5/27/2005

मौन की बोली

कभी कभी अच्छा लगता है
होकर मौन रहे बैठें हम

पानी में कंकर को फेंके
गिनते रहे तरंगों को हम

और कभी छत पर लेटॆ हों
जगमग तारों को देखें हम

छाती पर हाथों को बाँधे
सुनते दिल की धडकन को हम

आँख मूंदकर मन ही मन में
मौन की बोली बोलें तब हम



शुरु की दो पंक्तियाँ राकेश खंडेलवाल जी कि रचना की हैं....आगे कोशिश की है उन्हे बढाने की....

5/20/2005

पाती बनाम खत बनाम चिट्ठा ...या जो भी कह दें इसे

आपने फरमान जारी किया..लिखो !
हम जुट गये अमल करने में......दिमागी घोडे दौडाये पर चाबुक थी नौसिखिये हाथों में.......घोडा बेकाबू सरपट दौड गया .
अब अगर कोई बात मुकम्मल सी न लगे तो दोष मेरा नहीं..
तो लीजिये ये पाती है उन बंधुओं के नाम जो विचरण कर रहे हैं साईबर के शून्य में………..सब दिग्गज महारथी अपने अपने क्षेत्र में
और उससे बढ कर ये लेखन की जो कला है, चुटीली और तेज़ धार,..पढकर चेहरे पर मुस्कुराह्ट कौंध जाये, उसमें महिर...

पर मेरे हाथ में ये दोधारी तलवार नहीं..शब्द कँटीले ,चुटीले नहीं.
न मैं किसी वर्जना ,विद्रोह की बात लिख सकती हूँ.......

तो प्यारे बँधुओं..मैं लिखूँ क्या....? 'मैं सकुशल हूँ..आप भी कुशल होंगे " की तर्ज़ पर पर ही कुछ लिख डालूँ...........पर आप ही कहेंगे किस बाबा आदम के जीर्ण शीर्ण पिटारी से निकाला गया जर्जर दस्तावेज़ है........
चलिये ह्टाइये....अभी तो अंतरजाल की गलियों में कोई रिप वैन विंकल की सी जिज्ञासा से टहल रही हूँ.......शब्दों के अर्थ नये सिरे से खोज़ रही हूँ...लिखना फिर से सीख रही हूँ......
इसलिये मित्रवर ये पाती तो बस ऐसे ही फ्लाप शो समझ कर शून्य के गटर में डाल दीजिये..
हम भी धार तेज़ करने की कोशिश में लगे हैं..जब सफल होंगे तब एक खत और ज़रूर लिखेंगे..तब तक बाय बाय, अल्विदा , फिर मिलेंगे........

5/10/2005

एक चिट्ठा मेरा भी.....

हिन्दी में लिखना लगभग छूट सा गया था....स्कूल और कालेज के बाद हिन्दी में सिर्फ पढ ही रही थी........पत्र वगैरह भी लिखना कम हो गया था .....फोन से सब काम चल रहे थे...
फिर नेट का ज़माना शुरु हुआ..तब रोमन में हिन्दी लिख कर मन बहला लिया करते थे.......
पढने का जो कीडा कुलबुलाया करता उसने मज़बूर किया गूगल के शरण में जाकर हिन्दी पत्रिका खोजने के लिये.......
सफलता मिली साथ में अभिव्यक्ति और अनुभूति को पढने का चस्का भी.......
फिर गाहे बगाहे पढते रहे......पहली कहानी अभिव्यक्ति के "माटी के गंध " मे चुनी गई और छपी.....फिर अनुभूति पर समस्यापूर्ति में कवितायें लिखना शुरु किया.....और जैसा सब जानते हैं..ये छूत की बीमारी एक बार जो लगी सो ऐसे ही छूटती नहीं.....
तो बस हाजिर हैं हम भी यहाँ.....इस हिन्दी चिट्ठों की दुनिया में लडखडाते से पहले कदम.......
चिट्ठाकरों को पढ कर वही आनंद मिल रहा है जो एक ज़माने में अच्छी पत्रिकओं को पढ कर मिलता था......सो चिट्ठाकार बँधुओं...लिखते रहें, पढते रहें और ये दुआ कि ये संख्या दिन दो गुनी रात चौगुनी बढती रहे.........
शेष फिर

5/09/2005

खुशी है एक सफेद चादर

खुशी एक ऐसी सफेद चादर है
जिसे ओढते ही
मैं अद्र्श्य हो जाती हूँ
उन तमाम गमों से
जो
घात लगाये बैठे हैं
दबोच लेने को मुझे
अपने खूँखार पँजों में

5/02/2005

धूप के पाँव

धूप के पाँव पर
कितने छाले हैं
दिन भर
चिलकती गर्मी में
जो चली है

....................!

धरती पर फैल गया
दरारों का जाल
सूखे पपडाये होठ
तरस गये
बारिश की प्यास को

......................!!

सूखे पत्ते
बुहारते सडक को
पगली लू
सर धुनती
और काली कोयल
की कैसी ये बेकली

...........................!!!

पेड खडे मौन प्रहरी से
गर्मी की दोपहरी में
पागल लू
गली गली आवारा भटकी

.............................!!!!

धूप भी थक गई
दिन भर की
कँटीली गर्मी में
थके हारे कदमों से
परछाईयाँ घसीटती
लौट चली घर कि ओर

...............................!!!!!

धूप साँझ की पायल पहन
धीमे धीमे रुनझुन
चली पी के घर
मुख के जोत को
रात के चादर से ढक
धीमे धीमे रुनझुन
चली पी के घर


.........................!!!!!