मेज़ पर चुमकी की पायल रखी है । तब की जब वो साल भर भी की नहीं थी । अब कलाई तक में भी न आये । कमरा गुम्म है । सब चीज़ चेक कर लिया है । हफ्ते दस दिन से यही कर रहे थे । हफ्ता दस दिन क्यों ये तैयारी तो और पहले की है । बैंक आकाउंट में नाम बदलना , नॉमिनी डालना पेंशन ग्रच्यूटि के कागज़ातों पर , राशन कार्ड , वोटर आईडी , पैन कार्ड , एल आई सी की सारी पॉलिसियाँ , किसान विकास पत्र और एन एस सी के सर्टिफिकेट्स, मकान की रजिस्टरी के पेपर्स , शेयर सर्टिफिकेट्स । सफर पर चलने के पहले कितना काम । सब एक मैथेमैटिकल प्रेसाईशन से करते रहे । लिस्ट बनाई और हर काम खत्म होने के बाद टिक किया । अब बाकी रहे सिर्फ दस , पाँच , तीन दो एक । सब निपटाते समय जीवन भर की अकाउंटैंसी से उपजे कार्यकुशलता का तानाबाना हर कदम पर दिखता रहा । मन को उठा कर कोने वाली दुछत्ती पर डाल दिया था ये पहला अच्छा काम किया था । जयंती तक साथ होती तो समझ नहीं पाती ।
सिर्फ एक सबसे बड़ी चीज़ तय करने की रह गई है । सफर पर निकलें कब ? चुमकी लौट जाये या उसके पहले । दस दिन से सिर्फ इस कमरे उस कमरे डोल रहे हैं । ये कोने वाला स्टडी टेबल शादी के जस्ट बाद खरीदा था , विपुल से उधार लेना पड़ा था । और ये पलंग , किश्तों पर । गैराज में सड़ रही फियेट जंग खाई , कितनी जद्दोज़हद के बाद बैंक लोन से । बाद में ज़ेन आ गया था । फिर चुमकी के आग्रह पर एस्टीम । ज़ेन बिका था उस नुक्कड़ वाले किराना दुकान के मालिक को । फियेट अब भी धरी है , चूहों मूसों का घर । दीवार पर हाथ फेरते याद करते हैं ,किस बचकाने उत्साह से फर्श के टाईल्स , खिड़कियों के शीशे , बाथरूम के फिटिंग्स लाये थे । जयंती कैसा नाराज़ हो गयी थी , रसोई तो होगी खूब बड़ी और बिलकुल जाने कब से सँभाल कर रखी गई ब्रिटिश पत्रिका वाला किचेन .. रोज़वुड कबर्डस । और गेट पर मालती लता का लतर । दरवाज़े पर पीतल के अक्षरों से नाम लिखा उनका और जयंती का । कैसा खुश हुई थी जयंती । हर बार कहीं बाहर से घर में घुसती तो हाथों से एक बार सहला लेती अपने नाम को । लेकिन अंत में बड़ा कष्ट झेला बेचारी ने । कैसे टुकुर टुकुर याचना भरी नज़रों से खिड़की से बाहर ताकती ।
इस पाँच कमरे वाले भभाड़ घर में , इस विशाल हाते में अकेले कितना भूत बने डोलें । रामदीन माली भी साल भर पहले गुज़र गया । अब उसका बेटा महीने दो महीने में आता है । सब फूल खत्म हो गये । जंगली झाड़ फैल गयी है सब तरफ । अबकी दफे चुमकी आयी तो कितना गुस्सा हो रही थी । क्या हाल बना रखा है अपना और घर का पापा ? अपने मैनीक्योर्ड लौन और पिक्चरपोस्टकार्ड घर की तस्वीरें दिखाती रही । कितनी दूर और कितनी अलग दुनिया है उसकी । यही मेरी बिट्टी चुमकी ?
अब दिमाग में सिर्फ एक हथौड़ा बजता है , अकेले अकेले । रात बिरात क्यों दिन में भी कुछ हो जाये फिर ? पिछले रो वाले बंगले में विश्वबंधु जी का क्या हुआ ? तीन दिन तक किसी को पता तक नहीं चला । कैसे हदस से मन भर जाता है । घड़ी की टिक टिक , पँखे का एक गोल धीमा चक्कर , नल की टोंटी का टपकना...... सब बीतता है न बीतते हुये भी । जयंती होती तो मन की भाषा में समझाती । यहाँ तो सिर्फ हिसाब किताब करने पर फॉर्मुला का अंतिम इक्वेशन ही दिखता है । एक सरल उपाय ।
रात गेट पर ताला लगाया । सब खिड़कियाँ दरवाज़े बन्द किये । छत वाले किवाड़ पर छोटा ताला लगाया । सारे बाथरूम के नल चेक किये । फिर साफ सुथरे बिस्तर पर लेट गये । धुले हुये कपड़े । चप्पलों को करीने से बिस्तर के ठीक सामने रखा । बस ये अंतिम बार पहनना हुआ । चुमकी मेरा बेटा चुमकी , खुश रहो खुश रहो । नाराज़ होगी फिर भी यही सही था । एक अंतिम बार साईड टेबल पर रखा चुमकी को लिखा गया पत्र देख लिया । नींद की गोलियाँ गले में अटकी थीं ज़रूर । छाती पर हाथ बाँधते डर का एक भयानक आवेग झकझोर गया । कूद कर गड्ढे के पार सुरक्षित पहुँच जाने की मर्मांतक टीस ! बस एक मौका और ? शरीर से कुछ निकल बहा हो । सिर्फ एक अंतिम नींद भर ही तो ।
(हफ्ते भर बाद चुमकी पापा के लिये लाया ऐयर टिकट थमाती है ज़फर को , देखिये कुछ हो सकता है ? रिफंड ? फिर फफक कर रोने लगती है )
फताड़ू के नबारुण
1 month ago
7 comments:
युवा अवस्था की उड़ान उम्र के साथ साथ निरंतर शिथिल पड़ती जाती है,और हांथ लगता है कभी न खत्म होने वाला अकेलापन……उदास कर देने वाला चित्रण… मगर हमेशा की तरह बहुत पसंद आया।
सब बीतता है न बीतते हुये भी.. अच्छे दिनों की यादों का दंड.. कूदकर गड्ढे के पार पहुच जाना ही इकलौता रिफंड बचता है.. व्हॉई?
Life is all about priorities and choices...everything has an opportunity cost...
I regret reading this post..you were cruel...perhaps life is cruel...still you don't need to accentuate our guilt....
बहुत मार्मिक !
क्या कहूं।
गहरे तक खदबदा देती हैं आप!!
एक साल गुजरता है और फिर साल पे साल गुजरते गुजरते जाते हैं लेकिन अंत ऐसा क्यों होता है, क्यों गड्ढे के पार पहुंच जाना ही अंत है। क्या जिन्दगी यही होती है
यह क्यों जरूरी है कि लेखन संवेदना के इस स्तर तक कठोर हो? ताकि शब्द पाठक की संवेदनाओं को झंझोड़ सकें? यह वक्त एक अपरिहार्य परिस्थिति की भांति सबके जीवन में कभी ना कभी आता ही है जब हम खुद को बस गड्ढे के उस पार ले जाना चाहते हैं. ना जाने कितने ही लोग गड्ढे के किनारे खड़े हैं. यह भी सोच लें कि क्या ये शब्द किसी गड्ढे के किनारे खड़े व्यक्ति को कुछ ऐसा ही करने का संदेश तो नहीं देते? लगा कि दे रहे हैं..... महसूस किया...!! यह शाब्दिक निष्ठुरता है.
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