8/19/2007

केमोफ्लाज़्ड पतनशीलता

हम इक्क्सवीं सदी में भले ही आ गये हों मानसिकता अब भी कई कई मुद्दों पर किस पुरातन सदी की थ्रोबैक हो और कब कहाँ किस रूप में फूट पडे ये देखना भी एक लैब में किसी एक्स्पेरीमेंट के अनफोल्ड होने जैसा ही चमत्कृत कर देने वाला होता है । यहाँ चमत्कृत शब्द का कोई नेगेटिव कन्नोटेशन वाला शब्द नहीं सूझने के दुख में इसी शब्द से काम चला रही हूँ । मुद्दे कई हैं लेकिन सबसे तुरत ,बिना दिमागी कसरत के जो मुझे स्मरण हो आता है .. स्टीरियोटाईपिंग । इस औचक स्मरण के पीछे न तो हाथ है ज्ञानदत्त जी का और न शिल्पा शर्मा का और न उन तमाम ब्लॉगर साथियों का जिन्होंने ज्ञानदत्त जी के पोस्ट पर जाकर उनके तत्वज्ञान के समर्थन में स्माईलीज़ की फौज़ खडी कर दी।

तत्व ज्ञान तो सचमुच ज्ञान है लेकिन उसके ऊपर लिखे में जो छिपा भाव है उसपर एक बुद्ध मुस्कान तो फैलाई ही जा सकती है । ऐसा नहीं है कि मुझे परम ज्ञान की प्राप्ति हो गई है लेकिन पतनशीलता का ऐसा केमोफ्लाज़ ? मेरे विचार से हम सबों को इसी तरह का कोई न कोई टैगशब्द इज़ाद कर लेना चाहिये ( अज़दक जी इस टैग पर आपका पेटेंट तो नहीं ? हम भी इस्तेमाल कर लें ?) और जब कभी इच्छा हुई , उचित लगा तो फट से इस टैग की छतरी की सुरक्षा में बिना कुछ दो बार सोचे बेधडक छाप देना चाहिये । फिर देखते हैं कौन कहाँ पंगे ( फिर और कोई दूसरा उपयुक्त शब्द न सूझने की दयनीय दशा हो रही है , क्या करें अरविंद जी का थेसारस खरीद लें ? ) लेता है , कैसे कोई उत्तर प्रतिउत्तर पोस्ट लिखता है ।


लेकिन उस खास पोस्ट पर ज्ञ जी ने कोई टैग नहीं लगाया । फिर भी उदारमना होकर हमने उसे पतनशील ही समझा । हमारी समझ में कोई कमी हो तो ज्ञानीजन गुणीजन हमें समझायें । वैसे यहाँ हम साफ कर दें कि ये पोस्ट हमने पतनशील ही लिखा है , माने फिलहाल उधार लिया है टैग अज़दक से । आगे जब सोच कर अपना टैग बना लेंगे तब तक के लिये । लेख लेकिन ठीक ठीक पतनशील भी नहीं है । हमारी अभी अभी आपलोगों के संगत में अप्रेंटिसशिप शुरु हुई है ।

चाहते तो थे कि लिखें गंभीरता और पूरी संजीदगी से उस सफर के विषय में जो शुरु होती है शून्य से और आती है शायद किसी सुदूर भविष्य में आधी ज़मीन तक , कुछ रौशनी की धुँधलाई परछाई दिखने लगी है लेकिन जहाँ अब भी एक ऐसा अबोला अनवरत युद्ध छिडा है जहाँ हर वक्त अपने को साबित करने की थका देने वाली लडाई से जूझ रही है औरत । जहाँ अब भी उसे अपने हक को पाने के लिये सुनना पडता है , हमने तुम्हें दिया , ये नहीं कि ये तुम्हारा ही तो था । जो होना था खुद ब खुद उसे कोई क्यों किसी को दे और क्यों औरत ले । लेना है तो खुद लेना है किसी के दिये से नहीं । इंच दर इंच ज़मीनी हकीकत से जूझती औरत ऐसे स्टिरियोटाईप्स को गीले कपडे सी झटकार देती है । मुद्दे और भी महत्त्वपूर्ण हैं । ये उनमें शायद सबसे पेरीफेरल । लेकिन बावज़ूद इसके जब भी , और ऐसा दिन भर में कई बार होता है , इसका सामना होता है तकलीफ होती है , लडाई और कितनी बाकी है इसका एहसास होता है ।

पर माफ करें पतनशीलता में ऐसी संजीदा विमर्श का क्या स्थान । कहा न , सीख ही रही हूँ अभी । अब ये मत कहियेगा , अरे ये औरतें कोई भी काम ठीक ठीक कैसे कर सकती हैं ? वैसे औरतों के विषय में कुछ तत्व बोध हम भी बाँच दें ?


औरत है तो बाहर का काम क्या करेगी , कर ही नहीं सकती

एक घर तक का काम ठीक ठीक नहीं संभलता इस औरत से

औरत दफ्तर आती है सिर्फ तफरीह के लिये

औरत है तो गाडी कैसे चलायेगी ,चला ही नहीं सकती

गलत पार्किंग है तो ज़रूर किसी औरत ने की है

औरत है तो पैर के नीचे दब के रहेगी , रहेगी कैसे नहीं

बच्चे बिगड गये सिर्फ इस औरत की वजह से

फॉर्म गलत भरा है ? ज़रूर किसी औरत ने भरा होगा

औरत है तो उसे त्याग करना ही होगा , होगा कैसे नहीं

औरत है तो उसे अधिकार नहीं अपने बारे में सोचने का , इतनी हिम्मत ?

औरत है तो औरत बन कर ही रहे ,

आखिर हमने इतनी ज़मीन दी है उसे आसमान तो नहीं दे दिया ? तय हम करेंगे कि हद कहाँ तक है ? हमने अपनी औरत को परमिट किया , आई हव अलाउड हर टू डू दिस.....

15 comments:

मसिजीवी said...

जब आप पतनशीलता पर उतारू ही हैं तो समझ लें तत्‍वज्ञान व पतनशीलता 'औरतों' के इलाके की चीजें नहीं है उन्हें -

चुपचाप घर संभालना चाहिए लिखें तो वहीं कोमलकांत पदावली जिसपर वाह वाह हो सके

और हॉं आप ये स्‍टीरियोंआईप्‍स आदि गूढ़ व सूक्ष्‍म सोच कैसे पा रही हैं- ये तो मेल डोमेन की चीजें हैं- आपने किसी और से लिखवाया है-

फिर आप इतनी महत्‍वपूर्ण प्रतिमाओं का सिंदूर खुरचने की जुर्रत कर ही क्‍यों रही हैं ?

बल्कि तत्‍वज्ञानियोंके लिए तो आप कहीं-कहीं तो दूसरे का सिन्दूर खरोंच कर अपनी मांग में लगा रही हैं

और भी बहुत सा त्‍त्‍वज्ञान इकट्ठा कर रहे हैं आजकल हम प्रतिमाओं से कहें तो सारा उड़ेलें,

अभय तिवारी said...

आप ने चाहा कि इन्स्टैंट पतनशीलता मिल जाय.. पर देखिये पतनशीलता के टैग लगाने के बावजूद प्रगतिशील हो गई..पर कोशिश करती रहिये.. धीरे धीरे रोज़-ब-रोज़ के अभ्यास से उस अवस्था को प्राप्त हो जायेंगी.. ऐसा मैंने सुना है..मैं अभी भी प्रगतिशील मोड से निकल नहीं पा रहा हूँ.. मैं ने किट लेके रखा हुआ है.. पर हिम्मत नहीं पड़ती.. आप ने हिम्मत की.. आप को बधाई और शुभकामनाएँ..

अनामदास said...

बहुत दिनों के बाद प्रकटी हैं आप, पतनशीलता का रियाज़ करने में लगी थीं क्या?

ghughutibasuti said...

बहुत अच्छा लेख है । वैसे मुझसे पहले ३ पुरुष भी कुछ ऐसा ही दर्शा चुके हैं तो मुझे और भी विश्वास हो गया कि अच्छा है ।
घुघूती बासूती

Anonymous said...

कविता तो समझ में आ गयी। अच्छी भी लगी। बधाई। लेख अपने नाम के अनुरूप लगा। कैमाप्लाज्ड। पतनशील नहीं लगा।

Yunus Khan said...

अज़दकी रोग तो संक्रामक हो गया है । कोई टीका वीका है क्‍या तो लगवा लें

Neelima said...

तो आपकी कविता ?उन्हें समझ आ गई और बधाई ?भी मिल गई ! आश्चर्य ! नहीं कहा गया कि किसी से लिखवाया गया है नहीं कहा कि भई हल्की बातों का बुरा मान जाती हैं आप बहुत अजीब हैं आप ,! वाकई सुखद आश्चर्य !

अनूप भार्गव said...

अरे !
महिला होते हुए भी
इतना अच्छा लिख
लेती हैं आप ! :-) :-)
बाप रे बाप !!!!

azdak said...

अफ़सोस कि आप पतनशीलता के फेर में फंसकर इधर-उधर हो गईं.. भाई बिरादरी को किसी और ने नहीं, आपही ने बहाना दे दिया कि बात हंसी-दिल्‍लगी की है.. जहां तक मेरी बात है, हमेशा की तरह, मैं सन्‍न हूं!

Pratyaksha said...

अफसोस है कि इस लेख में जो तंज़ है वो सचमुच टैजेंट चला गया । बात चाहे गंभीरता से कही गई हो या तंज़ से ...समझने वाले न समझना चाहें , जानते बूझते तो चाहे बात एकदम लोवेस्ट डिनामिनेटर की भी की जाय ,हँसी में उडाई जाती है। बिरादरी या तो पैट्रोनाइज़िंग हो जाती है या फिर पुरुष सहोदरता वाली बात हो जाती है , जैसा कि प्रत्यक्ष हुआ शिल्पा और मेरी लेख पर की टिप्पणियों से और ज्ञानदत्त जी के लेख टिप्पणियों से ।
इस लेख में किसी पर आक्षेप लगाने की कोशिश नहीं की गई सिर्फ एक मानसिकता को रेखांकित करने का छोटा सा प्रयास भर था , ये भी साफ साफ जानते बूझते कि इसका हश्र क्या होगा । बस , मेरी तरफ से प्रोटेस्ट लॉज़ करना था ऐसे मुद्दे पर जिसके भुक्त भोगी अलग अलग परतों पर हम सब हैं ..धर्म , जाति , सोशल स्टैटस , कितने स्टीरियोटाईप्स हैं । औरतें जेंडर बेसिस पर इनके आलावे भी भुगतती हैं ।
ये बहस और विमर्श का मुद्दा है ,हंसी का नहीं ।

इरफ़ान said...

सही कहा.

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

जब तक इन्सान अपने आप को सच्चाई के हर स्तर पर देख परख न लेँ,कई सारी
विसँगतियाँ रह जायेँगी-
बदलाव तो उसके भी बाद की प्रक्रिया है !
समाज के सच को "प्रत्यक्ष" करने का प्रयास सही दिशा मेँ किया गया है प्रत्यक्षा,
आगे भी , आशा है, बातेँ जारी रहेँगीँ
स्नेह -
-- लावण्या

Anonymous said...

स्त्री हो या पुरुष पतनशीलता पर किसी का पेटेंट नही है . दोनों पतनशील होने के लिए स्वतंत्र हैं . पर आदमी को थोड़ी ज्यादा छूट मिली दिखती है . हम सब का चेहरा अपने समय और समाज और रूढियों की गर्द-गुबार से धुंधलाया होता है . किसी हद तक ही हम उसे साफ़ करने में सफल हो पाते हैं .

पर अन्ततः पतनशीलता कैसी भी और किसी की भी हो लम्बे समय तक 'कैमोफ़्लैज़्ड' नहीं रह सकती . वह झलक मारती ही है .

आपने बहुत संजीदगी से लिखा है,वरना हमारा समाज तो दूसरे की पतनशीलता में अपना उल्लास ढूंढने वाला समाज होता जा रहा है .

अनूप भार्गव said...

वास्तव में टैंजेंट चला गया था तंज ।
बात तो समझ में आ गई थी और बात भी ऐसी थी कि जिस पर विवाद का कोई प्रश्न ही नहीं होना चाहिये ।
स्टीरियोटाइपिंग तो गलत है ही चाहे किसी भी रूप में हो । वास्तव में ये उन लोगों के द्वारा बनाया गया ’टूल’ है जो ज़िन्दगी को बहुत सरल कर के देखना चाहते हैं , सब महिलाएं ऐसी होती है या सब काले आदमी ऐसे होते हैं या सब मारवाड़ी लोग ऐसे होते हैं । ज़िन्दगी के निर्णय सरल तो बन जाते हैं लेकिन क्या सही होते हैं ? कितना अच्छा हो यदि हम सब पूर्वाग्रहों से मुक्त हो कर 'हर आदमी’, ’हर घटना’ को सिर्फ़ उस के परिपेक्ष में जाँचे , न धर्म , न जाति , न राष्ट्र , न ’जेन्डर’ ।

नवीन कुमार said...

आपने जो लिखा है वो बहुत सब्जेक्टिव होकर लिखा है, लेकिन अगर इसका दायरा इतना सिमटा हुआ नहीं होता तो बात दूर तक पहुंचती। मसलन इसमें संबोधन इतने ज़्यादा है कि लगता है एक खास परिधि में चीजें कही जा रही हैं। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि इस दुनिया को और व्यापक बनाया जाए? अनजाने ही सही लेकिन ये बाकी लोगों को हमारे परिवेश, सोचने के तरीके से काट देती है। आपको नहीं लगता?