7/11/2007

बक्से का जादू

कितना अटरम शटरम बटोर लाये थे । उम्र भर बस बटोरते ही रहे । पॉलीथीन के तहाये हुये थाक , पेपर कटिंग ..पीले जर्जर मोड पर सीवन उघाडते हुये बेदम बरबाद , ढेर सारे बटन ..सब के सब बेमेल ...मज़ाल कि कोई दो साथी मिल जाये , चूडियाँ दरज़नों धानी , पीली , हरी और कितने रंग की लाल , कामदार .सादी , कानों की बालियाँ ,टॉप्स बेपेंच और पेंचदार , रेशम के धागे ... लच्छी ही लच्छी सब एक दूसरे में उलझे ओझराये । बस जैसे जीवन ही उलझ गया । पुराने टीन के बक्से खोल ..न जाने क्या गुनती बीनती रहतीं रात बिरात । दो सफेद किनारी वाली सफेद साडी , एक पीला पड गया रेशमी , तीन हाथ से सिले पेटीकोट और इतने ही ब्लाउज़ ढीलम ढाले , हूबहू एक से , एक बटुआ जिसमें पता नहीं क्या खज़ाना था , पुराने सिक्के , दवाई की खाली पुडिया । कितना तो अगडम बगडम सामान !

बक्सा अब भी सुंदर था। ऊपर हरा रंग धीमा तो पडा था पर चारों ओर के बेलबूटे ,लहरिया पत्तीदार गुलाबी , अब भी लचक में लहर जाता । दिल में मरोड उठ जाती बेहिसाब । कैसा हरियर हरा था जब नया था । और ब्याह की गुलाबी चुनरी , गोटेदार ! ऐसी ही तो लहरिया बेलबूटी थी ।बक्से के ढकने पर अंदर छोटे छोटे खाँचे बने थे । पीली पडी चिट्ठियाँ , अखबार की पुरानी कतरनें , ट्रेसिंग पेपर पर कढाई के नमूने, चाँदी की छोटी मछली , दवाई की खाली पुरानी बोतलें , सब अटरम शटरम ।

गुल्लू का दराज़ भी कोई कम थोडे ही था । गोली कंचे से भरा पडा था । तुडी मुडी ज़ुराबें , बिना रिफिल के दर्ज़नों पेन , टूटी बुचकी पेंसिल की टोंटियाँ , नकली नोट का मोनोपली का बंडल , गोटिय़ाँ , मेकनो सेट के क्षत विक्षत पार्ट पुर्ज़े और किसी शैतान लडके की दुनिया के पता नहीं कौन से रहस्यमय राज़ ।स्याही के धब्बों से पॉकेट रंगे कमीज़ की झाँकी दादी के बक्से की दो सूते सफेद साडियों से कम कहाँ थी ।

और इन्हीं अटरम शटरम सामानों की एक वृहत्तर दुनिया कोने की छोटी कुठरिया भी तो थी जहाँ छत तक सामान झोल और जाले से लिप्त अटा पडा था । कोई एक सामान निकालना असंभव । अव्वल तो याद नहीं रहता कि रखा क्या है और किधर है । और जो याद आ भी जाता था तो निकालने की सौ दुश्वारियाँ ।धूल की परत मोटी सब सामान पर एक समान । टूटी साईकिल से लेकर बाबा आदम के ज़माने का ग्रामोफोन , कूट के डब्बे में पुराने पुराने रिकार्डस , पुरानी अलबम और मैगज़ींस के ढेर के ढेर, बिन पँख के पँखे और बिन हैडल की सिलाई मशीन। अधूरे डिनर सेट्स और बिन ढक्क्न की केतलियाँ , दरके चीनी मिट्टी के नाज़ुक प्याले , संदूकों में भरे बचपन के कपडे , न जाने क्या क्या । अजब जादू का संसार ।

गुल्लू को लगता है एक दिन इस कमरे में घुसेगा सब की आँख बचाकर , ऊपर रौशनदान से जो सूरज की एक किरण आती है जिसके गोलाई में धूलकण सोने जैसी चमक जाती है ,अगर वो पड गई गुल्लू पर तो उसी वक्त कोई जादू शर्तिया हो जायेगा । दादी का बक्सा पँख लगाकर यहाँ तक आ जायेगा , गुल्लू का दराज़ भी , कोई पुराना रिकार्ड अचानक झूम कर बजने लगेगा । बक्सों में से पता नहीं क्या क्या निकल पडेगा , कैसी छन्न पटक सी जादू , कैसे सुनहले रंग ।कोई भारी आवाज़ , ऐई छोकरे ! गूँज जायेगी और फट से जादू छनछनाकर चकनाचूर हो जायेगा । गुल्लू के रोंये सिहर जाते हैं एक पल को ।

दादी अब भी अपने बक्से को खोले पता नहीं क्या खोज रही हैं । एक पुरानी सी पागल कर देने वाली गंध फैल गई है । गुल्लू की आँखे दादी के बक्से पर टिकी हैं किसी अजूबे के इंतज़ार में । कौन सा अजायबघर अपने दरवाज़े खिडकियाँ खोल दे , कौन जाने कब ।गुल्लू मुस्कुरता है । दादी पूछती है , क्या रे गुल्लू ? गुल्लू की हथेलियों में पल भर को अपने हो जाने का जादू ठमक जाता है । उसके रोंये सिहर जाते हैं एक पल को । बक्से का ढक्कन बन्द हो जाता है । दुनिया घूम कर वापस फिर टिक जाती है अपनी धुरी पर । कोई रहस्य आँखों के अंदर छिप जाता है दोबारा । कुछ नहीं दादी , गुल्लू हँसता है ।बक्से का जादू एक बार फिर बक्से के अंदर कैद है ।

18 comments:

36solutions said...

शव्‍द शव्‍द इन क्षणों को जिया है आपने, अनुभव बोल रहें हैं ऐसा प्रतीत होता है । धन्‍यवाद

Anonymous said...

वाह उस्ताद वाह

परमजीत सिहँ बाली said...

अच्छी उड़ान भरी है।बधाई।

अनामदास said...

मन बक्से के उदास हरे रंग की तरह हरा हो गया. बहुत कुछ याद आ गया, जैसे भूली हुई बातें सपने में आती हैं.

अफ़लातून said...

जादू।हमेशा कैद नही हो जाता।आज इस बक्से के जरिए हमने भी देखा,जीया।

काकेश said...

जादू के ये पालने,वही सुनहरी रात
मन को मोहित कर गये,मन में कर उत्पात
मन में कर उत्पात,खोल दें खिड़की मन की
ये सबसे अनमोल,चाहे हो ग़ठरी धन की

जादू ही तो है जो इसे संभाले रखने में मदद करता है.

हरिराम said...

काश यह 1 करोड़ रु॰ का सूटकेश होता!

Anonymous said...

कहीं आप "भानुमति के पिटारे" या "pandorra's box" की बात तो नहीं कर रहीं? ;) :P

राकेश खंडेलवाल said...

याद की झीनी घटायें
तार मन के छेड़ देतीं हैं कभी संध्या सवेरे
और खोलें एक मंजूषा ह्रदय की सहज टेरे
और होये सुरमई जब रात के उजले अँधेरे
कुछ नये स्वर गुनगुनायें
याद की चंचल हवायें

Udan Tashtari said...

बहुत सुन्दरता से सहेजा है यादों का बक्सा-वाकई जैसे की जादू. सम्मोहित कर गया.

अभय तिवारी said...

कुछ तो जादू चुराया है आप ने .. थोड़ा इस पोस्ट में .. और थोड़ा नए हेडर में..उड़ेला है..
बढ़िया है..

azdak said...

पुरनका सौ रुपया वाला बड़के नोट का कवनो बंडल भेंटाया? देखिए, देखिए, ज़रा ठीक से पता कीजिए? बियाह वाले किसी गोटेदार कपड़े की तहों में होगा.. या फिर आजी वाले सिंदूरदान में!.. नहीं मिल रहा? अरे, क्‍या बात करती हैं! इस बक्‍से में नहीं है तो फिर किस बक्‍से में है?

Anonymous said...

ऐसा बक्सा तो हमने भी देखा है

अनूप शुक्ल said...

अटरम शटरम,अगडम बगडम सामान !-पागल कर देने वाली गंध फैल गई। :)

Poonam Misra said...

फिर चल गया आपकी कलम का जादू.बहुत खूब

मसिजीवी said...

फिर अच्‍छा लिखा।
आपको पुन: याद दिला दिया जाए कि कल 14.07.07 को दिल्‍ली में बड़ी वाली ब्‍लॉगर मीट है- इसलिए आपकी उपस्थिति आवश्‍यक है। जरूर पहुँचें- इस लिंक पर देखें

विजेंद्र एस विज said...

बक्से मे समायी यादे..बेहद नाजुक है..इन्हे यूँ ही सम्भाल कर रखियेगा..बिखरने ना पाये.
उम्दा लिखा है आपने.
बधाई.

Anil Arya said...

यादों को सहेजे रखिये... वाह! क्या ख़ूब लिखा है! बधाई....