6/07/2005

भीने लम्हे

दर्द के काँटों ने कितनी शबनमी बून्दे
तेरे इन बन्द पलकों पर मोती सी सजाईं हैं

ये तन्हा चाँद के आँसू बरसते यूँ ही शब भर थे
हर सुबह फूलों की पँखुडियाँ इन्ही से तो नहाई हैं

ज़ख्म तुमने दिये थे जो कई सदियों पुरानी सी
मेरे होठों पे अब भी क्यों सिसकती ये रुलाई है

तुम्हारे खत में ताज़ा है अभी भी प्यार की खुशबू
इन भीने लम्हों से अब भी कहाँ बोलो रिहाई है

2 comments:

अनूप भार्गव said...

तुम्हारे खत में ताज़ा है अभी भी प्यार की खुशबू
इन भीने लम्हों से अब भी कहाँ बोलो रिहाई है
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बहुत सुन्दर पँक्तियां है ....

अनूप

Pratyaksha said...

शुक्रिया,
आपकी ऐसी प्रतिक्रिया मिलती रहेगी तो लिखना जारी रहेगा...