एक बगीचा था । धूप से भरा । एक कमरा भी था जिसकी दीवारें नहीं थीं । बगीचे की नीली छत थी । कमरे में हरियाली थी । औरत सोचती थी यही जन्नत है , भीतर बाहर । ऐसा सोच कर उसे बेतरह खुशी मिलती थी । और इतना कहते ही एक अकेली चिड़िया आसमान में एक तीखे उड़ान में निकल पड़ती थी ।
***
भागते हुये रेल की खिड़की से टिके उसका बदन हिलता था लय में । दूर देश है जाना , मेरी जान , दूर देश । खुले दरवाज़े से लगे , टोकरी पैरों के पास समेटे उस देहाती औरत का तीखा चेहरा किसी इजिप्शियन रानी जैसा है , वही ठसक भरा लालित्य । लेकिन यहाँ कैसे । औरत बीड़ी सुलगाती , उठते धूँये के पार थिर आँखों से देखती है । फिर आँख से आँख लड़ाये मुस्कुराती है । मुस्कुराती है ? जब तक मुस्कान का सिरा पकड़ में आये , मुस्कान समझ में आये , रेल गायब हो जाता है । तेज़ हवा से आँखों में आँसू भर जाते हैं । बिना छत के बैठना , बिना दीवार के टेक के बैठना , कितना बेसहारा । अँधेरे में अकेले , कितने अकेले ।
***
समूची दुनिया कितनी गलत है ।
या तुम गलत हो ,
उसकी आवाज़ में कितनी हँसी है , हँसी का सुख है । वो ठहर कर अचरज से देखता है , हाथ आगे बढ़ाता है ,
छू लूँ , पकड़ लूँ ?
क्या ?
पूरी गँभीरता से कहता है , वही सुख ! जो तुम्हारे हँसने में है
तुम कुछ कुछ पागल हो
मैं कुछ कुछ होशमन्द हूँ
वो धीमे से आँखें बन्द करती है , कुछ सोचती है , फिर अपना चेहरा आगे बढ़ाती है ,
लो
आदमी उदास हो जाता है , बहुत उदास । सब तरफ अँधेरा छा गया हो जैसे । फिर भी हिम्मत कर औरत को चूमता है , पहले उसके माथे को फिर होंठों को । फिर हकबका कर उसके होंठों को बार बार चूमता है , हँसी का सुख कहीं नहीं मिलता । गाढ़ा काला दुख हरहरा कर भरता है । धीमे से फुसफुसा कर कहता है , ओह ! इतना दुख
औरत कहती है , कितना अँधेरा है और तुम जाने क्या क्या सोचते हो । फिर कहती है , हमसफर ?
***
चिड़िया गोल चक्कर काटती लौटती है , पूछती है , यही है दुनिया ? बस इतनी सी ? कैसे माया जाल में मुझे फँसा रखा था अब तक
क्या बगीचा और कौन कमरा ? किधर को जाती कैसी रेल ?
***
(रिचर्ड रे की लवर्स )
2/14/2010
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5 comments:
''हकबका जाना '' ओह !!!! '''हसीं का सुख '' वाह क्या बात है !!!!!! कहानी में कविता .....कविता में कहानी .
आपकी कहानियों के पात्र सदैव दार्शनिक सूक्तियों जैसे संवाद बोलते हैं। ऐसी कहानियों को पढ़ने के बाद कभी-कभी सोचता हूँ कि दो सदाबहार दार्शनिक प्रवृत्ति के स्त्री-पुरूष के बीच सरस भौतिक प्रेम संभव भी है ?
शब्दों के बीच की खामोशी गहरी और टीसती हुई...
अनकहे को जुबान देने में किस कदर समक्ष हो...
मुझे इन शब्दों के मध्य एक खाली ख़ामोशी महसूस होती है. ख़ामोशी वो भी खाली ...शायद जिसे शब्द पाट सकें...
वैसे आप हमेशा से सक्षम हैं शब्दों और खालीपन के खांचों को बयाँ करने के लिए ...आवश्यकता पड़ने पर उन्हें भरने के लिए
जब मै अपने पसंदीदा लिखने वालो के दरवाजे आता हूँ .....तो यकीन मानिये ...उन लफ्जों को हिला डुला कर देखता हूँ के जिंदा तो नहीं ?
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