7/31/2009

क्‍या बात करें ?

किससे बात करें ? क्‍या बात करें ? गालों पर पेंसिल टिकाये सोचते हुए चेहरे दीखते हैं , सोच की घरघराती मशीन का वाजिब प्रॉडक्‍ट क्‍या है, हाथ नहीं आता । हाथ आता है, स्‍वाति ? स्‍वाति मेरी तरफ देख रही है, दीखता है, वाकई सुन पा रही है ऐसा नहीं लगता । लंच के बाद बेसमेंट के कॉरिडोर के भीड़ के अकेलेपन में फिर अपना शिकायतनामा पढ़ेगी, ‘ तुम आजकल बात नहीं करती !’ भीतर कोई बात थी , तैर रही थी , एकदम से ठहर जाती है , स्‍वाति इज़ राईट , बहुत कर लिया , अब करती- करती थक गई हूं , लेट मी थिंक फॉर अ मिनिट । ज़रा साथ सोच लें , स्‍वाति , बुरा तो नहीं मानोगी ना ?

मौसम , ट्रैफिक , अखबार के हेडलाईंस , बिजली की आउटेजेस , दफ्तर की पॉलिटिक्स , कामवाली के नखरे और माईग्रेन की दहशत , उसके बाद ? उसके बाद क्‍या , कोई बतायेगा मुझे ? जीवन बीतता रहता है । रीतता रहता है , मतलब की बात नहीं आती पकड़ में। बारिश की झड़ी में भीतर समटाये , काले घने बादलों को देखते सिर्फ खुद से हो सकती है बात । तुम्‍हें बुरा लगता है तो आई एम हर्ट, स्‍वाति , बट दैट इज़ हाउ इट इज़ ।

बच्ची की उँगली हथेली में थामे मैं पूछती हूँ उससे , बच्चे मुझसे बात करो । बच्ची हाथ छुड़ाती भागती है , अभी नहीं बाद में । बाथरुम , डिनर, मां का फ़ोन , कुर्सी पर बैठे- बैठे जाने कब झपकी आ गई के बाद बालकनी में लगा कोई चिड़ि‍या आकर बैठी है , होश में लौटती , हाथ तोड़ती बालकनी में झांकती हूं तो कोई चिड़ि‍या नहीं दीखती । चिड़ि‍या का पर भी नहीं दीखता । दोस्त से पूछती हूँ , आखिर क्यों करते हैं बात हम ? मिलता क्या है आखिर ?

दोस्त बिना जवाब दिये जारी रहता , कॉफी की घूँट के बीच व्यस्त कहता है , समय नहीं है इसके लिये , पहले ये तय करो कि कुछ मिलना ही क्यों ज़रूरी है । व्हाई यू आर सच अ मटीरियलिस्ट ? बात से भी कुछ पा जाओ ऐसी बुर्जुआ आकांक्षा , रियली दिस इस द लिमिट ।

दफ्तर में कोई और दिन । कामों के शोर में मतलब के खालीपन से भरा दिन । सहकर्मी से फाईल्स निपटाते बीच में पूछ लेती हूँ , तुम क्यों करते हो बात ? भौंचक देखता , कहता है पहले ये फाईल निपटा लें ? फुरसत मिली फिर तो बैंगलोर में एक घर खरीदने की बात चल रही है उसके बारे में तुमसे राय लेनी है ?

कैफेटेरिया में खाने की मेज़ पर देखती हूँ , तश्तरी और चम्म्च की खनक के बीच , बात को कटोरियों से होते , नमकदान से गुज़रते , नैपकिंस की तह में खोते । वही, खाने में आज तीखा कम है , तेल ज़्यादा है , सामने लगे टीवी पर राखी सांवत है , पीछे दीवार पर टंगी पेंटिग में अफ्रीकी औरत है , अक्वेरियम टैंक में तैरती , गोल गोल गप्पी मछलियाँ हैं , बात कहीं नहीं है । नोव्‍हेयर । और डैम्‍म , क्यों नहीं है कि चिंता किसी को नहीं है ।

रात को चैट मित्र से हरी बत्ती टिमटिमाते ही , क्या खबर में कोई खबर नहीं का रसीद नत्थी करती , चैट लिस्ट की सब लाल हरी बत्ती को नमस्कार करती पूछती हूँ , अच्छा सोच कर बताना , आज कोई बात जैसी बात हुई ?

सबकी रौशनी गुल हो जाती है ।

याद आता है बरसों पहले किसी ने कहा था , तुम बड़ी अजीब बातें करती हो ।

7/03/2009

सबसे बड़ा ग्लोब

हमारे घर एक बैरोमीटर , एक लक्टोमीटर और एक ग्लोब था । एक थर्मामीटर भी था जो टूट गया था और जिसका पारा हमने एक छोटे पारदर्शी डब्बे में इकट्ठा कर रखा था । लैक्टोमीटर से हम दूध की शुद्धता नापते थे । उन दिनों हमारे घर में फ्रिज़ नहीं था और माँ दिन में चार बार दूध गरम करती थीं कि खराब न हो । हम स्टील के कटोरे में दूध डालकर जाँचते थे । उसमें पानी डाल डाल कर देखते कि लैक्टोमीटर सही बता रहा है कि नहीं । हर बार सही माप हमें भौंचक करता और हम एक दूसरे को देख विजयी भाव से हँसते थे जैसे कि ये कोई जादू का खेल था जिसे हमने ही अंजाम दिया था ।

गर्मी की चट दोपहरियों में माँ साड़ी का आँचल एक तरफ फेंक कर पँखे के नीचे फर्श पर चित्त सो जाया करती थी तब हम चुपके दबे पाँव बरोमीटर लेकर बाहर निकल जाया करते । पुटुस की झाड़ियों की ठंडी छाँह में भुरभुरी मिट्टी में तलवे धँसाये हम बैरोमीटर पढ़ते । उसका माप हमारे समझ के बाहर था । फिर भी उसको हाथ में थाम कर उसके बढ़ते घटते रीडिंग को देखना हमें अंवेषण कर्ता बना देता था । ग्लोब पढ़ना अलबत्ता अकेले का खेल था । ग्लोब नीले रंग का था और उस पर दर्शाये ज़मीन के टुकड़े भूरे हरे रंग के । उसका ऐक्सिस हल्के पीले रंग का था । धीमे धीमे उसे हम घुमाते और आँख बन्द कर कहीं उँगली रख देते । कुछ पल में ही ऐशिया से योरोप या दक्षिण अमरीका पहुँच जाते । हम जगह सीख रहे थे .. लीमा, पेरु , इस्तामबुल से बढ़ते हुये हम बुरकिना फास्सो , उलन बटूर , युरुग्वे , समोआ, तिमोर , इस्तोनिया, किरीबाटी, सान मरीनो तक पहुँच गये थे । फिर हमने ऐटलस पढ़ना शुरु किया । ज़मीन पर ऐटलस फैलाये हम मूड़ी जोड़े महीन अक्षरों को उँगलियों से पढ़ते । फिर हमने पुरानी दराज़ों को खँगालते हुये मैग्नीफाईंग ग्लास का अंवेषण किया था । उससे न सिर्फ अक्षर बड़े हो जाते थे बल्कि हथेलियों की रेखायें और उँगलियों के पोरों के महीन घुमाव से लेकर त्वचा के रोमछिद्र तक विशाल दिखाई देते । पकड़ी हुई मक्खी का शरीर और चम्मच पर रखे शक्कर का दाना भी । और सबसे मज़े की चीज़ कि सूरज की किरण को फोकस कर नीचे रखे अखबार का एक कोना भी जलाया जा सकता था ।

पर ये सब दूसरे दर्जे के खेल थे । असली मज़ा ऐटलस और ग्लोब पढ़ने का ही था । टुंड्रा और सवाना और पम्पास समझने का था । पहाड़ों पर उगते मॉस लिचेंस और रोडोडेंड्रॉन जानने का था । ऐटलस को छाती से सटाये चित्त लेटकर छत देखने का था । छत देखते उन दूरदराज जगहों की गलियों में भटकने का था । मोरोक्कन जेल्लाबा , अरब हिज़ाब , काहिरा की गलियाँ , स्पैनिश क्रूसेड्स बोलने का था । दिन में सपने देखने का था । जबकि स्कूल में भूगोल मेरा प्रिय विषय नहीं था । इसमें सरासर गलती सिस्टर रोज़लिन की थी । सिस्टर रोज़लिन हमें भूगोल पढ़ाती थीं । उनके टखने नाज़ुक थे और उनके पाँव सुडौल । वो पतले काले फीते वाले सैंडल पहनती थीं और उनके सफेद हैबिट के नीचे उनके टखने और पाँव नाज़ुक सुडौल दिखते थे । जब वो टेम्परेट और मेडिटेरानियन क्लाईमेट पढ़ातीं थीं मैं उनके पाँव और पतली कलाई और लम्बी उँगलियाँ देखती थी ।

माँ सुबह रोटियाँ बेलते वक्त गाने गातीं थीं । बँगला गीत , चाँदेर हाशी या फिर भोजपुरी लोकगीत , कुसुम रंग चुनरी या फिर फिल्मी गाने , रहते थे कभी जिनके दिल में । माँ काम करते वक्त गाने गाती थीं । माँ चूँकि दिनभर काम करती थीं , हम दिन भर उनके गाने सुनते थे । उनकी आवाज़ में एक खनक थी । उनकी आवाज़ तहदार थी और पाटदार । मुझे लगता था उनकी आवाज़ पतली क्यों नहीं । मैं कई बार रात को प्रार्थना करती , सुबह उठूँ तो उनकी आवाज़ पतली हो जाये या फिर मैं अपने कश्मीरी दोस्त की तरह गोरी हो जाऊँ । बहुत बरस बीतने पर ये मेरी समझ में आना था कि माँ की आवाज़ बेहद खूबसूरत थी , उसका एक अपना कैरेक्टर था , अपना वज़न और जो अपने आप को कहीं भी पहचान करवा सकता था । उस आवाज़ में एक खराश भरी लय थी , लोच था जो लम्बी तान में चक्करघिन्नियाँ खा सकता था , बिना टूटे , बिना बिखरे , जो कहीं दूर वादियों से उदास झुटपुटे की महक ला सकता था , जिसमें दिल मरोड़ देने वाली चाहत की प्रतिध्वनि थी । मेरे पिता माँ की उस आवाज़ पर कैसे फिदा हुये होंगे ये समझना बेहद आसान था । पर ये सब भविष्य की बातें थीं ।

माँ दिन में एक घँटा सोतीं थीं । तब हम दूसरे कमरे में होते जहाँ किताबें ही किताबें थीं। चौकोर भूरे दस लकड़ी के बक्से जिनको हम कभी पिरामिड की तरह सजाते , कभी एक के ऊपर एक रखते । चार नीचे फिर उनके ऊपर तीन फिर उनके ऊपर दो और सबसे ऊपर एक । सबमें किताबें सजी होतीं । बालज़ाक , प्रूस्त , ज़ोला , फ्लॉबेयर , इलिया कज़ान , लौरेंस । इनके साथ साथ महादेवी , रेणु , निराला , प्रेमचंद । बरसात के दिनों में गीले कपड़ों की महक इन किताबों में बस जाती । आज भी बरसात की महक से उन किताबों की महक आती है । पेट के बल लेट कर किताब पढ़ते थक कर सो जाते फिर माँ के गाने की आवाज़ से नींद खुलती । माँ शाम के खाने की तैयारी में लगीं होतीं । बाहर धुँआ होता या फिर शायद रात घिरने को आती । लैम्पपोस्टस पर बल्ब के चारों ओर लहराते फतिंगो का गोला होता और झिंगुरों की हमहम होती । हमारे सब साथी छुट्टियों में गाँव गये होते और अचानक शाम घिरते हम मायूस उदासी में डूब जाते । बैरोमीटर , टूटे थर्मामीटर का पारा , ग्लोब , सब आलमारी पर असहाय अकेले रखे होते । बिना संगी के , सिर्फ एक दूसरे के साथ से हम अचानक ऊब से भर उठते । माँ के गाने में भयानक उदासी होती । हम चुप खिड़की के शीशे से नाक सटाये अँधेरे में आँख फाड़े देखते , शायद पिता , जो महीने भर के लिये बाहर थे , आज आ जायें । आज ही आ जायें ।


माँ दूध में रोटी डालकर पका देतीं । दूध ज़रा सा किनारों पर जल जाता और रोटी भीगकर मुलायम हो जाती । घर में सोंधी खुशबू फैल जाती । खिड़की के बाहर अमरूद के पेड़ की डाली शीशे से टकराती । माँ कहतीं जल्दी खाना खा लो फिर हम बाहर बैठेंगे । रात की हवा गर्मी भगा देती और हम खटिया पर लेटे चित्त तारों को देखते । माँ धीमे धीमे गुनगुनातीं । फिर कहतीं बस अब बीस दिन और । फिर कहतीं गर्मी अब कम है । हम दोनों माँ को देखते फिर चुपके से हँसते । पिता ने वादा किया था कि इस बार बड़ा ग्लोब लायेंगे , जिसमें छोटे शहर और नदियाँ और पहाड़ भी दिखेंगे । हम चाँद को देखते और हमारी आँखों में नींद भर जाती । रात किसी वक्त , जब शीत गिरती और हम ठंड से सिकुड़ जाते , हमारे पैर हमारी छाती से जुड़ जाते , माँ हमारे शरीर पर चादर डाल देतीं और दुलार से हमारे बाल सहला देतीं । हम नींद में मुस्कुराते और अस्फुट बुदबुदाते , शायद समोआ और तिमोर और लीमा ।

(ऊपर की तस्वीर, सुल्तानपुर)