8/10/2007

छप छप छपाक

छप छप छपाक



कैसा मज़ा है
बचपन पानी धींगा मुश्ती
ठंडा ठंडा नीला पानी
उलटा तैरें , सीधा तैरें
डुबकी डुबकी
जल की रानी

मेंढक मछली कल कल पानी
उठा पटक और हँसती मस्ती
बून्दें बून्दें
पल भर जल भर
छप छप छप छप
जल की रानी

9 comments:

Ashutosh said...

प्रत्यक्षा दी, बहुत ही सरल और गीतमय कविता………

सादर,
आशु

अनिल रघुराज said...

घघ्घा रानी, केतना पानी, मछली रानी....
बचपन में इसी तरह का खेल हम लोग खेलते थे। अच्छी तुकबंदी है।

Pramendra Pratap Singh said...

अच्‍छी कविता

Udan Tashtari said...

बढ़िया है बचपने की मचलती दुनिया याद दिलाती.

राकेश खंडेलवाल said...

न शब्दों का आडंबर , न विशेषणों का ताना बाना
कम शब्दों में सहज चित्र को आकर यों चित्रित कर जाना
एक तुम्हें ही तो संभव है, स्वीकारो मेरा अभिनन्दन
आतुर मन कर रहा प्रतीक्षा, फिर ऐसी कवित पढ़ पाना

अनूप शुक्ल said...

अरे वाह! ये वाह कविता और फोटो दोनों के लिए हैं। !:)

उन्मुक्त said...

पढ़ कर बचपन में रटी एक कविता की याद आ गयी।
मछली जल की रानी है,
जीवन उसका पानी है।
....

azdak said...

पढ़कर मुझको अपने बचपन की पता नहीं कोई कविता क्‍यों नहीं याद आ रही है? क्‍यों?

मछली बड़ी सयानी है
लड़की मगर नानी है..


उहूं, ऐसे नहीं था! फिर कैसे था. जिस पानी में लड़की खेलती थी वह भी ऐसा नहीं था. आपकी वजह से सब गड़बड़ा गया?

अप्रवासी अरुण said...

बड़ी सहज अभिव्यक्ति है प्रत्यक्षा जी। - हम हैं हमारा