बतकहियाँ गलबहियाँ
मूड़ी जोड़े दिनकटियाँ
टिकुली नाड़ा जूती चप्पल
सपने देखे दिनरतियाँ
और यही सपने देखती बड़ी हो गई। अलबत्ता कभी कही नहीं , उलटा किसी ने छेड़ा तो ओढ़नी दुपट्टा कमर में बाँध हाथ नचा नचा लड़ी ज़रूर। बाहर से एक और अंदर से एक। हमेशा की ऐसी ही रही। जनमते ऐसी ही रही। हाथ पैर हवा में उछाल खेलती रहती , कोई पास आने की भनक पर बुक्का फाड़ ऐसे रोती जैसे साँस थम जाये , शरीर नीला पड़ जाये। शुरु शुरु में अम्मा बाउजी को खूब डराया। जाने क्या हो जाता है इस लड़की को। ईया लाल मिर्चा सरसों से परिछ कर चूल्हे में डाल आयें। सब बुरी नज़र जला आयें। फिर कमबख्त चुप भी हो जाये। फिक्क से हँसने भी लगे। बाद में सब समझ गये। छोकरी ऐसे ही हल्ला मचाती है। सब ठीक है। निश्चिंत हो साँस लेते। फिर डगर डगर बड़ी होती गई। सीखती गई। दो चोटी रिबन से बाँधे आँगन में इखट दुखट खेलती ताड़ सी लम्बी होती गई। ब्याह नहीं करूँगी नहीं करूगी का पहाड़ा रटती गई, सपने किसी सजीले राजकुमार का देखती गई। अम्मा हँसती , सब जनी ऐसे ही कहती हैं। ब्याह नहीं करेगी तो जायेगी कहाँ। सच ! कहाँ जाती। सो मैट्रिक के बाद लाख हो हल्ले के बाद ब्याह हो गया। चल , गौना बाद में करायेंगे , तब तक पढ़ ले , बाउजी पुचकारते दुलारते कहते। अभिमान मान से आँख छलछला जाती। हाँ पढ़ूँगी पढ़ूँगी खूब खूब पढ़ूँगी। पर उन्हीं छलछालाई आँखों के कोर पर खिच्चे दूल्हे की शकल कौंध जाती तब पढ़ूँगी की रट खाली खाली बर्तन जैसी ढनढन करती। इसी संगम में उलट पलट देर रात लैम्प की पीली रौशनी में मूड़ी गोते किताब नीली और कॉपी लाल करती रही , मार्जिन पर दूल्हे का नाम भी लिखती रही , तीर बिंधे दिल तकिये पर काढ़ती रही ।
गौना हुआ और दिन बीतते रहे। किताब कॉपी बक्से के सबसे तली पर पेपर के भी नीचे भूले बिसरे पड़े रहे। फिर हरहराता ज्वार उठा और सब लील गया। सब हँसी खुशी , सब जीवन संगीत। सूखी काई लगी मिट्टी बची और पति की फूल सजी तस्वीर बची । और कुछ दिनों के लिये और कुछ न बचा। सन्नाटा बचा , धसकती मिट्टी बची , पाँव तले कोई ज़मीन न बची । सिर पर आसमान तो नहीं ही बचा। कंठ फोड़ रुलाई बची , छाती पर पत्थर की चट्टान बची , धूप साया न बचा , बारिश में छतरी तो नहीं ही बची। कुछ बच भी गया तो क्या वाला भाव बचा। खुली मुट्ठी बची ,उजाड़ दिन बचे , नंगे तलवे के नीचे गर्म रेत बचे। पेट में काँटे बचे छाती में घाव बचे , आँखों में कंकड़ बचे दाँतों तले पत्थर बचे। शरीर रूखा हुआ , चेहरा कड़ा हुआ। बक्से के तल से कॉपी किताब बाहर हुआ। फिर पागलपन सवार हुआ। दिन रात धूनी रमाई। किसी की एक न सुनी। बस पढ़ती गई । मन बन्द आँख बन्द । इंटरमीडीयेट किया सेकंड डिवीज़न में। जुटी रही । बीए किया सेकंड डिवीज़न में। फिर बी एड किया ,एम ए किया। अबकी बार गदहजनम मिटाया और फर्स्ट डिवीज़न में गली मोहल्ले में मिठाई तक बाँटी। फिर अब आगे क्या सोच कर हिम्मत नहीं हारी। स्कूल की नौकरी पकड़ी फिर कस्बे के कॉलेज में ऐडहॉक लेक्चरर। सीट सीट कर बाल का जूड़ा बनाया , कलफ की हुई साड़ी पहनी , जूते पहने . चश्मा पहना और निकल गईं बाहर की दुनिया में।
आज शहर की नामी गिरामी लड़कियों के कॉलेज में रीडर हैं। क्या कड़क दबदबा है। ज़रा मुँहफट बददिमाग हैं लेकिन काबिल हैं। क्या पढ़ाती हैं, कैसी गरिमा शालीनता का सौम्य मिश्रण हैं। लेकिन अब तक सपने देखती हैं। दिन रात देखती हैं । अँधेरे में रौशनी देखती हैं , रौशनी में उजाला देखती हैं। और उस उजाले से चका चौंध आँखों से दुनिया देखती हैं। ऐसी दुनिया जो बहुतों को पूरे जीवन नहीं दिखती। इन्हें दिखती है , अब तक दिखती है। जिस ज़मीन पर खड़ी होती हैं वहाँ मुलायम घास दिखती है। धूप में रंगीन छतरी के रंग दिखते हैं। हमेशा से ऐसी ही थीं। अब भी ऐसी ही हैं। अंदर से एक बाहर से एक।
फताड़ू के नबारुण
1 month ago
10 comments:
काश मेरी परुली भी ऐसी होती.इतनी हिम्मती.
सब-कुछ छिन जाने के बाद जो बचा उसे नियति का क्रूर मजाक भी छीन नहीं सकता। साथ ही एक कर्मठ और ऊर्जावान के लिए ये बची हुई थाती अकसर कुछ कर गुजरने की संभावना भी छिपाए रहती है। पूरा लेख गुंथी-पिरोई संवेदनाओं का गुच्छा सा है....बस माथे पर सिकन पड़ती तो इसलिए कि ये हकीकत है या महज कल्पना।
सब-कुछ छिन जाने के बाद जो बचा उसे नियति का क्रूर मजाक भी छीन नहीं सकता। साथ ही एक कर्मठ और ऊर्जावान के लिए ये बची हुई थाती अकसर कुछ कर गुजरने की संभावना भी छिपाए रहती है। पूरा लेख गुंथी-पिरोई संवेदनाओं का गुच्छा सा है....बस माथे पर सिकन पड़ती तो इसलिए कि ये हकीकत है या महज कल्पना।
"खिच्चे दूल्हे"waaaaaaaaahhhhh....kya prayog hai....
हिम्मत से क्या नहीं होता... और सपने टू देखने ही चाहिए... कौन कहता है की सपनो को न आने दे ह्रदय में, देखते हैं सब इन्हें अपनी उमर अपने समय में...
अच्छी रचना !
wah kaa chhatree hai jee, tabiyat rangeen ho gayee.
इसी से मिलती-जुलती थीम पर हम लोगों ने दो साल पहले कस्तूरी नाम की फिल्म बनाई थी। लेकिन रिलीज़ होने के बाद भी उसका पैसा नहीं निकल पाया।
धूप में रंगीन छतरी के रंग दिखते हैं।
--वाह, क्या बात है..हम निःशब्द!!!
बिल्कुल सपने - अंधेरे में रोशनी और रोशनी में उजाला और उजाले में इन्द्रधनुष - वाह - मनीष
मजबूत चरित्र उकेरा है आपने।
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