12/26/2007

मैना ? मिन्ना ? मेनका ? मुनमुन या फिर मून्स ?

साबुन की बट्टी घिस गई थी इतनी कि बदन में मलना चाहो तो हाथ से फिसल कर बिला जाये । पर ना जी ऐसे कैसे पानी में घुलने छोड़ दें ।लोहे के जंगियाये बाल्टी के नीचे से , मग्गे के बगल से ,उस बड़े पानी जमा करने के हौद के किनारे छिपे , फूली टूटी लकड़ी के दरवाज़े के पीछे सरसरा कर फिसल गये दुष्ट बट्टी को वापस पकड़ धकड़ कर फिर उस बदरंग नीले , माने किसी ज़माने में नीले और अब न जाने पानी के दाग से सुसज्जित कौन से अनाम रंग से सुशोभित साबुनदानी में स्थापित कर दिया जाता । मुनिया को खूब बुरा लगता है । अब ऐसी कैसी कंजूसी ? अम्मा निकाल दो न नया वाला साबुन , नीला वाला पीयर्स । मोटा गदबद टिकिया । नहाने का मज़ा आ जाय । अम्मा भुनभुनाती अरे अभी हफ्ता दिन और चलेगा । और सच चल ही जाता । ठीक हफ्ता दिन नहीं तो चार पाँच दिन तो ज़रूर । पहले पारदर्शी होता फिर एक कोना जाता धीरे धीरे फिर फट से आधा गायब हो जाता और बाकी बचा दीन हीन टुकड़ा कोने के जाली में जा कर फँस जाता ।

अम्मा ऐसे ही जमा करती माचिस की जली तीलियाँ । मुनिया कुढ़ती तो अम्मा का प्रलाप चालू हो जाता । अरे गृहस्थी चलाना कोई गुड्डे गुड़िया का खेल नहीं ।तिल तिल करके जोड़ा जाता है । सब बचाई हुई जली तीलियाँ काम आती जब गैस का दूसरा बर्नर जलाया जाता । अम्मा गर्व से हर बार एक नई तीली बचाने की चालाकी और उस बचे पैसे से कोई ऐसा खर्च का हिसाब किताब जोड़तीं जो महीनों से अगले महीने पर टलता रहा होता हो । जाने एक एक तीली जोड़ कर महीने में कितना पैसा बचा लेंगी , मुनिया जल कर सोचती , मेरा घर होगा तो सबसे पहले माचिस फेंकूँगी । मुनिया बड़ी होती गई ,मेरा घर होगा तो .... करते करते ।

मुनिया के घर में अब नॉब से जल जाने वाला गैस का चूल्हा है , हॉब है , चिमनी है , बाथरूम में नीला बाथटब है , बाथटब में पॉटर ऐंड मूर का मैंगो फ्लेवर्ड फोमिंग बाथ क्रीम है , बेसिन के काउंटर पर नारंगी फिग ऐप्रीकॉट शावर जेल हैं , गुलाबी लोशंस हैं और ऐशवर्य है । झाग में गर्दन तक डूबे मुनिया तृप्त सोचती है । सब बदल लिया मैंने । सिर्फ एक चीज़ नहीं बदली । इस मुनिया नाम को कैसे अंग्लिसाईज़ किया जाये ? स्मार्ट बनाया जाये ? ओह अम्मा बाउजी भी न ! कैसा नाम रख दिया गँवारू । नो वंडर आई हेट देम ।

लूफा से पैरों की उँगलियाँ रगड़ते सोचती है ... मैना ? मिन्ना ? मेनका ? मुनमुन या फिर मून्स ?

(अज़दक के पोस्ट की साबुन की टिकिया से शुरु हुआ ये चेन रियेक्शन )

12/24/2007

एक कॉस्मिक छींक

एक शुरुआत हुई होगी कभी या ये सिलसिला बिना किसी स्टार्टिंग प्वायंट और एन्ड प्वायंट के एक सीधी रेखा या ढेर सारी सामानांतर रेखायें ,सब एक दूसरे में गडमड फिर भी अलग ,बराबर फिर भी अलग जैसे बच्चे ने क्रेयान से रगड़ी हो खाली आसमान में शून्य में कोई रंगीन बैंड समय का ? या फिर कोई समय कभी नहीं था कभी । सब टंगा है अलग अलग डाईमेंशन में , घटता है साथ साथ अलग अलग , प्रोबेबिलिटी के नियम ? ई = एम सी स्कावयर ? रेलिटिविटी थ्योरी ? साईंस फिक्शन का हैरतअंगेज़ किस्सा पॉसिबल और फीज़ीबल , विज्ञान के सिद्धांतों के दायरे में ? अगर सब सिद्धांत मालूम हैं फिर सही और अगर किसी रूबिक्स क्यूब के अंतिम स्टेप की सुगमता फिर भी दिमाग से फिसलता ? है तो कुछ और । आयेगा किसी के दिमाग में एक यूरेका । लटका है अधर में कोई टहनी से सेब । व्हेयर आर यू न्यूटन ? । चलती हैं कोशिकायें , धड़कता है न्यूरॉंन्स , ग्रे मैटर , हाइपोथलमस और मेडुला ऑब्लांगेटा के भीतर बाहर । कोई दो तार जुड़ जायेंगे और होगा कोई धमाका ,चमकेगी बिजली , फिसलेगा गरम चाकू मक्खन में । कितना आसान ,ओह सचमुच सचमुच ।


और बीतेगा समय ,रहेगा समय । खिंचेगी एक रेखा और । अनंत में ? सितार के तार ?बजायेगा कोई धुन इसी खिंचे तार पर । सरगम के पार । तार सप्तक सिर्फ शून्य । कोई सौर राग । जन्म लेगा कोई नया तारा कोई नया ग्रह कोई सौर मंडल एक और । फिर गीत रुकते ही सब बिखर जायेगा किसी ब्लैक होल में । ब्लैक होल नहीं सिर्फ एक क्षण को दो साँस के बीच का समय , एक गैप , अ ब्लैंक स्पेस । ठीक जिसके बाद फिर शुरु होगा जैसे नॉर्थ पोल के पास औरोरा बोरियालिस । ब्रह्मांड के बेरंग शून्य में बनेगा एक चित्र धुन से और रंगो की आवाज़ देगी संगत तब तक जब तक उसका जी चाहे । फिरेंगे तब तक हम पृथ्वी पर , रेंगेगे चींटियों से अपने बिलों में , रोयेंगे हँसेंगे , जनमेंगे मरेंगे , एक एक पल का हिसाब करेंगे , तकलीफ का दुखों का , क्षय होगा सब धीरे धीरे । फ्रॉम डस्ट अनटू डस्ट । सब खत्म होगा । ये समय , हमारा समय । ओह ! सब कैसा क्षणभंगुर । क्यों क्यों ? लेकिन आदि से अंत तक फिर भी खिंची है वही अदृश्य रेखा जहाँ हम ढोते हैं पुरखों के जींस , उनकी स्मृतियाँ , उनका समय । हम क्या सिर्फ केयरटेकर्स हैं कुछ मिलियंस सेल्स और तेईस जोड़ी क्रोमोसोम्ज़ के जिन्हें हिफाज़त से बढ़ाना है अगली पीढ़ी तक ? फिर अगली और अगली ? कब तक ? जब सब उस दो साँस के बीच का क्षण , उस ब्लैंक स्पेस तक न आ पहुँचें । फिर एक कॉस्मिक छींक ?

मिटा देगा कोई बच्चा बड़ी बेध्यानी और बचपन की निर्ममता से सारी लाईंस अपने इरेज़र से । ऊब चुका इस खेल से अब । देखता है कुछ पल ,खोजता है फिर नया खेल । तब तक ? एक पल .... सदियों का ब्लैंक स्पेस ..एक नया के टी एक्सटिंकशन ईवेंट ?


( रोती है लड़की आज किसी खोये प्रेम पर । गिरता है पसीना धार धार ,धुँधलाती है आँख उस मजदूर की । चिपके पेट रोता है बच्चा रोटी के एक टुकड़े के लिये । हर की पौड़ी पर सर्द बर्फीले पानी पर नहाता है तीर्थ यात्रियों का दल , मस्जिद से आती है अजान की आवाज़ अल्लाहो अकबर सुबह के कुहासे को चीरती है आवाज़ । उठता है ज़माना जुटता है खटराग में । छनकती है चाय की प्याली किसी लाईन होटल में , गिरता है झाग बीयर मग से किसी पब में । भूलते हैं सब , सब ।राम नाम सत्य है , सत्य बोलो मुक्ति है । अर्थी उठाये गुज़र जाता है काफिला और औरत ज़रा भीत पल भर छाती पर हाथ रखती सोचती है अपने बूढ़े बीमार पिता की , लौटती है गिराती है पर्दा खिड़की पर बच्चे की पुकार पर । फिर वही मायाजाल । थैंक गॉड फॉर आल दिस इल्यूज़न )

12/18/2007

ज़िंदगी कितनी हसीन है !

पहले दिन मुझसे टकराई थीं तो अजीब कुड़बुड़ाहट हुई थी । देख कर चलना चाहिये । अपने गिरे लिफाफे समेटते बिना उनपर तव्वोज्ज्ह दिये फुर्ती से आगे हो लिया था । स्पेनसर में मेरे ठीक आगे । वही स्टील ग्रे बाल , आज खुले थे कँधों तक । वॉलेट से पैसे निकालने जोडने में खूब वक्त लगाया । मैं एक पाँव दूसरे पाँव बेचैन कदमताल करता रहा । इनकी वजह से आज पाँच मिनट , पूरे पाँच मिनट खराब हुये ।

हफ्ते भर बाद लांजरी शॉप में मुठभेढ़ हुई । तमाम रंगीन लेसी झालरदार लांजरीज़ को एक हाथ परे हठाकर स्पोर्ट्स ब्रा उठाया । मणिपुर की कार्मेन अपने सीधे बालों को झटकारती पूरा डब्बा काउनटर पर उलट दे इसके पहले उन्होंने सधे हाथों से एक सफेद स्पीडो उठाया और पेमेंट काउंटर पर चली गईं । मैं कुछ देर कारमेन से बतकही करता रहा , उसके सीधे भूरे बालों की और चिकने पीले गालों के कंट्रास्ट में मसकरा वाली पलकों की तरीफ करता रहा । कारमेन ब्लश करती रही जबकि ये हमारा पुराना खेल था ।

मादाम के लिये सेक्सी ब्लैक निकालूँ ? उसने मुझे छेड़ा । कारमेन को पता था मादाम ब्लैक नहीं पहनती । पहले मादाम इस शॉप में अकेले आती फिर मैं भी साथ साथ । सोचता कभी अकेला आ जाऊँ तो ? निकाल बाहर करेगी ये सब छोकरियाँ मुझे दुकान से या फिर हाय आयम निहारिका कहते दुकान मालकिन छ फूटी लचके तने सी लहरा कर पीछे के प्लश कमरे से बाहर आ जायेंगी । कैन आई बी ऑफ अनी अस्सिटैंस ? किसी एक जन्मदिन पर अपने को गिफ्ट देने का यही शानदार तरीका सूझा था । के के लिये दर्ज़नों सोने के कपड़े , अक्सेसरीज़ , अल्लम गल्लम । फिर उसके लिये ऐसी शॉपिंग मैं मज़े से गाहे बगाहे किया करता ।

पेमेंट करके नीचे सबज़ीरो में घुसे तो फिर निगाहें चार हुईं । थ्री स्कूप कोन पकड़े बच्चों की तरह आईसक्रीम खा रहीं थी कम , गिरा रहीं थीं ज़्यादा । मुझसे नज़र मिलते ही झेंप गईं । फिर उस दिन जॉगर्स पार्क में पाँव मुचक गया । बस यकबयक ढ़हराकर गिर ही पड़ा । पाँच बजे की अँधियारी अल्लसुबह में जो दो लोग दौड़ते हुये आये उनमें ये भी थीं । एड़ी के पास कोई टेंडन खिंचा था । क्रेप बैडैज और पंद्रह दिन बिस्तर आराम । चौथे दिन के दफ्तर चली गई । दिन बहुत बुरा बीता । पाँचवे दिन वो आईं । सीधे सफेद काले ब्लंट बाल , ढीला स्टील ग्रे घुटनो तक का कार्डिगन और नीले स्लैक्स । कँधों पर कत्थई मफलर । अच्छा तो ये था आज का के का प्रॉमिस्ड सरपराईज़ । दो पीले सूरजमुखी के फूल ले कर आई थीं । आज तुम्हें कुछ पढ़ कर सुनाऊँ । फिर एक पतली किताब सीमस हीनी की कवितायें

There are the mud-flowers of dialect /And the immortelles of perfect pitch/ And that moment when the bird sings very close/ To the music of what happens.

फिर

As a child, they could not keep me from wells /And old pumps with buckets and windlasses./ I loved the dark drop, /the trapped sky, the smells Of waterweed, fungus and dank moss.

और

And here is love /Like a tinsmith’s scoop/Sunk past its gleam /In the meal bin


उनकी आवाज़ में एक संगीतमय गूँज थी , ज़रा सी रेशेदार जैस्रे खूब सिगरेट पीने के बाद कुछ खराश हुई हो । फिर एकदम से उठकर चली गईं बिना ये कहे कि फिर आयेंगी या नहीं । छठा दिन बीता फिर सातवाँ । आठवें दिन थरमस से सूप ढाल कर पीने ही वाला था कि घँटी बजी । दरवाज़ा खोलते ही सर्द हवा के झोंके के साथ दाखिल हुई । ठंड से चेहरा ज़रा लाल था । बिना दुआ सलाम के कुर्सी खींच कर बैठ गईं । झोले से किताब निकाला । आज कवितायें नहीं है ऐसा आश्वासन दिया ।

कुछ संगीत रखते हो ? मेरे स्टीरियो डेक की तरफ इशारा करने पर चुपचाप उठीं , शुबर्ट की ऑव मारिया लगाई और अपनी किताब में मगन हो गईं । अरे ! कैसी अजीब औरत है , मैं हर्ट सोचता रहा । कुछ लेंगी ? मैंने अन चाहे भी औपचारिकता निभाई । नहीं ठीक है । फिर डूब गईं किताब में । मैंने ज़रा सा झाँक कर देखने की कोशिश की फिर बेमन अन्यमनस्क होता रहा फिर कुछ नाराज़गी , ठीक है मुझे उस दिन मदद किया , तो क्या । यहाँ इस तरह आने की ज़रूरत नहीं । आई डोंट नीड ऐनीवन । लगभग दो घँटे हमने शुबर्ट और फिर हाईडेन को चुपचाप सुना , बिना एक शब्द बोले । फिर जैसे धड़ाके से आईं वैसे ही गईं ।

रात मैंने के को शिकायत की , अजीब पागल औरत है , आती है चली जाती है । मैं बोलता रहा , के मुस्कुराती रही । मेरा पैर क्रमश: ठीक होता गया । एड़ी में थोड़ा बहुत दर्द गाहे बगाहे बना रहता । बावज़ूद उसके कुछ दिन खूब भागदौड़ के बीते । दस दिन बाहर रहा । मैं लौटा तब के निकल गई हफ्ते भर के लिये । मैं अनमना घर में अकेला डोलता रहा । पूरा शनिवार अपने बेंत के झूले को वार्निश करता रहा । इतवार रेड ज़िनफंडेल की एक बोतल और ऑर्किड का एक छोटा गुच्छा लिये मैं धमक गया था । ज़रा अचकचाई थीं फिर नारंगी दरी पर बिखरे गद्दों के ढेर की ओर इशारा किया था ।
वाईन ग्लास ले आई थीं । इस दिसम्बर मैं सड़सठ साल की हो जाऊँगी । उन्होंने ग्लास मेरी तरफ बढ़ाते हुये कहा । जॉगिंग कब शुरु करोगे ?
हम दो घँटे बतियाते रहे पर सीमस और शुबर्ट की बात नहीं की । इसबार हम सिनेमा की बात करते रहे । खूब हँसे । शायद वाईन का भी कुछ खुमार था ।

ज़िंदगी कितनी हसीन है , नहीं ? उनका चेहरा , थोड़े से झुर्रियों भरा चेहरा एक खूबसूरती से दमक रहा था । वाकई , वाकई !

(के ने मुझे कभी बताया था कुछ दिनों पहले । अकेली रहती हैं । पति नहीं रहे । बेटे के पास यूएस गईं । पहुँची ही थीं कि खबर मिली किसी हाईवे ऐक्सीडेंट का शिकार हुआ । फिर दोस्त अहबाब पर निपट अजाना शहर और दुख , तोड़ देने वाला व्याकुल दुख जिसका ओरछोर कूल किनारा नहीं । लौट आईं । अकेली रहती हैं बिलकुल अकेली । कितनी बहादुर ! कितनी हिम्मत , कैसी दिलेरी । दिस इज़ लाईफ , ब्लडी अनजस्ट बट ब्यूटिफुल ! दिस इज़ लाईफ )

12/16/2007

रूल ऑफ द गेम

मेज़ पर फ्रेम्ड फोटो में एक लड़का एक लड़की कैमरे की तरफ देखते हँस रहे हैं । कैमरा भी शायद उस पल हँसा होगा क्योंकि तस्वीर उम्र के साथ पीली पड़ने के बावज़ूद एक खुशी की छटा बिखेरती है , अब तक भी , खिले उजले धूप सी खुशी । उस पल को फ्रीज़ करती हुई । कहाँ है अब वो खुशी ? मुट्ठी में बन्द पसीजा हुआ चुकता हुआ , जो था । अब नहीं है ?

तुम मुझे कितना सुख देना चाहते हो ? लड़की भोलेपन से पूछती ।
मैं तुम्हें सपना देना चाहता हूँ और तुम सुख की बात करती हो ? लड़के की आवाज़ में एक बेचैनी है ।
लड़की थोड़ी हैरान है । ये कौन सी भाषा बोलता है ।इसके सुर इतने अलग क्यों हैं ?
फिर तुम मुझे सपना ही दो । जो दे सकते हो वही तो दोगे । और जो जितना दोगे वही उतना ही तो लूँगी ।
तुम कैसी अजीब बात क्यों कहती हो ? लड़का बेचैन है । लड़की अपने दुख तकलीफ को लेकर अपनी माँद में घुस जाती है ।

तुम मेरे लिये क्या करतीं रही आज ? लड़का पूछता है ।
लड़की कल की बात से नाराज़ , कुछ भी नहीं किया तुम्हारे लिये।
ठीक है । लड़का झटके से फोन रख देता है ।

फिर हफ्ते महीने बीत जाते हैं बात किये ,मिले हुये । लड़की पता नहीं क्या सुनना चाहती है ।लड़का पता नहीं क्या कहना चाहता है । उनके शब्द एक दूसरे को बिना छूये निकल जाते हैं । बीच की कोई हवा है जो बहती नहीं ।

लड़की कभी कुछ सीखती नहीं । उसे रूल्ज़ ऑफ द गेम नहीं मालूम ।

तुम्हें पता है शतरंज में हाथी प्यादा वज़ीर कितनी चाल चलते हैं ? ब्रिज कैसे खेला जाता है ?
मुझे तो मोनोपॉली तक खेलना आता नहीं । लड़की अबकी बार हँसती है । फिर सोचती है सच मुझे तो किसी भी खेल के कायदे कानून नहीं मालूम ।

तुम रूल्ज़ तय करो और मैं सिर्फ फौलो ? ऐसा क्यों ?
ऐसा इसलिये कि ये खेल ज़रूरत का है । जिसकी ज़्यादा है वही फौलो करेगा न ।

फिर लड़की की समझ में पहला नियम साफ साफ आ जाता है । ठीक ! और वो अपनी ज़रूरत कम करने में जुट जाती है ।

आर यू डम्पिंग मी ? लड़का हैरान दुखी है । व्हाई ?
लड़की कहती है , मैंने नियम बदल दिये इसलिये ?


बसाल्ट पत्थरों पर समुद्र की लहरें सर पटक रही हैं अनवरत । पर्यटकों का झुँड कॉरिक रोप ब्रिज पर ठंड से सिहरता तस्वीरें खींच रहा है । बेलफास्ट के किसी पब के बाहर भूरी लाल दाढ़ी वाला गायक कोई बैलड गा रहा है किसी प्राचीन डुयेल की , किसी अनरेक़्विटेड प्रेम की । औरत , काले टोपी और लम्बे नीले ओवरकोट में , पुरुष की बाँहे थाम लेती है । उसके कँधे से सिर टिका देती है । पुरुष बेसब्र हो कहता है , चलें अब ? औरत सुनना चाहती है गीत इस ठंड भरे शुरुआती दोपहर में , रुकना चाहती है कुछ देर और । खेल के नियम अभी उसे सीखना बाकी है । अभी तो पूरा खेल ही बाकी है ।

कॉबल्ड स्ट्रीट में पत्थरों पर से ठंड धूँये सी उठती है ,छूती है औरत के सर्द गालों को । लकड़ी के बेंच पर अपने बदन को सिकोड़ता लाल चेहरे वाला बूढ़ा जलाता है पाईप , उसकी उँगलियाँ थरथराती हैं पल को माचिस की फक्क से चमकती तीली के साथ । कुहासे में क्षण भर को रौशनी का बस एक गर्म गोला !

12/14/2007

ये टिकट कहाँ रिफंड होता है ?

मेज़ पर चुमकी की पायल रखी है । तब की जब वो साल भर भी की नहीं थी । अब कलाई तक में भी न आये । कमरा गुम्म है । सब चीज़ चेक कर लिया है । हफ्ते दस दिन से यही कर रहे थे । हफ्ता दस दिन क्यों ये तैयारी तो और पहले की है । बैंक आकाउंट में नाम बदलना , नॉमिनी डालना पेंशन ग्रच्यूटि के कागज़ातों पर , राशन कार्ड , वोटर आईडी , पैन कार्ड , एल आई सी की सारी पॉलिसियाँ , किसान विकास पत्र और एन एस सी के सर्टिफिकेट्स, मकान की रजिस्टरी के पेपर्स , शेयर सर्टिफिकेट्स । सफर पर चलने के पहले कितना काम । सब एक मैथेमैटिकल प्रेसाईशन से करते रहे । लिस्ट बनाई और हर काम खत्म होने के बाद टिक किया । अब बाकी रहे सिर्फ दस , पाँच , तीन दो एक । सब निपटाते समय जीवन भर की अकाउंटैंसी से उपजे कार्यकुशलता का तानाबाना हर कदम पर दिखता रहा । मन को उठा कर कोने वाली दुछत्ती पर डाल दिया था ये पहला अच्छा काम किया था । जयंती तक साथ होती तो समझ नहीं पाती ।

सिर्फ एक सबसे बड़ी चीज़ तय करने की रह गई है । सफर पर निकलें कब ? चुमकी लौट जाये या उसके पहले । दस दिन से सिर्फ इस कमरे उस कमरे डोल रहे हैं । ये कोने वाला स्टडी टेबल शादी के जस्ट बाद खरीदा था , विपुल से उधार लेना पड़ा था । और ये पलंग , किश्तों पर । गैराज में सड़ रही फियेट जंग खाई , कितनी जद्दोज़हद के बाद बैंक लोन से । बाद में ज़ेन आ गया था । फिर चुमकी के आग्रह पर एस्टीम । ज़ेन बिका था उस नुक्कड़ वाले किराना दुकान के मालिक को । फियेट अब भी धरी है , चूहों मूसों का घर । दीवार पर हाथ फेरते याद करते हैं ,किस बचकाने उत्साह से फर्श के टाईल्स , खिड़कियों के शीशे , बाथरूम के फिटिंग्स लाये थे । जयंती कैसा नाराज़ हो गयी थी , रसोई तो होगी खूब बड़ी और बिलकुल जाने कब से सँभाल कर रखी गई ब्रिटिश पत्रिका वाला किचेन .. रोज़वुड कबर्डस । और गेट पर मालती लता का लतर । दरवाज़े पर पीतल के अक्षरों से नाम लिखा उनका और जयंती का । कैसा खुश हुई थी जयंती । हर बार कहीं बाहर से घर में घुसती तो हाथों से एक बार सहला लेती अपने नाम को । लेकिन अंत में बड़ा कष्ट झेला बेचारी ने । कैसे टुकुर टुकुर याचना भरी नज़रों से खिड़की से बाहर ताकती ।

इस पाँच कमरे वाले भभाड़ घर में , इस विशाल हाते में अकेले कितना भूत बने डोलें । रामदीन माली भी साल भर पहले गुज़र गया । अब उसका बेटा महीने दो महीने में आता है । सब फूल खत्म हो गये । जंगली झाड़ फैल गयी है सब तरफ । अबकी दफे चुमकी आयी तो कितना गुस्सा हो रही थी । क्या हाल बना रखा है अपना और घर का पापा ? अपने मैनीक्योर्ड लौन और पिक्चरपोस्टकार्ड घर की तस्वीरें दिखाती रही । कितनी दूर और कितनी अलग दुनिया है उसकी । यही मेरी बिट्टी चुमकी ?

अब दिमाग में सिर्फ एक हथौड़ा बजता है , अकेले अकेले । रात बिरात क्यों दिन में भी कुछ हो जाये फिर ? पिछले रो वाले बंगले में विश्वबंधु जी का क्या हुआ ? तीन दिन तक किसी को पता तक नहीं चला । कैसे हदस से मन भर जाता है । घड़ी की टिक टिक , पँखे का एक गोल धीमा चक्कर , नल की टोंटी का टपकना...... सब बीतता है न बीतते हुये भी । जयंती होती तो मन की भाषा में समझाती । यहाँ तो सिर्फ हिसाब किताब करने पर फॉर्मुला का अंतिम इक्वेशन ही दिखता है । एक सरल उपाय ।

रात गेट पर ताला लगाया । सब खिड़कियाँ दरवाज़े बन्द किये । छत वाले किवाड़ पर छोटा ताला लगाया । सारे बाथरूम के नल चेक किये । फिर साफ सुथरे बिस्तर पर लेट गये । धुले हुये कपड़े । चप्पलों को करीने से बिस्तर के ठीक सामने रखा । बस ये अंतिम बार पहनना हुआ । चुमकी मेरा बेटा चुमकी , खुश रहो खुश रहो । नाराज़ होगी फिर भी यही सही था । एक अंतिम बार साईड टेबल पर रखा चुमकी को लिखा गया पत्र देख लिया । नींद की गोलियाँ गले में अटकी थीं ज़रूर । छाती पर हाथ बाँधते डर का एक भयानक आवेग झकझोर गया । कूद कर गड्ढे के पार सुरक्षित पहुँच जाने की मर्मांतक टीस ! बस एक मौका और ? शरीर से कुछ निकल बहा हो । सिर्फ एक अंतिम नींद भर ही तो ।

(हफ्ते भर बाद चुमकी पापा के लिये लाया ऐयर टिकट थमाती है ज़फर को , देखिये कुछ हो सकता है ? रिफंड ? फिर फफक कर रोने लगती है )

12/11/2007

मुन्नव्वर तुम्हें प्रेम हो गया है !

मुन्नव्वर सुल्ताना बेगम आज ज़रा मायूस थीं । शीशे के सामने घँटो बिताये पर बालों की काकुलपत्ती ठीक ठीक नहीं सजनी थी सो नहीं सजी । एक लट भी कमबख्त घूँघर न होना था फिर लाल गुलाब का फायदा क्या । उसपर तुर्रा ये कि हाले दिल बेहाल । न उनको सुनाया गया न थाम के नौ गज शरारे के खम में छुपाया गया । जूतियाँ तक पैरों में ऐसी काट खाती थीं कि बस , इस पहलू उस पहलू बेचैन लहर मचलती बस । पान और ज़रदे किमाम की खुश्बू से सिर घूमता था । छोटे नक्काशीदार हत्थे वाले आरसी में जहाज जैसे पलंग पर लेटे लेटे जाने क्या देखती सोचती थीं ।

काहिरा अंकारा के बुर्जों पर शाम ढलती थी । कहवाघरों में धुँआते अँधेरों में बहसे गर्म होती थीं । यहाँ इस लाल पत्थरों वाली हवेली पर अँधेरा चुपके से आता था । चमगादड़ निपट अँधकार में उलटे लटके घँटे गिनते थे । दान्यूब के तट पर बर्फ जमती थी । समोवार की गर्म भाप चेहरे को कंठ के पहले धिपा देती । आग और बर्फ का खेल चलता । सरदी और गर्मी की रस्सी कूदते मौसम बदलता । सेंट पीटर्सबर्ग स्कायर पर लाल मफलर ओढ़े इर्वीना स्मेलोवा ओदोलेन स्मेलोव के हाथ में अपना हाथ , ठंड से चिलब्लेन वाले हाथ , थमा देती । नील नदी पर बजरे पर तैरते अमोन और ज़हरा पानी में डुब से डुबकी मारते सूरज को देख देख उदास मुस्कुरा देते । मिराबो में अनातोल मारी अन्ना को देख कहता , j'avais aimé une fois , मैंने प्यार किया था कभी । उसकी आँखें कहीं सुदूर चली जातीं । नहीं देखती कि मारी अन्ना का चेहरा फक्क पड़ गया है । ऑस्टिन में सिगरेट से धूँआ छोड़ते , धूँये से आँख मिचमिचाते नाओमी अचानक रसेल को कहती मूव अवे हनी , मूव अवे । रसेल मूव अवे नहीं करता , बस इंतज़ार करता , इंतज़ार । दुनिया में जाने कहाँ कहाँ औरत और मर्द यों हाथ में हाथ डाले चुप घूमते , बिना एक शब्द बोले बतियाये । ऐसे जोड़े जो बिना कहे एक दूसरे को समझ लेते । और ऐसे भी जो खूब खूब बोलकर भी ज़रा सा भी नहीं समझते । कतरा भर भी नहीं । न एक दूसरे को न खुद को । और जीवन बिता देते इसी मुगालते में कि समझ लिया सब।

मुन्नव्वर जान दौड़ कर जाती मेहराबों वाले झरोखे पर , पल भर को झाँकती फिर पलट निढाल गिर पड़तीं । साटन और किमखाब के चादर पर बदन फिसल जाता । कितना दुख । मिस मजूमदार होतीं तो कहतीं ,की दारूण कोथा , फिर अपना चाँदी का गुच्छा अपने सलोने कमर में खोंस होंठ दबा कर अफसोस ज़ाहिर करतीं । मुन्नव्वर मुन्नव्वर ! तुम्हें प्रेम हो गया है । मुन्नव्वर छाती पर हाथ धरे आँख फाड़े एक पल को मिस मजूमदार को देखती है । प्रेम ! मुझे ? फिर एकाएक बिस्तर पर ढह जाती है । हँसते हँसते उसकी आँख से आँसू की धार बहने लगती है । मिस मजूमदार अफसोस और करुणा से उसकी तरफ देखती हैं । उफ्फ बेचारी लड़की ! हाथ में पकड़ा वर्जिनिया वुल्फ की मिसेज़ डैलोवे ज़रा और कस कर पकड़ लेती हैं । मुन्नव्वर की हँसी अब जा कर रुकी है । ओह मिस मजूमदार , प्रेम नहीं मुझे तो सिर्फ बदहज़मी हुई है बदहज़मी । डाईज़ीन की गुलाबी गोली बड़े से बड़े प्यार पर मजबूत पड़ती है ।

12/08/2007

दिदिया तू कितनी अच्छी है

कैसी खुशबू उड़ती थी जानमारू ! कितनी बार तो झाँक झाँक गये । टोह में । पर कोई सुनगुन न कोई नामोनिशान । बल्कि हर बार खदेड़ दिया गया बाहर बाहर से ही । एक ही बार आना जब बुलायें । यूँ दिक न करो । ठिसुआये मुँह बैरंग वापस । मन ही मन पक्का निश्चय करते कि अब न आयेंगे । पर उड़ती खुशबू खींच लेती और तमाम पक्के कच्चे इरादे छन्न से भाप बन उड़ जाते । जाने सुबह से क्या आयोजन हो रहा था । भूख पेट में सेंध मारती थी गुपचुप । नहाये धोआये पीढ़े पर बैठे थे कब बुलव्वा हो जाने । अम्मा ईया , चाची फुआ यहाँ तक कि दिदिया और बदमाश मनी भी भी कहाँ अंदर गायब थी । मनी तक को बुलाओ तो अभी नहीं बाद में कह फिर अंदर गायब । लाल पीले पाड़ की साड़ियाँ , बड़ी बड़ी लाल लाल बिंदी , छमछम चूड़ी । दिदिया कैसी सुंदर सलोनी लगती है । मनी तक छोटके चाचा के ब्याह में सिलाया हरा लहंगा पहन इठला रही है , बदमाश कहीं की ।

बाहर बरामदे पर बैठे डल्लन के घर की मुर्गियाँ निहारने के आलावा और क्या करें । कारू ही आ जाये तो लट्टू ही खेल लें कुछ देर । आज अम्मा कहाँ मना करेगी । मेरी फुरसत हो तब तो । नीचे का होंठ मान में लटक गया । ये पीला कुर्ता और उजला पजामा अलग जी का जंजाल है । अम्मा ने खास चेताया है , खबरदार जो गंदा किया । बाबूजी बाबा बड़के चाचा सब ऐसे तैयार बैठे हैं जैसे कहीं जाना हो । पर खटारा गाड़ी तो पीछे के शेड में बन्द है , फिर ? ऐसे भी गाड़ी में कुनबा निकले तो कारू और मंगल , हरि और राघव सब मुँह छिपाये खटारा फियेट पर हँसते हैं ऐसा डर हर बार सताता है । बड़ी शरम आती है तब । इससे अच्छा तो रामजीत का रिक्शा है । कैसी फरफर हवा मिलती है । और हैंडल से लगा बड़ा सा आईना जिससे जाने कितनी ललरिया फुदनिया लटकती है , उसमें अपना चेहरा कैसा बुलंद भी तो दिखता है । सारी दुनिया का नज़ारा दिखता है सो अलग । पूछ लें क्या बाबा से , निकलना है क्या, बुला लायें नुक्कड़ से रामजीत को ? पर पहले कुछ खा तो लें । कब बुलायेंगी जाने ये अम्मा भी ।

पीछे के दरवाज़े से अंदर आँगन में घुसते ही दिखती हैं परात में लाल लाल खस्ता कचौरियाँ । एक उँगली धरो तो ऊपर का हिस्सा कुरमुरा के टूट जाये । आलू मटर की रसेदार तरकारी के साथ अभी मिल जाये तो क्या कारू से जीती हुई गोलियाँ ? फुआ की नज़र उस पर पड़ जाती है । उफ्फ अभी फिर निकाल बाहर करेंगी । पर नहीं । अबकी फुआ हँस कर उसे भीतर खींच लेती हैं । एक तरफ आँगन में गोधन की कुटाई हुई है , पूजा का सब सामान अब भी पड़ा है । आ रे .. सुमी और मनी टीका लगा लें , प्रसाद खिला लें । अम्मा हाथ में धरती हैं सिक्का , टीका लगायें तो हाथ पर रख देना बहनों के । दिदिया को दें सो तो ठीक पर मनी को ? कैसे इतरा रही है । बाद में इसी सिक्के से जलायेगी उसे । लड़की होने के कितने फायदे हैं ।

कचौरी का पहला गस्सा दिदिया उसके मुँह में डालती हैं । खा लेगा अपने से ? थाली अपने गोदी में खींचते कहता है , खा लेंगे , तुम सिर्फ बाद में मिठाई खिला देना हाँ । दिदिया उसके बाल बिखेर देती है फिर सटा कर छन भर , हँस कर परे धकेल देती है । माथे पर अक्षत और रोली का टीका चुनचुनाता है सूखकर ।

12/07/2007

टू गो व्हेयर नो मैन हैज़ गॉन बिफोर

(डायरी का पहला पन्ना ........ जो लिखा गया नहीं है अभी इस समय में , किसी भी समय में पर जो घटता है इस समय में , किसी भी समय में )


सब चीज़े ऐसे ही धीरे धीरे चुक जाती हैं बेसान गुमान के । मैग़्नीफाईंग ग्लास का शीशा खेल खेल में कलाई पर रखा तो मग्नीफाईड कोशिकाओं का जाल किसी सौ साल के बुड्ढे की चमड़ी दिखा गया । सिहर कर आँख बन्द की तो लेकिन तब तक सिहरन दौड़ चुकी था शिराओं में । धूप में बैठे सुसुम वाईन का घूँट मुँह के अंदर ज़ुबान पर गुनगुना था और गुनगुना था जीवन का बीतना मुँदी आँखों के भीतर किसी सूरज का चमकना किसी नये तारे का जनमना ।

मिमोसा के पत्तों पर नीचे एक भुआ पिल्लू स्थिर जड़ा था । लैब के अंदर कुछ रहस्यमय कारगुज़ारी चल रही थी । चश्मे के मोटे शीशे भाप से धुँधलाये थे । आकृतियाँ रेटिना के पहले बनती थीं और दिमाग के न्यूरांस चटक रहे थे । तारों और पाईप्स का जाल । पूरा सयंत्र क्रोम प्लेटेड चमचमाता , न एक कण धूल । कंट्रोल्ड अटमॉसफियर !

पेट्री डिश में उबल रहे थे बुलबुले नीले और नीले । डीप फ्रीज़र में न्यून्तम तापमान कल्पना के परे था , कोई फ्रिजिड ज़ोन । जहाँ साँस थम जाती है , लहू जम जाता है , हृदय धड़कना बन्द करता है ..एक पल का एक सदी का आराम । उस क्षण के ठीक ठीक बाद फिर दुगुने आवेग से सब शुरु होगा , नया जलसा नया आयोजन..एक और नया त्यौहार । कोई पुच्छल तारा टूटा है अभी अभी कहीं।

भुआ पिल्लू सरक कर दूसरे पत्ते की टहनी तक पहुँच गया है । मेरे वाईन खत्म करते करते नीचे की काली मिट्टी तक पहुँच जायेगा , इसके आज के जीवन का प्रयोजन जैसे मेरा.... इस वाईन को खत्म कर के सफेद लैब कोट धार के झुकूँगा मेज पर , उठाऊँगा फॉरसेप से एक महीन बुलबुला और फूट पड़ेगा बेइंतहा कोई छतफोड़ ठहाका ?

फिलहाल टाँगे आगे फैलाये धूप चेहरे पर लेते बीतता है एक पल फिर एक पल । किसी और समय में घटित होती हैं किसी और के जीवन की बातें । किसी फिबोनाची नम्बर्स का जादू उलझाता है किसी दिमाग को , कितनी चालें ? शह और मात । घोड़े प्यादे और वज़ीर लेते हैं डेढ़ चाल , पिटती है रानी , गिरता है शहसवार मैदाने जंग में , छोड़ती है हेलेन मेनेलॉस को किसी पेरिस की चाह में ..यही था वो चेहरा दैट लौंच्ड अ थाउज़ैंड शिप्स ? क्रूर क्रूर नियति , क्रूर जीवन की गति ।

मुन्दी आँखों के भीतर सब घटता है एक एक करके , कभी सिलसिलेवार कभी बेतरतीब । मैं भी घट रहा हूँ शायद किसी और की मुँदी आँखों के भीतर ? या क्या पता किसी भुआ पिल्लू के सरकने जैसा ही निष्प्रयोजन है मेरा अस्तित्व ? फिर कहाँ जाना चाहता हूँ मैं ? वहाँ कहाँ जहाँ कोई अब तक गया नहीं । व्हेयर नो मैन हैज़ गॉन बिफोर ?

12/06/2007

नीचे पल्प की दुकान ऊपर खाली आसमान

पात्र ..सिर्फ दो ..बोबा बे और रामिनी ममानी
स्थान लक्मे ब्यूटी सलून
समय दोपहर साढ़े तीन बजे
दिन आह सप्ताह खत्म होने को चला ..आज शुक्रवार है



(बालों पर ड्रायर का हेल्मेट पहने , चेहरे पर लेप प्रलेप लगाये , आँखों पर खीरा के दो गोल टुकड़े सजाये )


र: कुछ सोचा हमारे ज्वायंट वेंचर के बारे में ? धूप में बैठकर गैलेरिया टाईप किताब और म्यूज़िक की दुकान चलाने का मज़ा ... साथ में कॉफी शॉप

ब: वेरी अप मार्केट और हम सिर्फ एक्सेंटेड अंग्रेज़ी बोलें

र: अरे रिवर्स स्नॉबरी भी चल सकती है । भोजपुरी या हिन्दी ?
ब: या तो एक्सेंटेड अंग्रेज़ी या फिर ठेठ भोजपुरी ..जो अंग्रेज़ी बोले उससे भोजपुरी बोलें और वाईसवर्सा ....

र: और क्या पहनें ? हैंडलूम की साड़ी या किरण बेदी टाईप कुर्ता विद जैकेट

ब: सीधे कटे स्फेद स्याह बाल .... बीड्स और लकडी की चीज़ें .... बहुत सारा ऑरगैनिक स्टफ

र: बड़ी बिन्दी ? डॉली ठाकोर या स्वप्न सुंदरी ?

ब: काजल , सुरमा और देसी चाँदी के गहने ?

र: सारे एथनिक कपड़े...कुच्छी लहँगे ..मोजरी ... लिनेन लिनेन

ब: सिर्फ इसोटेरिक जारगन बोलें ..नाक हवा में ... शोभा दे टाईप बिची बिच ?

र: एक्सिस्टेंशियलिज़्म ? मेटा फिज़िकल ? इम्पेरीसिज़्म ....एपिस्टेमेलॉजी ....वगैरह वगैरह ?

ब: शायद एक सिगरेट चाँदी के होल्डर में जो हम कभी फूकेंगे नहीं , सिर्फ प्रभाव के लिये ( मुझे तो आस्थमा की बीमारी है )

र: या फिर बीड़ी ? पान रंगे दाँत भी हो सकते हैं ..वहीदा रहमान जैसे ?

ब: बीड़ी जिसे हम ऑफर करें वीआईपी कस्टमर्स को ..नक्काशीदार ट्रे में ?

र: हाँ जी

ब:: जिसको बीड़ी ऑफर किया समझो दे हैव अराईव्ड

र:फिर लम्बी लाईन ..दुकान के बाहर

ब: हमारी दुकान के बाहर दिखना माने स्टैटस सिम्बल

र: फिर हम आई एस ओ सर्टिफिकेट भी ले लेंगे

ब: नहीं लम्बी लाईन नहीं ..वेरी सेलेक्टिव .. हेवी ड्यूटी डिसकशन ..माल खरीदो सौ के बात करो हज़ार के

र: ओह ला..डी डा .. वेवी वेवी अपर क्लास !

ब: ये भी हम तय करेंगे कौन अपर क्लास ..पारंपरिक मूल्यों को उलट पुलट देंगे

र: हाँ जी .. अरोमैटिक पॉटपोरीज़ बिखरे इधर उधर और एक तरफ गोबर अपनी मिट्टी से जुड़े होने का असर दिखाता

ब: कुल्हड़ में चाय और गोबर गैस की अंगीठी ?

र: पेज थ्री सोशलाअईट्स लड़ मर रहेंगी गोबर पाथने के लिये ....ऊह वॉट ऐन एक्स्पीरीयंस ...ट्रूली माईंड ब्लोईंग न ? लेट्स चिल आउट बेबी !

ब: हाँ .. मेरा गोईठा तेरे से अच्छा टर्न आउट किया मैन

र: डिज़ाईनर वंस ओनली ? क्या

ब: मार्केटिंग मार्केटिंग .. फिर शुरु करें

र: (उबासी ) अगले हफ्ते पेडिक्योर कराने आते हैं ..तब तक ...सोचते हैं ..( रेस्तरां ...डिज़ाईनिंग ...और क्या क्या करें .....बोबा का क्या ..पल्प लिखा ..ऐश की ...)

लिखवैया .. पी स्कायर ..मतलब दो प ..बूझो कौन ? ओह ! कितना फलसफा ?

12/04/2007

प्यार में माईग्रेन ?

काली कॉफी के तल में छूटी हुई हैं कुछ बातें । धूप की सीढ़ी चढ़ दिन पहुँच जाता है छत पर , सो जाता है अलस्त दोपहरी ।

आर यू हैप्पी ? सिगरेट की राख सवाल के साथ साथ भुरभुरा कर गिरती है ट्रे पर ।

सामने बच्चे खेलते हैं फव्वारे के चारो ओर । हवा बहती है छूती है इसको उसको , कोई स्कार्फ , कोई शॉल हिलता फड़फड़ाता है । सेल पर बात करती लड़की हँसती है अचानक । चौंक कर मुड़कर देखती है फिर मगन हो जाती है । कॉफी का प्याला प्लेट पर गोल घुमाती औरत सोचती नहीं है । दिन के इस वक्त जड़ा हुआ ये पल तौलती है । आदमी के आर यू हैप्पी को तौलती है । तौलती है दर्द के चिलकने को । टीस की टोपी ओढ़े सिर थामे स्थिर ।

आदमी बाहर देखता है ,सिगरेट फूँकता है । सब तरफ देखता है । औरत आदमी को देखती है । उसके न देखने को देखती है । फिर बैग से निकालकर कोई सा भी पेनकिलर गटकती है । क्या फर्क पड़ता है ।

कमरे में बिखरी हैं नीली दरियाँ । हर रंग का नीला । और कोने में इज़ेल , आधा चेहरा । बेंत के काउच पर अब भी निशान है देह के ढलकने की ,बाल के एक रेशे की , रात के स्मृति की । बाहर पेशियो पर गीले पत्ते सिहरते हैं कुहासे में । ठंड चाय की प्याली में डूबता उतराता है । गद्दे पर निढाल पड़े आदमी को देखती है औरत । पीछे बजता है कोई धुन रेडियो पर ,काँपती है आवाज़ । आदमी की उँगलियों पर अब भी निशान हैं पेंट के । तारपीन के तेल की महक सूँघती है औरत नाक भर कर ।

एक नस फिर तड़कता है , बिजली फिर कौंधती है । औरत सोचती है आज भी असर नहीं हुआ , ये कमबख्त पेनकिलर ! इज़ेल के आधे चेहरे में ढूँढती है हैप्पीनेस का डेफिनेशन ।