6/17/2007

नारद का ये कैसा बेटर टुमौरो है ?

मैंने असगर वज़ाहत की किताब "मैं हिन्दू हूँ" पढी है । शाह आलम कैम्प की रूहें भी पढी हैं और मैं हिन्दू हूँ भी पढी हैं । मैं हिन्दू हूँ की कहानी में सैफू जो अधपागल है इसलिये हिन्दू हो जाना चाहता है ताकि दंगों के समय मारे जाने से बच जाये । सैफू को जब पी ए सी वाले मार रहे होते हैं तब वह लगातार मार खाते हुये यही कहता रहता है, कि तुमने मुझे क्यों मारा मैं हिन्दू हूँ ।

इन सब कहानियों में क्या है, एक दहशत है, खौफ है, एक समझ है कि, " न हिन्दू लडते हैं न मुसलमान, गुंडे लडते हैं"

असगर वज़ाहत अगर हिन्दू होते तो हिन्दू समाज के डर को लिखते । मुसलमान हैं तो मुस्लिम समाज की दहशत उन्हें दिखाई देती है । पर उसके पीछे की राजनीति भी दिखाई देती है । जिन्होंने नहीं पढी ये किताब, कृपया पढें ।

मामला सारा शायद इसी सब से शुरु हुआ था । बहुत पोस्ट्स लिखे गये, तर्क और भावुकता, नियम और कानून, ये खेमा वो खेमा, हम सही तुम गलत, बहुत सारा आक्रोश, ढेर सारी गलत फहमियाँ, कुछ बचकानापन, अपने को हर कोई सही ठहरा रहा है । और इन सब पोस्ट्स को पढते न पढते हम यही सोच रहे हैं कि शायद भाग एक का पटाक्षेप हुआ ।

जब ब्लॉग लिखना शुरु किया था तब छोटी सी बिरादरी थी । नारद का अपना एक स्थान था । चिठेरों का एक कुनबा था । धीरे धीरे आकार स्वरूप बदलता गया । आज पाँच सौ चिट्ठेकार हैं, अलग अलग सिद्धांत और वैचारिक अभिव्यक्ति को मानने और समझने वाले लोग । तो ऐसे में नारद का स्वरूप क्या हो, जैसी बातें सामने आने लगीं । शायद सबको एक लूज़ कवरिंग देने वाली एक विशाल छतरी जैसा हो । नारद एक एग्रीगेटर है कहना गलत है । नारद एक प्रतीक है । एग्रीगेटर्स कई और हैं और होंगे भी पर हमारे ज़ेहन में नारद का एक खास स्थान है और शायद इसी खास वज़ह की बात है कि आज इस बात से तकलीफ हो रही है कि नारद का स्वरूप विस्तृत होने की बजाय कहीं से छोटा हो रहा है ।

बाज़ार वाले राहुल ने गलत भाषा का प्रयोग किया । बिलकुल सही है ।

माफी माँगी और दूसरे अपने ब्लॉग पर नारद को , बकौल अनूप जी मुँह बिराया । सही है । ये बचकानापन है, थोडी सी बेवकूफी है । जैसे बच्चों की लडाई हो । पर इस मुँह बिराने वाली बात पर नारद ने क्या किया ? एक पत्थर उठा कर फेंक दिया ? इसमें बडप्पन वाली कोई बात न दिखी ।

कई वरिष्ठ चिट्ठाकारों ने पोस्ट लिखी- अभय, अफलातून, प्रियंकर, मसिजीवी, धुरविरोधी

शायद इनके कहे का कुछ लिहाज़ तो करना था । नारद के नियम साफ हैं । लेकिन कभी कभी बडे हित में थोडी बहुत फ्लेक्सिबिलिटी की ज़रूरत पडती रहती है ।

कल अगर कुछ चिट्ठे नारद से बाहर चले जायें, किसको फर्क पडेगा ? न नारद को पडेगा, न उन चिट्ठों को पडेगा । जिनको पढना है वो उन चिट्ठों को बुकमार्क करके रखेंगे । कल कोई नया बेहतर एग्रीगेटर आ जायेगा । शायद कुछ अभी भी हैं ।

मैं न इस खेमे में हूँ, न उस खेमे में । मुझे असगर वज़ाहत साम्प्रदायिक नहीं लगते । बाज़ार वाले की भाषा मुझे अभद्र लगी । उसके गिरहबान पकड कर माफी माँगने की अदा मुझे बचकाना लगी । मुझे अविनाश और गिरिराज का टिप्पणी कीर्तन बचपने का खेल लगी । मुझे नारद के नियमों के उल्लंघन ने परेशान किया । मैंने खुद को संजय बेंगानी की जगह रख कर देखा और खुद को परेशान पाया और मैंने संजय की दूसरे ब्लॉग पर टिप्पणियों के बंदूक के सामने भी अपने को खडा रख देखा और पाया कि मेरी परेशानी और भी बढ गयी ।

लेकिन...

लेकिन इन सब के बावज़ूद मुझे नारद का कहीं से छोटा साबित होना और भी ज़्यादा तकलीफदेह लगा । कल एक, दो या शायद दस बारह या शायद और भी ज़्यादा लोग नारद छोड दें । कल शायद नारद के लिंक की अहमियत अपने ब्लॉग पर गैर ज़रूरी हो जाये । और ये मुझे कोई बेटर टुमौरो जैसा कुछ नहीं लग रहा । शायद मैं तर्क और विवेक के परे भावुकता की भाषा बोल रही हूँ । पर ऐसा एहसास हो रहा है कि ये शायद एक समय के खत्म होने की शुरुआत है और इससे मुझे बेहद परेशानी हो रही है ।

10 comments:

RC Mishra said...

आपने अपने मन की बात रख दी, अच्छा लगा।

अनूप शुक्ल said...

आप न इस खेमें में हैं न उस खेमें में। मतलब तटस्थ हैं। ऐसा कैसे भाई! समय लिखेगा आपके अपराध! आपने अपने मन की बात रखी। इस तरह के प्रतिबंध किसी तरह से दुखद हैं। एक ब्लाग के लिये भी और संकलक की हैसियत से नारद के लिये भी। नारद से एक चिट्ठा गया साथ में धुरविरोधी ने अपना ब्लाग बंद कर दिया। यह नुकसान है। लेकिन इस तरह की घटनायें इंटरनेट जैसे ब्लाग जैसे अभिव्यक्ति के माध्यम के लिये शायद अपरिहार्य हैं।
राहुल का जो ब्लाग बैन हुआ उसमें वे वैसे भी कुछ लिखते नहीं थे। और आज भी उन्होंने उस पर एक फोटॊ ही लगाया है।
बहरहाल इस घटना के माध्यम से आप देखिये हिंदी ब्लाग से जुड़े लोगों की मन:स्थिति पता चल रही है।
लोग अभिव्यक्ति के आजादी के लिये कितने चिंतित हैं दिख रहा है। अफ़लातूनजी नयी पुरानी कवितायें खोज रहे हैं। अविनाश नये-नये ब्लाग बनाकर जिंदाबाद मुर्दाबाद कर रहे हैं। बैन के समर्थक विजय घोष कर रहे हैं। धुरविरोधी के ब्लाग के बंद होने पर मसिजीवी चिट्ठाचर्चा पर शोकसभा कर रहे हैं। इसके बाद पाठ्कों के एतराज अब शायद धुरविरोधी की अनुपस्थिति में उनका परिचयात्मक शेर झटक कर दोहरे हो जायें। चारो ओर अभिव्यक्ति के झरने बह रहे हैं। आपकी यह पोस्ट पढकर सुकून हुआ और पता चला कि आप किसको अच्छा समझती हैं और किसको खराब!
कुछ सवाल भी हैं जो मैंने अभय तिवारी जी की पोस्ट पर टिप्पणी करके पूछे थे। आप उसे देखियेगा तब बताइयेगा कि क्या यह गलत किया गया?
मैं मानता हूं कि बैन दुखद रहा। लेकिन उस समय के हिसाब से सही था। फिलहाल बहाली के लिये मौका देने के पहले ही इस मुद्दे को पक्ष-विपक्ष वाले जिंदाबाद-मुर्दाबाद करने के लिये छीनकर ले गये।

Anonymous said...

मै १००% सहमत हू आपसे,पर जो मेरे साथ घटा उसके बाद,तट्स्थ रहना ही सही है

अनामदास said...

प्रत्यक्षा जी
सारा मामला यही है कि एक गलती को दूसरी गलती से सुधारने की कोशिश की जा रही है. असहिष्णुता और बचकानापन का ज़िक्र तो आपने कर ही दिया. बहुत अच्छा किया जो लिखा, आपने बहुत ही संतुलित तरीक़े से बात कही है, निश्चित तौर पर कुछ असर होना चाहिए.

मसिजीवी said...

खुशी हुई कि आपने अपनी बात कही। आप की तकलीफों में हम भी साझी हैं-
पर अब शायद बीती बिसार कर आगे देखना चाहिए
:


वेसे आपकी ये पोस्‍ट नारद पर क्‍यों नही दिखी (अब हर छोटी मोटी गड्रबड़ से आशंका होने लगी है :( )

अफ़लातून said...

प्रत्यक्षा जी ,
हार्दिक प्रसन्नता हुई एक सधी हुई , गहरी ,सच्ची आवाज सुन कर। आभार।
नारद के नियम साफ भलें हों लेकिन उनका लागू किया जाना मनमानेपन से परे नहीं है । सृजन शिल्पी द्वारा मोहल्ले पर रोक की माँग पर संजय ने कहा था ,'क्या मोहल्ले को हटाना ही हमारा उद्देश्य है ?' अब राहुल के मामले में वे यह भूल गए हैं।शिकायतकर्ता खुद हैं ,क्या इसीलिए? मुष्टीमेय चिट्ठाकार तब भी रोक के खिलाफ थे,उनमें मैं भी था ।

मैथिली गुप्त said...

अत्यन्त संतुलित लिखा है आपने

ePandit said...

अच्छा लिखा है आपने। जिस तरह आप विवादों को नापसंद करने के बावजूद आपको इस विषय पर लिखना पढ़ा, उसी तरह मैं भी एक पोस्ट लिखने को मजबूर हुआ। परंतु आगे कुछ तभी लिखूँगा जब बहुत अपरिहार्य हो।

लेकिन जैसा अनामदास जी और ईस्वामी ने कहा कि ये आर्ग्यूमेंटेटिव इंडियन्स का फेवरिट टाइमपास है। इसलिए सीरियस न हों, टेंशन नी लेने का, मस्त रहिए, व्यस्त रहिए। :)

Sanjeet Tripathi said...

प्रत्यक्षा जी! यह आपने लिखा है पर शायद नारद से जुड़े अधिकतर चिट्ठाकारों के मन की बात लिखी है आपने!

रहा सवाल नारद पर पोस्ट के ना दिखने का तो अब तक दो बार ऐसा हुआ है कि मेरी पोस्ट नारद पर 3-4 घंटे बाद दिखी है जबकि इस बीच मैं नारद मुनि को ई-मेल भी कर चुका होता था।

अनूप भार्गव said...

पिछले कई दिनों से 'नेट' पर अनुपस्थिति के कारण पूरे वाकये से वाकिफ़ नहीं हूँ लेकिन तुम्हारा लेख संतुलित लगा । पीड़ा तो होती ही है परिवार को बिखरता देखते हुए ।
असगर वज़ाहत साहब की किताब पढना चाहूँगा । जानकारी देना ।