6/05/2010

ऐसा जिसे प्यार कहा नहीं जा सकता

नदी बनती है , पहाड़ बनता है तुम बनते हो
प्यार बनता है

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तुम्हें चूमना खुद को चूमना होता है तुम्हें छूना खुद को , आईने में तुम देखते हो जिधर मैं भी वहीं देखती हूँ

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रात में तकिये के नीचे तुम्हारी आवाज़ सिरहाने
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कँधे से कँधे सटाये साथ बैठना सिर्फ और कुछ न बोलना
क्योंकि बोलती है चिड़िया

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हमारे बीच एक संसार हम देखते हैं उसे स्नेहिल

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तुम कहते हो
हाथी उड़ते हैं मैं हँसती हूँ पर विश्वास कर लेती हूँ
कछुये की पीठ पर तुमने लिख दिया है नाम देखती हूँ
मेरा

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सान्द्र उदासी में डूबे तुम तुममें डूबी मैं

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पानी के तरंग में
रखती अपनी उँगली
बीच ओ बीच देखती तुम देखते हो

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स्मृति सिर्फ बीती नहीं उसकी भी जो आगत है , स्मरण उन सब का गिनती हूँ तुम्हारे उँगलियों के पोरों पर , तुम्हारी उँगलियाँ खत्म होती हैं , मेरा स्मरण
तब भी चलता है

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फाख़्ता
कहते तुम हँसते हो
कितना दुलार

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रंगते हैं हम कागज़ पर धान के खेत
पीला सरसों
नीली नदी हरे पहाड़ और एक छोटा घर

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चिड़िया के चुगने को , चावल के दाने , देखती है टुकुर टुकुर गौरया
शाँत मन
मैं भी
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रात भर
बात झरती रही चाँदनी सफेद चादर पर

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तुम तक
मेरी सब बात मुझ तक तुम्हारी
कहें हम बारी बारी
हमारी
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नींद में अकबक
ख्याल , तुम जो पास नहीं , सोउँगी तब जब होगा सब
पूरा संसार तुम्हारी बाँहों में

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प्रेम कुछ नहीं होता मुझे चूमते तुम कहते हो मैं कहती हूँ , हाँ फिर सोचती हूँ
तुम्हारे लिये फिक्र
और सोचती हूँ बहुत बहुत सारा
ऐसा जिसे
प्यार कहा नहीं जा सकता

(गुस्ताव क्लिम्ट की पेंटिंग चुँबन )