8/30/2008

औरत हैट और तैमूर

शायद तैमूर लंग या चंगेज़ खान ऐसे ही दिखते होंगे । तीखी नाक और मंगोल आँखें । नाक से होंठों तक की रेखा में निर्मम क्रूरता दिखती होगी । फिर वो हँस देता है । सफेद दाँतों की चमक और मुन्दे आँखों में ऐसा भोला सरल हास्य कि धूप खिल जाती है चेहरे पर । उसकी कहानियाँ अनवरत चल रही हैं । मैं खिडकी के बाहर नदी के साथ साथ चलती सड़क पर चल रही हूँ । मुझे पता था कि चाय बागान ढलानों पर होते हैं , पानी न जमे इसलिये । फैरो की जॉगरफी याद आती है । पर यहाँ तो सपाट ज़मीन पर चाय बागान है । महाशय फैरो , दोबारा लिख डालिये मैं स्मगली सोच कर मुस्कुराती हूँ । एक वक्त फैरो की मोटी किताब से कितनी चिढ़ होती थी । जॉगरफी मेरा पसंदीदा विषय नहीं था । अब लगता है खूब हो सकता है । इतिहास को भूगोल से जोड़ कर और इकानॉमिक्स को सोश्याऑलजी और अंथ्रोपॉलजी से जोड़ कर सब समझ जाने का मजा ।

चाय के कप के तल पर पत्तियाँ तैरती हैं । कोई पढ़ देता मेरा भविष्य । मैं देखती हूँ , पत्तियों में कोई इमेज खोजती हूँ , कोई संकेत आगत का , अच्छा इस दिन का ही सही । बन्द और लैंड स्लाईड के बीहड़ खतरों से सुरक्षित निकाल लाने का । उसकी ओर देखकर मैं अविश्वास को पल भर पीछे कपाटों में बन्द कर देती हूँ । गाड़ी के स्टियरिंग पर उसकी उँगलियाँ हल्के आश्वस्तता से पड़ी हैं । गोआ में ऐंटिकेरिया में नाश्ता करते वो जोड़ा याद आता है । शायद पहले दिन कोई लड़ाई हुई थी । लड़की चुप सर्दीली थी । लड़का हर तरफ देखता उसे नहीं देखता था । मैं उन दोनों को देखती थी । लड़की के समेटे बाल के नीचे शफ्फाक दुबली गर्दन पर मुझे प्यार उमड़ा था । पता नहीं इस वक्त मुझे वो लड़की क्यों याद आई । या फिर वो छोटी सी दुकान जहाँ शगाल की वायलनिस्ट का रीप्रिंट उस फेक फायरप्लेस के ऊपर । मैंने दुकान की मालकिन से हँसकर कहा था , शगाल पसंद है ? उसने मुस्कुरा कर पीछे वाली दीवार पर टंगा साल्वादोर दाली का लैंडस्केप विद बटरफ्लाईज़ , शीशे में मढ़ा दिखाया था । मेरा बेटा सिल्वियो जाने क्या क्या लगाता फिरता है । मैं सिल्वियो से नहीं मिली पर मुझे उसकी याद आती है । और मज़े की बात ..जब जब उस दुबली गर्दन बेनाम लड़की की याद आती है , पता नहीं उस न देखे सिल्वियो की याद भी जाने कौन से अजाने तार से आ जाती है । मेरी स्मृति में प्यारा सिल्वियो और दुलारी लड़की ।


सिल्वियो रॉड्रीगेस के गीत याद आते हैं । अब शगाल से याद आता है कि सिल्वियो से ..पता नहीं । मेरी मुकुराहट देखकर तैमूर जवाबी मुस्कान देता पूछता है , यू आर एंजोयिंग ? मेरी एड़ियों का कोना किसी पके ज़ख्म की तरह टभक रहा है । कल कामख्या देवी के दर्शन का प्रसाद है । शक्तिपीठ है , जाईयेगा ज़रूर । दर्शन और पूजा कराने के बाद बुज़ुर्ग पंडा महाशय गेरुआ धोती और गंजी में शक्तिपीठ की कहानी सुनाते हैं । कितना पुराना मंदिर है , कैसे पहले गर्भगृह में कितना पानी आता था , सती और शिव की कथा । मेरे तलुये गर्म फर्श पर जल रहे हैं । बाकियों को फर्क नहीं पड़ रहा । शायद मुझमें भक्तिभाव कम है । बाद में उनका विज़िटिंग कार्ड और मोबाईल नम्बर लेते मुझे हँसी आती है । किसी को भी दर्शन कराना हो मुझे फोन करियेगा । मैं टीका लगाये सर को समुचित आदर में नवाती हूँ । मुझे ये बुज़ुर्ग पंडा पसंद आये । सीढ़ीयों से उतरते पिता की याद आती रही । बेतरह ।

ठंडे फर्श पर पट लेटे गाल सटाये आँखें मून्दे मैं सिल्वियो को सुनती हूँ । अविश्वास को पल भर के लिये दूर हटाना चाहती हूँ । भरोसा करना चाहती हूँ । पता नहीं किस पर ? शायद खुद पर । सबसे ज़्यादा तकलीफ हम खुद को देते हैं। दूसरा कोई नहीं देता । ऑयल वोमन विद हैट । क्या गाता है स्पैनिश में । मुझे स्पैनिश नहीं आती पर अभी इस गीत को समझने के लिये स्पैनिश सीख लेने की गहरी अदम्य इच्छा होती है ।

लौटकर तस्वीरें देखती हूँ । नदी की , पहाड़ के , लोगों के । ओह ये कब लिया ? तैमूर का खिड़की के शीशे के पार हँसते हुये ? उसकी तस्वीर मेल करती हूँ उसे एक शुक्रिया के साथ । उस दिन सही सलामत निकाल लाने के लिये ।

(oil woman with hat ..oleo de una mujer con sombrero ) सिल्वियो रॉड्रीगेस

8/26/2008

धत्त ! ये तो बालूशाही है

काले बड़े लकड़ी के कमानी से लैस अजदहे छाते के पीछे उसकी आधी काया छिपी हुई थी । गाड़ी फर्राटे से पार हुई और एकदम पार हो जाते जाते देखा उसका चौंका चेहरा , एक पल को काले चेहरे में खिली दूध के कोये सी झक्क आँखें । फिर बरसाती सड़क पर दो दो तीन के गुच्छे में नीली कमीज़ और गाढ़े नीले लम्बे कम घेर वाले स्कर्ट में लड़कियाँ , सिकुड़ती बारिश से बचती बचाती हँसती खिलखिलाती , उसी सीलेपन में बेपरवाही खोजती पातीं लड़कियाँ ।

सड़क के दोनों ओर पेड़ों का कनात तना है । काले अलकतरे की सपाट सड़क आगे घूम कर विलीन होती जाती है हर बार सड़क को निगलते गाड़ी के मुँह से आगे तेज़ भागती । लाल मिट्टी और हरे पेड़ और उसके पार हरे खेत । गाड़ी का एसी तेज़ हवा धौंक रहा है । धूप में साईकिल रोके मुड़ कर देखता आदमी पसीने से तर है । औरत के पीठ पर गठरी सा बँधा बच्चा ढुलक कर सोया है । ठीक से दिखने के पहले पीछे छूटता हुआ । सड़क के दोनों ओर कस्बई दुकान में गाँव का सजा चेहरा दिखता है । मर्तबान के कतार और दीवार पर परमहंस की तस्वीर पर सूखे फूलों की माला , उसके बगल में किसी सफेद मूछों वाले भद्र स्वरूप बुज़ुर्गवार की फोटो और दीवार के पिछले हिस्से में पूजा के रैक से उठता लोबान अगरबत्ती का धूँआ । गाड़ी रुकी है । खिड़की के पार दुकान में बैठा आदमी निर्विकार भाव से मुझे देखता है । उसकी खुली बाँह पर एक मक्खी चलती है । बताशे के मर्तबान के अंदर एक चूँटा लगातार गोल घूमता है । इस दुनिया का प्राणी ।


भागते दौड़ते विलीन होते पीछे छूटे घरों , लोगों को देखते मैं सोचती हूँ , ये नहीं कि कैसे रहते होंगे ये लोग बल्कि ये कि ऐसे रहते क्या सोचते होंगे ये लोग ? सब लोग ?


ड्राईवर बोलता है , रास्ता एक किलोमीटर पीछे छूट गया । वहीं से जहाँ से बंगाल की सरहद शुरु हुई थी । बस जैसे एक लाईन खींची हो , इस पार आदिवासी चेहरे , लाल मिट्टी और उस पार बंगाली साड़ी , खुले तेल लगे बाल , सिंदूर का टीका । मैं सोचती हूँ कैसे तय हुआ होगा कि इस पार ऐसे रहेंगे और उस पार वैसे । और लाईन कहाँ तय हुई होगी ? किसने फरमान ज़ारी किया होगा या सब खुद ब खुद जान गये होंगे कि इधर ऐसे रहना बोलना है उधर वैसे ? जैसे दूसरे देशों के बीच , समुद्र के बीच , धरती पर कितने कितने लोग खड़े हैं लाईन के आमने सामने बताते कहते कि हम तुमसे अलग हैं ।


मज़े की बात है लाईन के इस पार भी पेड़ हरे हैं , उस पार भी । उन्हें किसी ने नहीं बताया इस पार उस पार के रीति को । सड़कों को अलबता बताया गया है । इस पार अच्छे और उस पार उबड़ खाबड़ । छोटे दुकान , संकरे रास्ते , बजबजाती नालियाँ , यूनियन का दफ्तर , मकानों के सामने तार पर सूखते छापेदार रंगीन साड़ियाँ , इधर उधर होते, सुस्त फुर्तीले दिखते जवान , जम्हाई लेते बुज़ुर्ग , घुटने पर हाथ धरे सड़क के किनारे बैठीं औरतें , खाट पर सूखता उबला पीला चावल । स्कूल जाते बच्चे , बिजली के तार और रेल की पटरी । खेत खेत खेत छोटे टुकड़े और कितने पोखर ।


गोसाईं कहता है यहाँ का गाजा मशहूर है । पुरुलिया में और क्या ? मुड़ी डुलाकर हँसता है दाँत टूटी हँसी , बस गाजा और क्या ? दफ्तर में बैठे चीनी मिट्टी के फूलदार कप तश्तरी में कड़क चाय पीते , नमकीन बिस्कुट का एक टुकड़ा तोड़ते , फाईल्स देखते उठ खड़े होते हैं । छोटे से दफ्तर में लोग हैरानी से झाँकते हैं , बाहर से आये हैं लगता है ।


लौटते खूब झमाझम बारिश । नक्सलाईट एरिया है , जरा जल्दी निकल जायें की ताकीदगी याद रहती है पर अँधेरा भी वैसे ही झमाझम बरस रहा है । झालदा के पास हिन्दू बादशाह होटल में खटिया पर बैठे चाय पीने का मज़ा अब निकलेगा शायद । मोटे विकराल मच्छर उठा कर न ले गये , नक्सली क्या ले जायेंगे । पानी शीशे को पीट रही है । अंधेरे में आँख फाड़े याद करती हूँ जगहों के नाम .. टाटी सिल्वे , सिल्ली , नवाडीह , तेतला , मुरी , झालदा , टोपशिला , पलपल , अहरारा .... जैसे एक स्वाद घुलता है मन में , किसी बिसरी हुई स्मृति का ? उस स्मृति का जो है नहीं , उन जगहों की याद जहाँ कभी गये नहीं , वो समय जो अपना था नहीं कभी ।


उस याद की याद कैसे आ सकती है जो याद कभी की गई नहीं ।


रात को कैपिटल के रेस्तरां मेलांश में बैठे मेक्सिन प्रॉन सूप पीते उस आदिवासी लड़के को कड़क यूनिफॉर्म में मुस्तैद मुस्कुराते देखती हूँ जो किसी गेस्ट के मेलांजे को सही करता अदब से मुस्कुराता है । कमरे में आकर पैकेट खोलती हूँ । रेस्तरां में डेज़र्ट को दरकिनार किया था । अब पुरुलिया का गाज़ा मुँह में घुलेगा । कूट का डब्बा तुड़ मुड़ गया है । बाहर तक देसी घी की चिकनाई फैल गई है । ढक्कन खोल कर निराशा होती है । धत्त ये गाजा कहाँ ये तो बालूशाही है । जरा निराश , एक टुकड़ा मुँह में डालती हूँ । तृप्ति से आँख मुन्द जाती है । आत्मा तक मिठास फैलती है ..घी में डूबी सोंधी , फट से कुरमुरा कर खस्ता टूट कर घुलती हुई ।

लगातार तीन खा लेने के बाद थकान में शरीर गिरता है । गिरता है नीन्द में ।

8/17/2008

ब्लॉगरों में क्या सुर्खाब के पर लगे होते हैं ?

ये सवाल मेरा नहीं प्रियंकर का है । अब कितने पर हैं और कितने सुर्खाब ये तस्वीरें देखिये और बताईये । और चूँकि पर गिनने का मामला था , हमने हिकमत करके अपनी शकल फ्रेम से बाहर रखी ।


ऐट्रियम कॉफे , पार्क में



सूरजमुखी के अकेले फूल से बतियाते
आह! ब्लॉग पुराण के रस
तो ऐसा था कि बात अभी खत्म नहीं हुई

















ब्लॉगरों की जमात । एक बार भी नहीं कहा कि आईये आपकी भी तस्वीर खींचते हैं । तो इस तरह मेरा पहला ब्लॉगर मीट बिना सनद के रह गया । खैर , घँटे भर समय में जितनी ब्लॉग चर्चा हो सकती थी हुई , पंगों की बात हुई और हम तीनों ने सूरजमुखी के फूल को हाज़िर नाज़िर जान कर अपने पहले और उसके बाद सारे पंगों को याद किया । प्रियंकर जी और शिव जी से जितने मेरे पंगे हुये उसका तफ्सील से हिसाब किया । कुछ लोगों को गालियाँ दी और कुछ की तारीफ की । फोटो खींची और ब्लॉगर मीट के विधि विधान का पालन किया ।

प्रियंकर अपनी पत्रिका 'समकालीन सृजन' लाये थे । अभी सरसरी तौर पर पन्ने पलटे हैं । दो ब्लॉगर दिखे अनुसूचि में ..सुनील दीपक और प्रमोद । ये दो लेख पहले पढ़े । बाकी खरामा खरामा । शानदार पत्रिका (पत्रिका कम किताब ज़्यादा)लग रही है । अफसोस कि किताबों की बात ज़्यादा न हो पाई । अगली बार सही ।

शिवजी मेरे बनाये परसेप्शन से कहीं ज़्यादा जेंटलमैन लगे , हैं । फिर फिर साबित हुआ कि पहला इम्प्रेशन हमेशा सही नहीं होता । और लोगों से मिलने के बाद का कम्फर्ट लेवेल अलग ही होता है । इस लिहाज़ से भी ये मिलना बेहद ज़रूरी रहा ।

अपने व्यस्त रूटीन से समय निकाल कर दोनों मुझसे मिलने पार्क आये और मेरे काम के फसान में उनके पहुँचने के बाद के मेरे पहुँचने को ऐसा सहज बनाया कि उस वक्त देर के लिये माफी माँगना सुपरफ्लुअस हो गया । ये हमेशा बेहद ओवरव्हेल्मिंग होता है जब इतनी सौजन्यता और आत्मीयता से लोग मिलें । शिवजी , प्रियंकर जी .... आप दोनों से मिलना बेहद अच्छा लगा ।

8/16/2008

नदी का गीत .. ब्रह्मपुत्र के साथ साथ

जैसे संगीत के नोटेशन वैसे ही नदी का गीत । सुर में बहता लचकता गाता । धरती के बदन पर धड़कता जीता , शिराओं में दौड़ता खींचता जीवन । किसी आदिम समय से पुरखों के जीवन को पोसता देखता जीना मरना बीतना , सब का बीतना । सिर्फ नदी का न बीतना । तब से अब तक .. न बीतना , बस होना , बहना , रहना । आसपास की धरती बदली । पहाड़ पेड़ हरियाली जीवन । सबके सब बदले । तट पर छूती पछाड़ती लहर वही रही । उतनी ही शीतल उतनी ही उष्म । धरती पर किसने लिखी सुर की कहानी उसने रचा ऋचाओं का गीत । उसने ही बनाये नदी के सूत्र और देखा फिर तृप्त ऊपर से , पढ़ा नदी के लचक में , उसके मोड़ और उतार चढ़ाव में उस रचना के गुप्त संकेत । बादल के पार से जब रौशनी पड़ती है तब पढ़ सकते हो लहरों पर गीत नदी का , गा सकते हो गीत नदी का और सबके ऊपर ..आँखें मून्दे सुन सकते हो गीत नदी का ।









ऊपर से
दुनिया दिखती ऐसी
और शायद नीचे से
आसमान
उलटा लटका
गोल तश्तरी ?

ब्रह्मपुत्र के साथ साथ
किसने खींची ऐसी रेखा
सभी उँगलियाँ रंग डुबाकर ?


इन तस्वीरों को डालने का मोह ... कितनी और थीं पर सब्र करना पड़ा
हेलिकॉप्टर से : पहली यात्रा गुवाहाटी से नाहरलगन , ईटानगर
समय : एक घँटा दस मिनट
किया क्या : बस खिड़की से क्लिक क्लिक क्लिक

8/10/2008

ब्रश स्ट्रोक्स



एक किताब और एक फिल्म के असर में ..और आने वाले हफ्ते की तैयारी में ऐरियल शॉट की कवायद

8/09/2008

फोटो के बाहर ज़िंदगी

अकेलेपन का स्वाद भीगा सा है, चाय के ग्लास के रिम पर
ठिठकता है मुड़ता है बैठता है, दो पल फिर उदास भारी साँस लिये
कँधे सिकोड़े उठ बैठता है, निकोटीन से पीली पड़ी उँगलियों को
फूँकता है बारी बारी से, सरियाता है ऐशट्रे में
दो सिगरेट की टोंटियाँ आमने सामने, जैसे दो लोग बैठे करते हों बात
शीशे पर चोंच ठोकती चिड़िया मुस्कुराती है उसके बचकाने खेल पर
फड़फड़ा कर सुखाती है पँख
उलटे लटके छाते से गिरता है अनवरत पानी
फिर एक बून्द और एक !




रॉकिंग चेयर की छाया हिलती है । लम्बी होती है फिर बरामदे के अँधेरे से सटती । एक दबी हँसी गुम विलीन हो जाती है । कहीं से बासमती चावल के पकने की खुशबू तैरती आती है बेहिचक अंदर । कांसे के बर्तन में बढ़ता हरा बेल बनाता है कंट्रास्ट और खट से कैद हो जाता है फोटोफ्रेम में । दिन तारीख ईसवी सब दर्ज़ फोटो के पीछे । जैसे उसका खूबसूरत चेहरा डिफ्यूज़ होता है पीछे के बैकगाउंड में ।

काले स्लैक्स और ढीले सफेद टीशर्ट में घूमती दबे पाँव बिल्ली खींचती है तस्वीरें । चीज़ों को ज़रा इस ऐंगल , थोड़ा उधर । खट खट खट । अब हँसो , अब मुस्कुराओ , अब ज़रा संजीदा । बीच बीच मे चाय का प्याला , एक घूँट तेज़ ।
उसने ग्लास में दो उँगलियाँ नाप कर डाली थी कोन्याक । उसके पहले कुछ और भी । हल्का नशा था । मन डोलता था । उसकी चाय की चुस्की के जवाब में उमगता हुआ एक घूँट । बाद में आया था पैकेट । वो नहीं आई थी । उसने हैरान नाराज़गी से सोचा था । तो सिर्फ ऐसे ही कह दिया था कि खुद ले कर आऊँगी । मक्कार मक्कार । उसके भोले चेहरे के पीछे छुपी मक्कारी नहीं दिखी थी तब ?

पैकेट फिर कभी गुस्से में खुला नहीं । फिर जब इतना समय बीता कि गुस्सा कपूर की तरह उड़ गया तब उत्कंठा नहीं बची । उस न बचने वाली उत्कंठा का स्वाद भी कसा है , अकेलेपन के स्वाद जैसा । उसके छोटे बालों की फुनगी पर टिका एक दूब का टुकड़ा जैसे ।


कुर्सी हिलती है । बाहर कितनी बारिश है । खिड़की के सिलपर दुबकी गौरैया कैद होती है फोटोफ्रेम में । कल के अखबार में छपेगी तस्वीर रंगीन छतरी लिये हँसते भीगते बच्चों के बगल में बारिश से बची दुबकी गौरैया की ।