(गुस्से और कबूतर में भला एक जैसा / समझते हो क्या ? )
मैं जब कहती हूँ गुस्सा
तुम समझते हो हँसी
चटक खिलता है फूल एक
कोई आग की लपट नहीं निकलती
मैं कहती हूँ प्यार तुम समझते हो गुलफाम
और कोई पत्थर नहीं गिरता पानी में
बस कोई चिड़िया उड़ जाती है फुर्र से
फिर मैं एक एक करके
आजमाती हूँ , फेंकती हूँ शब्द तुम्हारी तरफ
मोह ? माया ? सेब? कबूतर ?
ऊटपटाँग कुछ भी ...
जाँचती हूँ ,कुछ समझते भी हो ?
और तुम हँसते हुये कहते हो , अच्छा !
धूँआ ? बादल , नदी
पहाड ? है न !
मैं सिर्फ सोचती हूँ मेरे शब्द तुम्हारी समझ से
इतनी लड़ाई में क्यों हैं ?
(पहली पंक्ति आज पढ़ी .. राजेन्द्र राजन जी की कविता .. "शब्दों से ढका हुआ है सब कुछ" से इंसपायर्ड )
फताड़ू के नबारुण
1 month ago
6 comments:
बहुत दिनों बाद तुम्हारी कविता प्ढ़ने को मिली.बहुत अच्छी लगी.
very nice
मैं सिर्फ सोचती हूँ मेरे शब्द तुम्हारी समझ से
इतनी लड़ाई में क्यों हैं ?
अच्छा सवाल है. उत्तर मिल जाये तो बताना
अच्छी लगी कविता।
कविता की यही खूबी है, अपने में ,कहने से कहीं ज्यादा समेटना -- बहुत खूब !
कितनी सीधी सरल पंक्तियां हैं. कहना मुश्किल है ज़्यादा सीधी हैं या सरल? आज के वक़्त में वैसे विरल भी हैं..
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