(डायरी का पहला पन्ना ........ जो लिखा गया नहीं है अभी इस समय में , किसी भी समय में पर जो घटता है इस समय में , किसी भी समय में )
सब चीज़े ऐसे ही धीरे धीरे चुक जाती हैं बेसान गुमान के । मैग़्नीफाईंग ग्लास का शीशा खेल खेल में कलाई पर रखा तो मग्नीफाईड कोशिकाओं का जाल किसी सौ साल के बुड्ढे की चमड़ी दिखा गया । सिहर कर आँख बन्द की तो लेकिन तब तक सिहरन दौड़ चुकी था शिराओं में । धूप में बैठे सुसुम वाईन का घूँट मुँह के अंदर ज़ुबान पर गुनगुना था और गुनगुना था जीवन का बीतना मुँदी आँखों के भीतर किसी सूरज का चमकना किसी नये तारे का जनमना ।
मिमोसा के पत्तों पर नीचे एक भुआ पिल्लू स्थिर जड़ा था । लैब के अंदर कुछ रहस्यमय कारगुज़ारी चल रही थी । चश्मे के मोटे शीशे भाप से धुँधलाये थे । आकृतियाँ रेटिना के पहले बनती थीं और दिमाग के न्यूरांस चटक रहे थे । तारों और पाईप्स का जाल । पूरा सयंत्र क्रोम प्लेटेड चमचमाता , न एक कण धूल । कंट्रोल्ड अटमॉसफियर !
पेट्री डिश में उबल रहे थे बुलबुले नीले और नीले । डीप फ्रीज़र में न्यून्तम तापमान कल्पना के परे था , कोई फ्रिजिड ज़ोन । जहाँ साँस थम जाती है , लहू जम जाता है , हृदय धड़कना बन्द करता है ..एक पल का एक सदी का आराम । उस क्षण के ठीक ठीक बाद फिर दुगुने आवेग से सब शुरु होगा , नया जलसा नया आयोजन..एक और नया त्यौहार । कोई पुच्छल तारा टूटा है अभी अभी कहीं।
भुआ पिल्लू सरक कर दूसरे पत्ते की टहनी तक पहुँच गया है । मेरे वाईन खत्म करते करते नीचे की काली मिट्टी तक पहुँच जायेगा , इसके आज के जीवन का प्रयोजन जैसे मेरा.... इस वाईन को खत्म कर के सफेद लैब कोट धार के झुकूँगा मेज पर , उठाऊँगा फॉरसेप से एक महीन बुलबुला और फूट पड़ेगा बेइंतहा कोई छतफोड़ ठहाका ?
फिलहाल टाँगे आगे फैलाये धूप चेहरे पर लेते बीतता है एक पल फिर एक पल । किसी और समय में घटित होती हैं किसी और के जीवन की बातें । किसी फिबोनाची नम्बर्स का जादू उलझाता है किसी दिमाग को , कितनी चालें ? शह और मात । घोड़े प्यादे और वज़ीर लेते हैं डेढ़ चाल , पिटती है रानी , गिरता है शहसवार मैदाने जंग में , छोड़ती है हेलेन मेनेलॉस को किसी पेरिस की चाह में ..यही था वो चेहरा दैट लौंच्ड अ थाउज़ैंड शिप्स ? क्रूर क्रूर नियति , क्रूर जीवन की गति ।
मुन्दी आँखों के भीतर सब घटता है एक एक करके , कभी सिलसिलेवार कभी बेतरतीब । मैं भी घट रहा हूँ शायद किसी और की मुँदी आँखों के भीतर ? या क्या पता किसी भुआ पिल्लू के सरकने जैसा ही निष्प्रयोजन है मेरा अस्तित्व ? फिर कहाँ जाना चाहता हूँ मैं ? वहाँ कहाँ जहाँ कोई अब तक गया नहीं । व्हेयर नो मैन हैज़ गॉन बिफोर ?
फताड़ू के नबारुण
1 month ago
7 comments:
निष्प्रयोजन अस्तित्व का बोध कई बार किया है और इसके लिए आज एक सही शब्द मिला भुआ पिल्लू जैसा. जहां आज तक कोई न गया हो वहां पहुंचने की चाह ...ओह! यह भी जान लिया.
दुष्यंत की याद आ रही है. इतना गूढ़ तत्व बोध कहां से लाईं प्रत्यक्षा जी!!
मैं तो समझा ता कि सतार ट्रेक के बारे में बात हो रही है पत यहां तो कुछ और ही है :-)
बहुत बारीकी से चित्र खींचा है....
अस्तित्व के निष्प्रयोजन का....
विल इट बी लोनली देयर?
शानदार! क्या बात है! :)
आई होप मिस्टर स्पॉक होंगे वहाँ , बेजी । आप भी आमंत्रित हैं , आखिर डी एन ए की बात है ।
उन्मुक्तजी... स्टार ट्रेक अह! काश काश
पर्यानाद उसी भुआ पिल्लू से तत्वबोध आया । यू विल नो बेटर ! आजमा कर देखिये ।
अनूपजी एक उधार और है ।
ये क्या है ?? मुझ से बेहिस गाफ़िल को को भी सोचने पर आमादा कर देती है आपकी कलम. कल्पना की उड़ान ... कुछ अजीब है.... और उस से भी अजीब (या कमाल) है उस उड़ान की दिशा.
"मैं भी घट रहा हूँ शायद किसी और की मुँदी आँखों के भीतर ?" हद हो गई.
और ये "..........वहाँ कहाँ जहाँ कोई अब तक गया नहीं । व्हेयर नो मैन हैज़ गॉन बिफोर ?"
बहुत पहले पढी दो किताबें मालूम नहीं क्यों याद आ गयीं : "कब तक पुकारूँ" और "The Unbearable Lightness of Being" ....
I'm waiting for your next post.
अन्दर तक सिहरन पैदा कर गया आपका एक एक शब्द..
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