मैं चिलकती धूप में और तड़तड़ाते माईग्रेन के नशे में तुम्हारी कमीज़ के पॉकेट में खुद को नहीं भर पाने की स्थिति में कुछ और भर रही थी , खुद को झुठला रही थी , फिर भी बार बार फरेब खा रही थी । तुम किसी गुस्से के झोंक में औंधाये पड़े थे , आईने में खुद को देखते खड़े थे । तुम्हें मनाना था लेकिन हर बार की तरह थकहार कर मैं मना रही थी , लाचारी में खुद को गला रही थी , अपनी तकलीफ का हार बना रही थी । तुम्हारे तने रहने में कहीं खुद को छोटा बना रही थी । भीड़ का हिस्सा होते हुये भी भीड़ से अलग खड़ी थी , देखती थी तुम्हें धीरे धीरे भीड़ में गुम होते और तुम इतना तक नहीं देखते कि मैं अब भी भीड़ से अलग तुम्हें देखते खड़ी हूँ...
मैं चाहती हूँ गुम हो जाऊँ , आसमान ज़मीन में खो जाऊँ , सोचती हूँ कहूँ हद है ऐसी नाराजगी ? फोन उठाऊँ और तुम्हारी नाराज़गी पर नाराज़ होऊँ , फिर याद आता है , कुछ याद आता है और बढ़ा हाथ खिंच जाता है । मैं चाहती हूँ ऐसे गुम हो जाऊँ कि तुम खोजो फिर खोजते रहो । मैं चाहती हूँ तुम्हारी खोज तक गुम रहूँ । पर तुम्हारी खोज कब शुरु होगी ये पूछना चाहती हूँ । मैं चाहती हूँ ..कितना कुछ तो चाहती हूँ । फिर मैं फोन उठाती हूँ .. गुमने और खोजने के अंतराल में अब भी बहुत फासला दिखता है ..
किसी वक्त रात के नशे में कोई आवाज़ बोलती है । कहीं बारिश होती है । यहाँ सिर्फ गरम हवा चलती है । जब बारिश होती है तब भी कुछ भीगता नहीं क्योंकि गरम हवा चलती है । रात में भी धूप चिलकती है । किसी दरवाज़े के बाहर कोई कब तक रहे , कब तक ?
कल पढ़ा था साईनाथ का एक चैप्टर , एक इस्ताम्बुल का और ब्रोदेल के कुछ पन्ने , किसी से चर्चा की थी पन्द्रहवीं से अठारवीं सदी में योरप और उसने कहा था आठवीं सदी का भारत , और चर्चा की थी रोमिला थापर और कुछ देर योग साधना की , फिर देखी थी रात में एक्स्ट्रा टेरेस्ट्रियल्स पर एक फिल्म , शायद एम नाईट श्यामलन की और खोजती रही कोई इंडियन कनेक्शन । और इन सब के पीछे घूमती रही थी सिर्फ एक बात ..आखिर इस दिन का ..इन दिनों का अर्थ क्या है ? ठंडी पड़ी कॉफी के प्याले को परे सरकाते अब भी सोचती हूँ ..इतना क्यों सोचती हूँ पर बाहर अब भी चिलकती धूप ही है ..कोई समन्दर क्यों नहीं है ?
फताड़ू के नबारुण
1 month ago
14 comments:
गुमने और खोजने के अंतराल में अब भी बहुत फासला दिखता है ... मार्मिक स्थिति हो उठी है। अच्छा चित्रण है...
प्यास कहती है चलो रेत निचोड़ी जाए।
अपने हिस्से में समन्दर नहीं आने वाला
गुमने और खोजने के अंतराल में अब भी बहुत फासला दिखता है ... मार्मिक स्थिति हो उठी है। अच्छा चित्रण है...
प्यास कहती है चलो रेत निचोड़ी जाए।
अपने हिस्से में समन्दर नहीं आने वाला
Extremely surreal images juxtaposed with the utterly subjective. Excellent piece!
I apologise to be commenting in English though. Could not hold it till I got back to my own computer.
Keep it up!
कल मैंने भी देखी थी वो एक्स्ट्रा टेरेस्ट्रियल्स पर एक फिल्म पर गरम काफी के प्याले को धीरे धीरे पिया था .....समंदर गुम हुए जमाना गुजरा ...कभी कभी उसके साहिल पे जाता हूँ.....तन्हाई में.....अब धूप की आदत जो हो गयी है......
बहुत उम्दा लेखन-"मैं चाहती हूँ गुम हो जाऊँ , आसमान ज़मीन में खो जाऊँ , सोचती हूँ कहूँ हद है ऐसी नाराजगी ? "
शायद मौके की नज़ाकत देखते हुए रुसो का 'कन्फेशन' और मूर का 'युटोपिया' भी पढ़ ही लेना था. :)
इस बोहेमियन चिंतन शैली के क्या कहने -कहीं नारी की बेबसी /लाचारी झलकती है तो कहीं रूमानियत -निष्पत्ति क्या रही ख़ुद चिन्तक ही जाने ,यहाँ तो कुछ पल्ले नही पडा मगर कुछ तो है जो हर बार पकड़ में नही आता .चलिए आगे देखते हैं -उम्मीद पर दुनिया कायम है !
ओह प्रत्यक्षा!
वाह! क्या ‘शेड’ है लिखने का। नाम तो कान में जरूर पड़ा था कभी ....पर प्रत्यक्ष मुलाकात अभी ही हुई।
अंदाज ये रेअर है प्रत्यक्षा। कहानी वगैरह में इस्तेमाल करो तुम इसे।
...अरे, याद आ रहा ...तुम छपती तो हो ज्ञानोदय आदि में। है ना। एक ...एक कहानी भी याद आ रही किसी एनजीओ प्रथम का जिक्र था उसमें ...है ना। शायद!
ये मेरा भ्रम भी हो सकता है खैर...
अच्छा लिखती हो... लिखती रहो ...दिखती रहो...
bahut accha likha hai
bahut accha likha hai
ख़ुद को खोकर ख़ुद को
खोज लेने का ये अंदाज़
दिल की गहराई
ज़ज्बात की ऊंचाई का
मुक़म्मल बयान-सा लग रहा है मुझे.
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कविता जैसी शैली मन को छूती,
झकझोरती भी है.
डा.चन्द्रकुमार जैन
इतना क्यों सोचती हैं!!
आपकी लेखनी कहीं कहानी का आभास देती है, कहीं कविता का और कहीं फैंटेसी। एक पोस्ट और इतने सारे रंग।
रूमानियत और उदासी का मेल लिये आपकी पोस्ट बहुत कुछ कह रही है.समन्दर भी आयेगा,बरसात भी तन मन दोनों को भिगोएगी.आखिर चिलकती धूप को भी अपने घर जाना है.कभी कभी दोपहर लम्बी हो जाती है,किन्तु खत्म ज़रूर होती है.
सुन्दर ....
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