7/31/2007

शिकार, जँगल और सूखी धरती

मंगलवारी हाट का दिन था । लाल मोर्रम की ज़मीन रात की बरसा से भीगी थी । सागवान के पत्ते से पानी अब भी टपटप चू रहा था । नीले चिमचिमी को रस्सी से बाँधकर थोडा आड बना दुकानें सज रही थीं ।पेड के तने से लाल चींटों की मोटी कतार व्यस्त सिपाहियों सी मुस्तैदी से काली लकीर खींचती थीं । नीचे ज़मीन पर भुरभुरी मिट्टी के टीले में फिर अचानक से बिला भी जातीं । किसी के पाँव पर चढ गये तो छिलमिला कर उछलने का औचक नृत्य भी दिख जाता ।

मंगरू टोपनो , शिबू कुजूर , बालू , बिरसा ,सब के सब बझे थे । छोटी मछली , रुगडा , कुकुरमुत्ता , केकडा पकडेंगे बजार के बाद । जंगल में आग जला पकायेंगे । हडिया के संग खूब पकेगा छनेगा । पर पहले कमाई तो हो ले । कमर के फेंटे में बाँसुरी बाँधे मँगरू छन छन इंतज़ार करता है । इतवरिया और फूलटुसिया हथेलियों से मुँह दाबे हँसती छनकती मुड मुड के देखती हैं । बालों में बुरुंश के फूल कान के पीछे लटक लटक जाते हैं । पाँवों के कडे काले बादल में बिजली की चमक । मंगरू के दाँत भी चमकते हैं , बिजली की कौंध से ।

हाट की भीड बढ रही है । जमीन पर बिखरी हैं चीज़ें , टोकरी , रस्सी , सूप और दौरी , सींक के झाडू , बालों का नाडा , सीप मोती के हार , जडी बूटी , सूखी मछली , सुतली से बँधे साग के गट्ठर , जंगली डंठल , पत्ते के दोने में भुने हुये फतिंगे और भूरे चींटे , मोटे रस में पगे बेडौल देहाती चींटी सनी मिठाईयाँ , घडियाँ और काले रंगीन चश्मे , छींटदार कपडे और न जाने क्या क्या । गाँव के गिरजे का पादरी फादर जॉन एक्का अपने उजले चोग़े को उठाये ,संभाले गुजर जाता है । पिछले इतवार ही तो मारिया कुजूर के बच्चे का बपतिस्मा कराते बच्चे ने पेशाब की धार से नहला दिया था । । बच्चे को लगभग गिरा ही दिया था फादर ने । तब प्रभु इसु की दयानतदारी कहाँ गायब हुई थी । औरतों का झुंड मुँह बिचकाता है ।

भनभन भनभन आवाज़ इधर उधर घूमती है इस छोर से उस छोर । तेज़ तीखी , मोलभाव करती ,हडिये के नशे में झगडती , उकसाती , दबे छिपे हँसते किलकते और फिर दिन ढलते थकी हारी ,बेचैन थरथराती ,बुझते ढिबरी के काँपते सिमटते लौ सी । अँधेरा होते ही सब सिमटता है । अलाव की रौशनी में उजाड पडे चौकोर गुमटियों के निशान , कागज़ की चिन्दियाँ , पत्तल और कुल्हड । रेजगारी की छनछनाहट ,नोटों की करकराहट । कुछ बुझे उदास चेहरे ,धूसर मिट्टी में सने पैरों के तलवे , रबर की चप्पलें और जंगल में सुनसन्नाटे में खोते पाते अकेले रास्ते । जंगल का जादू कहीं बिला गया है । सच कहीं बिला गया है । जंगल अब कुछ नहीं देता । पानी सूख गया है । पत्थर से आग निकलती है । जानवर सब भी कहीं लुकछिप गये हैं । कोई शिकार बरसों से नहीं हुआ है । तीर और भाले किसी और ही समय के खिलौने हैं । सिंगबोंगा ,सूरज देवता भी रूठ गया है तभी आग बरसाता है । मुँडा ,खडिया , ओराँव ,सब आसमान ताकते हैं । पानी टप टप चूता है आसमान से लगातार लगातार । अंधेरा परत बनाता है इतना इतना कि हाथ को हाथ न सूझे । गाँव के लडके अब अंधेरा पीते हैं । दिन भर रात भर । और कुछ जो करने को नहीं । इतना घुप्प अँधेरा है कि सपना तक नहीं दिखता । मँगरू बाँसुरी बजाये तो भी नहीं ।

हाट की दुकानें हर मंगलवार घटती जाती हैं । ट्रक पर हफ्ते आलू और प्याज़ और बीडी के बंडल के साथ दो तीन लडके भी निकल जाते हैं पैर लटकाये ,थोडी सी लाल मिट्टी नाखूनों में दबाये । एकाध लडकियाँ भी , कलाई और माथे के गोदने को छुपाये ,शहर में चौका बर्तन और मजूरी करने । गाँव का जँगल सच बिला गया । अब तो पूरा शहर ही जँगल है जहाँ आदमी ही शिकार करता है और आदमी ही शिकार होता है ।



लाहा पाहिल धरती लोसोत गे

थो थोले तहेकान

सेकाते धरती रोहोर एना

लोसोत हावेत लागित पँखी राजा

होये माय बेनाव केत

ओना हादार होये तेगे रोहोर एना

(शुरु में धरती दलदल थी

फिर इतनी सूखी कैसे हुई

धरती सूखे सो पक्षी राजा ने

बनाई हवा

और उसकी फूँक से सूखी धरती )

7/24/2007

पार्क में

लडकी हँस देती है जाने किस बात पर । लडकी हँसती है हमेशा जाने किस बात पर । लडका हैरानी से देखता है उसे । ऐसी तो हँसने वाली कोई बात नहीं कही फिर लडकी हँसी क्यों । जब भी लडकी हँसती है लडका हैरान हो जाता है । मैं कोई जोकर हूँ क्या , कुछ कुछ नाराज़गी से कहता है । लडकी कुछ और हँसती है ,संतरा छीलती है , बिखरे बालों को कानों के पीछे समेटती है । लडका सिर्फ देखता है और सोचता है । लडकी पूछती है ,क्या कर रहे हो ? लडका कहता है , सोच रहा हूँ । लडकी इस बार नहीं हँसती । लडकी इसबार हैरान हो जाती है , मेरे साथ हो फिर भी सोच रहे हो ?

पार्क के ठीक पीछे से ,जहाँ से कीकर के पेडों का जंगल शुरु होता है कोई पुरानी भूली बिसरी , लाखौरी ईंटों की मेहराबदार दीवारों की काई लगी इमारत में बंदरों का एक जोडा खोंकियाता है । अधगिरी टूटी दीवार के सहारे टिका , खादी कुर्ते और नीली जींस में भूरी दाढी वाला वो चित्रकार शायद लडके और लडकी की ही तस्वीर बना रहा हो या फिर क्या पता उसका चित्त बंदरों के जोडे पर जुडा हो । सिगरेट की अनगिनत टोंटियों को एहतियातन समेटता वो मुस्कुराता है । उँगलियों को खोल बन्द करता आँखें मूँद लेता है । लडकी होंठों से उँगलियों के रस को पोछती है । लडके को देख हँस देती है । लडका इसबार हैरान नहीं होता । लडका इसबार सोचता भी नहीं । लडका इसबार लडकी को देखकर सिर्फ हँस देता है ।

7/21/2007

रात पाली के बाद

रात की पाली थी । बारह बजते थे लौटते लौटते । फैक्टरी का साईरन दिन में और रात की पाली खत्म होने समय तक कितनी मर्तबा बज जाता था इसका हिसाब फैक्टरी गेट से कुछ दूरी पर पान दुकान की गुमटी वाले बजरंगी को जबानी याद था । ठीक साईरन बजने के घडी भर पहले पता चल जाता । पाली खत्म होने वाला साईरन अलग और शुरु होने वाला अलग । खत्म होने वाले पर बजरंगी की पान बीडी की बिक्री बढ जाती । रेले का रेला , हुजूम का हुजूम विशाल गेट के मुहाने से अजबजाये बाढ की तरह बह आता । साथ साथ आती पसीने ,थकन और ग्रीज़ की खट्टी बिसाई महक । कुछ भीड छिटक कर गुमटी की तरफ सरक आती । कुछ और आगे की टीन टप्पर की दो बेंच वाली चाय दुकान पर जमक जाती । रात पाली के बाद की रुकी ठहरी भीड बडी छेहर सी होती । बस ऐसे ही लोग जो जाने किस वजह घर की बेचैनी में नहीं होते । बीडी का सुट्टा , मुट्ठी में भरे ,छाती धूँकते खाँसते काँखते रहते । दिन भर की बढी दाढी की छाया चेहरे को फीका मलिन कर देती । घडी भर बेंच पर बचैन सिमटते सिकुडते फिर अलस अँगडाई से देह तोडते , झुके कँधों को खींचतान कर सीधा सिकोडते अपने साईकिलों पर हाथ टिकाये अँधेरी सडक को पल भर तौलते फिर ठंडी हवा मुँह से छोडते साँस भरे दम भर को पैडल मार निकल पडते दस पंद्रह की भीड में । हुहुआती सनसनाती हवा में अँधेरे को चीरते बढ जाते अकेली सडकों पर । भीड छँटती जाती , एक एक करके । सेक्टर के मोड पर मालती लता की झाड अपनी महक छाप छाप छोडती तो लगता कि बस अब आ ही पहुँचे । घर में धीमी रौशनी में एक महफूज़ दुनिया इंतज़ार करती है । खाना और गर्म बिस्तर । बदन अब भी टूटता है । नींद उतरती है आँखों और मुँह के रास्ते , खुली बडी जम्हाई में , आँख के निंदाये कोरों के आँसू में ।

दरवाज़ा खुलने में ज़रा सी देर पर मन लहक जाता है गुस्से से । दिन भर की हाड तोड खटाई और ये औरत पैर चढाये फैल से सोती रहे ? दिनभर की खटती औरत , बच्चों से सर फोडती ,चूल्हे से बदन धिपाती अभी घडी भर को ही तो आँख लगी थी ज़रा सी । आँख मलते धक्क से उठती है , धडफडा कर भागती है दरवाज़ा खोलने । पैर लटपटाते हैं छापे वाली साडी में ,चर्र से किनारी फटती है और दरवाज़े पर ही गाली की एक बौछार होती है सो अलग । पर ये तो रोज़ की कहानी है । खाना परोसती है , पँखा झलती है , नींद से झुकती हिलती है ,कुनमुनाते बच्चे को एक हाथ से थपथपाती है । मर्द अलस पड जाता है मसहरी लगे चारपाई पर । औरत निंदायी निंदायी पानी का ग्लास थामे निढाल आती है बिस्तर पर । रसोई समेटना बाकी है अभी , दही जमाना बाकी है अभी , मुन्नु की आखिरी बोतल बनाना बाकी है अभी । गँधाते फलियों और कपडों के ढेर को सरका कर जगह बनाते औरत सोचती है उसकी रात पाली कब खत्म होगी ।

7/19/2007

एक और दिन

बच्चू सुबह से लोटमलोट था । दिक कर रहा था , मुँह गोल किये था , कभी रुस जाता कभी मनुहार करता । साडी का आँचल पकड पकड ठुनक जाता । माँ को पता था इसे चाहिये क्या ? माँ ऐसे ही माँ थोडे ही थी । उस दिन मौसा के चाचा के समधी पधारे तो पित्ज़ा और पेस्ट्री के बजाय अम्मा के दिनों की मेहमाननवाज़ी याद आई । निमकी लाल साबुत मिर्च के मसालेदार अचार के साथ और बेसन का हलुआ । बना डाला और ढेर ढेर प्रसंशा पाई । और बच्चू जो मीठा नहीं खाता , ये मीठा बिलकुल जीभ पर नहीं धरता से बदल कर दो दो कटोरी हलुआ खाने वाला और माँ को सीधा झुठलाने वाला बच्चू हुआ ।

बस हफ्ता ही तो बीता था । किस बात से उस स्वाद की याद उसे आई । आनी भी थी तो छुट्टी वाले दिन आती । आज जब जल्दी ऑफिस पहुँचना था तब ही । साडी का आँचल कमर में खोंसे पसीने से तर बतर माँ बेचैन बदहाल । न , अभी तो किसी कीमत पर नहीं । बच्चू पहले तो प्यार से ठुनकता था । ममा प्लीज़ कहता था । माँ कहती आज नहीं , राजा , मुन्ना , बेटा , आज नहीं । बच्चू ने पैर पटके , नहीं अभी अभी । अभी खाऊँगा । माँ ने बेख्याली में बाल थपथपाये , रसोई का सामान समेटना शुरु किया , घडी की भागती सुई पर और भी तेज़ भागती नज़र डाली । बच्चू लडियाता था , हँस हँस कर माँ को रिझाता था , ठुनकता सहकता था । माँ नहाने घुसी । बच्चू दरवाज़ा पीटता था , अभी अभी अभी । भीगे बदन कपडे पहनते माँ का पारा गर्म होता जाता था । बीस साल की फ्लोरिया ऐसे वक्तों में बच्चू से दूर हो जाती । घर की सबसे कोने वाली बैल्कनी की सफाई में जुट जाती । इस रूटीन में व्यतिक्रम न करते हुये फ्लोरिया गायब हो ली । माँ निकली गरम गरम और दरवाज़े से लटके बच्चू को दे डाला दो धौल । बच्चू वहीं लोट गया जमीन पर । इधर से उधर । लोटने पर एक कान उमेठी और मिली । नाक ,आँख , मुँह सब बहाते हुये बच्चू , गुस्से से तिलमिलायी फट फट तैयार होती माँ और भाग कर बच्चू को गोद में उठा दूसरी तरफ ले जाती फ्लोरिया ।

बच्चू का चेहरा सहम गया था । माँ का ऐसा गुस्सा । रह रह के सुबक जाता । हर तीन साँस पर एक लम्बी थरथराती हुई ,टूटी हुई हिचकी गले के गड्ढे में थम कर सिहर जाती । माँ तैयार निकलती थी । बच्चू को फ्लोरी की गोदी से ही एक बार प्यार किया । बच्चू का सहमा चेहरा , धमसे हुये लाल गाल । नज़र फेर तुरत उतर गई । रास्ते भर ऑफिस के लस्ट्म पस्टम के बारे में दिमाग उलझा रहा । ऑफिस पहुँचते ही कल की टाईप की हुई चिट्ठी पर तीन बार काम करना पडा । सेक्रेटेरियल पूल की सुनीता खन्ना से झडप हुई । बॉस के पी ए सोनी से बहस हुई । चौथे ड्राफ्ट को फाईनल किया ही था सोनी नयी चिट्ठी थमा गया , अरजेंट । टाईप करते करते बच्चू का धमसा हुआ रुआँसा चेहरा तैरता रहा । ठीक बारह बजे फ्लोरी का फोन आया । बच्चू को बुखार है । घर जाना है बच्चा बीमार है । बैग समेटते , पेपर्स तहाते सोनी की बुदबुदाहट कान में पडती रही । बच्चा हमारा भी बीमार पडता है । इसका क्या मतलब । हर बात में छुट्टी । तनखाह तो बराबर लेंगी और काम घर का करेंगी । ये औरतें ,इनपर तो भरोसा ही नहीं किया जा सकता । भुनभुन , भनभन ।

औरत धडफड स्कूटी चलाती है । घर जाते ही बच्चू के लिये बेसन का हलुआ बनाना है । कुछ मन से खा ले बस ,मेरा बच्चू , मेरा राजा , मेरा मुन्ना । बच्चू माँ को देख हिलक जाता है । लपक कर गोद चढ जाता है । गाल से गाल सटा लेता है । धमसे हुये चेहरे से फिक से हँस देता है , सुबह की मार भुला देता है । रसोई में हलुआ बनाती माँ अचानक धक्क से रह जाती है । नयी चिट्ठी जो टाईप की थी उसे बॉस को देना तो भूल ही गयी । कल सुबह फिर कचडा होगा ।

7/13/2007

डरने का डर

शाम का अँधियारा धुँधलका था । पाँव कितने भी तेज़ चलें डर की तेज़ धडकती नब्ज़ से तेज़ कहाँ चल रहे थे । चुन्नी का फहरना , बेवजह भी , कैसी उच्छृखंलता ! कैसे लपेट लूँ , छुपा लूँ , चेहरे को , बदन को । लडकी सिमट सिकुड कर कहाँ विलीन हो जाँऊ ,जैसी सिमटती थी , सिहरती थी । सडक के ठीक बगल से नाली , बजबजाती हुई बुदबुदा रही थी । बदबू का एक स्वायत्त संसार उसके ठीक ऊपर से होकर हवा में रेंग रहा था । भारी , भीगे कम्बल सी सडांध , या फिर भीगे कुत्ते की सडाईन बिसाईन महक ।

नाक दबाये , चुन्नी सटाये , सलवार पैरों में लथपथ , चप्पल फटफटाये तेज़ भागती, साँसों को पसीजी हथेलियों में थामे किस प्रेत पिशाची डर का भय कँधे पर सवार था उसके ।लडकी डर से चौकन्नी थी , सतर्क थी । उसे माँ की सारी हिदायतें याद थी , मुँहज़बानी । सयानी लडकी अँधेरा होने के पहले घर की चार दिवारी के अंदर ही शोभती है । साईकिल पर अनजान भी कोई बगल से गुज़रे या आगे कहीं तीन चार लौंडों का झुँड दिखे , लडकी की चाल तेज़ हो जाती थी ।रोंये खडे हो जाते , डर एक ठंडा लिजलिजा साँप हो जाता जो रेंगता कंधों और छाती पर , जाँघों और नितम्बों पर । लडकी कुछ चाल और तेज़ करती , सूखे पपडाये होंठों पर उससे भी ज़्यादा सूखी जीभ फेरती ।

गली के मुहाने पर कुछ टप्पर ठेलों सी दुकान पर ढिबरी की लम्बी मटमैली लौ गुम साँझ की बेहया बेहवा में स्थिर लपलपा रही थीं । कालिख और धूँये की मोटी लकीर आसपास के चकत्ते अंधेरे और गहरा रही थी । लडकी की पतली लम्बी काया जाने किस वेग से से दुहरी हो रही थी । सडक के किनारे की कमर से कमर सटी बिना पलस्तर की एक और डेढ मंजिला खस्ताहाल मकानों से कहीं रेडियो की धीमी आवाज़ सन्नाटे को चीरती तोडती उभर आती । किसी खिडकी से कोई छोटा ब्लैक व्हाईट टीवी का नीला स्क्रीन एक पल को बेचैन हिलती आकृतियों की किस अनाम दुनिया में खींच लेता ।

छन्न से किसी रसोई की छौंक की अवाज़ , कोई बच्चे की टूटती रुलाई , कोई दबी छुपी हँसी , तली हुई मछली की तेज़ तीखी महक , कहीं से पेट में ही मरोड नहीं करती ,बल्कि कैसी पल भर में अपने घर के सुरक्षित चारदिवारी में साबुत ,सलामत हो जाने की हकबका देने वाली टीस से भी मार डालती ।

लडकी अकेली कैसे छूट गई थी । इतनी देर कैसे छूट गई थी । अभी अभी तो रौशनी थी ।पल भर में कैसे इतना अंधेरा छा गया । नाभि के भीतर से डर रुलाई में लिसड लिथड रहा था । उबकाई की खट्टी डकार घूम कर माथे चढी और लडकी अचानक नीचे गिर पडी । हाथ में थामी चीज़ें धूल में फैल गईं । खंभे की टिमटिमाती ,पीली फीकी रौशनी में लडकी बदहवास बस बैठी रह गई । वही लडकी जो छुटके के साथ पटीदारी करती थी , लडकर गिल्ली डंडा खेलती थी , लट्टू खेलती , पतंग उडाती , साईकिल पर कैंची चलाती ,लडकों को बायें हाथ की कानी उँगली का नहीं समझती , वही लडकी ।हाँ , वही लडकी ,जिसे माँ कहती कि लडका है कि लडकी , किसी बात का भय नहीं इस लडकी में , वही लडकी जो क्लास में अव्वल आती , जो कहती कि मैं नहीं डरती किसी से , वही लडकी जो छिपकली से नहीं डरती पर तिलचट्टे से डर जाती और वही लडकी जो समझती कि उसकी मुट्ठी में सारा जहान है ।

लडकी क्या यों ही धूल सनी , घूमते माथे को लिये बदहवास बैठी रहेगी कि उठेगी फिर । याद करेगी कि मुट्ठी में जहान है , याद करेगी कि सिर्फ एक चीज़ से डरती है और वो अँधेरा नहीं है , कि अकेली लडकी का रात बिरात घूमने का अनाम डर ,उसका डर नहीं है , कि इस डर के आगे कोई गहरी खाई नहीं है । लडकी उठती है चुपचाप , खुद बखुद , समेटती है अपने बिखरे धूसरित सामान को , गिनती है , गुनती है , उठती है ,संभलती है । स्ट्रीट लाईट की मटमैली रौशनी में तेज़ चाल चलती है फिर वही लडकी ।

7/11/2007

बक्से का जादू

कितना अटरम शटरम बटोर लाये थे । उम्र भर बस बटोरते ही रहे । पॉलीथीन के तहाये हुये थाक , पेपर कटिंग ..पीले जर्जर मोड पर सीवन उघाडते हुये बेदम बरबाद , ढेर सारे बटन ..सब के सब बेमेल ...मज़ाल कि कोई दो साथी मिल जाये , चूडियाँ दरज़नों धानी , पीली , हरी और कितने रंग की लाल , कामदार .सादी , कानों की बालियाँ ,टॉप्स बेपेंच और पेंचदार , रेशम के धागे ... लच्छी ही लच्छी सब एक दूसरे में उलझे ओझराये । बस जैसे जीवन ही उलझ गया । पुराने टीन के बक्से खोल ..न जाने क्या गुनती बीनती रहतीं रात बिरात । दो सफेद किनारी वाली सफेद साडी , एक पीला पड गया रेशमी , तीन हाथ से सिले पेटीकोट और इतने ही ब्लाउज़ ढीलम ढाले , हूबहू एक से , एक बटुआ जिसमें पता नहीं क्या खज़ाना था , पुराने सिक्के , दवाई की खाली पुडिया । कितना तो अगडम बगडम सामान !

बक्सा अब भी सुंदर था। ऊपर हरा रंग धीमा तो पडा था पर चारों ओर के बेलबूटे ,लहरिया पत्तीदार गुलाबी , अब भी लचक में लहर जाता । दिल में मरोड उठ जाती बेहिसाब । कैसा हरियर हरा था जब नया था । और ब्याह की गुलाबी चुनरी , गोटेदार ! ऐसी ही तो लहरिया बेलबूटी थी ।बक्से के ढकने पर अंदर छोटे छोटे खाँचे बने थे । पीली पडी चिट्ठियाँ , अखबार की पुरानी कतरनें , ट्रेसिंग पेपर पर कढाई के नमूने, चाँदी की छोटी मछली , दवाई की खाली पुरानी बोतलें , सब अटरम शटरम ।

गुल्लू का दराज़ भी कोई कम थोडे ही था । गोली कंचे से भरा पडा था । तुडी मुडी ज़ुराबें , बिना रिफिल के दर्ज़नों पेन , टूटी बुचकी पेंसिल की टोंटियाँ , नकली नोट का मोनोपली का बंडल , गोटिय़ाँ , मेकनो सेट के क्षत विक्षत पार्ट पुर्ज़े और किसी शैतान लडके की दुनिया के पता नहीं कौन से रहस्यमय राज़ ।स्याही के धब्बों से पॉकेट रंगे कमीज़ की झाँकी दादी के बक्से की दो सूते सफेद साडियों से कम कहाँ थी ।

और इन्हीं अटरम शटरम सामानों की एक वृहत्तर दुनिया कोने की छोटी कुठरिया भी तो थी जहाँ छत तक सामान झोल और जाले से लिप्त अटा पडा था । कोई एक सामान निकालना असंभव । अव्वल तो याद नहीं रहता कि रखा क्या है और किधर है । और जो याद आ भी जाता था तो निकालने की सौ दुश्वारियाँ ।धूल की परत मोटी सब सामान पर एक समान । टूटी साईकिल से लेकर बाबा आदम के ज़माने का ग्रामोफोन , कूट के डब्बे में पुराने पुराने रिकार्डस , पुरानी अलबम और मैगज़ींस के ढेर के ढेर, बिन पँख के पँखे और बिन हैडल की सिलाई मशीन। अधूरे डिनर सेट्स और बिन ढक्क्न की केतलियाँ , दरके चीनी मिट्टी के नाज़ुक प्याले , संदूकों में भरे बचपन के कपडे , न जाने क्या क्या । अजब जादू का संसार ।

गुल्लू को लगता है एक दिन इस कमरे में घुसेगा सब की आँख बचाकर , ऊपर रौशनदान से जो सूरज की एक किरण आती है जिसके गोलाई में धूलकण सोने जैसी चमक जाती है ,अगर वो पड गई गुल्लू पर तो उसी वक्त कोई जादू शर्तिया हो जायेगा । दादी का बक्सा पँख लगाकर यहाँ तक आ जायेगा , गुल्लू का दराज़ भी , कोई पुराना रिकार्ड अचानक झूम कर बजने लगेगा । बक्सों में से पता नहीं क्या क्या निकल पडेगा , कैसी छन्न पटक सी जादू , कैसे सुनहले रंग ।कोई भारी आवाज़ , ऐई छोकरे ! गूँज जायेगी और फट से जादू छनछनाकर चकनाचूर हो जायेगा । गुल्लू के रोंये सिहर जाते हैं एक पल को ।

दादी अब भी अपने बक्से को खोले पता नहीं क्या खोज रही हैं । एक पुरानी सी पागल कर देने वाली गंध फैल गई है । गुल्लू की आँखे दादी के बक्से पर टिकी हैं किसी अजूबे के इंतज़ार में । कौन सा अजायबघर अपने दरवाज़े खिडकियाँ खोल दे , कौन जाने कब ।गुल्लू मुस्कुरता है । दादी पूछती है , क्या रे गुल्लू ? गुल्लू की हथेलियों में पल भर को अपने हो जाने का जादू ठमक जाता है । उसके रोंये सिहर जाते हैं एक पल को । बक्से का ढक्कन बन्द हो जाता है । दुनिया घूम कर वापस फिर टिक जाती है अपनी धुरी पर । कोई रहस्य आँखों के अंदर छिप जाता है दोबारा । कुछ नहीं दादी , गुल्लू हँसता है ।बक्से का जादू एक बार फिर बक्से के अंदर कैद है ।

7/05/2007

तब भी मस्त थे और आज ?

हमारे एक रिश्तेदार हैं । पांच साल वाशिंगटन रहकर लौटे । यहाँ आकर जिस चीज़ से सबसे ज़्यादा प्रभावित हुये वो बेसमेंट पार्किंग और दूसरा, हल्दीराम में दास्ताने पहने गोलगप्पे सर्व करते वेटर्स । पैकेट में बन्द गोलगप्पे , सफेद कटोरों में इमली पानी और मसाला । सब अलग । चम्म्च से मसाला खुद भरिये , पानी डालिये और गप्प से अंदर । कितना हाईजिनिक , सच । सब कुछ एकदम क्लिनिकल । मज़ाल है कोई कीटाणु आसपास भी फटक सके ।

पर गोलगप्पे जिसे हम बचपन में फुचका या गुपचुप कहते थे , उसे पत्ते के दोनों में पानी गिराते , कम मुँह में और ज़्यादा कपडों पर , आहा , उसका मज़ा ही क्या ? कॉलेज की दीवार के पार गुपचुप वाला ठेला । लडकियों की कतार । दीवार में एक चौखुटा छेद था जिसके पार से एक एक करके , पहले पत्ते का दोना और फिर फुचका पास किया जाता । कैम्पस की सुथरी कफेटेरिया में मक्खियाँ भिनकतीं और इधर भीड का रेला उमडता । ठेलेवाले की पानी से ठुर्रियाई उँगलियों पर मेरे जैसे बिदकने वाले विरले ही थे । क्या स्फूर्ति से शीशे के खुले जार से फुचके निकलते , अंगूठे से एक छेद कुरकुराया जाता ,दूसरा हाथ मसाला भरता , आलू और चना , और फिर एक डुबकी मटकी के अंदर इमली पानी के तालाब में ।

या फिर ट्रेन से राँची जाते वक्त पता नहीं कौन से स्टेशन पर ,(शायद मुरी ?) काले चमकते जामुन पर नमक छिडक कर पत्तों के दोनों में ,टोकरी में करीने से सजाये आदिवासी औरतें । शादी ब्याह पर पंगत में बैठे पत्तल पर फैले चावल के ढेर पर उँगली से ठीक बीचोबीच एक गोल कूँआ बनाना , दाल की बाल्टी ,कलछुल से हिलाते बजाते ,परोसने वाले के पहुँचने के पहले और फिर उस कूँयें में दाल के भरते जाने का बचपने का सुख , खासकर तब जब चावल का किनारा टूट जाता और दाल बह कर पत्तल के बाहर फर्श तक फैल जाता । सब किचाईन हो जाता , डांट पडती सो अलग । पर मज़े का क्या कहना ।

पत्तल की याद खूब ताज़ा है अब भी । याद है पहली बार पत्तल के प्लेट्स देखे थे तब अचरज हुआ था । मुडे हुये किनारों से अब दाल और रसे वाली तरकारी बह जाने का मज़ा छिना , ऐसा तो नहीं लगा । हाँ ये लगा था कि अब ज्यादा सुविधाजनक हुआ पत्तलों पर खाना । अब ऐसे प्लेट्स भी वर्षों से दिखाई नहीं दिये हैं । पेपर प्लेटस , पेपर ग्लास , प्लास्टिक की कटोरियाँ , नैपकिन्स , प्लासटिक के चम्मच और फोर्क्स , टेट्रापैक्स और डिस्पोज़ेबल कंटेनर्स ... ये कहाँ आ गये हम ? चुक्कड और कुल्हड , पत्तल और दोने की सोंधी महक कहाँ है ? लकडी की खपच्ची से दोने की मलाई , रबडी खाने का आहलाद कहाँ है ? चलती ट्रेन में हिलते डुलते कुल्हड से चाय सुडकने की परम तृप्ति किधर है ?और चाय खत्म होने पर कुल्हड को खिडकी की सलाखों के पार बडे कला कौशल से तेज़ भागती पटरी के बीच की गिट्टियों पर छन्न से टूटना देखना , मुँह सटाये लोहे के सलाखों से , आँखें दम भर तिरछी किये । ओह ! भले ही गर्दन टेढी हो जाये ऐसे कवायद से और आँख में कोयले का कोई कण पडे सो अलग ।

और जानते हैं , सबसे बुरा क्या ? अगर कुल्फी खायें तो चुक्कड में मिलेगा । मिट्टी का चुक्कड नहीं भूरे प्लास्टिक का । उफ्फ ! सब फेक है ,फेक । ऐसे ही पता नहीं कितने रास्तों से गुज़र कर हम नैचुरल से फेक के मंजिलों को हँसी खुशी तय कर रहे हैं । दुनिया सचमुच मस्त कलंदर है । तब भी मस्त थे और आज ?