12/08/2009

तुमी बाजना बाजाओ ना कैनो ?

अनुराज रामदूथ पुराने मंदिर के चबूतरे पर सूखे पत्ते हटाता जीर्ण खंभे से पीठ टिकाता बैठ जाता है । धूप चेहरे पर बरसती है । कपड़े के जूते धूल से अटे हैं । इस बियाबान सुनसान में छूटा लूटा भक्ति स्थल , साँप की बाँबी और फर्श फोड़ते तने का बवंडर । कोई राहगीर दूर से आता दिखता है । पास आता है । चुग्गी बकरा दाढ़ी और गिरी हुई मूछें । अपने कद से लम्बी लाठी को टेढ़ा करता अपनी हथेली टिकाता और हथेली पर ठुड्डी टिकाता ताकता है । चेहरे पर निश्छल भोली पर एकदम जानकार मुस्कान ।

नी हाउ

राहगीर मुस्कुराता है , उसकी मुस्कान मीठी है , आँखें शरारत से हँसती हैं । रामदूथ अकबका कर बोलता है , सात भाषायें जिनको जानता है । राहगीर अपने चमड़े के चप्पल उतारता चबूतरे का कोना पकड़ लेता है । चप्पल पर उसकी उँगलियों के निशान खुन गये हैं ।

मैं गलत आ गया इस बार , फिर धूप से बदरंग पड़े थैले से नक्शा निकालता है । देखो , यहाँ से चला था , यही रास्ता था । मार्कस औरेलियस को कोट करता है , इतिहास की अपनी सांत्वनायें होती हैं , नहीं ? हमेशा । गलत रास्तों की तो और भी

रेगिस्तान में गर्म हवा और दुष्ट शैतान होते हैं और राहगीर उनका सामना होने पर खत्म हो जाते हैं । उसकी आवाज़ साफ और स्थिर है , जैसे खुद से पाठ कर रहा हो । सही मार्ग चुनने का सिर्फ एक तरीका है , रास्ते भर मृत लोगों की सूखी हड्डियों के संकेत निशान खोज लेना ।

मिला था मुझे एक , चौदह सौ अठासी का केप ऑफ गुड होप से होता हुआ बार्थोलोमियो डियाज़ का नक्शा , कोई नाविक था तीन सौ निनावे ईस्वी में , ताओ चिंग का परिचित था । रात भर सर्द हवा से बचते हम उसके समुद्री संगीत को सुनते रहे थे । तब हम तुन हवांग से शेनशेन ही पहुँचे थे । हमारा पूरा सफर हमारे आगे था , फिर कियेह चा में हमें ऐसे ही मिल गया था । उसकी दाढ़ी में कुछ और सफेदी आ गई थी और उसने कुछ और नये धुन सीख लिये थे । गोबी मरुभूमि में रात को अलाव के घेरे में बैठे हम खोतान और पामीर की बात कर रहे थे और वही धुन रबाब पर बजाता कोई मूर अँधेरे में अस्पष्ट दिखा था । कॉर्दोबा से आया था । आरागॉन के फर्दिनांद और कास्तील की इज़ाबेल्ला के विवाह के बाद मुसलमानों और यहूदियों की नृशंस हत्या के दास्तान सुना रहा था ।

अल अन्दलूस , कंस्तुंतुनिया , कतालोनिया , रामदूथ बुदबुदाता है । फिर अकबका कर सोचता है , गाज़ीपुर आरा और हज़ारीबाग । मैं तो अपने पुरखे खोजने आया , गन्ने के खेत में काम करने वाले अनुबंधित गुलाम रामदूत और रामनगीना , अप्रवासी संख्या तीन एक दो चार एक शून्य और तीन एक दो चार एक एक । आरा से पोर्ट लुई तक का सफर । और अब क्वात्र बोर्ने से फिर बिहार बंगाल ।

राहगीर नक्शा थैले में समेटता उठ खड़ा होता है । कुछ सौ साल गलत आ गया हूँ , बस , एक मीठी मुस्कान के साथ कहता है , खैर कोई बड़ी बात नहीं । सांतरागाछि का रेलवे स्टेशन गजरमगर है । दक्खिन को जाने वाली गाड़ी पकड़ूँगा फिर मुर्शिदाबाद , बैन्डेल , चन्दननगर , फिर नादिया , बारासत , तामलुक। सोलह सौ साठ में गोमेज़ डी सोतो ने बैन्डेल में चर्च बनाया था , कुछ समय वहाँ फिर आगे । शांदेमागोर में जोसेफ्ह फ्रांसुआ दूप्लेक्स । कोल्याण हाल्दार ने यही पता बताया था । एक मुड़ा तुड़ा पुरजा निकाल कर पता देखता है ।

कितना समय हुआ ?

रामदूथ घड़ी देखता है । अभी सिर्फ बारह बजे हैं । राहगीर च्च च्च की आवाज़ निकालता नकार में सर हिलाता है , नहीं नहीं ईस्वी कौन सी ?

रामदूथ कलाई पर बंधे क्रोनोग्राफ में साल देखता है , चाँद समय देखता है । राहगीर की कलाई पर कोई घड़ी नहीं सिर्फ एक गोदना है , देवनागरी में या शायद कैथी में ..फा हियेन । तीन सौ निनावे ईसा पूर्व और वो स्पैनिश इंक्विज़िशन तो पंद्रहवीं सदी में और सत्रह सौ तीस में व्यापार के लिये ट्रेडिंग पोस्ट , हुगली नदी के दायें तट पर फ्रांसिसियों ने बंगाल के नवाब इब्राहीम खान से व्यापार करने का करार नामा लिया .. समय का ऐसा फेर ?

राहगीर धूल भरे सड़क पर ओझल होता छोटी आकृति मात्र है । रुको रुको , मुझे उस पन्द्रह सौ दो वाले नक्शे का पता तो बताते जाओ और उस जहाज का जिसमें मेरे पुरखे अपनी धरती छोड़ किस अजाने देश निकल पड़े थे ।

लो पानी पीयो । मैं हिमालया मिनरल वॉटर की बोतल रामदूथ की तरफ बढ़ाता हूँ । तमतमाये चेहरे की बेचैन हड़बड़ाहट से उसकी नींद खुलती है । सुनो अभी फाहियान को देखा । यहीं था , मुझसे सदी पूछता था ।

धूप ने तुम्हारा दिमाग पगला दिया है । चलो गाड़ी का टायर बदल गया है । निकलें ?

आपनार की कॉथा बोलेछिलाम ? बाबू ऐई रोकॉम चोलबे ना , बेनीमाधव घोसाल ड्राईवर से बहस कर रहे हैं । गाड़ी के पिछले सीट पर हमने सामान पटक दिया है । रामदूथ लौटता है , चबूतरे पर छूटी किताब उठाने । सूखे पत्तों के बीच नरम मिट्टी में दो पाँव के और एक लाठी के टेक का निशान और उसके बगल में धूल में कुछ आड़ी तिरछी लाईनें पाड़ी हुई हैं । बज्जिका में लिखा है आरीवे देस कूलीज़ आनीनेम, सिर्का अठारह सौ साठ । अठारह सौ साठ में कुलियों का आगमन ।


तुमी बाजना बाजाओ न कैनो ? सड़क पर रुकी बस में बैठी औरत बच्चे के हाथ में दस पैसे वाला इकतारा देख उससे रार कर रही है , कैनो ?

15 comments:

अनिल कान्त said...

कुछ ज़्यादा समझ नहीं आया पर बहुत अच्छा था, ईस्वियों की बातें और अठारह सौ साठ में कुलियों का आगमन

डॉ .अनुराग said...

लगता है रास्ते में स्क्रिप्ट लिखी गयी है ...वापसी सुखद है ....हमेशा की तरह

Geet Chaturvedi said...

धूप ने तुम्हारा दिमाग पगला दिया है.
इसीलिए सुंदर ! उलझाहट का इतिहास.
फाहियान का सेल फ़ोन नहीं बजा ?

Geet Chaturvedi said...

'' धूप ने तुम्हारा दिमाग पगला दिया है ।''
इसीलिए सुंदर! उलझाहट का इतिहास.
फाहियान का सेल फ़ोन नहीं बजा ?

सुशील छौक्कर said...

हमेशा की तरह अति सुन्दर।

ABHIVYAKTI said...

Bahut BAdhiya. Kabhi Samay Nikal Kar Hamale Yahan Bhi Visit Kijiye

siddheshwar singh said...

ऐई टु की ?

मनोज कुमार said...

खूबी भालो लागला। असंखो धोन्नोबाद।

neera said...

तुम्हारे नक़्शे में दो बार खो कर अंत में लगा सही दिशा में हूँ ... जरा जल्दी जल्दी आया करो ...आदत बनी रहेगी तो भट्कुंगी नहीं तुम्हारे शब्दों कि गुफाओं में...

azdak said...

हाय, ग़ज़ब, मालूम नहीं फिर तारे कहां जाकर टूट आते हैं..
शायद उसी हड़बड़ी में फिर ऐसा होता होगा कि बाबू सिड 'एई टा की?' को एई टू (एक की जगह two) की, और राजू मनोज कुमार बंगला के 'लागलो' को भोजपुरी के 'लागल' में अझुराने लगते हैं?
शायद इन्‍हीं नशों के असर में ही फिर ऐसा भी होता होगा कि अपने आप किन्‍हीं रातों में चुड़ि‍यां खनकती होंगी, दरवाज़े कांपते होंगे और किसी बच्‍चे की मासूम मगर भारी आवाज़ में कैफ़ी का बोलना सुनता होगा, कि बच्‍चे, बोलो, मैं सुन रहा हूं, आगे?
और इस सबके बाद, हां, इस सबके बाद, दिलकूट नगर के तिलकुट फेरीवाले के घिसे पुराने झोले से एक दीवानी, पुरानी चिट्ठी निकलती होगी और टेढ़ी लिखाइयों में उसमें सवाल धंसा दीखता होगा कि दीवानापुर का रस्‍ता कोन दिसा जाता है, बहिनची, बोलियेगा?

abcd said...

कुछ सालों पहले एक interview में जावेद अख्तर साहब ने बताया था की फिल्म्स में सबसे शानदार असर जो देते है, वो न लेखक होते है न उपन्यासकार और न कवी,...वो तो"किस्सागो "होते है,फिर बोले..किस्स्गो क्या होता है ये समज्हने क ेलिए----की एक बार एक नवाब थे ,जिनका एक किस्सागो था ,जिसका काम ्रोज ्रात को नवाब साहब को एक किस्सा सुनाना था,एक बार नवाब साहब ने उस से कहा की भाई हम तुम से बहुत् खुश है ..कुछ मांगो, तो वो बोला की नवाब साहब मैं हज करना चाहता हूँ..नवाब साहब ने ह्हमी तो भर दी लेकिन बाद मे बोले की भाई हममे रोज़ जो किस्सा सुनने की आदत लग गयी है उसका क्या ??? तो किस्सागो ने उसके सबसे उम्दा शागिर्द को नवाब साहब की खिदमत में लगा दिया.और नवाब साहब को तस्सली दी की ,आपको शिकायत नहीं आएगी.अब जाते जाते शागिर्द से बोले की जो किस्सा मैं नवाब शाहब को सुना रहा हूँ उसमे --एक राजा ने दुसरे पर आक्रमण कर दिया है और वह किले के दरवाजे तक आ गया है,अब ये अन्दर वाला राजा भी बस बहार आ कर लड़ने के लिए तैयार है...अब आगे तुम समहल लेना मैं हज कर के आता हूँ.किस्सागो साहब हज कर के ४ महीने बाद लौटे सबको मेवे मिठाई बाटी..नवाब साहब से मिले...कोई शिकायत नहीं आई तो बहुत खुश हुए..फिर् शगिर्द से मिले तो पुछा की बताओ किस्सा कहाँ तक पंहुचा ताकि आज रात उसे आगे बढाया जा सके...तो शागिर्द बोला की उस्ताद किस्सा वही का वही है...आप किस्से को वही से आगे बड़ा लेना जहाँ छोड़ा था मैं तो ४ महीने से किस्से को वहीँ घुमा रहा हूँ.....!!!!

ैपिंडारियों के किस्से तो screenplay में तब्दील होने लगे है...बिज्जी(विजय दान देथा) के किस्सों के और screenplay बाकी है ......तो किस्सों की मफील रुके न....ऐसे ही जारी रहे .....ताकि india में भी James Dean जैसा कुछ बन पड़े....

विधुल्लता said...

प्रत्यक्षा जी ...आपने जो लिखा है ये वही अवस्था है जहाँ पहुंचकर सब तर्क-वितर्क समाप्त हो जाते हेँ, वो द्रष्टा बन जाता है ...कबीर जी ने इस अवस्था को उन्मनावस्था कहा है ...''यहुमन ले उन्मनी रहै-जो तीन लोक की बाता कहे'' ...और क्या कहूं हमेशा की तरह सुन्दर

asim dutta said...

जिंदगी की रेत पर छोड़ पैरो के निशान अकेला घूमता है गोल दायरे में

हर बार इस भ्रम में की कोई और भी है उसके पीछे

नहीं पहचानता अपने ही पैरों के निशान

इसी अंतर्द्वंद में कटता है जिंदगी.

Unknown said...

aapki traha hi yah bhi khubsurat hai
jaisingh

Unknown said...

aapki traha hi yah bhi khubsurat hai
jaisingh