बचपन में , राँची में कभी कभार ओले पडते थे । हम बच्चे छाता लेकर निकल पडते , किसी शीशी बोतल में ओले जमा करने । वापस आते आते ज्यादातर पिघल जाता । उस समय का आह्लाद अब भी रोमाँचित करता है । घर के पिछवाडे की पूरी ज़मीन सफेद हो जाती थी ।ये और बात थी कि सफेदी ज्यादातर टिकती नहीं थी । तभी से किताबों ,पत्रिकाओं में पढी देखी बर्फीली जगहें आकर्षित करतीं रहीं।
कल दोपहर अचानक तेज़ बारिश शुरु हो गई । किसी ने कहा ,ओले पड रहे हैं । हम हँस पडे । यहाँ कहाँ ओले । पर ये देखिये तस्वीर
बैलकनी से लिया गया ये फोटो । खूब मज़ा आया । बचपन की तरह फर्श पर गिरे ओलों को चुनकर खाया , खूब हल्ला मचाया । बस ,बच्चे बन गये ।
मैंने नहीं देखा
कभी बर्फ
तमन्ना रह गई
बनाऊँ एक स्नोमैन
पहनाऊँ उसे
अपनी कोई पुरानी टोपी
शायद वही हरे रंग वाली
जिसमें फुदना था
और होंठों पर टिका दूँ
कोई सिगार
पर कहाँ से लाऊँ सिगार
मेरी दुनिया में कोई पीता नहीं सिगार
मेरी दुनिया में तो गिरती नहीं
कोई बर्फ भी
पर अपनी तमन्ना का क्या करूँ
पलट लेती हूँ फिर कोई तस्वीर
बदल लेती हूँ कोई टीवी चैनेल
न्यूयॉर्क में गिरी है बर्फ ग्यारह फीट से ज्यादा
शिमला सफेदी के चादर के नीचे
नैशनल ज्याग्राफिक पर देख लेती हूँ
पोलर बीयर का मछली पकडना
कैसी होती होगी
इतनी बर्फ
रिमोट मेरे हाथ में है
मैं जब चाहे निकल सकती हूँ
उस शीतल हिम ठंडे प्रदेश से
वापस आ सकती हूँ
अपने कमरे की गुनगुनाहट में
और बैठे बैठे सोच सकती हूँ
बनाऊँ मैं भी क्या एक स्नोमैन ?
(ग्लोबल वार्मिंग के बारे में कितने लेख पढे । द डे आफ्टर टुमौरो ( शायद यही नाम था फिल्म का ) याद आया । क्या यही 'अर्मागेडोन है या फिर मायन कैलेन्डर के हिसाब से 2012 का पृथ्वी का अंत ऐसा ही कुछ होने वाला है ।)
फताड़ू के नबारुण
1 month ago
8 comments:
बर्फ देखकर अच्छा लग रहा है। लेकिन यह समझ नहीं आ रहा है कि यह पिघल क्यों नहीं रही है। एक बात और नहीं समझ में आई कि फोटो के हिसाब से कविता लिखी गयी या कविता के लिये फोटो खींची गयी! वैसे तो हमें दोनों अच्छे लगे!
आप अगर झारखंड रांची की बात कर रही हैं तो मैं भी JPSC Mains देने आया हुआ हूँ और यह नजारा वहाँ भी था पर सुंदर रचना के साथ वह मंजर और निखर गया…बधाई…तस्वीर भी क्या जुगत से ली है…!!!
प्रत्यक्षा जी, आप नॉस्टेल्जिया का अच्छा वृत्तांत कहती हैं। रांची मेरा भी शहर रहा है। ओले हमारे हिस्से में भी पड़ते रहे हैं। आप कहानियां भी लिखती हैं, शायद मैं सही हूं, क्योंकि ज्ञानोदय में आपकी ही कहानी छपी थी दो अंक पहले। तो कहना ये है कि मासूमियत से भरे वे बचपन के ओले ज़िन्दगी के दूसरे मोर्चों पर शहर समाज के लिए किस तरह भारी पड़ रहे हैं, उस पर आपको लिखना चाहिए। थोड़ा समय लगा कर। धीरे धीरे। पूरे रचाव के साथ।
फोटो बहुत अच्छा है। कविता भी, लेकिन क्या है ना कि अपने को कविता की समझ नही (बकौल फुरसतिया, मेरे को कविता झिलती नही)
इस लेख को लेकर फिर से हम नॉस्टल्जियाने लगे है। देखो कब मौका लगता है मोहल्ले की बारिश का।
आप बहुत दिनो बाद लिखी? कहाँ थी इत्ते दिन?
लगातार लिखती रहा करो।
पूर्वस्मृति मोहक होती है या शायद यह मनुष्य की प्रकृति है कि हम मोहक को बार बार याद करते हैं। खैर मेरी बिटिया भी स्नोमैन बनाना चाहती है पर जब पहाड़ों में ले गए तो वहॉं से मायूस लौटे और अब वहॉं नी भर बर्फ गिरी है। और तो आपके गुड़गॉवा के ओलों से भी वंचित रह गए हम तो। वैसे नए कैमरे का अच्छा प्रयोग सीख लिया आपने।
प्रत्यक्षा जी पहली बार आपका लिखा पढ़ा| आपकी कविता और चित्र ने मन मोह लिया| कितनी सहज कविता है | वाह! इस कविता को पढ़कर मुझे गुलज़ार की याद आ गई |
कविता तो मुझे भी जीतू भाई की तरह खास समझ नहीं आती, दरअसल कविता समझने के लिए भी एक सेन्स चाहिए जो सब मैं नहीं होती। ये बात अलग है कि तारीफ करने में हम किसी से पीछे नहीं रहते। :)
फोटो तथा आपके संस्मरण बहुत अच्छे लगे।
ह्ह्म्म्म्म, बचपन की याद दिला दी आपने। वो ही ओले, उन्न को बीनो, कटोरी में इकट्ठा करो ! और जीजी की गीली फ़राक देखकर उस पर हंसो ( जिस में उस ने ओले बीन कर रखे हैं ! ... कुछ गप्प से खा जाओ, कुछ भोले बाबा पर चढ़ा दो ! बचपन के स्वांग कम थोडी ना होते हैं :)
कविता अच्छी लगी। देस याद आता है, बचपन याद आता है।
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