रही बेतहाशा उनके पीछे पीछे
जितनी बार भी ट्रेन बजाती सीटी
मेरी खिड़की के बाहर

सुबह किसी ने बताया
यहाँ तो वर्षों से कोई ट्रेन इस ट्रैक पर
दौड़ी नहीं
कोई दूसरा बनता है शहर के दूसरे छोर
वहीं जहाँ फलाँ विधायक की ज़मीन है
आसमान छूती है अब उधर की ज़मीन
अफसोस से हिलता है उसका चेहरा , लिया होता मैंने भी तब
जब बिकता था कौड़ियों के मोल
मैंने भी तो नहीं लिया फिर
मैं च च च्च करती हूँ
रात का इंतज़ार करती हूँ .. सुनाई देगी इस रात भी क्या
ट्रेन की सीटी मेरी खिड़की के बाहर

मेरी तन्द्रा टूटती है ,
मिस्टर अलाँ फलाँ कहते हैं आपकी टिकट्स कंफर्म हो गईं । कल सुबह की बजाय आज शाम की फ्लाईट है ...

अब आज रात कैसे दौड़ेगी ट्रेन उस खिड़की के बाहर ?

2/10/2008

तकलीफदेह मौत या मर्सी किलिंग

(मर्सी किलिंग , यूथनेसिया .. इन सब चीज़ों के बारे में खूब पढ़ा है लेकिन कभी साफ साफ सोच नहीं पाई मेरा स्टैंड इन मुद्दों पर क्या है ? कभी एकदम सही लगता है , कभी इतने नैतिक , सामाजिक परत दिखाई देते हैं , कभी ऐसी चीज़ों के दुरुपयोग की आशंका दूसरे पक्ष की ओर ले जाती है । कितने कम्पैशन की ज़रूरत कब किसको पड़ती है , कैसी परिस्थिति है ... आज फिर सोच रही हूँ .. इसलिये भी कि पिछले दिनों कुछ ऐसा हुआ जिससे सोच उस दिशा की भी तरफ गई )

परसों का वाक्या अजीब दुखी करने वाला था । सुबह की भागदौड़ ,ठंड और कुहासे सा माहौल, तेज़ हवा । बेटे की तबियत कुछ गड़बड़ थी । सर्दी खाँसी । पर चूँकि बचपन में ब्रॉंकाईटिस से खूब परेशान हुआ करता था तो अब भी मैं ज़रा आशंकित हो जाती हूँ । तो सुबह सुबह डिस्पेंसरी का चक्कर भी था । गनीमत ये कि बत्रा की डिस्पेंसरी हमारे सोसायटी कैम्पस में है इसलिये कहीं बाहर जाना नहीं था । पर जिन डॉक्टर से दिखाना था और जो अमूमन नौ से होती हैं ,मर्फी नियम का पालन करते हुये उस दिन नहीं थीं । कॉल किया गया । आईं । देखा बच्चे को । फिर दवाई लेने केमिस्ट शॉप , कैम्पस में ही । इन सहूलियतों के बावज़ूद दस से ज़्यादा हुये । हमारे ऑफिस में पँचकार्ड एंट्री है । मतलब बेसमेंट पार्किंग का बूम गेट पँच कार्ड दिखाने से ही खुलता है । अटेंडेंस के नियम सख्त हैं । समय ऑनलाईन अटेंडेंस पर दर्ज होता है । तो देर से पहुँचे फिर टाईम मेक अप करना पड़ता है प्रेज़ेंट दिखने के लिये । ये सारी कहानियाँ इसलिये कि दस से ज़्यादा हुये मतलब देर तक बैठना पड़ेगा समय पूरा करने के लिये ।

देर हो रही थी इसलिये बेटे को घर छोड़ने के बाद जितने स्पीड से गाड़ी चलाती हूँ उससे कुछ ज़्यादा स्पीड पर थी । घर से ऑफिस का पूरा रास्ता मेट्रो की वजह से संकरा और ट्रैफिक जैम वाला हुआ चला है आजकल । दिमाग ऑफिस के फाईल्स पर अब था । सामने रोड पर तेज़ हवा में कोई चीज़ फड़फड़ा रही थी , कोई भूरा पॉलिथीन शायद । एकदम वहाँ पहुँचने पर दिखा कि पॉलीथीन नहीं बल्कि भूरी मटमैली घायल तड़्फड़ाती हुई , पूरी लम्बी लेटी बिल्ली थी । अस्सी नब्बे की स्पीड थी । मेट्रो के काम को पार्टीशन करता हुआ टीन के चदरे की कतार से मेरी गाड़ी लगभग सटी हुई थी । ठीक बगल में दूसरी कार । इंस्टिंकटिव रियेक्शन में स्टियरिंग स्वर्व किया , ब्रेक लगाने का न समय था न स्कोप ..कतार से भागती गाड़ियाँ बिलकुल नेक टू नेक । लेकिन लगा जैसे पहिये के नीचे कुछ दबा । एक अजीब लहर उबकाई की उठी । हे भगवान आज मेरे हाथों ये बिल्ली गई । हाथ जैसे सुन्न और मन एकदम सनाके में । ऑफिस पहुँच कर चक्के को देखने की हिम्मत नहीं पड़ी । ऊपर आकर वाशरूम में देर तक ठंडे पानी से चेहरा धोती रही । अपने मन को समझाती रही कि बिल्ली जिस तरह से तड़फड़ा रही थी .. उसका बचना मुश्किल था । मुझसे बच भी जाती तो पीछे आती कतार से बेतहाशा भागती गाड़ियों का शिकार बनना निश्चित था । अगर बच भी जाती तो आवारा बिल्ली तकलीफ से घिसट घिसट कर दम तोड़ती । कुछ मर्सी किलिंग जैसी चीज़ हो गई । पर कितने भी तरीके से अपने को समझा रही थी ,मन शाँत नहीं हो रहा था । उस एक क्षण जब मुझे महसूस हुआ उसका शरीर पहिये के नीचे .. जैसे पहिया नहीं मेरा ही पैर हो । जैसे मैंने अपने पैरों से उसे क्रश कर दिया हो । उसकी तकलीफ का सोच सोच कर मन अशाँत बेचैन होता रहा । पढ़ा था ,रेस के घोड़े जब घायल हो जाते हैं दौड़ते हुये या कूद लगाते हुये , ऐसे घोड़ों को मार दिया जाता है । उनकी तकलीफ खत्म कर दी जाती है । मर्सी किलिंग ।

अगले दिन सफाई वाले से पूछा ,

“पहिया साफ था ? “

“हाँ मेमसाब “। उसने ज़रा हैरानी से पूछा , “क्यों ? “

“कोई बिल्ली शायद दब गई थी । “

“नहीं तो , पहिया बिलकुल साफ था ।“ चाभी थमाते वो निकल गया ।

क्या था फिर ? अ क्लीन डेथ ? या मेरे हाथों बच गई ? औरों के हाथ भी बच गई ? फिर घायल ? मन खराब खराब होता रहा । आवारा सड़कों के जानवर .. कुत्ते बिल्लियाँ .. क्या जीवन ? फिर ये भी ख्याल आया .. जब आदमी ही आदमी को मार देता है .. क्या लगता है किसी की जान ले लेना .. अपनी ले लेना .. कुछ खत्म कर देना । तीन दिन बीत गये हैं । वो बिल्ली अब भी मुझे हौंट कर रही है ।



( मर्सी किलिंग , यूथनेसिया के बारे में आपके क्या विचार हैं ? )

2/09/2008

राग विलम्बित

आजकल पेट में दर्द रहता है , हमेशा मीठा मीठा । जैसे दर्द को तहाकर मोड़कर रख दिया हो शरीर के अंदर । फिर जब तब सारे तह खुल जाते हैं और फड़फड़ा कर दर्द का परचम लहराने लगता है । बचपन में एक बार पैरों पर फोड़े निकल आये थे पेमी कैप्सिस या ऐसा ही कुछ नाम था । एक एक करके सब से पस निकाला गया था । तब का दर्द सिर्फ एक शब्द की तरह याद में महफूज़ है । ज़्यादा शिद्दत से ईथर की महक याद है । उसके बाद याद नहीं कोई बड़ी दुख तकलीफ का सामना हुआ हो । रोबस्ट हेल्थ । लेकिन इधर एकाध साल से जोंक की तरह दर्द चिपक गया है । सोते जागते उठते बैठते जैसे दर्द का धीमा संगीत मद्धम मद्धम बजता हो । पुरानी प्यारी धुन जो यकबयक याद आ जाये और याद जो आ जाये तो मन ही मन लगातार वही बजता भी जाये । इतना की खुद आजिज हो जायें , अब बहुत हुआ बस ।

इकहत्तर साल की उमर हुई । उँगलियों के पोर अब सिकुड़ने लगे हैं , नाखून बड़े कड़े और हठीले हो गये हैं । पाँव जो एक वक्त कितने सुबुक नाज़ुक हुआ करते अब गठीले रूखे हुये , अँगूठे के पास की हड्डी बढ़ गई है । सब जैसे खत्म हो रहा है । बचा है सिर्फ जीवन का खुरचन । दर्द का संसार , घूमते नाचते छोटे होते जाते वृतों का गिना चुना घेरा । बदन फोड़ देने वाला दर्द नहीं । किसी मोलोतोव बम का औचक फूट जाना नहीं । कोई एक पल का विध्वंस नहीं । शनै शनै पानी का रिसना । साँझ का धीरे से उतरना । रुलाई की हिचकी का धीमे चुक जाना ।

2/08/2008

गुस्सा और कबूतर

(गुस्से और कबूतर में भला एक जैसा / समझते हो क्या ? )


मैं जब कहती हूँ गुस्सा
तुम समझते हो हँसी
चटक खिलता है फूल एक
कोई आग की लपट नहीं निकलती

मैं कहती हूँ प्यार तुम समझते हो गुलफाम
और कोई पत्थर नहीं गिरता पानी में
बस कोई चिड़िया उड़ जाती है फुर्र से

फिर मैं एक एक करके
आजमाती हूँ , फेंकती हूँ शब्द तुम्हारी तरफ
मोह ? माया ? सेब? कबूतर ?
ऊटपटाँग कुछ भी ...

जाँचती हूँ ,कुछ समझते भी हो ?
और तुम हँसते हुये कहते हो , अच्छा !
धूँआ ? बादल , नदी
पहाड ? है न !

मैं सिर्फ सोचती हूँ मेरे शब्द तुम्हारी समझ से
इतनी लड़ाई में क्यों हैं ?


(पहली पंक्ति आज पढ़ी .. राजेन्द्र राजन जी की कविता .. "शब्दों से ढका हुआ है सब कुछ" से इंसपायर्ड )

2/06/2008

तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है पार्टनर ?

उन फेंससिटर्ज़ के नाम जो सुबह से ये सोचते हैं इस फेंस पर बैठूँ या उस फेंस पर । कहाँ फेंस पार कर के आना पॉलिटिकली करेक्ट होगा , कितना बोलना करेक्ट होगा , कहाँ कहना सही होगा , कहाँ बोलने से फँसेंगे नहीं , कहाँ दो बात कह देने से फूट इन माउथ सिंड्रोम नहीं होगा ।

उफ्फ कितनी दुविधायें हैं , कितना द्वंद है जीवन में । दिन रात इसी सोच में घुले जाते हैं कैसे सबके चहेते बने रहें । किसी ने बुरा कह दिया तो क्या , अपना दूसरा गाल बढ़ाते हैं ..तब तक जब तक तमाचा गाल लाल न कर दे । वरना बड़ी मीठी झिड़की थी ..ऐसे ही स्नेह हम पर लुटाते रहिये और हमारा आदर पाते रहिये .. हमें जब सही मौका मिलेगा हम भी आपको स्नेह वर्षा से नहलाते रहेंगे .. कुछ शीतल तरल कवितायें सुनाते रहेंगे । फिलहाल अपने गोल और उनके बहनापे पर मस्त रहेंगे , सराबोर तरबतर रहेंगे ।

हम टिप्पणी भी वहीं करेंगे ..चार जब तक देख न लेंगे ..क्या सुर है , टोन टेनर क्या है ? फिर हम अपनी पॉलिटिक्स तय करेंगे । आपका मसला हो फिर हम चुप रहेंगे , साईड से तमाशा देखेंगे , होगा संभव तो मौज मज़ा ले लेंगे । हमारा मसला हो तो देखेंगे कौन कह रहा है , मेरा भाई बँधु सखा यार । गलबहियाँ डालूँ कि गाली हार .. आखिर मेरी पॉलिटिक्स क्या है यार ?

ये दिन रात का सोचना अपने बस की बात नहीं । आपका सोचें कि अपना ? कैसे चिरकुट हैं आप ? अपना ब्लॉग अपना पोस्ट अपनी टिप्पणी अपना जोश । आपका क्या ? चूल्हे में जाय अपना क्या ? सुबह सुबह की पोस्ट , दो डिजिट कमेंट्स का मोल फिर सारे दिन मटरगश्ती , इधर ज्ञान उधर बत्ती । मुफ्त बाँटते हैं यार । ये तो हुई अपनी बात पर ये तो बताओ आखिर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है पार्टनर ?

2/05/2008

आईल ऑफ काप्री ..

आज लावण्या जी की पोस्ट पढ़ रही थी । डॉकटर ज़िवागो की लाराज़ थीम । फिर उनके दिये लिंक से ब्रिज़ ओवर रिवर क्वाई और कर्नल बूगी सुना । झम से कुछ बिसरी यादें सामने कूद पड़ीं ।

एक कूट का बड़ा सा डब्बा हुआ करता था । ऊपर तक ठस भरा ..ईपी और एलपी । क्या रंगीन जैकेट्स ..कम सेप्टेम्बर , ब्रिज ओवर रिवर क्वाई , कर्नल बूगी , आईल ऑफ काप्री (इसके जैकेट का नीला समन्दर बचपन में कहाँ कहाँ नहीं खींचकर ले गया ) , बीटल्स ,जॉर्ज मैक्ग्रे से लेकर पाकीज़ा , देवानंद वाली फिल्म की .. रंगीला रे , या भूपेन्द्र की शोखियों में घोला जाय थोड़ी सी शराब , या फिर पता नहीं कौन सी फिल्म पर जैकेट पर शशि कपूर आशा पारेख ..नी सुल्ताना रे .. वो कौन है वो कौन है , कुछ पहेली टाईप गाना , कुछ रशियन फोक और पॉप , एकाध मुंडारी लोकसंगीत ..बहुत सारा शास्त्रीय संगीत .. बिस्मिलाह खान से लेकर पंडित ओंकारनाथ ठाकुर तक ।

जाड़े के दिन में पीछे के हाते में चटाई बिछाई जाती और दिन भर का कार्यक्रम धूप में आउटडोर्स बिताया जाता । नाश्ता और संभव हुआ तो दोपहर का खाना भी । कुर्सियाँ , मेज़ सब लग जाते । एक रेडियो कम रिकार्ड प्लेयर था .. सफारी ( पता नहीं सफारी क्यों ? ये कम्पनी थी या कोई घरेलू जोक ?) उसे बकायदा चटाई पर किसी पेड़ की छाँह में स्थापित कर दिया जाता । ईपी एलपी वाला डब्बा निकाल लाया जाता । फिर देर दोपहर तक एक एक करके गाने । रिकार्ड बजाने का भी एक मज़ा होता । सूई को बड़े एहतियात से रिकार्ड के ग्रूव पर इस होशियारी से रखना कि शुरुआती म्यूज़िक का एक बीट तक न मिस हो । ये बड़ा प्रोफेशनल काम था आसानी से होने वाला नहीं । कितने दिनों बाद हल्के कोमल हाथ से रूई के फाहे सा धीमे से रख देना ..कोई प्लेन रनवे टच करे ऐसा दुरुह ऐसा सीधा ।

ये सब तब की यादें जब तीसरी चौथी पाँचवी कक्षा का वयस ..फिर भी सभी रिकार्डस के जैकेट ऐसे याद हैं जैसे कल देखा हो , महीने भर पहले का देखा दिमाग पर कई बार ज़ोर डालना पड़ता है । स्मृति भी सेलेक्टिव गेम खेलती है । क्या अटका रहेगा रेंगनी के काँटे से , क्या फिसल जायेगा बहते पानी सा । कौन सी याद किस संदर्भ में कब उमड़ेगी ,कब दुखी कर जायेगी कब सुखी , जाने कौन सा केमिकल रियेऐक्शन है । जो भी है मज़े का खेल है । कितना कितना छाँट कर सोने सा कोई स्मृति कण कब चमक जाये इसकी उत्कंठा भी गज़ब की चीज़ है । और संगीत की याद जीभ पर भरा स्वाद है ,बचपन की कोई मिठाई शायद चुरा छिपा कर हड़बड़ा कर खाई हुई , पूरा ध्यान मन बस उसी एक मुँह भरे कौर पर हो जैसे ।

अभी काजू की कतली (इच्छा तो थी कोई पेड़ा या बालूशाही टाईप या फिर काचा गोला जैसी मिठाई मुँह में होती) खाते हुये कम सेप्टेम्बर और आईल ऑफ काप्री को समर्पित आज का दिन । कोशिश की कि कहीं से खोजकर इन्हें सुनाऊँ पर मिला नहीं । ये बात और कि मिल भी जाता तो यहाँ अपलोड कर पाती पता नहीं । अगर किन्हीं को मिले तो सुनायें ज़रूर !


फिलहाल ये सुनें

2/02/2008

रौशनी के बाहर खड़ी औरतें

जब तेज़ रौशनी पड़ती है एक घेरा बनता है अंदर सब साफ दिखता है । लेकिन जो इस वृत के ठीक ज़द पर खड़ी हैं , न उजाले न अँधेरों में ,उनकी बात कौन कहेगा उनका भोगा कौन देखेगा उनका लिखा कौन पढ़ेगा ... एक कोशिश उनकी बीती रौशनी के घेरे में लाने की ..लेकिन मात्र एक क्रॉनिकल है .. तथ्यों का सूखा संकलन भर । कौन कितना और क्या अर्थ निकालेगा वो उसकी समझ पर निर्भर करेगा


पहली कथा

सन उन्नीस सौ इकतालीस

निहारचंद रायज़ादा और शीलकुमारी रायज़ादा ... दो पुत्रों के बाद पहली कन्या रत्न । हम भेदभाव लड़के और लड़की में नहीं करते सो धूमधाम से छठी का आयोजन । ये दीगर कि यही आयोजन तीसरी कन्या तक आते आते ,नहीं करते फुसफुसाहट में बदल फीका रंगहीन हुआ ।

पर ये तो पहलीं थी सो किस्मत वाली थीं । चुलबुली थी दुलारी थी बाप की चहेती थी रानी राजकुमारी थी । हँसते कूदते पढ़ते लिखते बढ़ती थी , समझती थी मैं खासमखास , भीड़ से अलग , एक कदम ऊपर , आँखों का तारा .. मेरी एकतारनी ..एक तारा मेरी ।

सितार बजाती सुबह उठ , दौडती भागती गाती तराना , टप्पा ठुमरी । लैम्प की रौशनी में रात रात जाग किताबें खोल देखतीं सपने .. सब होंगे पूरे ..खुद का वायदा खुद से । और इन सब सपनों के बीच किसी मिल्स एंड बूनी रोमांस का टॉल डार्क हैंडसम भी छुपता छुपाता झाँकता किसी कोने से । डिबेट शिबेट टेनिस पूल बैले नाच छोटे शहर में फूलों का राज । कैसा दर्प कितना कितना सहज प्राप्य सब ।

फिर राजकुमार आया । लाल जोड़े में सिमटी सिकुड़ी शायद पहली बार । पर ये शर्माना भी कुछ प्राकृतिक नैसर्गिक अंदर का खेल । हल्दी रोली अक्षत सिंदूर । पीले चादर से बँधी पसीजे हाथ में सिन्होरा पकड़े सर नवाये झुकी धड़कती आँखों से देखा नया संसार ।

अब भाग दो का पटाक्षेप हुआ । जुम्मा जुम्मा चार दिन बीते । जाने कैसी सड़ाँध फूटने लगी । खिड़की दीवार से ,बाग के चौहद्दी वाले लतर से , बरामदे के बेंत की कुर्सी से , गमलों से चूल्हों से । जाने कैसी सड़ाँध थी । सब दूर भागने लगे , दुर दुर करने लगे । इसे कुछ समझ न आये । पति ने विद्रूप से कहा , होगी अपने बाप की रानी राजदुलारी , यहाँ ये ठाट नहीं । इसने हिम्मत किया , पूछा बताना होगा । कैसे नहीं

जवाब में हाथ पैर लात बात । ढीठ थीं , जिद्दी मगरूर थीं बड़े बाप की सहेजी समेटी बेटी थीं , कुछ खुद को इंसान भी समझती थीं । सो इसरार किया । बात नहीं बनती देख कभी रार मनुहार भी किया । फिर किसी बड़ी बूढ़ी ने ज्ञान दिया , पति फँसा किसी और से रे बहुरिया । टोना टोटका गंडा ताबीज़ कर ले जो कर सके और बनी रहे सदा सुहागन । आखिर सिंदूर आलता लगाने का अधिकार , किसी की ब्याहता कहलाने का सुख कम है क्या ?

निकल आई भाग के । पिता कहें लौट जा बेटी , माँ कहें छोटी बहनों का ऐसे रवैये से होगा ब्याह ? एक बार फिर मन मारे लौट जा । लौटीं और ठीक तीन दिन बाद कंबल में लिपटीं लौटी बाप के पास । फिर अस्पताल ..महीनों दिन और उसके बाद लम्बी आस्तीन का ब्लाउज़ चट गर्मी में भी , सोने के पतले चेन के नीचे खलतराई खाल ,कमर और पेट कभी गलती से भी मालिश वाली दाई तक के सामने नहीं उघारी ।


शारदा रायज़ादा पोफेसर , विसिटिंग फैकल्टी अल्ल्म गल्ल्म यहाँ वहाँ सिगरेट पर सिगरेट धूकती । कैसी मुँहफट , ओह सो रूड बट हाउ कांफिडेंट ! हद है । कॉलेज की लड़कियाँ डरती सिहरतीं एकाध कैसी ऐडमायरिंग ग्लांसेज़ देतीं ..काश हम भी ! पुरुषों को दो टूक समझतीं । फर्राटे से गाड़ी चलातीं सब स्पीड लिमिट तोड़तीं भागती जाती हैं जीवन में । दुर्खाइम और मार्ग्रेट मीड की मोटी पोथियों , नियनडर्थल और क्रो मैग्नन मानव की बतियाँ , आदिमानव और आदिवासी में खोजतीं जीवन का रहस्य । साल मे चार बार विदेश भ्रमण , फलां सेमीनार में पेपर पढना है , अलां वर्कशॉप में लेक्चर देना है , उस अंथ्रोपोलॉजिकल रिव्यू में आर्टिकल , इस सोशल साईंस पैनेल के बोर्ड पर । घर में किताबें ही किताबें । बचपन के खेल सपने सब हुये हवा । सितार तक एक कोने में गर्द खाता उपेक्षित पड़ा है । बहनों और भाईयों की सुखी गृहस्थी पर चुपके आह । उनके बच्चों पर लाड़ दुलार , लेकिन अपना कोई कहाँ ? जैसे एक बड़ा गड्ढा हो जो हर वक्त और गहरा होता जाता है , अंदर झाँकों तो कूँये में झाँकने जैसा हो , कुछ दिखे ही न , बस कुछ डोलती छाया का आभास मात्र , अतृप्त इच्छायें मुँह बाये सब लीलने को तत्पर ।

बिस्तर पर पलथी मारे ऐशट्रे सामने धरे सिगरेट फूँकती लगातार बोलती हैं । साड़ी मुसमुसा गई है ,बाल बिखर गये हैं । छाती के अंदर धौंकनी जलती है । सारे डिग्रीज़ सब सम्मान , अंतर्राष्टीय गोष्ठियों से मिले रिकॉगनिशन , आज की स्वतंत्र नारी , अपना जीवन जीती है.... सब खुद बुहार कर परे धकेल देती हैं । हाथ फैलाती हैं हवा में .. उँगलियाँ सब अलग ... देखो ऐसे जीवन बह गया , चुक गया । बच्चे नहीं पति नहीं तो जीवन कैसे चुक गया ? इसलिये कि चाहा था यही सब लेकिन मिला जो सब वो भी तो चाहा था । मिल गया इसलिये मोल चुक गया । आदमी की बुद्धि ? औरत के संस्कार ? बिना पुरुष के साथ के जीवन बेकार ? चाहे पुरुष कितना कमीना क्यों न था ? जानते हुये भी ..जीवन सिर्फ एक काश ? एक कामना ?

सिगरेट बुझाती , उठती हैं । बाल काढ़ती हैं आईने के सामने , कलफ की हुई साड़ी की चुन्नट सरियाती हैं ... निकलना है तीन बजे क्लास है फिर मीटींग है उसके बाद प्रकाशक के साथ बैठना है अपनी किताब का कवर तय करना है , प्रमोशनल स्ट्रैटेजीज़, फिर इंस्टीट्यूट कुछ देर । समय कहाँ है कुछ फालतू सोचने का ।

लेकिन दूसरों के पास है ,कितने टैग तो लगा दिये उन पर ...दबंग , घमंडी , बंजर , ऐसी औरत की ऐसी ही तो नियति , लूज़ कैरेक्टर , स्मार्ट इंडीपेंडेंट वोमन , सूखी सड़ी चिड़चिड़ाही स्पिंस्टर ? जो औरत पारंपरिक रास्तों से हटी , सूत भर भी उसकी यही तो नियति है ,इसमें गलत क्या ?

आपको क्या लगता है ?


(स्त्री संबंधी मुद्दे जो स्पॉटलाईट में हैं , जिनका सबको पता है स्त्री को भी ... और स्पॉट लाईट के परे जिनका किसी को पता नहीं , स्त्री को भी नहीं)