12/26/2005

पुराना साल ,दुबका खरगोश, बीता समय

नूतन वर्ष
द्वार खटखटाये
आ जायें हम ?



पुराना साल
दुबका खरगोश
बीता समय



सांता की टोपी
मिसलेटो का पेड
तोहफे सारे



धूम धडाका
बारह बजे क्या ?
इंतज़ार है


रेंनडियर
घुँघरू बजाता है
कैरोल धुन


नाचते सब
खुशी मनाते रहे
क्यों न रोज़


पुराने पत्ते
सा , गिर गया साल
कोंपल फूटी


गिनते रहे
उँगलियों पे हम
साल हिसाब


सूरज बोला
उठ जाओ भी अब
नये साल में


कर लें प्रण
फिर नये पुराने
इस बार भी


इंतज़ार में
लायेगा साल क्या
थोडी सी खुशी


पिछला साल
रुठा , इतने बुरे
हम थे नहीं


गिले शिकवे
चादर के अंदर
बाँधी गठरी


फूल खिलायें
तितलियाँ रंगीन
नूतन वर्ष

12/21/2005

कान्हा


नीले डंठल पर
गुलाबी पँखुडियाँ
सूखे पत्तों पर
गिरा एक मोर पँख
कहीं सुदूर वन में
बाँसुरी की मीठी तान

कौतुक से कान पाते
भयभीत मृगों का जोडा
खो जाता है कहीं वन में

पद्मासन में मेरा शरीर
गूँजता है ब्रह्मनाद से
मन के अंतरतम कक्ष में
युगल चरण कमलों की छाप
द्वार हृदय का खोल
एकाकार कर देता मुझे
निराकार में

12/16/2005

ऐसा क्यों है ?

Akshargram Anugunj


ऐसा क्यों है
कि कहने में
और करने में
खाई सा फासला हो
आदर्शवाद जपें
मुँह से
पर जब वक्त आये
तो बैसाखी थाम लें
मजबूरी की
जरूरत का
और उसके बावजूद
बुलंदी भर लें
आवाज़ में
और कहें
आदर्शवाद गलत
थोथे मूल्यों की
ज़रूरत नहीं

लपेट लें साफा
सिरों पर
सजा लें मौर
पगडी पर
और कर दें
ऐलान
आज का मूल्य
बदल गया
हम हैं नये युग के
नये अवतार
जहाँ आदर्शवाद
कोरी भावुकता है
जहाँ सफलता
सुकून है
जहाँ अंत जरूरी है
प्रयोजन नहीं

ऐसे कुकुरमुत्ते भीड
बेतरह उग आये हैं
चारों ओर
तो फिर ऐसा क्यों है
कि आज भी
किसी गाँधी के नाम पर
उमड जाते हैं आँसू
गर्व के
किसी मार्टिन लूथर के सपने
आज भी देते हैं आकाश
उडने को

फिर क्या जरूरी है
इस भीड का हिस्सा
हम भी बनें
क्या ये प्रश्न कभी भी
पूछा है आपने
खुद से ?



और अंत में एक हाइकू

आदर्शवाद
बिछाया सिरहाने
सुकून नींद

12/14/2005

कोको ,बॉबी , बोरिस और रॉकेट


बचपन की एक बहुत ही प्रिय किताब आज याद आ गई. सुनील जी और जीतेन्द्र जी ने जब अपने प्यारे ब्रांदो और सिंड्रेला की बात की, तो मुझे भी अपना कोको याद आया, जो आज हमारे बीच नहीं है. कोको के पहले बॉबी की बात. और अगर बॉबी की बात करें तो बोरिस और रॉकेट की बात कैसे न आये.
जब स्कूली छात्र थे तब एक किताब थी ,बॉबी बोरिस और रॉकेट, हमारे पास. मोटी जिल्द वाली, चमकते सफेद पन्ने, पेंसिल रेखाचित्र और पिछले दो पन्नों पर उन कुत्तों की तस्वीर जो अंतरिक्ष में गये, लाईका , ओत्वाज़नाया और अन्य नाम जो अब याद नहीं. तब उन दिनों हम ने कई रूसी किताबों के बेहद उम्दा हिन्दी अनुवाद पढे, मीश्का का दलिया (शायद लेखक न. नोसोव थे ), निकीता का बचपन, बॉबी बोरिस , वगैरह
बॉबी बोरिस और रॉकेट , ये किताब दो दोस्तों की कहानी थी, बोरिस और गेना और बोरिस के कुत्ते बॉबी की. बोरिस और गेना दिनरात अनुसंधान में लगे रहते. एक पीपे को रॉकेट बनाकर और अपने प्यारे कुत्ते बॉबी को अंतरिक्ष यात्री बनाकर वे कोशिश करते हैं उसे अंतरिक्ष में भेजने की. प्रयास असफल रहता है और इसी क्रम में वे बॉबी को खो देते हैं. बहुत तलाशने के बावज़ूद वे उसे खोज नहीं पाते. इसी बीच घायल बॉबी को एक आवारा जानवरों के आश्रय में घर मिल जाता है. अंतरिक्ष में कुत्तों को भेजने का सरकारी अनुसंधान चल रहा है और कई ऊँची नस्ल के कुत्तों को आजमाने के बाद ये निष्कर्श निकलता है कि अंतरिक्ष यात्रा के लिये जिस तरह के धैर्य की जरूरत है वो सिर्फ आवारा कुत्तों में ही पाया जाता है. उसके बाद बॉबी की यात्रा "दिलेर" बनने की शुरु होती है. अंतरिक्ष से सफलता पूर्वक वापस आने पर टीवी पर बोरिस और गेना उसे पहचान लेते हैं और उनका सुखद मिलन होता है.
किताब इतनी रोचक थी कि हम उसे कई बार पढ गये थे. शैली मज़ेदार थी और कहानी में बच्चों और कुत्तों की मानसिकता का इतना प्यारा वर्णन था कि कई बार बडी तीव्र इच्छा होती कि काश उन बच्चों सी हमारी जिंदगी होती. हमारा ज्ञान अंतरिक्ष के बारे में भी खासा बढ गया था और यूरी गगारिन, वैलेंतीना तेरेश्कोवा जैसे नाम हमारी ज़बान पर चढ गये थे .

बहरहाल जो तस्वीर बॉबी यानि दिलेर की थी, वो जहन में कैद रह गई थी. कई साल बाद जब हर्षिल पाँच साल का था, तब उसकी जिद पर हम एक नौ दिन के बेहद प्यारे से पिल्ले को खरीद लाये. हर्षिल का तर्क था कि जब हमारे घर कुत्ता होगा तो वो कई काम कर दिया करेगा, मसलन सुबह बाहर से अखबार लाया करेगा ( सुबह सुबह ये काम कौन करे, इस पर कई बार नोकझोंक होती ), उसकी स्कूल की बैग को उसके अज्ञानुसार सही जगह पर रख दिया करेगा, उसके खिलौने ला दिया करेगा. ऐसे तर्कों से मुझे फुसलाया जा रहा था. बाप बेटे ने ये भी आश्वासन दिया कि मुझे पिल्ले का कोई काम नहीं करना पडेगा. उसे खिलाना , घुमाना, नहलाना सब वो करेंगे.

जब वोट आपके विपक्ष में 2-1 हो तो अंजाम बताने की क्या जरूरत. खैर पिल्ला आ गया और हर्षिल ने उसका नामकरण 'कोको " किया. मेरे पिता ने कहा कि चूँकि ये हर्षिल का भाई है इसलिये हर्षिल सिन्हा की तर्ज़ पर कुंतल सिन्हा, इसका नाम हो. कुंतल और कोको, दोनों में सामजंस्यता थी सो नाना नाती ,दोनों का दिल रख लिया गया. ये कुछ दिन बाद पता चला कि कुंतल कुमार ,कुंतल कुमारी है, पर तब तक हमारी ज़ुबान पर कोको जायेगा, कोको खायेगा, वगैरह ऐसा बैठ चुका था कि इसे बदलना अंत संभव नहीं हो पाया .

कोको बहुत बहादुर थी. बचपन में एक बार एक आवारा कुत्ते ने उसपर हमला कर दिया था. तब महीने भर उसके घाव पर दवाइयाँ लगाना, सिरिंज से उसे मुँह में दवाई खिलाना ,ये सब आज याद आता है. जब छोटी थी तो रूई का गोला लगती कई बार खाने की तश्तरी में , हडबडी में, मुँह के बल गिर जाती. हम जब ऑफिस से शाम को घर आते तो हर्षिल और पाखी के साथ वो भी एकदम हमारे ऊपर टूट पडती. मैं सबको ह्टाती ,हँसती, कहती रुको तो ज़रा, दम लेने दो. कपडे बदल कर हाथ मुँह धोकर जब तक कमरे से बाहर आती, कोको धीरज से दरवाजे के मुँह पर बैठी इंतज़ार करती. फिर दोनों बच्चों के बाद अपनी बारी का इंतज़ार करती. बस एकटक मेरे चेहरे को देखती और आँख मिलने पर हल्के से पूँछ हिलाती, मानो कह रही हो,' कोई बात नहीं मैं कुछ देर और रुक सकती हूँ'
चार बज़े उसका बिस्किट का समय तय था. चुपचाप पिछले पँजों पर खडी होकर माँगती. जब वह ऐसे आती, हम समझ जाते, चार बज गये. ब्रिटैनिया मारी गोल्ड ,उसका प्रिय बिस्किट था. बाद में हम उस बिस्किट को कोको का बिस्किट कह कर ही बुलाने लगे थे. इसपर एक मज़ेदार वाक्या याद आ गया. कोई मेहमान आये थे.उन्हें मैं चाय के साथ कुछ खाने का भी पेश करना चाहती थी पर कुछ ऐसा हुआ कि उस वक्त कुछ भी चाय के साथ नहीं था देने को घर में, सिवाय ब्रिटैनिया मारी गोल्ड के. ट्रे, चाय, बिस्किट के साथ मेज़ पर. आगमन होता है मेरी बेटी का. और एकदम से बोल पडती है,
'अरे कोको वाला बिस्किट आंटी खायेंगी ' .
मेहमान का चेहरा देखने लायक था. और हमारा भी.

इस गर्मी में ,कोको हमें छोड कर चली गई. जहाँ उसे दफनाया, वहाँ पेड और फूल लगे हैं. हमारा घर वहाँ से दिखता है. उसके जाने पर हर्षिल और पाखी बहुत रोये. रोये तो हम भी. आज भी कभी कभी नींद में मेरे हाथ उसके नर्म बालों को सहलाते हैं.
हमने भी हीरामन की तरह तब एक कसम खाई, अब दोबारा किसी जानवर से इतना प्यार नहीं करेंगे.
(ऊपर की ये तस्वीर कोको की है. उस किताब में बॉबी भी बिलकुल ऐसा ही था.)

12/01/2005

जन्नत यहाँ है

पाँच दिन की भागदौड के बाद सप्ताहांत का इंतज़ार बडी बेकरारी से रहता है. शुक्रवार की शाम से ही लगता है कि अब मुट्ठी में दो दिन का खज़ाना है, जैसे चाहे खर्च करो.
इसबार शनिवार रविवार अच्छा बीता. शनिवार को मेरे बौस की दोनों बेटियों का दिल्ली के त्रिवेणी कला संगम में अरंगेत्रम था. गुडगाँव से दिल्ली जाना, दो बार तो सोचना पडता है पर जब शनिवार की सुबह उनका फोन आ गया तो फिर जाना तय ही कर लिया. मेरी आठ साल की बेटी पाखी को नृत्य और संगीत का बेहद शौक है. बेटा ,हर्षिल, खेल में ज्यादा मन लगाता है. इसलिये जाने वालों में मैं, मेरे पति, संतोष, और पाखी थे.
दोनों लडकियों का भरत नाटयम नृत्य इतना सुंदर था कि तीन घंटे कैसे बीते पता ही नहीं चला. घर आकर पाखी ने एलान कर दिया कि उसे भी नृत्य सीखना है. इसके पहले वह पेंटिंग सीख रही थी और घर भर में उसके कलाकारिता के नमूने बिखरे पडे हैं, कुछ तो दीवारों पर भी. किसी का जन्मदिन हो, कोई त्यौहार हो, कोई उसका प्रिय आया हो,एक मिनट में कार्ड हाज़िर रहता है. कई बार ऐसे ही सुबह सुबह, जब स्कूल की छुट्टी हो, मुझे और संतोष को एक कार्ड मिल जाता है....

"मेरे प्यारे माँ पापा को,आपकी प्यारी बेटी की ओर से जो आपको बहुत प्यार करती है"

ऐसे कई कार्ड हमारे व्यक्तिगत फाईल्स मे संभाल कर रखे हुये हैं. मुझे पता है कि जब वह बडी हो जायेगी तब हमारे लिये ये ही सबसे बडा खज़ाना होंगे.

मुझे याद है मेरे पिता की , बचपन में लिखी हुई एक चिट्ठी. तब शायद वे दस ग्यारह साल के रहे होंगे. कहीं आसाम में कोई जगह टीटागढ, शायद. पत्र में तो उन्होंने टीटाबार लिख रखा था. कोई पेपर मिल था शायद वहाँ. कुछ दिनों के लिये वहाँ थे और वहाँ उनका बिलकुल मन नहीं लग रहा था. उस पत्र में वापस बुलाने की बात लिखी थी. अस्पष्ट सी भाषा और हिज्जे की गलतियाँ. तब हम भी बच्चे थे और उसे पढ कर खूब आनंद लिया था, खूब हँसे भी थे. ये बडा मज़ेदार भी लगा था सोच कर कि पापा भी कभी हमारे जैसे बच्चे रहे थे. फिर कुछ दिनों बाद माँ ने एक तस्वीर दिखाई थी. ग्रुप फोटो था, जिसमें मेरे दादा जी, उनके भाई और कुछ बच्चे. सब पुरुष ही थे उस तस्वीर में. मेरी दादी की मृत्यु बहुत पहले हो गई थी जब पापा चार पाँच साल के रहे होंगे.
तस्वीर में बडे तो कोट पैट और ब्रिटिश हैट में है. किनारे में एक बेहद मासूम और सुंदर बच्चा ( आज भी बहत्तर साल की उम्र में खासे हैड्सम हैं) कमीज़, धोती और चमचमाते जूतों में खडा. माँ ने हँस कर बताया था कि ये पापा हैं. शायद, जूते नये दिलाये गये थे. ऐसा पापा बताते हैं.

तब उस तस्वीर को देख कर मेरा बालमन अचानक भर आया था. उस बिन माँ के बच्चे और उस गलत सलत हिज्जे वाला पत्र कहीं एक साथ जुड गये थे. पिता पर बहुत प्यार उमडा था. वैसे भी मैं उनके बहुत करीब हूँ. आज भी ऐसे ही कभी कभी अपने बच्चों को दुलार करते पापा की वो बचपन की तस्वीर और उनका 'टीटाबार' वाला पत्र याद आ जाता है.

खैर, शनिवार अच्छा बीता तो रविवार क्यों पीछे रहता. इस बार हम निकल गये सुल्तानपुर बर्ड सैंक्चुअरी की ओर. सर्दी अभी उतनी तो नहीं पड रही पर फिर भी पक्षी कई दिखे. अगले महीने तक शायद और भी आ जायें. जाते वक्त और लौटते वक्त बगीचों से ताज़ा तोडे गये मीठे अमरूद आजभी घर को सुगंधित किये हुये हैं. फार्महाउसेस के दीवारों पर लाल, बैंगनी, सफेद बोगन विलिया के झाड बेहद खुशनुमा लग रहे थे. खेतों में सरसों का पीला गलीचा, खुशगवार मौसम, बच्चों की चहचाहट, नीचे नर्म हरी घास और उपर नीला स्वच्छ आसमान. और क्या चाहिये.


ओमर खय्याम की मशहूर रुबाई याद आ गई. उसका हिन्दी तर्जुमा कहाँ से खोजूँ .शायद बच्चन जी ने किया है. अब खोजूँगी लेकिन एक अदना सा प्रयास मैंने भी किया, पंक्तियाँ सही याद नहीं पर जो भाव याद हैं उनके दम पर ये पेश है.........
(ओमर खैय्याम के प्रसंशकों से क्षमायाचना सहित )

"गीतों की पुस्तक, शाखों के नीचे

मीठा सा पानी ,दो रोटी के टुकडे

पहलू में तुम हो तो वीराना क्या है

मिल जायें ये सब तो जन्नत यहाँ है"



(जिसे कहते हैं लिटरल अनुवाद ,वो नहीं है, बस भाव हैं...और उसदिन की मेरी मनस्थिति को दर्शाते)


लाल्टू जी ने कहा "धन्यवाद प्रत्यक्षा...

11/25/2005

तुम्हारी खुश्बू

तुम्हारी खुश्बू
(1)
घूमती थी मैं
सडकों पर आवारा
तुम्हारे खुश्बू की तलाश में
पर
सूखे पत्तों
और सरसराते पेडों
के सिवा
और कुछ
दिखा नहीं मुझे

(2)
हथेलियों से
चू जाती है
हर स्पर्श की गर्मी
आखिर कब तक
समेटे रखूँ मैं
मुट्ठियों में
चिडिया के नर्म बच्चे सी
तुम्हारी खुश्बू

(3)
साँस लेती मैं
खडी हूँ
तुम्हारे सामने
और भर जाती है
मेरे अंदर
तुम्हारी खुश्बू

11/21/2005

बा अदब बा मुलाहिज़ा होशियार

किन्ही कारण वश "आकाशवाणी " का एपीसोड मुल्तवी किया जा रहा है. उसके बदले पेशे खिदमत है
"बा अदब बा मुलाहिज़ा होशियार "


औन पौपुलर, डिमांड कथा को फिर उसी ट्रैक पर लाया जा रहा है. वैसे मानसी ने अच्छी चिकाई कर दी लेकिन अब ये लिख रखा था तो सोचा पोस्ट कर ही दूँ. (फुरजी नोट करें, दोस्त दोस्त न रहा...पैपुलर डिमांड की संख्या और क्वालिटी देखें)

वैसे एक बात और खास तौर पर फुरजी के लिये , आपकी खिंचाई "मौज़" और हमारी मौज़ "खिंचाई". और वो भी करार दिया कि मज़ा नहीं आया. ये बात कुछ हज़म नहीं हुई.

चलिये कथा आगे बढाते हैं

प्रभु के आराम का वक्त था. फिर भी लगातार प्रार्थनाओं की भुनभुनाहट कानों में पड रही थी.कुछ आवाज़ जब तेज़ हुई
'ये कैसी खिंचाई. अब हमारी गुहार कौन सुनेगा, दलबद्ल लिया ' वगैरह तो प्रभु जरा उठ बैठे, घँटी बजाई.
मिस मेनका दाखिल हुईं.
"शुकुल देव की केस का क्या हुआ "

"प्रभु सर, आपने कहा था कि फुरसत से फुरजी का निदान करेंगे "

"हाँ कहा तो था लेकिन चिकग में खलबली बढ रही है. ऐसा करो केस को लोअर कोर्ट में डाल दो फिलहाल "
प्रभु ने अपनी सफेद दाढी पर हाथ फेरा. मिस मेनका कुशल सेक्रेटरी थीं. तुरत कांसोल पर नाब घुमाया और..



दीवाने खास
(पाठक ध्यान दें 'आम ' नहीं 'खास' (अब अगर इससे भी कोई मुगालते में खुश हो जाय तो क्या कर सकते हैं. कुछ महीन चीज़ें उपर से छूती हुई गुज़र जाती हैं -टैनजेंट - ये पिछले दो लेखों से साबित हो चुका है.
खैर, पहला प्रश्न पाठकों से
तिर्यक भंगिमा घूमफिर कर किस पर आई. अपना मोबाईल उठायें और तुरत समस करें. सही जवाब को पहला ईनाम................ सौजन्य श्री अ.शु (खु.म.र ग्रुप* के मुख्य सचिव)
हाँ तो दृश्य है दीवाने खास का , शहंशाह अकबर गावतकिये पर टिके हैं. कनीज़ पँखा झल रही है. हर दस मिनट में सूँघा हुआ गुलाब फेंक कर, नया ताज़ा गुलाब चाँदी की तश्तरी में आलम पनाह को नोश फरमाती है और इत्र का एक फुहारा दरबारियों पर (भीड की वजह से कुछ बू सी आ जाती है, क्या किया जाय)

"मुजरिम को पेश किया जाय ", शहंशाहे आलम की भारी भरकम रौबदार आवाज़ गूँजती है.
फुरखान मुगलिया लिबास में ( स्कर्टनुमा घेरदार शेरवानी अचकन, चिल्ड्र्नस फैंसी ड्रेस, शाप न. 22, पहला तल ,मुहल्ले का पहला बाज़ार, से रुपये 250/- प्रतिदिन के रेट से किराये पर लाया गया है) सिर झुकाये, हाथ बाँधे खडे हैं.

"हुज़ूर, इनपर इलजाम है कि ये लगातार तीर और तलवार टिप्पणियों और लेख के चलाये जा रहे हैं. मुकदमा पेशी में है, कोई शिकार भी नहीं. खुदा न खास्ता ,जो एकाध थे वो भी एक जुट हो चले हैं. इनके खिलाफ बगावत का बिगुल बज चुका है. हार चुके हैं. आवाम ने इनके सेर पर सवा सेर और नहले पर दहला करार कर दिया ,फिर भी हवा में तीर चलाये जाते हैं. खुद को डान कियोट समझ रखा है. कभी दुश्मन को दोस्त समझ बैठते हैं, कभी दोस्त को दुश्मन. कभी तरीफ करते हैं कभी उसी की बुराई. बुरी तरह से कनफूजिया गये हैं"

"आलमपनाह, आपके शान में अगर गुस्ताखी न हो तो मैं इनके तरफ से कुछ बोलना चाहूँगा ". ये शख्स एक नकाबपोश था. चेहरा ढँका था पर लिबास से दस हज़ारी लगता था (एक ही टिप्पणियाँ दस दस बार पोस्ट करता है (ये संख्या कुछ कम भी हो सकती है सं ))


पाठकों ,इस एपीसोड का दूसरा प्रश्न
कौन है ये शख्स ?
कौन है ये रहस्यमय नकाबपोश ?
तुरत समस करें. सही जवाब पर ढेरों इनाम हैं. देर न करें. अभी अपना सेल फोन उठायें.
(वैसे भी इनाम अ.शु. दे रहे हैं. हमें क्या कितने भी सही जवाब आते रहें )
"बन्दा परवर, इस शख्स की कोई गलती नहीं ", नकाबपोश ने कहा. "अगर है, तो सिर्फ एक गलती. उसे ये मुगालता है कि उसमें हरिशंकर परसाई, श्रीलाल शुक्ल, शरद जोशी, म.स जोशी जैसे लोगों की रूह समा गई है. इसलिये खुद को व्यंग के बादशाह, शहंशाहे हँसी , बीरबल के भाई हातिम ताई समझ बैठे हैं.स्प्लिट पर्स्नैलिटी अलग से है, दो नामों से खुद को बुलाते है. ये सज़ा के नहीं रहम के हकदार हैं"

बादशाह निढाल पड गये. चाँदी के ज़ाम को होठों से लगाया और प्रिय बीरबल की ओर देखा. कुछ कहते उसके पहले ही ...........................


इस कहानी का ये क्रेज़ी टर्न , पागल मोड देने में बहुत मज़ा आया..आगे क्या होगा पता नहीं पर अब लगता है कि फुर जी को बख्श दें,, बहुत हो गया. हो सकता है अगले किश्त में ये हो कि इस एपीसोड से फुरजी का किरदार अलाना निभायेंगे.
बस एक समस्या है. कवितायें टाइप करना आसान था. लंबा लेख टाइप करना बेहद मुश्किल . अब समझ में आया कि फुरसतिया जी कितनी मेहनत करते हैं रोज़. पत्नि वियोग में बेचारे और करें भी तो क्या. अब सुमन जी के आ जाने से देखते हैं क्या स्कोर रहता है उनका

11/18/2005

नारद जी कहिन

इस कथा के सभी पात्र, घटना , स्थान काल्पनिक हैं. इस घटनाक्रम का किसी भी जीवित व्यक्ति से कोई सरोकार नहीं है...वगैरह वगैरह
आज सुबह सवेरे नारद जी दिख गये . . तुरत चेहरा छुपाते हुये खिसकने की तैयारी में लगे. अब हम भी कम थोडे ही हैं . एकदम से घेर लिया.

"नारद जी महाराज, क्या हुआ आपके फरियाद का ? प्रभु ने कुछ उपाय सुझाया ?"

"अरे ! प्रभु हैं. हज़ारों प्रार्थनायें इनबाक्स में पडी हैं. टाइम लगता है ." टालते हुये से फिर पतली गली से निकलने का प्रयास किया.
हमारी आवाज़ कुछ तेज़ हो गई थी. तो आते जाते चिकग हमारी तरफ मुडने लगे . मामला टलने के बजाय गडबडाने लगा तो नारद जी ने हमारी बाँह पकडी और खींच ले गये बगल के काफी शाप में.


"काफी उफी पीजिये. अरे क्या रखा है लडाई झगडे में .”

"पर आप तो बडे नेता बने थे . सबको उकसा रहे थे . अब क्या होगा ?" हमने टहोका .

"अरे होना जाना क्या है . हम तो शांति में विश्वास रखते हैं . ई जो फुरजी अर्थात शुकुल देव हैं न, अब हैं तो हमारे बँधु न. अब उनसे क्या बैर . " नारद जी के चेहरे पर परम ज्ञान की आभा फैल गई. चुटिया भी सहमति में प्रश्नचिन्ह से अल्पविराम में बदल गई.

लेकिन हमारी ज़िज्ञासा इतने से शांत कैसे होती .

"कुछ बताइये न. कोई राज़ तो है जरूर ."


"ज्यादा जिज्ञासा मत करिये . जिज्ञासा ने बिल्ली की जान ली थी, ऐसा कहा जाता है सदियों से "


"पर बिल्ली के तो नौ जीवन होते हैं . अभी तो हमारा पहला ही है . एक तो कुर्बान कर ही सकते हैं "

हमने फिर अस्त्र दागा. नारद जी ने मुँह बन्द रखा, सिर्फ मुंडी हिलाई. हमने भी पैंतरा बदला. वेटर को बुलाया. "ये मोका, लाते, कापुचिनो ह्टाओ और् रेगुलर काफी ढेर सारी क्रीम के साथ लाओ. हमें पता था नारद जी की कमजोरी.
तीसरी घूँट क्रीम की अंदर जाते ही नारद जी आनंदातिरेक के प्रथम अवस्था में आ गये. हम अपनी वाली ,जेम्स बांड स्टाईल में,दिमागी पैनापन और सतर्कता बनाये रखने के लिये, पास वाले नकली फूलों की झाड को पिला दिये.

काफी ने ट्रुथ सीरम का काम किया. नारद जी के मुँह से अमृत वचन फूटे,


"अब ऐसा है कि फुरजी ने बुलाया हमें . जरा घबडाये हुये थे. या तो मोनिका बेदी तर्ज़ पर स्टेट अप्प्रूवर बन जायें या फिर हमें फुसला लें अपनी फरियाद वापस करने को "


पाठकों फ्लैशबक में देखते हैं आगे की कहानी


फुरजी मसनद पर हताश ढलके हुये हैं .पुरानी वर्षों के बंधुत्व की दुहाई दे रहे हैं. नारद जी 'बडी मुश्किल से तो चंगुल में आये हो अब ऐसे थोडे छोड देंगे " वाला भाव चेहरे पर फेयर ऐंड लवली क्रीम की तरह झलकाये हुये हैं . कई घंटे की आरज़ू मिन्नत के बाद डील फाइनल होता है. फुरजी भी जैसे डील तय होती है आशस्वति का भाव पुन: उनके चेहरे पर विराजमान हो जाता है .



"अब देखा जाय आपको कौन सा फार्मूला दिया जाय ." आँख उलट कर ध्यानमग्न होने का सफल नाटक किया. कुछ अस्फुट बुदबुदाये, फिर स्वयं ही नकार में सर हिलाया, " न , ये आपसे नहीं होगा रहने दीजिये "


नारद जी अब प्रिय शिष्य का अवतार ले चुके थे और फुरजी को चातक दृष्टि से निहार रहे हैं .

"अच्छा, चलिये फार्मूला नम्बर 11 ठीक बैठेगा आप पर. लेख 420 तो हमारा पढा ही होगा. अरे वही शिकार और रानी वाला . बस वही करना है. धडाधड फर्जी चिट्ठा बनाते जाईये थोक भाव से, बस अंगूठी और पासवर्ड की कुंजिका हरदम साथ रखें (कमर में खुंसा हुआ दिखाते हुये). बस जैसे ही ओरिजिनल चिट्ठा पर लेख लिखें, दूसरे रानियों वाले चिट्ठा से दनादन टिपियाना शुरु कर दीजिये. 7-8 टिप्पणी के बाद अन्य चिकग अपने आप इस मुगालते में कि इतना टिप्पणी, बाप रे बाप, जरूर धाँसू होगा , हम काहे पीछे रहें, 3-4 टिप्पणी और बिना पढे दाग देंगे. और उसके बाद 3-4 जवाबी टिप्पणी आप दे डालिये.
फिर देखिये की टीप की संख्या दो दर्जन पहुँचती है कि नहीं. ई हमारा सुपरहिट फार्मूला है.

फुरजी का ज्ञान सुदर्शन चक्र की तरह नाचता नाचता नारद जी के चक्षुओं में समा गया.



फ्लैशबैक समाप्त होता है पाठकों



नारद जी ने काफी का अंतिम घूँट समाप्त किया. परम तृप्ति का ढकार लिया.


"धन्य हैं महाराज " हम भी अब तक पूरे प्रभाव में आ चुके थे.

"जरा धीरे बोलिये, उपर तक बात पहुँचेगी तो सब गडबडा जायेगा. मामला प्रभु के पेशी में है, सब जूडिस है. फुरजी वाला फार्मूला आजमा कर देखते हैं . नहीं तो अंत में सर्व शक्तिमान हैं ही.

नारायण नारायण "


नारदजी इकतारा बजाते हुये नेपथ्य की ओर विलीन हो जाते हैं.

11/17/2005

भक्त जनों की गुहार


ऐक्ट 1 सीन 1


सारे चिट्ठा लोक में त्राहि त्राहि मची है.चारों ओर अफरा तफरी का महौल है. सारे चिट्ठा कार गण ( आगे से सुविधा के लिये इन्हें चिकग कहा जायेगा..सं ) जान बचाये इधर उधर भाग रहे हैं .सब पहुँचे प्रभु के पास.

"प्रभु हमें बचायें. शुकुल देव की तारीफ हमारी जान लेने पर तुला है.हर दिन दो से तीन के हिसाब से तरीफ और लेख रूपी बमगोले यत्र तत्र सर्वत्र बिखेर रहे हैं. न दिन को चैन ,न रात को नींद. अब तो, प्रभु, हमें सोते जागते, उठते बैठते उनकी तारीफ और टिप्पणियाँ दिखाई देती हैं.साँस थामे चिट्ठा खोलते हैं अब तो ऐसी हालत हो गई है. ज्यादा तरीफ से प्रभु अब अपच और टीपच (टिप्पणी की अधिकता) हो रही है. जीना दूभर हो गया है.उनकी तारीफी ज्याद्तियाँ अब बरदाश्त के बाहर हो गई हैं. प्रभु, अब हम आपके शरण में आये हैं. आप ही हमारा उद्धार करें "

प्रभु ने आँख बंद की, ध्यान मग्न हुये.चिकग समूह भावना के अतिरेक से उत्तेजित थे. शोर से प्रभु के ध्यान में खलल पडा.नेत्र खोले और कहा,
"इतनी भीड क्यों है ? आपसब बाहर प्रतीक्षा करें. अपने एक या दो प्रतिनिधि को मेरे सामने भेजें. ( प्रभु भी अब तक बहुत डेली गेशन झेल चुके थे, देवताओं के कई यूनियन को सफलतापूर्वक निपटा चुके थे)

बह्त चिंतन मनन के बाद नारद जी को तैयार किया गया चिकग की बात प्रभु के सामने रखने के लिये. नारद जी ( जीवन स्टाईल में) नारायण ,नारायण कहते अंदर प्रविष्ट हो गये.अपने कमंडल और इकतारा ( या और जो भी होता होगा ) को रखा और पद्मासन में बैठ गये.

प्रभु ने शिव अवतार लिया, दोनों नेत्र बंद किये, तीसरे अध खुले नेत्र से नारद का अवलोकन किया.
"अब कहो वत्स. अपनी समस्या रखो"

"आप तो अंतर्यामी हैं प्रभु. बस हमारी समस्या का निदान बतलायें "नारद भावविह्वल हुये.

प्रभु ने तिर्यक भंगिमा से आसमान को देखा, थोडा बेजार हुये. अब कितनी समस्याओं का निपटारा करते रहें. ये आराम का वक्त था. पर खैर क्या करें प्रभु हैं तो भक्तों को देखना ही पडेगा. आवाज को गंभीर किया , नारद के झुके शीर्ष को प्रेम से निहारा और बोले, "................



ऐक्ट 1 सीन 2

हवन, धूप, लोबान के धूँये के बीच अचानक बिजली सी कडकी और बाबा प्रगट हुये. तुरत एक चेला बायें और एक ने दायें स्थान ग्रहण किया. हाथ बाँधे, बाबा की मुखमुद्रा भक्ति भाव से निहारते ( एक स्टिल पोज़ )

भक्त बाबा को साक्षात सामने देख धड से दण्डवत हुआ. चार बार "बाबा ,बाबा " की विकल गुहार लगाई. चेला नम्बर 1 उवाचा,
"बाबा आज मौनव्रत धारण किये हैं. अगर कुछ खास कहना होगा तो चुटका लिख कर देंगे,बाकी हम तो हैं ही अर्थ समझाने को"
(डाक्टर के क्लीनिक में पूर्व अवतार में,बतौर कम्पाउंडर कई कर्षों तक काम किया था. डाक्टर का पुर्जा, मरीज़ को समझाने में महारथ हासिल था)

भक्त लेटे लेटे,
"बाबा आप तो अंतर्यामी हैं. हमारी समस्या का समाधान करिये "
बाबा के बायें भौंह का एक बाल काँपा. चेले ने तत्परता से अनुवाद किया,
"बच्चा, आगे कहो"
"बाबा, हमारे चिट्ठा पर टिप्पणी का अभाव है, अकाल, सूखा सब पडा है. कोई उपाय बताइये. हवन, पूजा, यज्ञ, कोई तो उपाय होगा, पूरी बरसात न सही,कुछ बून्दा बान्दी ही सही "

बाबा की मुखमुद्रा गंभीर से गंभीरतम हुई. (नेपथ्य से उपयुक्त संगीत बजा .)फिर चेहरे पर दिव्य मुस्कान फैल गई.बायें आँख को दो बार नचाया. एक बार मध्यमा से नासिका खुजाई और मोनालिसा मुस्कान भक्त की ओर फेंक दिया.(अब समझते रहो बरखुरदार !)

बडी देर बाद चेला 1 को बोलने का पार्ट मिला था. सामने आया, छाती फुलाई, गला खखारा. चेला 2 मुँह फुलाये खडा था.बुदबुदाया "मेरी बारी (बोलने की) कब आयेगी ?"
बाबा ने एक उँगली उसकी ओर नचाई, अर्थात, धीर धरो, वत्स. इतनी आसानी से बोलव्वा पार्ट नहीं मिलता. बहुत पापड बेलने पडते हैं. मुझे देखो, इतने एक्स्पीरियंस के बाद भी आज मौन व्रत धारण करवा दिया.फिर गहन सोच में सर हिलाया, सोलीलोकी की, लगता है चेला 1 ने खास चढावा चढाया है, खैर आगे हम भी देख लेंगे.

चेला 1 तब तक शुरु हो चला था. ऐसी चीज़ों में देरी बिलकुल नहीं, इतना तो वह भी अब तक समझ चुका था.
चेहरे पर उचित भावभंगिमा को लाने के प्रयास में काफी हद तक सफल होते हुए (आगे का भविष्य स्वर्णिम लग रहा है)बोला,
"सुनो, भक्त,.............


चेले ने भक्त को क्या उपदेश दिया ???, प्रभु ने नारद को कौन सा ब्रह्मास्त्र दिया ???, चिकग की विकट समस्या का क्या निदान हुआ ??? (तेज़ नगाडे की अवाज़ के साथ)
इसकी कहानी अगले एपीसोड में

तबतक पढते रहिये, लिखते रहिये,कलम की स्याही सूखे नहीं, मूस का चटका चटकता रहे, तख्ती पर उँगली चलती रहे

11/11/2005

क्या फिर वसंत आया है

पेड के नीचे धूप मिली छाँह,
हिलती हुई कुर्सी और गोद में किताब,

बगल में लंबा ठँडा ग्लास
कुछ तीखा कुछ मीठा
तरल सा पेय

पैर के पास मेरा प्यारा कुत्ता
पंछियों के शोर पर एक आँख

खोलता ,फिर सर पँज्रे पर रख कर
आँखें बंद कर लेता

सामने मेरे आगे ,अंत में वृक्षों की कतार
पर उसके पहले हरी मखमली घास
और रंगीन फूलों की बेल


मेरे पीछे मेरे गाँव का प्यारा सा घर,
लाल छत और हरी खिडकियाँ

उजली धूप में खिलता हुआ
मैंने आँखें बंद कर लीं थीं,शांत स्निग्ध स्थिर
पर क्यों
मेरी उँगलियाँ अचानक बेचैन
हो रही हैं थिरकने को

शायद किसी प्यानो की कीज़ पर
क्यों मेरे पैर मचल रहे हैं किसी अनजानी
धुन के संगत को
मेरे मन में मद्धम संगीत का शोर किधर
से आया है ,
क्या फिर वसंत आया है

11/07/2005

कुछ हाइकु..दीवाली के

दीपक कहे
जगमगाये जग
मेरे ही संग

कैसी लगन
जलता रहा दीप
अँधेरा डरा

तेरा चेहरा
फुलझडी सी हँसी
रौशन जहाँ

घर आंगन
जुगनू से चमके
आज दीवाली

मुट्ठी भर
बिखेर दिये तारे
धरती पर

नैन चमके
दीये की रौशनी से
यही है खुशी

आज बिराजे
श्री लक्ष्मी औ गणेश
घर घर में

रंगोली सजी
जोत कलश जला
दीवाली मनी

11/01/2005

वही तन्हा चाँद

मुद्दतों बाद कुछ ऐसा
सा हुआ
रात भर धमनियों में
टपकता रहा
वही तन्हा चाँद

खिडकियों के सलाखों से
कभी झुक कर झाँके
धीरे से पलकों को
कभी छू कर के भागे
आखिर में इस खेल से
थक कर के
फैले हुए बिस्तर पे
सिमट कर के

रात भर पहलू मे
मेरे सोता रहा
वही तन्हा चाँद

गई रात तक
खेली गई जो
आँखमिचौली
उनींदे आँखों की
मदहोश खुमारी
हँस कर कह देती
वो मासूम कहानी
वो नटखट ,नादान
नन्हा सा वो खेल

दिनभर मुझे याद
आता रहा
वही तन्हा चाँद

10/24/2005

वो तुम थे क्या ??

मैंने देखा था

रेलगाडी की खिडकी से

रात के गहराते निविड अँधकार में

दूर बियाबान जंगल में

एक रौशनी टिमटिमाती थी



कौन होगा उस अकेले सुनसान घर में

तन्हाई के बेलों से लिपटे दर में



कहीं वो तुम थे क्या ??



अँधेरे की चादर को हटा कर

देखूँ जरा

उस सूने घर की खिडकी से

झाँकू जरा



पर जब तक मैं हाथ

आगे बढाती

उँगलियों से पर्दे को

जरा सा हटाती

उस निमिष मात्र में

गाडी बढ गयी आगे

कहीं जो पीछे छूटा

वो तुम थे क्या ??

प्रत्यक्षा

9/30/2005

मेरे अंदर का जंगल

सुना था
कुछ ऐसे वृक्ष
होते हैं,जो
निगल जाते हैं
मनुष्य को समूचा

मेरे अंदर भी
उग आया है
एक पूरा जंगल
ऐसे वृक्षों का
सोख रहा है जो
धूप का हर एक कतरा

आँखों से जब कभी
खून के आँसू
ट्पकते हैं
तब पता चलता है
काँटों से बिंधा शरीर
और क्या उगल सकता है ?

एक कँटीली बाड
ओढ ली है मैने
कहीं ये जंगल
जो मेरे अंदर
पनप रहा है,
बाहर निकल कर
समेट न ले
मेरे आसपास की
दुनिया को भी
अपनी पुख्ता शाखों में

ये कँटीली बाड
इस जंगल को तो
रोक लेगी
बाहर अगने से
पर मैं ये भूल गई थी
कि बाहर की धूप भी तो
बहिष्कृत हो गई है
अंदर आने से

9/20/2005

सपनों की वह सोनचिरैया

मोर पँख से रंग सजे थे
नभ नीला भी गाता था
पलकों पर सपनों सा तिरता
एक ख्याल सो जाता था

नींद भटकती रात की गलियाँ
सूरज भोर जगाता था
अँधकार की चादर मोडे
दिवस काम को जाता था

तब मैं याद तुम्हारी लेकर
मन ही मन में गुनती थी
इंतज़ार के इक इक पल में
तेरी याद के मोती चुनती थी

सपनों की वह सोनचिरैया
छाती में दुबकी जाती थी
उसकी धडकन मुझसे मिलकर
बरबस मुझे रुलाती थी

सपनो की भर घूँट की प्याली
मन मलंग बन उडती थी
याद को तेरी फिर सिरहाने रख
चैन की नींद सो जाती थी

9/13/2005

बस यूँ ही

हर सुबह,
गर मय्यसर हो
एक चाय की प्याली,
तुम्हारा हँसता हुआ चेहरा
और एक ओस में भीगी
गुलाब की खिलती हुई कली

तो सुबह के
इन हसीन लम्हों में
मेरा पूरा दिन
मुकम्मल हो जाये
बस यूँ ही

9/08/2005

मल्लिकार्जुन मंसूर

उनकी आवाज़ गूँजती नहीं
धीरे से आकर
हल्के कदमों से,
कच्ची नींद में सोये शिशु को
ज्यों माँ ओढाती है, चादर
हौले से, कहीं जाग न जाये
वैसे ही
ढक देती है मन को......

पानी के सतह पर
धीरे से पैठ जाना
हर साँस पर
थोडा नीचे और,
जब तल पर पहुँचो
तो शरीर भर
खुशबूदार पानी
जहाँ फूलों की पँखुडियाँ
तैरती हैं......
उस निशब्द संसार में
एक तान
एक आलाप
सिर्फ आँख ही तो बन्द है
मन खुला है
विस्तार
अपरिमित

उस सुर के संसार में
खडा याचक
थोडा और माँगता है मन

8/25/2005

इष्टदेव से

हाथ पसारे
इष्टदेव से
क्या माँगते रहे ?
मुट्ठी भर धूप
चन्द कतरे खुशी
रोटी भर भूख
कुछ घूँट प्यास ?

क्यों न अब
कुछ और माँगा जाये....
माँगा जाये अब
ढेर सारी आस
बहुत सारा विश्वास
जो हर धडकन पर
साँस ले और
जीवित हो जाये
पले बढे
और मजबूत हो जाये

इतना मजबूत
कि
हमने गढा तुम्हें
या तुमने रचा हमें
इसका फासला
सिमट जाये
उस एक पल के
तीव्र आलोक में

अब तुम
ये मत कहना
कि मैने माँग लिया
इसबार
खुली हुई
अँजुरियों से भी
बहुत कहीं ज्यादा
एक पूरा नीला आकाश ?

8/22/2005

बरसात की दीवानगी

खिडकी के शीशे से
चेहरा सटाये
मैं देखती हूँ
एक एक करके
बून्दों का टपकना,
पत्तों से होकर
शाखों पर
और फिर नीचे
हरी घास में मिल जाना

मेरे अंदर भी
निष्ठुर अकेलापन
बून्द बून्द ट्पकता है
शिराओं से होकर
आँखों से बाहर
निकल जाता है

शीशे पर बून्दे
बजाती हैं मद्धम संगीत
बून्दों की पायल पहने
हवा नाचती है
अलमस्त , बेपरवाह
मेरे अंदर की उदासी भी
सिमट जाती है
मन के किसी वीरान कोने में

न जाने कब
पैर थिरकते हैं
गीली नर्म घास पर
बून्दें सज जाती हैं
बालों पर
किसी अनाम मस्ती
के आलम में, मैं
हवाले कर देती हूँ
अपने आप को
बरसात की दीवानगी के नाम

8/10/2005

रोज़ मर्रा के जीवन का मौन निमंत्रण

रोज़ मर्रा के जीवन का मौन
निमंत्रण ???



रात को बोलती थी
वनपाखी
तब जब चाँद्
टहनियों से होकर
घुस जाता है
कमरे में
तब मैं याद करती हूँ
उस सुबह को
कई साल पहले
जब भोर उगता ही था
हम निकल पडे थे
खेतों में
टमाटर, हरी मिर्चॅ
दquot;र धनिये की क्यारियों
के बीच
मैंने मेंड पर से एक
जँगली पीला फूल
टाँक दिया था
तुम्हारे सफेद मलमल
के कुर्ते के काज़ में
दquot;र बदले में
तुमने दिया था
फूल नहीं
गिनकर
तीन टमाटर, दस हरी मिर्च
दquot;र एक मुट्ठी हरा धनिया
मेरे साडी के
पसरे आँचल में

उस दिन उसी मिर्च दquot;र
धनिये की चटनी से रोटी
का निवाला तोडते
तुमने हँस कर कहा था
हमारा प्यार
हमेशा ऐसा ही
तीखा, चरपरा, चटक
ज़ुबान से लेकर
शिरादquot;ं तक झनझनाता रहे...

आज मुद्द्त बीते
रसोई में
बेंत के डलिये में
रखा ट्माटर, मिर्च दquot;र धनिया
मुझे ले जाता है
उसी सुबह की दquot;र

मैं सोचती हूँ
क्या आज भी तुम
चटनी खाकर
कहोगे
हमारा प्यार
ऐसा ही
तीखा, चरपरा, चटक ........?
शायद तुम
आज भी
मेरे मन के
इस मौन आग्रह को
पहचान लोगे......!!!

8/09/2005

खयालों की पँखुडियाँ

खयालों की
पँखुडियाँ
रात भर
ओस डलीं
सुबह फिर
खुशबू महकी
कविता बनी

7/28/2005

शब्दों की बाजीगरी........

मेहरबान कद्रदान !
आईये इधर आईये साहबान
आज मैं दिखाऊँ आपको ,शब्दों की बाजीगरी........

ये देखिये..इन पिटारियों में कैद हैं शब्द्...आप कौन से देखना पसंद करेंगे ?
मीठी चाशनी में पगे या जलते अँगारों से दहकते शब्द ?
फूलों के रंगों से खिले या शाम की ज़र्द उदासी में रंगे....

हाज़रीन ! आप किसका खेल देखना पसंद करेंगे ?
यह देखिये....इन शब्दों को..जो बडे नाज़ुक , मीठे से हैं..इनकी रेखायें साफ नहीं हैं...ये बच्चों के तुतलाते शब्द हैं..प्यार के रस में भीगे, खूबसूरत तितलियों जैसे..फूल फूल पर उडते.....
मैने बडी आसानी से पकडा था इन्हें, बस आँखें बंद की थीं, इनके नाज़ुक पँख मेरे चेहरे के इर्द गिर्द फडफडाये थे..मैने मुलयमियत से इन्हे पकड लिया था......
पर मेहरबानो इन्हें पकडना आसान है, रखना नही..इसके लिये दिल में प्यार होना चाहिये वर्ना यह मुरझा जाते हैं.
पर देखिये जनाब.....मेरे शब्द कितने रंगीन, कितने हसीन, कितने दिलकश हैं...

पर क्या कहा जनाब ?
आपको ये पसंद नहीं हैं ? मेरे पास और भी हैं, जाईये मत ! देखिये तो सही !!
इन्हे देखिये, ये नटखट बच्चों से शब्द हैं.....मैं चाहता कुछ और हूँ ये कहते कुछ और हैं.....
मैं मात्राओं को कान पकड कर खींचता हूँ..एक कतार में लगाने के लिये , पर ये एक दूसरे पर गिरते पडते, हँसते खिलखिलाते कतार तोड देते हैं..
बडी मुश्किल से खींचतान करके एक वाक्य में पिरोता हूँ, पर अंतिम मात्रा लगते ही , सैनिकों की तरह परेड करते ये निकल जाते हैं बाहर...मेरी सोच के दायरे से..
बडी मशक्कत की, तब काबू में आये हैं..डाँट खाये बच्चों की तरह सर झुकाये खडे हैं

अब आप ही बतायें साहबान , हैं न ये नटखट शैतान शब्द्......शर्त बदता हूँ....मौसम बे मौसम ये आपके चेहरे पर मुस्कान ला देंगे.......
पर क्या कहा आपने ? आप खुश नहीं होना चाहते अभी ?
आपके ख्याल में दुनिया बडी बेडौल है ? सही फरमाया आपने जनाब!
पर इसका भी इलाज है मेरे पास..
और भी शब्द हैं न मेरे पास...
इन्हें भी देखते जाईये.......
इन्हे देखिये..ये खून से रंगे शब्द हैं..विद्रोह के......ये तेज़ धार कटार हैं….
संभलिये..वरना चीर कर रख देंगे....बडी घात लगाकर पकडा है इन्हे...कई दिन और कई रात लगे, साँस थामकर, जंगलों में, पहाडों पर , घाटियों में, शहरों में पीछा करके ,पकड में आये हैं..पर अब देखें मेरे काबू में हैं.....
बीन बजाऊँगा और ये साँप की तरह झूमकर बाहर आ जायेंगे..ये हैं बहुत खतरनाक, एक बार बाहर आ गये तो वापस अंदर डालना बहुत मुश्किल है....
ये क्रांति ला दें, विस्फोट कर दें, दुनिया उलट पुलट हो जाये..ये बाढ की तरह सब अपने चपेट में ले लें…….क्या कहते हैं जनाब ! ये कुछ ज्यादा धारदार हो गये.........आप डर तो नहीं गये, मत घबडाइये, अभी तो पिटारी में बंद हैं, मुँह गोते बैठे हैं..जब कद्रदान मिलें, तब इन्हे बाहर निकालूँगा
अभी सोते हैं, तब इन्हे जगाऊँगा..
आईये आईये आईये...मेहरबान कद्र्दान...आईये आईये......!!!

7/19/2005

खामोशी का सुकून

बातें दहकते अंगारे
लाल उडहुल के फूल
डामर की सडक पर
धूप की किरचें
चारों ओर
बस शोर ही शोर

पर मुझे
इनसे परेशानी नही
परेशानी तो तब होती है
जब सही, गलत हो जाता है
सफेद काला हो जाता है

तब अंदर का अंतर्नाद
बाँध तोड बह जाता है
चीखें तेज़ कटार, छाती में
उतर जाती हैं..
चीते की छलांग लगाकर
शोर के खुँखार पँजों में
दबोच लेती हैं

तब मैं बेचैन हो जाती हूँ
साँझ की तनहाई का इंतज़ार करती हूँ
एहतियात से रखे..खामोशी के सफेद चादर
को बिछा देती हूँ..तब बिस्तरे पर
इसके हरेक फंदे को बुना है मैंने
सुकून के धागे से
टाँके हैं खुश्बुओं के फूल इनपर

आँखें मून्दे लेट जाती हूँ
चारों ओर से लपेट लेती हूँ
समन्दर की लहरें लौट जाती हैं वापस
ये सुकून की खामोशी है
या खामोशी का सुकून ??

7/08/2005

इक नूर बरसता है

इक नूर बरसता है
चेहरे पे क्यों हरदम
इसका कुछ तो सबाब
मुझको भी जाता है यकीनन

7/04/2005

अचानक

अचानक
मैं बेसाख्ता यूँ ही
हँस देती हूँ
शायद
तुम भी कहीं मुझे याद कर
हँस रहे होगे

6/22/2005

तो तुम आये थे

रात भर ये मोगरे की
खुशबू कैसी थी
अच्छा ! तो तुम आये थे
नींदों में मेरे ?

6/17/2005

हृदय कुछ और भर आया

लिया जब नाम प्रियतम का
हृदय कुछ और भर आया
एक मीठी चपल चितवन की
बिजली कुछ इस तरह चमकी
घने बादल के पीछे से
सजीला चाँद निखर आया
कोई कह दे ये बादल से
कि अब वो और न बरसे
लिया है नाम प्रियतम का
हृदय कुछ और भर आया

शायद

ये धूप कहाँ से
खिल आई ??
शायद
चेहरे से तुमने
बालों को
हटाया होगा....

6/07/2005

भीने लम्हे

दर्द के काँटों ने कितनी शबनमी बून्दे
तेरे इन बन्द पलकों पर मोती सी सजाईं हैं

ये तन्हा चाँद के आँसू बरसते यूँ ही शब भर थे
हर सुबह फूलों की पँखुडियाँ इन्ही से तो नहाई हैं

ज़ख्म तुमने दिये थे जो कई सदियों पुरानी सी
मेरे होठों पे अब भी क्यों सिसकती ये रुलाई है

तुम्हारे खत में ताज़ा है अभी भी प्यार की खुशबू
इन भीने लम्हों से अब भी कहाँ बोलो रिहाई है

5/27/2005

मौन की बोली

कभी कभी अच्छा लगता है
होकर मौन रहे बैठें हम

पानी में कंकर को फेंके
गिनते रहे तरंगों को हम

और कभी छत पर लेटॆ हों
जगमग तारों को देखें हम

छाती पर हाथों को बाँधे
सुनते दिल की धडकन को हम

आँख मूंदकर मन ही मन में
मौन की बोली बोलें तब हम



शुरु की दो पंक्तियाँ राकेश खंडेलवाल जी कि रचना की हैं....आगे कोशिश की है उन्हे बढाने की....

5/20/2005

पाती बनाम खत बनाम चिट्ठा ...या जो भी कह दें इसे

आपने फरमान जारी किया..लिखो !
हम जुट गये अमल करने में......दिमागी घोडे दौडाये पर चाबुक थी नौसिखिये हाथों में.......घोडा बेकाबू सरपट दौड गया .
अब अगर कोई बात मुकम्मल सी न लगे तो दोष मेरा नहीं..
तो लीजिये ये पाती है उन बंधुओं के नाम जो विचरण कर रहे हैं साईबर के शून्य में………..सब दिग्गज महारथी अपने अपने क्षेत्र में
और उससे बढ कर ये लेखन की जो कला है, चुटीली और तेज़ धार,..पढकर चेहरे पर मुस्कुराह्ट कौंध जाये, उसमें महिर...

पर मेरे हाथ में ये दोधारी तलवार नहीं..शब्द कँटीले ,चुटीले नहीं.
न मैं किसी वर्जना ,विद्रोह की बात लिख सकती हूँ.......

तो प्यारे बँधुओं..मैं लिखूँ क्या....? 'मैं सकुशल हूँ..आप भी कुशल होंगे " की तर्ज़ पर पर ही कुछ लिख डालूँ...........पर आप ही कहेंगे किस बाबा आदम के जीर्ण शीर्ण पिटारी से निकाला गया जर्जर दस्तावेज़ है........
चलिये ह्टाइये....अभी तो अंतरजाल की गलियों में कोई रिप वैन विंकल की सी जिज्ञासा से टहल रही हूँ.......शब्दों के अर्थ नये सिरे से खोज़ रही हूँ...लिखना फिर से सीख रही हूँ......
इसलिये मित्रवर ये पाती तो बस ऐसे ही फ्लाप शो समझ कर शून्य के गटर में डाल दीजिये..
हम भी धार तेज़ करने की कोशिश में लगे हैं..जब सफल होंगे तब एक खत और ज़रूर लिखेंगे..तब तक बाय बाय, अल्विदा , फिर मिलेंगे........

5/10/2005

एक चिट्ठा मेरा भी.....

हिन्दी में लिखना लगभग छूट सा गया था....स्कूल और कालेज के बाद हिन्दी में सिर्फ पढ ही रही थी........पत्र वगैरह भी लिखना कम हो गया था .....फोन से सब काम चल रहे थे...
फिर नेट का ज़माना शुरु हुआ..तब रोमन में हिन्दी लिख कर मन बहला लिया करते थे.......
पढने का जो कीडा कुलबुलाया करता उसने मज़बूर किया गूगल के शरण में जाकर हिन्दी पत्रिका खोजने के लिये.......
सफलता मिली साथ में अभिव्यक्ति और अनुभूति को पढने का चस्का भी.......
फिर गाहे बगाहे पढते रहे......पहली कहानी अभिव्यक्ति के "माटी के गंध " मे चुनी गई और छपी.....फिर अनुभूति पर समस्यापूर्ति में कवितायें लिखना शुरु किया.....और जैसा सब जानते हैं..ये छूत की बीमारी एक बार जो लगी सो ऐसे ही छूटती नहीं.....
तो बस हाजिर हैं हम भी यहाँ.....इस हिन्दी चिट्ठों की दुनिया में लडखडाते से पहले कदम.......
चिट्ठाकरों को पढ कर वही आनंद मिल रहा है जो एक ज़माने में अच्छी पत्रिकओं को पढ कर मिलता था......सो चिट्ठाकार बँधुओं...लिखते रहें, पढते रहें और ये दुआ कि ये संख्या दिन दो गुनी रात चौगुनी बढती रहे.........
शेष फिर

5/09/2005

खुशी है एक सफेद चादर

खुशी एक ऐसी सफेद चादर है
जिसे ओढते ही
मैं अद्र्श्य हो जाती हूँ
उन तमाम गमों से
जो
घात लगाये बैठे हैं
दबोच लेने को मुझे
अपने खूँखार पँजों में

5/02/2005

धूप के पाँव

धूप के पाँव पर
कितने छाले हैं
दिन भर
चिलकती गर्मी में
जो चली है

....................!

धरती पर फैल गया
दरारों का जाल
सूखे पपडाये होठ
तरस गये
बारिश की प्यास को

......................!!

सूखे पत्ते
बुहारते सडक को
पगली लू
सर धुनती
और काली कोयल
की कैसी ये बेकली

...........................!!!

पेड खडे मौन प्रहरी से
गर्मी की दोपहरी में
पागल लू
गली गली आवारा भटकी

.............................!!!!

धूप भी थक गई
दिन भर की
कँटीली गर्मी में
थके हारे कदमों से
परछाईयाँ घसीटती
लौट चली घर कि ओर

...............................!!!!!

धूप साँझ की पायल पहन
धीमे धीमे रुनझुन
चली पी के घर
मुख के जोत को
रात के चादर से ढक
धीमे धीमे रुनझुन
चली पी के घर


.........................!!!!!

4/29/2005

मेरे मन का ये निपट सुनसान तट

उँगलियाँ आगे बढा कर
एक बार छू लूँ
मेरे मन के इस निपट
सुनसान तट पर
ये लहरें आती हैं
कहीं से और चलकर