2/20/2008

कोई ऐसे भुलाता है क्या ?

मिट्टी क्या रोड़ा ही था , सब तरफ लाल लाल ,खालिस धरती का रंग , धूसर मटमैला नहीं बस ऐसा जैसे अभी अभी पैदा हुआ नवजात छौना कोई। साँझ के धुँधलके में पत्तियाँ झर रही थीं। पंछियों का कलरव था । ऐसे शैतान जैसे अभी टूट पड़ेंगे। लेकिन एक पल था और अगले निर्बाध शाँति। जैसे सब बिला गये हों किसी खोह गुफा में। और मैं रात का स्याह घूँट भरती एकदम अकेली थी इस संसार में। बस एकमात्र जीव। मेरी छाती धड़कती थी। ऐसा ही कुछ महसूस करते होंगे पूर्वज जब बिछड़ जाते होंगे समूह से। जंगल तब घेर लेता होगा। देता होगा कोई सुकून, अपनी नर्म पत्तियाँ, थोड़ी सी नमी और मुलायम अँधेरा। पसीने की बून्द टपक जाती होगी छातियों से नाभि तक। सदियों के अंतराल को पलक झपकते वही बून्द पार कर लेती है। लोक लेती हूँ उस अनचाहे बून्द को अपने शरीर पर।

”कहाँ जात हिस रे ssssss …. “ की टेर फँसती है पेड़ों के बीच , झाँकती हैं दो छायायें , “अरे छउआमन ..” फिर भौंचक रुकती हैं ,”कौन ? “ प्रश्न टँगता है , भिनभिनाता है मच्छरों फतिंगो संग । दो अँधेरे चेहरे में चमकती उजली आँखों की कौंध।

पीछे से टॉर्च की रौशनी पड़ती है। “आप यहाँ हैं फुआ। हम समझे भुला गईं।“ पकड़ कर मेरे कँधे तक पहुँचता बच्चा घेर लेता है स्नेह में मेरी बाँहें।“ चलिये घर चलते हैं। मैं आज्ञाकारिणी बनी चल देती हूँ बच्चे के साथ। पकड़ लेती हूँ उसका हाथ कस कर। उसे क्या पता उसकी फुआ सचमुच भुला गई थी।

4 comments:

रजनी भार्गव said...

प्रत्यक्षा बहुत अच्छा है।

azdak said...

केमन हस, रे? चिनिया बदाम खायल बहुत दिन भइस..

Joshim said...

शंखपुश्पी (?) [ कहानियाँ उम्दा जा रही हैं ] -मनीष

अजित वडनेरकर said...

वो जंगल, वो फुनगियां, वो पगडंडी,वो झुरमुट, वो सूखे पत्ते, शाम को लंबे होते साये, गुम होने का भय ...सब याद आ गया। बहुत अच्छा।