अँधेरा था। अँधेरा एक दरवाज़ा था जिससे रौशनी की तरफ जाया जाय। शायद टटोलना पड़ता। लेकिन दरवाज़ा तो था। कोई स्विच अलबत्ता नहीं था जिससे खट रौशनी जला दी जाय। इस रौशनी के लिये जद्दोज़हद करनी पड़ती। अच्छा ही था आसानी से मिली चीज़ का क्या मोल। लेकिन प्रश्न ये था कि इस दरवाज़े की भनक किसी को नहीं थी। कोई आभास था रौशनी का, अँधेरे का, दरवाज़े का। इसी आभास का सिरा पकड़े ,अँधेरे को मुट्ठी में जकड़े उस पतली रौशनी के लकीर पर एहतियातन पाँव रखते , न इधर डोलते न उधर डगरते . चलते रहने , आगे बढ़ने ,उस दरवाज़े को उँगलियों से छू लेने का दिवास्वप्न ये दिन , महीने , रात ?
पत्तियों पर कचर मचर चलते रहने , छतनार शाखों से झरती रौशनी , हरा ताज़ा ..कोई उड़ती तितली के पँख पर एक लहर कौंध की , कोई सुनहरी रेखा हथेली पर ..ऐसी कितनी स्मृति दबा कर रखी पन्नों के बीच सूखा कोई फूल। आह कोई स्मृति रौशनी की ..दबी दबी राख में दबी चिंगारी।
लैम्प की झरती रौशनी वृत बनाती है फर्श पर ..अ परफेक्ट सर्कल। उसी वृत पर एक कीड़ा चलता है गोल गोल। रेडियो से आती है आवाज़ रसीली उदास , दुख में नहाई हुई ..एक टेक बार बार घूम फिर कर लौट कर बार बार वही एक टेक। उसी आवाज़ के सम पर घूमता है रामजी का घोड़ा , उँगलियाँ देतीं हैं थाप। खिड़की से आती हवा से लहराता है पर्दा , काँप जाता है वृत एक बार को , ठिठक कर डिसऑरियेंट होता है कीड़ा और भटक जाता है अँधेरे में। रेडियो की आवाज़ छूती है दीवार को , छत के कॉर्निस को , पर्दों के हेम को ,शेल्फ में रखे काले पत्थर के बस्ट को , कोने में पड़े इज़ेल के अधूरी औरत को , खुरदुरे कैनवस पर पेंट को , मेरे दिल को । एक रौशनी भरती है किसी कोने से , फैलती है , थमती ठिठकती है फिर वृत की रेखा पर गोल चलती है। मैं देखती हूँ देखती हूँ। दरवाज़ा धीरे धीरे खुलता है , आवाज़ के सम पर खुलता है। न ये दिवास्वप्न है न स्मृति। बस रौशनी है ... ब्लाईंडिंग लाईट ... बन्द आँखों के भीतर रौशनी का सपना .. दुनिया के भीतर एक और दुनिया , बुलबुले के भीतर का रहस्य।
अँधेरा चिपटता है पोरों से। छुड़ाओ तो छूटता नहीं। दरवाज़ा दिखता नहीं। बन्द आँखों के अँधेरे में तो बिलकुल नहीं। सपने में दिखा दरवाज़ा हर बार बस खुलते खुलते रह जाता है। अँधेरे में रौशनी होते होते रह जाती है। दरवाज़े के फाँक से दिखता है .. आस , स्मृति , आवाज़। पान के रस से सराबोर है आवाज़, घुलती है सुपारी और मीठी इलायची , खुशबू कत्थे की , गमक सुर की । घुँघरू की आवाज़ पर कोई भंगिमा लेती है अंगड़ाई , लचक जाती है आवाज़ फिर एक बार और। ठुड्डी पर हाथ धरे कटीली रसीली आँखों से पूछती है नायिका ... अंतरे में रौशनी देखोगे?
( बड़ी परेशानियों में घिरे मन का प्रलाप.... इतना टेढ़ा कितना सीधा पर सच ! वो दरवाज़ा खुल जाये। कोई सिम सिम की चाभी पसीजी हथेलियों में औचक मिल जाये..इतनी दुआ करें)
फताड़ू के नबारुण
1 month ago
5 comments:
बढिया है , बधाईयाँ!
Bahut gambheer vicharon ko saralta se samjhaya hai.Achca aur naveen sa laga aapka lekhan.
ऐसे घुप अंधेरे में आशा के दिये को जलाये रखना बहुत ज़रूरी है ।
शुभकामनाओं और प्रार्थनाओं के साथ
जुड़े हाथ - उट्ठी आँखों की आवाज़- क्या ? - आज की रोशनी की किरण कहती है - होली मुबारक - सादर - मनीष
achchha gadya hai.
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