1/17/2011

तोपखाँ का तैमूर

वो न देखी तस्वीर सरन को हौंट करती है । रात कई बार सपने में काठ की सीढ़ियाँ आहिस्ता आहिस्ता फूँक फूँक कर चढ़ते , रेलिंग टटोलते सरन ऊपर पहुँचती है । नीले अँधेरे में दरवाज़ा धकेलती बिलास के कमरे में साँस रोके घुसती है । खोजती है वही किताब यहाँ वहाँ । बिलास सोया रहता है । खोजती है बेचैनी में । मुड़ती है देखती है बिस्तर पर बच्चे सी भोली नीन्द में डूबा चेहरा सरन का है । ओह अपने ही सपने में ऐसी सेंधमारी । सरन शर्मिन्दा होती है । दिन में कई बार उसे लगता है ओ बी एस साहब मुझे देखोगे तो मेरे भीतर झाँक पाओगे ? जान पाओगे मेरी जिज्ञासा को ? ये कैसी आँख की किरकिरी है मेरी , बताओ तो ..
धूप की चकमक में रात का सब सोचा गुना कितना व्यर्थ लगता है । ऐसी चकमक रौशनी हो तो भीतर का अँधेरा भी पुछ जाये । सरन के मुँह में लेकिन राख भरा है । इरा चिबिल चिबिल इधर उधर होते देखती है थोड़ी निस्संग जिज्ञासा से ।
ओ लड़की सुधर जाओ ज़रा , बाबुन की संगत का ही असर हो कहीं या फिर
 इसके आगे सोच को लगाम देती इरा सब झटक कर खिली धूप में बाबुन के संग निकल पड़ती है ।
बाबुन एक बार बिलास की तरफ देखता है , फिर जाने किस दीवार खिड़की को बताता है , कोई झरना है , कहीं साफ पानी इकट्ठा होता है , मछलियाँ देखी जा सकती हैं , और अगर कोई जादू जानो तो एकाध फँस भी सकती हैं ।
 बिलास सिगरेट सुलगाते ,चाय की कप में राख झाड़ते , जाने किस कैमरे के कौन से पुर्जे को साफ करता बुदबुदाता है
अरे ओ तोपखाँ , देखेंगे हम भी 
बाबुन के बाल सीधे खड़े हैं । सरन तीन बार पानी से भिगाकर कँघी कर चुकी है । इरा हर बार जाने कहाँ से नमूदार होकर उसके बालों को हथेलियों से बिगाड़ बिखरा कर फिर जाने कहाँ गायब हो जाती है ।

रावी तुम मुझे पानी में खेलने तो दोगी न ? न रावी ?
बाबुन बार बार इरा के कुर्ते को खींचता है ।
 रावी तुम सुन नहीं रही , नहीं तो मैं अपने कछुये को डाल आऊँगा वहाँ , तुम देखती रहना
 इरा बेध्यान है ।
डाल आना , शायद कुछ  भला हो कमबख्त का , कोई जोड़ीदार ही मिल जाये उसे वहाँ
 सरन चीखती है
 खबरदार बाबुन , ऐसा कुछ किया तो , मर जायेगा तुम्हारा तैमूर लंग । एक पैर के कछुये को देखा है कभी आपने ?
 सरन बिलास को मुखातिब है ।
बिलास कहता है
 परिवारिक मसलों में शायद मुझे नहीं पड़ना चाहिये । वैसे तैमूर लंग को सीवियर साईकियाट्रिक प्रॉब्लम है ।
 तैमूर लंग इन सब बातों से बेखबर मेज़ पर अपने मैराथन में जुटा है ।

(ऊपर डेरेक मकक्रिया के खूबसूरत कछुआ साहब , हमारे प्यारे तैमूर लंग और बाकी सब किसी जाने कब लिखी जाने वाली लम्बी कहानी , किसी नोवेला की दर्प भरी पर भोली उम्मीद आकांक्षा रखने वाले टेक्स्ट का नन्हा हिस्सा )

7 comments:

अजित वडनेरकर said...

अद्भुत है...हम इंतज़ार करेंगे पूरे मज़मूए का। काश, हम भी ऐसा कुछ लिख पाते...
असीम शुभकामनाएं प्रत्यक्षा जी।

Anonymous said...

Madam,

This is about your excellent piece in Ravivari Jansatta on 16.1.2011. The Article on Thailand was wonderful and for some moments, we thought we were in that beautiful country.

डॉ .अनुराग said...

love this....इसी को तो ढूंढ रहे थे पिछली तीन पोस्टो से .....

Neeraj said...

हम भी पढेंगे ये कहानी , या नोवेला जो भी कुछ आप बनायेंगे

neera said...

परोसती रहो नोवेला के पकवान....

प्रवीण पाण्डेय said...

लेखन में इतना आकर्षण है कि अन्त तक मुग्धता बनी रहती है।

नवनीत पाण्डे said...

उसके जाने बिना
जानना होगा
कि अब भी
खिलता है एहसास


बहुत ही सुंदर पंक्तियां हैं