7/17/2010

बाबू ! अब और क्या ?

हुस्नआरा का हुस्न देखने लायक था । रसूल यों ही नहीं जाँनिसार हुये जाते थे । हुक्का गुड़गुड़ाते अपनी नमाज़ी टोपी सिरहाने सहेजते मिची आँखों से नीम के पत्तों का सहन में गिरना देखते । लम्बी दोपहरी होती , बहुत बहुत लम्बी । इतनी कि साँझ का इंतज़ार करना पड़ता । इतनी कि ऊब छतों की बल्लियों से चमगादड़ जैसी उलटी लटकती पूछती , बाबू अब और क्या ?


लम्बी और ऊब उकताहट भरी दोपहरी जिसका एक एक लमहा इतना खिंचता कि एक साँस फिर दूसरी गिननी पड़ती । वक्त जब बीतता तब न बीतता हुआ दिखता और बीत जाने के बाद एक अजब से स्वाद के साथ वापस आता ।

रसूल कहते , उन दिनों की बात है जब दिन लम्बे हुआ करते थे , खूब लम्बे , भूतिया कहानी वाले लम्बे हाथ की तरह लम्बे .. हुस्नआरा तिनक कर कहतीं , तुम्हारी बात जितनी लम्बी ? हाथी के पूँछ जितनी लम्बी ? या फूलगेंदवा के हनुमान जी की पूँछ जैसी ?

रसूल अपनी दाढ़ी खुजाते हँस पड़ते । पर होता था एक वक्त दिन ऐसा । कूँये के पास वाली मिट्टी में पुदीना हरहरा कर उगता। मेंहदी की झाड़ के साये में गौरेया फुदकती , लोटे की टपकती टोंटी से चोंच सटाये दो बून्द पानी तर गला करती ..ऐसी लम्बी बेकाम की दोपहरी ।

छत पर चढ़े कोंहड़े के बेल से सुगन्ध फूटती , नम मिट्टी के गंध से घुलती धीमे से दीवार के साये सुस्ताती बैठ जाती । पिछले बरामदे से सिलाई मशीन की आवाज़ गड़गड़ निकलती रुकती फिर शुरु होती । हुस्न आरा के पैर मशीन की भाती पर एक लय में चलते । कपड़ों की कतरन , धागे का बंडल , तरह तरह के बॉबिन और सूई , गट्ठर के गटठर । इसी सबके के बीच चूल्हे पर अदहन खदबदाता , सूप में चावल और राहड़ की दाल चुन कर रखी होती ।

रसूल कान पर फँसाई बीड़ी एहतियात से निकालते , सुलगाते और हथेली की ओट में भरके सुट्टा खींचते । सारा दिन दोपहर होता । सुबह फट से दोपहर हो जाती और साँझ जाने कब आता नहीं कि रात हो जाती ।


ऐसे होते थे दिन जब हाथपँखा हौंकते चित्त लेटे जाने क्या सोचते दिन निकलता । एक दिन के बाद दूसरा फिर तीसरा फिर जाने और कितना । सब दिन एक दूसरे में गड्डमड्ड् सब एक जैसे कि तफसील से कोई पूछे कि फलाँ दिन क्या तो खूब खूब सोचना पड़े कि अच्छा ? उँगली पर जोड़ें और कहें अच्छा अच्छा उस दिन जब प्याज़ लाल मिर्चा का कबूतरी खाके ऐसा झाँस पड़ा था कि खाँसते खाँसते बेदम हो गये थे ?

मुड़ के देखो तो मालूम पड़े कि एक कतार से सब दिन जाने कितने साल में बदल गये । मटियामेट कर देने वाली उदासी छाती में गहरे धँस गई है । कैसा हौल समा गया है कि चलते भी हैं तो लगता है उलटा चलें और पाँव के निशान बुहारते चलें ।

बाहर गली में आटा चक्की के मशीन की फटफट फटफट फटफट गूँजती है , मोटी बेसुरी और बेहया । जबसे रसूल का हाथ कटा है हुस्न आरा सिलाई करती है । रसूल खटिया पर लेटे देखते हैं और खूब सोचते हैं । जीवन के मायने और मौत के भी । फिर सोचते हैं यहीं है सब जन्नत भी और दोज़ख भी । फिर सोचते हैं उन दिनों के बारे जो कितने लम्बे होते थे । कितनी ज़िंदगी थी तब । दिन जैसी ही लम्बी । आँख के सामने धुँधलका छा जाता है ।

सहन में अरअरा कर नीम की पत्ती गिर रही है । हुस्न आरा के चेचक भरे चेहरे पर पसीने की धार है । टूटे कमानी के मोटे चश्मे से भी अब इतना नहीं दिखता कि धागा पिरोया जा सके । हताश सर दीवार से टिकाये चुप बैठ जाती है । अब नहीं होता , अब नहीं ।

चुप्पी दबे पाँव आती है फिर ढीठ बच्चे सी फैल जाती है । कितने दिन बीतते हैं जब दीवारों से कोई आवाज़ नहीं टकराती । रसूल चौंक कर देखते हैं किस बात पर जाँनिसार हुये थे ? जाना था इस औरत को ? और उसने मुझे? किस ज़माने की बात है । कोई और रहा होगा , कोई और समय , कोई और भूगोल । मैं नहीं , मैं नहीं , मैं नहीं ..

मुड़ कर देखते हैं चारो ओर हैरत से , बेगानेपन से । काँपते घुटनो को थामे अचानक उठ खडे होते हैं फिर डगमग बाहर । हुस्न आरा एक बार चौंक कर देखती है , फिर मशीन के पास ही सिमट कर ढुलक जाती है ।

समय की फितरत ऐसी ही होती है , बेवफा !

7/15/2010

किसी दिन

किसी दिन
अपनी समस्त बुराईयों के साथ देखोगे तुम , मुझे , चकित होगे कि क्या
जाना था अब तक मुझे ?

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सहलाती थी जैसे जब पिता का हाथ , जानती थी अब नहीं देखेंगे कभी हँस कर मेरी तरफ

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समय का स्वाद टूट गया विक्षिप्तता में , सब किताबें , सब संगीत , सब सब कहते हैं मेरा निजी कुछ था कहाँ , तुम तक नहीं

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किसी भीड़ में खड़े हम सब खोजते थोड़ी सी जगह जहाँ सबसे छुपाकर साँस ले सकें , भदेस तरीके से मुँह खोले ज़ोर ज़ोर की साँस , बिना तमीज़ की परवाह किये बगैर और उसी तरह से खा सकें

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कहते हैं अमिश लोगों में मृत्यु को कहते हैं कॉल्ड होम , घर से बुलावा , सोचते ही लगता है कितना सुकून , मौत भयानक शून्य नहीं कोई नर्म घोंसला है जहाँ दुबक कर सोया जा सकता है आखिरी नीन्द

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सपने में देखे जा सकते हैं नीले हाथी और सफेद फूल , सीखी जा सकती है एक नई ज़ुबान , कोई संगीत , हुआ जा सकता है उदार और महान

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ऐसा क्या सुन लिया मैंने कि कान अब तक दुखते हैं ?

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मेरी चीज़ें सब मेरी नहीं थी , कुछ कुछ सबकी थीं , और सबकी चीज़ बहुत मेरी । फिर किसी भी चीज़ पर अपना नाम न देखना दुखदायी था

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अपने भीतर आत्मा की तलाश ? कहते हैं तलाश शब्द गलत है और आत्मा भी । कहते तो ये भी कि सब माया ही है अंतत: गोकि माया तक आखिर एक शब्द ही है जिसका पूरा अर्थ हम अब तक नहीं जानते

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लोगों की चलती भीड़ के ऊपर चलता है आसमान और कभी कभी एक मंडराती चील , भीड़ से अलग जिस चीज़ का स्वाद है उसे अब तक तय नहीं किया कि अच्छा है या बुरा है । अकेला होना भी एक स्वाद है , जीभ पर बेमज़ा होते च्यूइंग गम जैसा , थका देने वाला

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गाल की हड्डी के पास साँप पूँछ फटकारता है , बाहर आसमान जो दिखता नहीं , ज़रूर नीला होगा , ऐसा विश्वास है , शायद चाँद भी निकला होगा । विश्वास के आसपास दर्द की लक्ष्मण रेखा है , बार बार लाँघती कुछ वैसे जैसे बचपन में पढ़ी निसिम एज़ेकियेल की नाईट ऑफ स्कॉरपियन

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किसी की किताब पढ़ी अच्छा लगा , कुछ लिखा अच्छा लगा , अच्छा लगना अच्छा लगा , किसी दिन कोई गाता था अल्हैया बिलावल , मैं देखती थी खुद को , लिखते किसी दिन

( विंसेंट वॉन ग़ॉग )