पलथी मार कर बैठीं मुन्नी दीदी के चेहरे पर हँसी दौड़ रही थी । जैसे कोई छोटा बच्चा चभक कर उनके चेहरे पर आ बैठा हो । कोई किस्सा सुना रही थीं और उस किस्से के होने की याद में , बोलने के पहले ही उनका शरीर उस हँसी में बार बार डोल जाता । मैं ज़रा मुस्कुराती , उस किस्से की मज़ेदारी से ज़्यादा उनकी भंगिमा पर आनंद ले रही थी । उनका लम्बा चिकना शरीर अब भी , इतने साल बाद भी वैसे का वैसा था , उनके बायीं आँख के नीचे गाल पर मस्से का निशान भी ।
तब मकान बन रहा था । प्लिंथ तक बना था । नल के पास बालू और ईंट का ढेर । नल से पानी लगातार सों सों आवाज़ से टपकता । ठीक पीछे मेंहदी की झाड़ से सटे पुदीने का फैलाव और उसके पीछे अमरूद का छोटा ठिगना सा पेड़ । पराठे और आलूमटर की मसालेदार तरकारी बनी थी और शेड की छाँह में बैठे पत्तल पर खाना पिकनिक था , हम बच्चों के लिये । बड़ों के लिये बनते मकान को देख लेने की गर्व भरी खुशी थी । सलवार का पायँचा उठाये और कमर पर दुपट्टा कसे मुन्नी दी सबको खाना खिला रही थीं , नल के पास फिसलीं थी , कुहनी तोड़ लिया था । कैसा बवेला मचा था । रात को क्लांत मुरझाई दीदी के पास बैठी फुआ उसाँस भर कर बोलीं थीं , अब हुआ महीने दो महीने का रोग , सब ठप्प । मरी किस्मत ! मुन्नी दी की शादी की बात चलती थी तब।
मकान बना था । बाहर धूप का साम्राज्य था , हवा और पानी और पेड़ और चिड़िया , गिलहरी , बिल्ली , नेवला , आवारा कुत्ता , गौरेया , कौव्वा और कभी कभार अमरूद के पेड़ पर तोता तक । पिछवाड़े पानी भरा होने की दुर्दशा में बरसाती घास , केंचुआ , मेंढक और बरसात के दिनों में जाने किस दैव योग से आई केवई मछलियाँ तक , जो पानी से निकाले जाने पर घँटों छटपटाती अधमरी , कीचड़ लिसड़ी जिन्दा रहतीं । घर के भीतर अँधेरी ठंडी दुनिया थी । दिन में भी आँख फाड़े गलियारे की दीवार हाथ से टोते एक कमरे से दूसरे कमरे जाने का सफर था । ईंट की जाली से मद्धम छायादार रौशनी छनछन कर आती और फर्श पर चौकोर डिजाईन बनाती । बाहर की दुनिया वही आम रोज़ की दुनिया थी । भीतर की दुनिया अलग अजूबा थी । चीज़ें थीं और नहीं भी थीं । जिनका उपयोग होता वो नहीं थी और जो थीं वो अपने होने की उपयोगिता को बरसों पहले छोड़ चुकी थीं । लकड़ी की बड़ी आलमारियाँ थी बैठने को ढंग की कुर्सियाँ नहीं थी । चीनी मिट्टी के दरके बेमेल बर्तनों के नफीस अधूरे सेट्स थे ठीक ठीक खाने को स्टील की साबुत बेपिचकी थालियाँ नहीं थीं । हरी चाय के पुराने काठ के छोटे बक्से थे , रोज़ चाय पीने की हाहाकार थी । घर घर नहीं अजायबघर था । हम सब दबे पाँव हथेलियों से दीवार टोते दम साधे घर में घूमते जैसे नींद में सपने तलाशते हों ।
लकडी की बड़ी आलमारियों में चीज़ें ठुँसी पड़ी थीं । उनकी दराज़ों में गये दिनों की महक कैद थी , समय रुका जमा था । बाबा की वर्दी , बर्मा से लाई गई काही खोल वाली मिलिट्री थर्मस , कोई ऐयरगन , भारी बूट , छर्रे , शेफील्ड नाईव्स , मोटे चमड़े के बेल्ट । रसोई की जाली वाली खिड़की से पनडुब्बी चिड़ियों का शोर सुनाई देता । दो ईंटे जोड़ कर खड़े होने से बाहर का नज़ारा सही सही दिखता । अँधेरे में रौशनी का एक टुकड़ा । मुन्नी दी की हँसी भी तो रौशनी का एक टुकड़ा थी ।
मुन्नी दी हँसते हँसते दोहरी हो जाती हैं । इतना हँसती हैं इतना कि उनके आँख से पानी गिरने लगता है । थमते कहती हैं , कहाँ तुम्हें ये सब याद होगा तुम कितनी तो छोटी थी तब । फिर एकदम उदास हो जाती हैं । बड़ी तकलीफों वाले दिन थे नन्हीं , पैसों की तंगी , बाबू की मौत और नाना के पास आकर रहना । बस चावल और पानीदार दाल खाते थे हमलोग । फिर एकदम उमग कर बोलतीं हैं , लेकिन जानती हो कितना हँसते थे हम सब , मैं , बुलु , तुपु , अनु ..सब । उसी तंगी में कैसा उमगता उल्लास हमें ज़िन्दा बनाये रहता । दस दस रोटिय़ाँ हम दो आलू और अचार के साथ खा जाते । कितनी भूख लगती थी तब । गर्मी में फर्श पर मूड़ी जोड़े चित्त लेटे हाथ से पँखा झलते कितने गाने गाते थे .. हाय गज़ब कहीं तारा टूटा और बदन पे सितारे लपेटे हुये .. दीदी फिर गुनगुनाती हैं , सुहानी शाम ढल चुकी ... उनकी आँखें मुझे नहीं देख रहीं , दिन में सपना देख रही हैं
लोहानीपुर के उस छोटे से घर की याद है मुझे । बाबा के कमरे में किताबें ही किताबें । और वो टाईपराईटर .. द क्विक ब्राउन फॉक्स जम्प्स ओवर द लेज़ी डॉग । यादें अल्बम में लगी पुरानी फोटो जैसी ही है , खटाक और एक तस्वीर नीचे गिरती है । कॉर्नर्स में अटका एक पल , खत्म हुआ फिर भी ज़िंदा है , कितना तो अमूर्त है ।
मुन्नी दी की शादी के बाद खिंचवाई फोटो , उँगलियों में कमरधनी फँसाये , ठीक उसके बीच से झाँकती उनकी हँसती आँखें और हँसते दाँत , चमकते मोतियों जैसे । पर हँसने जैसा कुछ रहा नहीं था उनके जीवन में । कब रहा था ? और बाबा , अपने फौज़ी वर्दी में चुस्त सतर , बर्मा के मोर्चे पर । घुटनों के ऊपर गोली लगी थी । अस्पताल में सन्निपात में बौराते थे । मुझे नहीं पता पर जाने कितनी बार सुनी कहानियाँ हैं , जैसे अलमारी में बन्द वो दूसरी दुनिया । खाकी सोला हैट को पहनते माथे पर गरम गुनगुनेपन के एहसास जैसा । अँधेरे में डूब जाने जैसा । बाबा की महक पा जाने जैसा ।
मुन्नी दी के हाथ में पुरानी मुड़ी तुड़ी ब्लैक ऐंड वाईट फोटो है । कम रौशनी में चमकती आँखें हैं , चेहरे पर एक उत्कंठा भरी इंतज़ार जैसा मुस्कान है , पीछे घर की बिन पलस्तर वाली दीवार पर चौकोर ईंटो की जाल है , उनके गोद में लुढ़की हुई मैं शायद पाँच छ साल की रही होऊँगी । मेरा फ्रॉक उठंगा है । दीदी की सूतीसाड़ी के मुचड़े पल्ले को खींचती मैं बिसुरती दिखती हूँ । उनका कमसिन पतला चेहरा किसी नये खिले फूल सा ताज़ा है । अँधेरे में रौशनी की कौंध ।
एक पेंडुलम डोलता है आगे पीछे आगे पीछे । दीदी ने फोटो वापस बैग में डाल लिया है । जानती हो , वो धीमे उसाँस भरती कहतीं हैं , पिछली दफा गई थी वहाँ । घर नहीं था सिर्फ मलबा था । शायद वहाँ एक मल्टीस्टोरी अपार्टमेंट बन रहा है । जिन्होंने मकान खरीदा था उनका बेटा कैनडा जा रहा है , तो सब बन्दोबस्त ... । उनकी आवाज़ बीच में थमती ठिठकती है । उस लकड़ी की आलमारी की याद है तुझे ? जाने कहाँ किसके पास होगा ? बुलु के पास क्या ? या तुपु ? और वो फ्रेम में नाना की वर्दी वाली तस्वीर ? और तेरा बनाया नदी और घर और नारियल के पेड़ वाली बचकानी पेंटिंग , मेरे स्कूल के मार्कशीट्स और जूट का वो झोला जो तेरे स्कूल के नीडलवर्क क्लास के लिये मैंने बनाया था ?
खिड़की से रौशनी छन कर उनके चेहरे पर पड़ती है , आधे चेहरे पर । ये वही फोटो वाली मुन्नी दी ही तो हैं , गज़ब ! गज़ब !
फताड़ू के नबारुण
1 week ago