8/05/2007

चूडियों का डब्बा माने कसम कसम

मुन्नी से खाना खाया नहीं जा रहा । चौके के , मिट्टी से लीपे हुये जमीन पर बडे मोटे चूँटे टहल रहे हैं । पीढे पर मुन्नी फ्रॉक बचाये बैठी है । कहीं चूँटा चढ न जाये पैर पर , फ्रॉक पर । चढ जाये तो चीख चिल्ला कर , कूद कूद कर आसमान एक कर लेगी । ऐसा होता है तब गप्पू को खूब मज़ा आता है , मुन्नी से बेतरह दोस्ती और प्यार के बावज़ूद । मुन्नी का ध्यान खाने पर कम है चूँटों पर ज़्यादा है । थाली में चावल पर दाल की नदिया बह रही है । भिंडी का भुजिया इतना अच्छा लगता है फिर भी खाना खाया नहीं जा रहा । चाची के घर बस यही एक चीज़ खराब लगती है ,ये चौके में चूँटों की दौड । बाकी तो सब खूब बढिया है ।

आँगन में चाँपाकल पर नहाना , हुमच हुमच कर चाँपाकल चलाना , बगीचे में लीची के पेड पर बंदरों की तरह भरी दुपहरिया में सबकी आँख बचाकर खेल खेलना । गप्पू अपनी बहती पैंट सँभलता सँभालता किवाड के पार हुलक हुलक कर देखता है । इशारा करता है , आ जा बाहर । गप्पू की आँखें काले गोली जैसी चमकती हैं । उसके पैंट की पॉकेट में गोलियाँ खनखन खनकती हैं । खज़ाना है खज़ाना । वैसे ही जैसे मुन्नी के डब्बे में टूटी काँच की चूडियाँ । किसी दिन जब डब्बा भर जायेगा तब मुन्नी मोमबत्ती जलाकर उसकी लपट में टूटी चूडियाँ का सिरा पिघला कर जोडेगी । तब तक मुन्नी हर किसी से चूडियाँ माँगती चाँगती रहती है । कैसी तो ललचाई आँखों से फुआ और चाची अम्मा की चूडियाँ निहारती है , लाल पीली धानी सुनहरी ,अहा ।

चाची अम्मा ,फुआ , पडोस की औरतें सब दोपहर में बैठकर न जाने क्या बतियाती हैं । पापड , मखाने और आलू के चिप्स के साथ अदरक वाली चाय स्टील के कप में । मुन्नी का दिल मखाने पर आ जाता है । चुपके कोने में बैठ कर मखाने टूँगती है ,आँखें चिहारे गप्प सुनती है । तब गप्पू लाख दफे खिडकी से बाहर आने का इशारा करे , टस से मस नहीं होती । सुमित्रा ने जाने कैसे बच्चा गिरा दिया । औरतें सब मुँह पर हाथ धरे अफसोस करती हैं । मुन्नी सोचती है कहाँ गिरा दिया , कैसे गिरा दिया , सीढी से कि पलंग से । कैसे गिरा दिया चाची ? अरे ! कैसे पुरखिन सी बैठी है यहाँ बडों के बीच पाको मामा । जा भाग , खेल बाहर । मुन्नी ठिसुआई सी बाहर भाग पडती है ।ओह ,कैसे बडी हो जाये अभी के अभी ।

गप्पू अलग गुस्सा ,मेरे लिये चिप्स तो ले आती । कमरे में पँखा मरियल चाल चलता है । हनुमान जी वाला कैलेंडर हवा में फडफड करता है । दीवार पर कैलेंडर के टीन का कोना दोनों तरफ आधा चाँद बनाता है । हवा में डोलते हनुमान जी संजीवनी पर्वत उठाये ठीक मुन्नी की तरफ देखते हैं । अगले महीने के पन्ने पर माखन खाते कृष्ण कन्हैया हैं । मुन्नी को इंतज़ार है अगले महीने का जब हनुमान जी वाला पन्ना हटा कर कृष्ण जी वाला पन्ना सामने किया जायेगा । पर अगले महीने तक शायद मुन्नी वापस अपने घर चली जाय ।

छोटे कमरे में चौकी के नीचे आम का ढेर है। बीजू और लंगडा । दिनभर गप्पू और मुन्नी आम चूसते हैं । गप्पू के मुँह पर आम खाने वाली फुँसी निकल गई है । हर साल ऐसा ही होता है । फुँसी और पेट खराब । पर गप्पू बाज नहीं आता । गर्मी भर सिर्फ आम पर जिन्दा रहता है । रेडियो पर दोपहर को पुराने गाने आते हैं । मुन्नी कभी कभी थम कर सुन लेती है । तब उसे लगता है कि अब बडी हो गई है । गाने तो ऐसे दीदी सुनती हैं । टिकुली साटे , फुग्गा बाँह की ब्लाउज़ पहने ,आँखों में काजल पाडे ।गाने सुनती हैं बाँहों पर सिर धरे और पता नहीं किस बात पर धीमे धीमे मुस्कुराती हैं । मुन्नी उनको ध्यान से देखती है । आईने के सामने कभी कभी उनके दुपट्टे को ओढे उनके जैसे ही मुस्कुराने की कोशिश करती है । दीदी ठीक मीनाकुमारी मधुबाला लगती हैं । मुन्नी भी बडी होकर उनके जैसे ही लगेगी । लगेगी लगेगी जरूर लगेगी ।

पर पहले उस पाजी गप्पू को ठीक करना है । रुसफुल कर जाने कहाँ बैठा है । मुन्नी ओढनी फेंक गप्पू की खोज में निकलती है । जरूर आम वाली कोठरी में पुआल पर बैठा आम चूसता होगा । बदमाश छोकरा कहीं का । दिनभर खाने की फिराक में रहता है । सचमुच गप्पू बैठा आम चूस रहा है । रस की धार कुहनी तक बह रही है । होंठों से बहकर ठोडी तक भी । गप्पू है तो सिर्फ साल भर छोटा पर मुन्नी को लगता है वो गप्पू से खूब बडी हो गई है खूब ।

दीदी के ब्याह के बाद शहर लौटते मुन्नी का चूडियों का डब्बा वहीं छूट जाता है । उफ्फ कितनी मुश्किल से जमा किया था । दिल पर जैसे हज़ार घाव हो जाते हैं । आँखों के आगे दिनरात वही तरह तरह की रंगीन चूडियाँ नाचती हैं । कैसा दिल तोड देने वाली हालत है मुन्नी की । दीदी के घर छोड ससुराल जाने की पीर से भी कहीं ज्यादा दुख देने वाली बात । मीठू सुग्गा तक मुन्नी को देख पुकारना छोड चुका है । हरी मिर्च और फूले हुये चने देने के बाद भी मुन्नी को गोल आँखों से तकता है । पिछले साल टॉमी के भाग जाने का भी इतना दुख नहीं हुआ था । अम्मा लाल पर सुनहरे लहरिया वाला गोल चिपटा बिस्कुट का डब्बा निकालती हैं । मामा लाये थे बिदेस से बिस्कुट । वही डब्बा है । अपनी सबसे सुंदर सुनहरे काम वाली गुलाबी चूडियाँ और लहटी निकाल कर डब्बे में डाल मुन्नी को पकडाती हैं । डब्बे को पकड कर मुन्नी को इतनी खुशी मिलती है ,इतनी । कोई खोई चीज़ जैसे फिर से मिल गई हो । मुन्नी अभी बडी नहीं होना चाहती । चूडियों के टुकडे वाली खुशी छोडनी हो तो बिलकुल भी नहीं । मुन्नी ने तय कर लिया है जब तक ये वाला डब्बा भर न जाये , जब तक चूडियों को जोड कर खूब खूब लंबा इन्द्रधनुष के रंगों वाला झालर न बना लिया जाय तब तक उसे बडे नहीं होना है , बिलकुल भी नहीं । ये तो बात पक्की रही , गले पर अँगूठे और तर्जनी रख उम्र भर की कसम खाने जैसी पक्की बात ।

19 comments:

Unknown said...

आपके शब्द कितनी बातें करते हैं। कभी चित्र बनाते हैं,कभी पंख लगाते हैं। जादू जानती हैं आप शायद!!

अनामदास said...

बेजी ने सब कह दिया है.
कुरबान जाऊँ. अपना घर,अपनी बहन सब याद आ गए. लड़कियों के खेल, गुड्डा-गुड्डी की शादी, बहन बड़ी थी, उसकी सहेलियों के खेल में घुसने पर हमारा दूध-भात होता था. डोंगा पानी, घोघो रानी, कित कित...बालू का हलुआ, पत्ते की पूरियाँ...बच्चा हमारा प्लेस्टेशन के साथ बड़ा हो रहा है. क्या कहें, खुश हों कि दुखी, पता नहीं.

vikram pratap singh said...
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Udan Tashtari said...

हमारी बात बेजी ने ही कह दी, तब हम जा रहे हैं. बहुत ही बढ़िया बोल कर.

राकेश खंडेलवाल said...

शब्द चित्र जब बन कर बोलें
घटनायें जीवित हो जातीं
फिर मुँडेर पर आ जाता है
कागा ले बिसरी सी पाती
जो आँखों के तहखाने में
अक्सर दबे हुए रह जाते
प्रत्यक्षा ! वह दॄश्य तुम्हारी
कलम सहज से है दिखलाती

काकेश said...

अच्छा रहा ये चित्र भी.

mamta said...

बहुत अच्छा लगा एक-एक शब्द अपनी बात कहता हुआ।

Sanjeet Tripathi said...

मै उपरोक्त टिप्पणीकर्ताओं से अनुरोध करता हूं कि इतनी अच्छी पोस्ट पर सभी संभावित टिप्पणियां अकेले ही ना कर दिया करें, कुछ हमारे लिए भी छोड़ दिया करें।
जैसे कि सबसे सही टिप्पणी तो बेज़ी ने कर दी है, उसके बाद हम कहें भी तो क्या कहें सिवा इसके कि बेज़ी से सहमत हैं!!

Neelima said...

सुन्दर ! बहुत सुन्दर लिखा है प्रत्यक्षा जी !

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

कितना सुँदर लिखती हो तुम प्रत्यक्षा - ऐसे ही लिखती रहो -और हम , आपको पढते रहेँ :)
स स्नेह,
-- लावण्या

Anonymous said...

शानदार !!!

चंद्रभूषण said...

बहुत अच्छा!

ghughutibasuti said...

बहुत सुन्दर !
घुघूती बासूती

अनूप भार्गव said...

हमारा अंगूठा भी - बेजी के बयान पर ...

सुजाता said...

बहुत जीवन्त !! सब कहीं देखे हुए से भोगे हुए से चित्र हैं ।सुन्दर लेखन !

अपरिभाषित शब्द said...

प्रत्यक्षा दी शब्द यूं बुने है आपने कि चित्र बन जाते हैं आंखों में…… रगों में रग जाना पढता है। बहुत ही सुंदर चित्रण किया है दी आपने……

सादर,
आशु

Unknown said...

बहुत अच्छा लिखती हैं आप। आपके ग‌द्य में भी कविता है। मेरे पास तो शब्द ही नहीं हैं आपके शब्द चित्र की तारीफ के लिये।

debashish said...
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debashish said...

दीवार पर कैलेंडर के टीन का कोना दोनों तरफ आधा चाँद बनाता है

इत्ता अच्छा लगा कि क्या कहें :) मुन्नी और गप्पू के किरदारों से विशाल भारद्वाज की "मकड़ी" के बाल किरदार याद आ गये। कई बार ऐसा लगता है कि आप सब के मन के आर्काईव्स से कुछ कुछ चुरा लाती हैं। "टिकुली साटे , फुग्गा बाँह की ब्लाउज़ पहने ,आँखों में काजल पाडे", एक एक शब्द मर्म को आह्लादित कर देता है। पता नहीं आपसे आयु में छोटा हूँ या बड़ा, पर मन भर आशीष दे रहा हूँ, ज़रूर कुबुलियेगा।