2/25/2010

रात के बाद


निर्मल कुहनी पर सर टिकाये दीवार का कोना देखती है । गर्मी है उमस है अँधेरा है। साड़ी का पल्ला फर्श पर फैला है जैसे नदी बहती हो , अँधेरी रात में नीली नदी , शरीर बहता है मन बहता है । कमर पर पसीने की झुलस झाँस है । फिर भी दिल में कैसी हुमस है , ऐसे इस तरह लेट लेना , किसी के पैर के नाखून का खुरदुरापन पन तलवे पर महसूस करना , न छूते हुये भी ।
अँधेरे में उसकी आँखें हँसती हैं , उसकी आँखों के कोये से रौशनी झरती है , चकमक जुगनू हँसी वाली रौशनी । अमिय चित्त लेटा बाँहों पर सर धरे धीमे से कुछ गुनगुनाता है । बिना देखे भी देख लेता है उसका हँसना

निर्मल कहती है , फिर ?

अमिय छत देखता कहता है फिर क्या ? फिर कुछ नहीं ।

कमरा उसकी आवाज़ से अचानक भर जाता है । जैसे कभी खाली नहीं था । जैसे आवाज़ की पीठ पर सवार सुख कमरे में हवा और चाँदनी की तरह पसर गया हो । वो किताबों की आलमारी , वो मेज़ वो कुर्सी वो एक अकेला पौधा । कमरा वो नहीं था अब जो होता था हमेशा। धीरे से हाथ बढ़ाकर निर्मल की बाँह एक बार छू लेता है । इस रात , इस बीच रात , यहाँ इस तरह लेटा आदमी अमिय कहाँ है । अमिय में ऐसी ठहरी हुई , भरी हुई खुशी कहाँ होती थी । इसी समय में ये और कोई समय था , इस कमरे में कोई और कमरा ..

क्यों है न ?

निर्मल सोचती धीरे से कहती है , जानते हो जब मैं गाना सीखती थी , तब लगता था इस आवाज़ की हवा पर सवार मैं चिड़िया हूँ , मेरी आत्मा में पँख लग गये हों । अब लगता है अपनी आत्मा को निचोड़ कर बाहर फैला दूँ सूखने को , मेरी आवाज़ वहाँ से टँगी झर जायेगी । और मैं यहाँ , इस कमरे में तुम्हारे साथ बिना आवाज़ के बिना आत्मा के ऐसे ही चुप बेआवाज़ बेआत्मा दफन हो जाऊँगी ।

अमिय गाने के बीच में उठता है पानी पीता है , फिर उसके पास बैठ जाता है । कहता है , सुबह में अभी बहुत समय है । उसकी आवाज़ में पूरी रात है बाकी , अभी


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निS रS मS लS

कोई पुकार रहा है बहुत दूर से । पतली खिंची तार सी आवाज़ है , जैसे आवाज़ से उसका शरीर अलग हो गया हो । उस आवाज़ में धूँआ है और तकलीफ है । दर्द में कोई मुझे खोजता है । नीन्द में कमज़ोर कुनमुनाहट में अकबका कर देखती है , साड़ी गले पर लिपट गई है । शर्मिन्दगी में उठ बैठती है । शेल्फ पर टिकी किताबें सोलेम्ली देखती हैं उसे । कमरे का अकेलापन गूँजता है । उसकी साँस की आवाज़ में धमक है । तानपुरे का तार टूट गया है , तबलची भाग गया और अंतरंग कथा कहानी में तब्दील हो गई है ।

उसने पलक को पँजो के शिखर पर रख कर फूँका , आँख बन्द की , और उनके बीच जितने भी शब्द थे उन्हें फूँक दिया ।


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अमिय कहता है , तुम बीच बीच में ऐसी उदास क्यों हो जाती हो ?

निर्मल बैठ जाती है , घुटनों को बाँह में समेटे । धीरे धीरे उसका शरीर लय में हिलता है जैसे पहाड़ा रटती लड़की । खूब छलकती हँसी से उमग कर कहती है .. जानते हो

अमिय का चेहरा स्थिर हो जाता है , जैसे चेहरे के भीतर कोई रौशनी जल गई हो भक्क से । उसकी आवाज़ के रेशे में दुलार है , कहता है ..हाँ बताओ न !

तुम्हारे अंदर एक बच्चा है न , उस बच्चे की मैं सौ खून माफ करती हूँ

और मेरे भीतर जो बड़ा है ? उसका क्या ?
उससे बेईंतहा नफरत

ये कहते निर्मल की आवाज़ सपाट हो जाती है

अमिय बेपरवाह गुनगुनाता है , तुम जो मिल गये हो .तो जहाँ मिल गया है

फिर मुस्कुरा कर कहता है .. रात अभी भी ..

निर्मल कहती है , बाकी है ..


गाढ़े अँधेरे में उनकी गाढ़ी हँसी का नृत्य डोलता है

(जेमी वाईयेथ की पेंटिंग़ ..)

7 comments:

अनिल कान्त said...

तस्वीर खिंच गयी मेरे सामने. कभी मैं अमिय बन उसमें प्रवेश कर जाता हूँ तो कभी खुद को निर्मल महसूस करने लगा.

Anonymous said...

"अब लगता है अपनी आत्मा को निचोड़ कर बाहर फैला दूँ सूखने को , मेरी आवाज़ वहाँ से टँगी झर जायेगी । और मैं यहाँ , इस कमरे में तुम्हारे साथ बिना आवाज़ के बिना आत्मा के ऐसे ही चुप बेआवाज़ बेआत्मा दफन हो जाऊँगी ।"
अंतर्मन को झकझोरती - शानदार प्रस्तुति

पारुल "पुखराज" said...

तुम्हारे अंदर एक बच्चा है न , उस बच्चे की मैं सौ खून माफ करती हूँ..pareshani yahin se shuru hoti hai...chakr phir chalne lagta hai ...

khuub din baad aapko apke mood me padhaa :)

डॉ .अनुराग said...

लगता है अपनी आत्मा को निचोड़ कर बाहर फैला दूँ सूखने को , मेरी आवाज़ वहाँ से टँगी झर जायेगी । और मैं यहाँ , इस कमरे में तुम्हारे साथ बिना आवाज़ के बिना आत्मा के ऐसे ही चुप बेआवाज़ बेआत्मा दफन हो जाऊँगी ।



फिलहाल ये लिए जा रहा हूँ ..वापस दूसरी हाजिरी से पहले .....

डॉ .अनुराग said...

उसने पलक को पँजो के शिखर पर रख कर फूँका , आँख बन्द की , और उनके बीच जितने भी शब्द थे उन्हें फूँक दिया ।


and i was reading......"The first duty of love is to listen."

गाढ़े अँधेरे में उनकी गाढ़ी हँसी का नृत्य डोलता है

the mind can also be an erogenous zone....

अनूप शुक्ल said...

बच्चे के सौ खून माफ़! १०१ वां?
सुन्दर!

neera said...

शब्दों के जंगल से फूटता ... सच का बीज ..
तुम्हारे अंदर एक बच्चा है न , उस बच्चे की मैं सौ खून माफ करती हूँ


और मेरे भीतर जो बड़ा है ? उसका क्या ?
उससे बेईंतहा नफरत