7/07/2008

बारिश में भीगी गौरैया



बारिश है । हर रोज़ तो नहीं लेकिन बारिश है । कभी ऐसे झटास से दरवाज़ा पीटती है , कभी बस झीसी फुहार । लेकिन एक शिकायत रही । मिट्टी का विंडचाईम जो सुखराली से खरीदा था , पता नहीं क्यों कभी बजता नहीं । उस बूढ़ी राजस्थानी औरत से जब लिया था तब खूब मीठा बज रहा था । मैं उस औरत को देख रही थी । एक आँख मोतियाबिन्द से धुँधली पर दूसरी नीली पुतली में चमक और चेहरा पके पीच सा ।

“मिट्टी का गुन है बेटा कि ऐसे मीठा बजता है” , उसने हँस कर कहा था ।

मैंने पूछा था “कहाँ की मिट्टी का बना है ? “

“बँगाल “, उसने मुस्करा कर कहा था ।

पर कोई बंगला टुनटान बजा नहीं । इस बारिश प्याज़ के पकौड़े भी नहीं खाये । अलबत्ता भुट्टे ज़रूर खाये । आग पर पके हुये नहीं , माईक्रोवेव्ड एक मिनट वाले पर खूब मीठे । चलो तसल्ली हुई ये तो मीठे रहे । दगा नहीं किया । आसपास पेड़ पौधों को देखा । ये भी कायम रहे अपनी प्रकृति पर । मतलब हरे भरे , और ऐसे टूट के बढ़े कि दिल जुड़ा जाये । गरमी की धूसर बदहाली के बाद मिट्टी का गीलापन , स्याह बादल आसमान और हर किस्म का हरापन एक अद्भुत कोलाज़ बनाते हैं । कुछ कुछ बचपन में बनाये वाटर कलर की तरह । तब आसमान को बरसाती बनाने के लिये ज़्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ती थी । फिर बाद में ज़्यादा मेहनत पानी से गीले शीट को सुखाने में वक्त लगता । पँखा चलाया जाता और डाँट पड़ती कि बन्द करो इतनी गर्मी नहीं ।



बरसात में घुटने भर पानी में हिम्मत बाँध निकलना , बरामदे में बैठे शर्त लगाना कि ये स्कूटर बाईक सवार सड़क के ठीक उस मोड़ पर जहाँ पीपल का पेड़ है वहाँ अटकेगा कि नहीं और अटक जाने पर बेतहाशा निर्मम हँसी । फिर अगले शिकार का इंतज़ार । कीचड़ कीचड़ सब तरफ , पिछवाड़े जमे पानी में रेंगता हरा पानीवाला साँप , रात को टर्राते मेंढक , काला लकड़ी की कमानी वाला छाता जो भीगा होने पर उलट कर सूखने को बरामदे में छोड़ा जाता , भीगे जूतों की बिसाईन महक , जुगाड़ लगाकर पिछले बरामदे में और कभी कभी ज़्यादा होने पर कोने वाले कमरे में रस्सी टेम्पररी तान कर सुखाये जाते गीले कपड़ों की आते जाते चेहरे पर गीली छुअन , सब तरफ सीली सीली बू , छत के पाईप से तेज़ मूसलाधार में हरहराता पानी , नाली में गिरकर उफन उफन कर आँगन तक फैलता , गीली मिट्टी में धीरे धीरे रेंगते चेरों की जमात और कभी कभार कोई घोंघा दिखता तो मौज़ आ जाती ।


बगल वाले मैदान में जो हर बरसात पोखर बन जाता , उसमें आउटहाउस में रहने वाले सकलदेव के बच्चे केवई मछली मार लाते और हम उनसे मिन्नत करके एक या दो, माँ से ज़िद करके जुटाये गये अचार के मर्तबान में खूब मनोयोग से पालते । कितने भी जतन से उन्हें पोसा जाता फिर भी हफ्ते दस दिन में घोर उदासी के आलम में उनका सामने ठीक गेट के पास वाले मालती लता झाड़ के नीचे अंतिम संस्कार होता। पता नहीं कितनी अनाथ बेचारी मछलियों का कब्रगाह अब भी होगा वहाँ । कोई अड़ोस पड़ोस के चाचा , भाई दिल्लगी करते कि यहाँ अब झाड़ में फूलों की बजाय मछलियाँ उगेंगी । और हमारे भोले मन का इस पर तुरत फुरत विश्वास कर लेना , बचपन की अनेक गाथाओं में से एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा आज तक बना रहा ।




बरसाती किस्से और भी हैं पर आज बारिश में चाय की चुस्की के बीच अपने हरे कोने को देख कर बचपन की स्वछन्द , जंगली बरसाती दिन याद आये । बच्चों का एक हुजूम रंगीन छाते और बरसाती में स्कूल के लिये निकल पड़ा है । सामने छत के मुंडेर पर एक भीगी गौरैया बदन सिकोड़ बैठी अचानक फट से उड़ जाती है ।




तस्वीरें मेरे बॉलकनी कोने की हैं , बरसात उनपर भी खिली है , मेहरबान है

15 comments:

Anonymous said...

It could widen my imagination towards the things that you are posting.

Anonymous said...

Well done for this wonderful blog.

admin said...

बहुत खूब। रोचक कथा और सुन्दर चित्र, मजा आ गया।

pallavi trivedi said...

beautifully written with beautiful pictures...

अनूप शुक्ल said...

फोटॊ बढ़िया है। पोस्ट दूसरे नम्बर पर। कमेंट तीसरे नम्बर पर। लेकिन आपको सबसे कमेंट ही लग रहे हैं। है न!

अनूप शुक्ल said...

फोटॊ बढ़िया है। पोस्ट दूसरे नम्बर पर। कमेंट तीसरे नम्बर पर। लेकिन आपको सबसे अच्छेकमेंट ही लग रहे हैं। है न!

नीलिमा सुखीजा अरोड़ा said...

बारिश ने मौसम के साथ आपके ब्लाग को भी खुशनुमा बना दिया है। आज यहां जयपुर में भी हल्की-हल्की फुहारें पड़ रही हैं ऐसे में ये पढ़ना बड़ा भला सा लग रहा है।

Anonymous said...

सुन्दर बालकनी।

Gyan Dutt Pandey said...

सुन्दर लगे बाल्कनी के चित्र।

Udan Tashtari said...

फोटो उम्दा हैं.

बरामदे में बैठे शर्त लगाना कि ये स्कूटर बाईक सवार सड़क के ठीक उस मोड़ पर जहाँ पीपल का पेड़ है वहाँ अटकेगा कि नहीं और अटक जाने पर बेतहाशा निर्मम हँसी ।

-बारिशिया मस्ती झलक रही है. :)

बढ़िया.

Manish Kumar said...

sundar lage aapki balcony ke chitra aur aalekh jeeta jaagta sa kyun ki padhte padhte bahar ki barish ne kayi baar apne sur badle...

नीरज गोस्वामी said...

Waah...Jitni sundar balcony utni hi dilkash post...aap ke shabdon ki barish men bheegne ka aanand aa gaya.
Neeraj

Anil Pusadkar said...

yaad dila di bachpan ki aapne,jise meelon dur kahin bhul aaya tha main

Arvind Mishra said...

गृह स्मृतियों [नोस्टाल्जिया ] की सशक्त और भावपूर्ण प्रस्तुति

Anonymous said...

Hi Pratyaksha,

After a long time i am back on ur blog :). "Who kahte hai na ki kahne ke liye sabke paas kuch hota hai, but kabhi express nahi kar pate and, aapke blog ki ek baat bahut achi hai,normal days ki baato ko aap itne ache dang se words dete hai ki bus ek pal ke liye face per smile aa hi jati hai( chahe kitna hi udas ho) and khud ko is scean se juda hua feel karte hai."

You just remind me time i have spent in delhi, i was living alone there and internet was only medium for time spent, and i found your's and few other blog like alokpuranik, udantastari and truly i was so much happy to read these blogs just like i found a new gang of friends.

I highly appreciate efforts of your all guys, please please keep posting such a great stuff :).
Mujhe kahna to ar bhi bahut kuch hai but sayad comment kuch jyada hi long ho jayega :P.

Vineet