5/30/2010

हम दोनों

दिन में बड़ी मेज़ पर पोस्टर्स और कागज़ फैलाये मैं धूप पीती हूँ । बारीक महीन इलस्ट्रेशंज़ । मेरे पास दो महीने का समय है । उसके मन्यूस्क्रिप्ट के शब्दों को मैं जीभ पर घुलते महसूस करती हूँ । हर शब्द के अर्थ तीन चार । तलाशती हूँ गुप्त संकेत । शब्दों और वाक्यों के ऊपरी मायने के भीतर बहती नदी जो सिर्फ मेरे लिये कही गई है । उन अर्थों के संदर्भ खोजती हूँ ।

उस दिन मैंने कहा था जाना चाहती हूँ कहीं अज़रबैजान ,या पेरू या फिर काहिरा की किन्हीं तंग गलियों में ।

उस दिन उसने लिखा था उस लड़की की कहानी जो कहीं नहीं जाती , जो सिर्फ पूरा जीवन एक जगह बिताती है ।

फिर कहा था मैंने , छिटके हुये धूप में उदास रंग और उदास क्यों लगते हैं ?

उस दिन उसने लिखा था .. रंग रंग होते हैं । वॉन गॉग के उस कमरे की बात की थी जहाँ रंग चटक धूप से खिलते थे किसी ख्वाब में ।

फिर उसने कहा था , सुनो मैं 'के' से ज़रा ज़रा नफरत करता हूँ ।

और मैंने सुना था , सुनो मैं 'के' को अब भी नहीं भूल पाया हूँ ।

फिर उसने कहा था ये इलस्ट्र्शंज़ अगर सही न बने मैं इन्हें फेंक दूँगा ।

मैंने कहा था जहन्नुम में जाओ ।


शाम को उसने फोन किया था ।

मैंने पूछा था , कहाँ ?


उसने कहा था वहीं जहाँ तुमने मुझे भेजा था .. जहन्नुम में ।

उसके आवाज़ की हँसी मुझे लहका गई थी । उसने फोन रख दिया था । मैंने फोन बहुत देर तक नहीं रखा था । उस दिन मैंने ढेर सारे स्केचेज़ बनाये थे । हैरान भौंचक लड़के की , एक कतार में तालाब के किनारे चलते बत्तखों की , जंगल के छोर पर एक अकेले घर की , मूड़ी निकाले कछुये की , दौड़ते चूहों की और अंत में दो आँखें बस । मेरी उँगलियाँ तड़क रही थीं । रात के बारह बजते थे । मैंने उसे फोन किया था ..

सुनो आ जाओ ।

उसने कहा , क्यों ? मैंने कहा, इसलिये कि मेरी गर्दन दुखती है , मेरी पीठ अकड़ती है , आ जाओ ।

मेरी आवाज़ की अकड़ खत्म हो गई थी । उसने फोन रख दिया था । मैं सो गई थी ..थकी नींद में ।

(पिछले दिनों छपी कहानी का एक अंश और मतीस की पस्तोरल )