रात भर खिड़कियों के बाहर
कोई ट्रेन सीटी बजाती रही
नींद के सुरंग में
हल्ला बोलती रही
बचपन किसी कस्बे
शायद चक्रधरपुर
या चाईबासा
रेल ट्रैक के पास अचंभे से धुँआ उड़ाती
कूँ वाली , पें वाली और बिदली ?
मैं घूमती रही बचपन के बीच
कोयले के धूँये और पत्थर के बीच
हाथ बढ़ाकर छूती रही उस भली लड़की को
और उसके भोले भाई को
भागती रही बेतहाशा उनके पीछे पीछे
जितनी बार भी ट्रेन बजाती सीटी
मेरी खिड़की के बाहर
सुबह किसी ने बताया
यहाँ तो वर्षों से कोई ट्रेन इस ट्रैक पर
दौड़ी नहीं
कोई दूसरा बनता है शहर के दूसरे छोर
वहीं जहाँ फलाँ विधायक की ज़मीन है
आसमान छूती है अब उधर की ज़मीन
अफसोस से हिलता है उसका चेहरा , लिया होता मैंने भी तब
जब बिकता था कौड़ियों के मोल
मैंने भी तो नहीं लिया फिर
मैं च च च्च करती हूँ
रात का इंतज़ार करती हूँ .. सुनाई देगी इस रात भी क्या
ट्रेन की सीटी मेरी खिड़की के बाहर
मेरी तन्द्रा टूटती है ,
मिस्टर अलाँ फलाँ कहते हैं आपकी टिकट्स कंफर्म हो गईं । कल सुबह की बजाय आज शाम की फ्लाईट है ...
अब आज रात कैसे दौड़ेगी ट्रेन उस खिड़की के बाहर ?
फताड़ू के नबारुण
1 month ago
7 comments:
pichhli bahut see yaaden.....chakkar lagaati hain
खैर, एयरपोर्ट जाने को भी मेट्रो रेल लिंक काम आयेगा!
मुझे नहीं मालूम यह कविता है क्या है. या पलक खुलने व झपकने के दरम्यान का एक आया निकल गया बिम्ब-विचार. मगर जो है उम्दा है. गद्य है मगर महीन. ओह, फैंटास्टिक. डैम गुड. ब्रावो!
बहुत उम्दा उदगार....
hey,
Very Nice, Keep up the Good Work.
Pradeep
http://pradeep.cgsutra.com
कल सुबह की बजाय आज शाम की फ्लाईट है ...
अब आज रात कैसे दौड़ेगी ट्रेन उस खिड़की के बाहर ?
काश पंख होते तो दौड़ शायद उड़ान में तब्दील हो जाती.
bahut sundar :-)
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