आज उदास होने का दिन नहीं जबकि आँख की नमी कुछ और कहती है । छाती पर जमी कोई टीस है , कई स्मृतियाँ हैं । जो सबसे नज़दीक की हैं , उन्हें भूल जाना चाहती हूँ , जो पुरानी हैं आज सिर्फ उन्हें याद करना चाहती हूँ , आज खुश रहना चाहती हूँ , आपके लिये
आपकी सब तकलीफें बिसरा देना चाहती हूँ , आपकी हँसी याद रखना चाहती हूँ । कैसी चकमक आपकी आवाज़ की बुलन्दी , उसकी चादर ओढ़ हँसना चाहती हूँ , लेकिन हँसते हँसते कैसी रुलाई फूट पड़ती है , देखते हैं न आप । दिन बीत चला रात ढलने को हुई और संगीत का ये सुर भीतर कहीं बजता है , बस आपके लिये
मुर्गाबियों का झुँड पानी की सतह पर उतरता है । जैसे साँझ उतरती है । पानी पर पहले उतरती है , पेड़ की पत्तियों से छनकर । आसमान में जबकि अब भी दिन का आभास बाकी है । ये दिन का वो समय है जब खुद से बात की जा सके,रफ्ता रफ्ता ,सोचकर रुककर समझकर टटोलकर,अपनी आत्मा को खुरचकर । अंतरतम का कोई कमरा जिसका दरवाज़ा ज़रा सा खुल जाये , कोई रौशनी की लकीर दिख पड़े । ऐसे बात , जैसे किसी से न की हो , मोहब्बत से , कोमलता से , विवेक से । छाती के भीतर कुछ घना सघन जंगल उगता है , उसकी महक मारक है , उसके काँटे बींधते हैं ।
ऐसे गहरे गहन समय में जब खुद से बात की जा सके
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पानी में डूब जाना दुनिया भुला देना होता है क्या ? हर बार उन्हीं अँधेरों में चलना , किसी बन्द गली के आखिरी मकान का कभी न खुलने वाला दरवाज़ा , सिर पटकना फिर सिर झुकाये कँधे गिराये रुकना कुछ देर फिर लौट आना , हर बार
हर बार अंतरंगता की चादर ओढ़ना , साथ साथ उदास गलियों के भूल जाने वाले नामों में भटकना , कहना कि मुझे खींच लो बाहर , मेरे लिये सिर्फ मेरे लिये , मुड़ना मुड़ना मुड़ना और चाहना , कितना कुछ , हाथ बढ़ाना इस उम्मीद के साथ कि थाम लोगे , हर बार , ओह निष्ठुर मन , कितना निर्विकार तुम्हारा ऐसा चाहना , क्यों न निस्संग ? आखिर ?
किसी घने वृक्ष के नीचे लेटना और आसमान तकना , किसी पुराने खंडहर मंदिर के गर्भगृह में मौन बैठना , हर बार खुद से बात करना , और कहना आसमान , और कहना कोई लम्बी कथा , छाती फट जाये ऐसी कथा , सोच लेना और खुश हो लेना
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दुख की बड़ी जानी पहचानी वही कहानी होती है , सुख आता है हर बार नये रंग में । लौटना फिर परिचित रास्तों पर ? सुकूनदेह है । सुख , कहते हैं अब पोसाता नहीं , उस काली बिल्ली जैसे जो हर रात दूध पीकर निकल भागती है सड़कों पर आवारागर्दी करने ।
पानी के किनारे चिड़िया चहचहातीं हैं कुछ देर , क्रेसेंडो में उठता ऑरकेस्ट्रा फिर नीरव शाँति , फिर अँधकार । फिर खोजना उसमें मायने , फिर भर लेना अर्थ , फिर जीना तरंगित हो कर , हाथ बढ़ाना फिर मुस्कुरा कर , गहरी साँस भरना , पूरा और लौट आना रौशनी में , हर बार
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भीतर एक नमी थी । छूओ तो उँगलियाँ भीग जायें । मैं तुमसे कहती , आज मेरे भीतर उदासी है , धीमे संगीत जैसा , जैसे भीतर कोई कूँआ हो जिसका तल न दिखता हो । और उसका पानी हथेलियों में भरो तो हाथ न दिखता हो । और बस ये कि इतना भर ही मैं खुद को जानती हूँ , फिर इससे ज़्यादा तुम मुझे क्या जानोगे ।
मेरे भीतर मुझसे भी बड़ी तस्वीर है जिसका ओर छोर नहीं , मीठा संगीत है , मन मोह लेने वाला , खुद को मुग्ध कर देने वाला , ऐसे रंग हैं जिन्हें आँखों ने देखा नहीं , ऐसा लय है जो शरीर के भीतर भी है और बाहर भी , मेरे भीतर मैं हूँ , मैं , जो तुम देख नहीं पाते उतना मैं , जितना मैं समझ पाती हूँ उससे भी ज़्यादा मैं ।
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धुँधले अँधेरों में , जब कुछ न दिखता हो तब खुद को देखना अच्छा लगता है
बम्बई की खाली सड़कें , मरीन ड्राईव का कर्व , बारिश के झपाटे , नवीन निश्चल और प्रिया राजवंश , हँसते ज़ख्म रोते दर्शक , रात में शहर , ऑरकेस्ट्रा के बीच गाड़ी तेज़ी से गीले सड़क पर भागती घूमती , रौशनी , अँधेरा , बारिश प्यार , तेज़ तेज़ मीठा मीठा फिर हँसी और धुँआ और समन्दर की बौछार ..
डेडपैन एक्स्प्रेशंस दोनो ऐक्टर्स के .. फिर उसी डेडपैन चेहरे और चलती फियेट के पीछे नकली भागते शहर के बीच संगीत का ऐसे सेंसुअस तरीके से भरना , कैफी मदन मोहन और रफी .. सचमुच थोड़ा सा दिल किसी अरमान में टूट जाता है , किस गये समय का जादू , नकली सेट के बेतुकेपन के बीच अचानक कैसे मीठे रूमान का खिल उठना ..
ऐसा समय है किसी का किसी पर विश्वास नहीं । आप पर मेरा और आपको मेरा विश्वास नहीं । उस दूसरे पर तो हम दोनों को ही भरोसा नहीं जो अपनी पहचानी भूमिका, बहत हद तक हमारे ओर से आरोपित, से अलग किसी नयी शक्ल में हमारे सामने आ रहा है। उसकी शक्ल क्या बनती है से ज्यादा चिंता की बात है अपनी इस नयी भूमिका में हमें वह डरा रहा है । जिस बात से हमारा सीधा सीधा संबँध न हो उसे हमारे आँखों के सामने थोप रहा हो , कि देखो देखना ही पड़ेगा । किसने ऐसी परिस्थिति पैदा की हम भय और आतंक के साये में जियें ? अपने जलते जंगलों को हमारे जीवन के बीचोंबीच भय के बलबलों की तरह लिये आयें, यह ‘हमारा’ लोकतंत्र कब तक, क्यों बर्दाश्त करेगा ? जंगली लोगों को किसी ने लोकतंत्र की शिक्षा नहीं दी ? जंगली अंधेरों ने उन्हें आखिर कैसी शिक्षा दी है जो हमारी तरह नहीं, हमारे लोकोपकारी शासन के सामने सिर नवाने की जगह जो हथियार उठा रहे हैं.... गंवार, हमेशा के ग़ुलाम !
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शोषण का इतिहास पुराना है, गुलामी के प्रमाण लिखित दस्तावेजों के भी पहले के हैं। हमुराबी के कोड में सबसे पहले इसका ज़िक्र मिलता है और बाईबल में भी। सुमेरियन, प्राचीन मिस्र, भारत, ग्रीस, रोम और इस्लामिक खलीफाई सभ्यता से लेकर आज तक के समय काल में इसका ज़िक्र मिलता है। अरस्तु ने यहाँ तक माना था कि कुछ मनुष्य प्रकृति से गुलाम होते हैं।
अमेरिका में रेड इंडियंस, अफ्रीकी गुलाम, औस्ट्रेलिया में लॉस्ट जेनेरेशन, गुम पीढ़ी का इतिहास, मौरिशस फीजी सूरीनाम में बिहारी अनुबंधित मज़दूर, भारत में छोटानगपुर पठारी इलाकों के आदिवासी.... कितनी लंबी लिस्ट होगी । सांस फूलती है । लिस्ट फिर भी पूरा नहीं होगा । अंतहीन...
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मैं सच कहता हूँ , ये ज़मीन उस ज़मीन के वासियों की है और अगर आप पागलपन रोकना चाहते हैं तो पहले ज़मीन को बचाईये , बहुत देर हो जाये , उसके पहले । उन लोगों का कर्ज़ चुकाईये जिनकी ये ज़मीन है । याद रखिये इस गोरे देश का एक काला इतिहास है । ये भी याद रखिये कि यहाँ की लोक स्मृतियाँ क्या हैं , यहाँ का समय , सपना क्या , यहाँ की संस्कृति क्या है । इतिहास कभी नहीं भूलता कि आप कहाँ से आये हैं । उन्होंने डाका डाला , बलात्कार किया , लूट खसोट की , इस ज़मीन को तहस नहस किया , ईश्वर और विज्ञान के नाम पर , भूल गये कि यहाँ लोग बसते थे । मेरा टोटेम , कुलचिन्ह सफेद वक्ष वाला चील है । मैं आदिवासी हूँ , शुद्ध आदिवासी और उस परियोजना का हिस्सेदार था जिसमें हमें गोरों के साथ समावेशित होना था । हम क्यों एक दूसरे के साथ भेदभाव करते हैं , कैसे करते हैं जबकि हम सब मनुष्य हैं ?
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दूर क्षितिज ने संवेदना के आँसू बहाये होंगे हमारे लोगों की बदहाली पर .. मेरे शब्द उन सितारों की तरह हैं जो कभी बदलते नहीं .... एक समय था जब हमारे लोग इस धरती पर ऐसे थे जैसे हवा से बहती लहर समन्दर के तल पर होती है .....
आपके देवता आपको मज़बूत बनाते हैं इतना कि वो पूरी धरती भर देंगे जबकि हमारे लोग एक कभी न लौटने वाले सिमटते हुये लहर की तरह तेज़ी से खत्म हो रहे हैं , गोरे लोगों का ईश्वर कभी हमारे लोगों को स्नेह नहीं दे सकता और न ही हमारी रक्षा कर सकता है । हम उन अनाथों की तरह हैं जिनका कोई सहारा नहीं है । फिर हम और गोरे भाई कैसे हो सकते हैं ? आपका इश्वर हमारा इश्वर कैसे हो सकता है , वो कैसे हमें समृद्ध कर सकता है और हमारे अंदर उन सपनों को फिर से जीवित कर सकता है जो हमें हमारी प्राचीन कीर्ति और ऊँचाई तक फिर ले जाये ?अगर हमारा एक ही ईश्वर है तो उसे निष्पक्ष होना होगा क्योंकि वह अपने गोरे बच्चों के पास गया , हमने तो उसे कभी देखा ही नहीं । उसने आपको कानून दिये लेकिन अपने रक्तवर्णी बच्चों के लिये उसके पास कहने को शब्द नहीं थे ? , उन लोगों के जो एक वक्त इस विशाल महाद्वीप में उस तरह फैले हुये थे जैसे तारे आसमान में । नहीं, हम दो प्रजाति के हैं , हमारे स्त्रोत और उत्पत्ति भिन्न हैं हमारी संस्कृति भिन्न है और हमारा विधान भिन्न है । हमारे बीच कोई समानता नहीं है ।
हमारे लिये हमारे पुरखों की अस्थि पवित्र है और जहाँ वो दफनाये गये हैं वो हमारे लिये प्रतिष्ठित स्थान है । आप अपने पुरखों के कब्र से दूर भटक चुके हैं और आपको उसका अफ़सोस तक नहीं है । आपका धर्म पत्थरों की शिला पर आपके ईश्वर की लौह उँगलियों द्वारा खुदा है ताकि आप भूल न पायें । हम रक्तवर्णी लोग इसे समझ नहीं पाते । हमारा धर्म हमारे पुरखों की विरसे में दी गई परम्परा है .. हमारे बुज़ुर्गों का स्वप्न है जो महान देवता ने उन्हें दिया रात्रि के उन गंभीर प्रहरों में , हमारी दिव्यदृष्टि और हमारे गुण चिन्ह ..जो अंकित हैं हमारे हृदयों में ।
इस धरती का हर कण हमारे लिये पवित्र है । हर पहाड़ हर तराई , हर मैदान , हर वन उपवन किसी न किसी सुख या दुख की घटना की छाप अपने अंदर समेटे है , उन दिनों की स्मृति जो अब बीत चुकीं । वो पहाड़ जो कड़ी धूप में मौन खड़े हैं शाँत तटों के संग संग, सब उन स्मृतियों से गूँजते हैं जो हमारे लोगों ने जीये थे , और वो धूल जिसपर आज आप खड़े हैं वो हमारे पदचापों को को ऐसा स्नेह देता है जो आपने कभी महसूस नहीं किया होगा क्योंकि वो धूलमिट्टी हमारे पुरखों के रक्त से अमीर हुई है । हमारे नंगे पाँव धरती की सँवेदना महसूस करते हैं । हमारे शहीद हुये वीर, हमारी प्यारी माएं, हमेशा हंसती रहनेवाली लड़कियाँ और वो नन्हें बच्चे जो यहाँ एक ऋतु जीये और उल्लसित रहे , वो इस नितांत अकेलेपन को दुलार देंगे और सँधि वेला में उन लौटती छायायों सी आत्माओं का स्वागत करेंगे । और जब हमारे वंश का अंतिम व्यकि नष्ट होगा और हमारे कबीले की स्मृति आपकी याद में एक मिथक मात्र रह जायेगी , तब इन तटों पर हमारे अदृश्य मृत विचरेंगे , और जब आपके बच्चों के बच्चे इन खेतों खलिहानों , इन सड़कों और दुकानों , इन मौन बीहड़ जँगलों में सोचेंगे अपने आप को अकेले, तब वो अकेले नहीं होंगे । इस धरती पर कोई स्थान ऐसा नहीं होगा जो एकांत के लिये समर्पित होगा । रात को जब आपके गली मुहल्लों में शाँति होगी और आप समझेंगे कि सब निर्जन है तब वो हमारे उन मृतात्माओं से भरा होगा जो कभी यहाँ जीये थे और जो इस भूमि से अटूट मोहब्बत करते थे , तब भी करेंगे । गोरे लोग कभी भी अकेले नहीं होंगे । वो न्यायप्रिय हों और उदार हों , हमारे लोगों के साथ क्योंकि मृतत्मायें शक्तिविहीन नहीं होतीं । मृत ! मैंने कहा ? यहाँ मृत्यु कुछ नहीं होता सिर्फ एक संसार से दूसरे संसार में बदलाव होता है ।
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पूरे देश में आदिवासियों को अपने वनभूमि अपनी अजीविका से बेदखल किया जा रहा है । विकास के नाम पर अपनी जीवन पद्धति से मरहूम किया जा रहा है । बाँध , कारखाने , खदान , खनन , सेज़ ..हर बार आदिवासियों की ज़मीन है जिसे झपट लिया जाता है । आदिवासी अब संगठित होने लगे हैं । मुथंगा , केरल में जहाँ वो तीरधनुष से लैस सामने आये और लालगढ़ जहाँ उनके पास कोई हथियार तक न था । थी सिर्फ लाठी और कुल्हाड़ी । तो ये सब सिर्फ सतही अभिव्यक्तियाँ हैं दशकों की निर्मम , निरंकुश सभ्य आक्रामकता के खिलाफ ।
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वृत्तचित्र निर्माता के.पी. ससी द्वारा एक जागृत कर देने वाला संगीत वीडियो यू ट्यूब पर है । यह एक छह मिनट का आदिवासियों की दुर्दशा का संक्षेपित मोंताज़ है जिसमें मुख्य नारा है 'हम अपनी जमीन नहीं देंगे, हम अपने जंगल नहीं देंगे, न ही हम अपना संघर्ष छोड़ेंगे। यह मुख्यधारा की पूंजीवादी विकास मॉडल की आलोचना है जिसने सिर्फ कुछ दशकों में ही उन जंगलों और नदियों को नष्ट कर दिया जिसे आदिवासियों और उनके पूर्वजों ने सदियों से संरक्षित कर रखा था । यह लगभग एक सुझाव देता है कि क्यों देश को एक आदिवासी के नजरिए से पुनर्विचार करना चाहिये अगर उसे खुद को बचाना है । इसे एक गान के रूप में आने वाले दिनों के बड़े संकेत के रूप में देखना चाहिये।
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सामाजिक मानवविज्ञानी वेरियर एल्विन, जो 1940 के दशक में गोंड बस्तर मरिया और मुंडा आदिवासियों के बीच में रहे थे और उनके जीवन और संस्कृतिक मूल्यों के बारे में इतना हृदय स्पर्शी विवरण लिखा था, उनकी अंतर्दृष्टि ने भी राष्ट्रीय चेतना पर कोई प्रभाव नहीं बनाया । एल्विन के श्रमसाध्य काम करने के बाद, कोई भी भारतीय शिक्षाविद ने इस विषय के विस्तार का काम नहीं चुना । यह काम महाश्वेता देवी और गनेश एन देवी जैसे साहित्यिक हस्तियों के लिए छोड़ दिया गया । चाईबासा रिसर्च सैंटर के विस्तृत अनुसंधान कार्य पर भी ध्यान नहीं दिया गया। राष्ट्र राज्य ने आदिवासियों के खिलाफ एक विरोधात्मक रुख अपना लिया जिसकी वजह से पूर्वोत्तर और छोटानगपुर के पठारी इलाकों के आदिवासी क्षेत्रों में सामूहिक असंतोष की लहर फैल गई । राज्य झारखंड और छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा की 1980 के दशक के आदिवासी संघर्षों को बेअसर करने में सफल हुई और उन्हें 'राष्ट्रीय' विकास के ढांचे में शामिल करने का प्रबंधन भी किया बावज़ूद इसके अभी भी एक वृहत संख्या उन गरीब शोषित प्राणियों की है जो हाशिये पर हैं और जिनके लिये इस दुर्दशा से निकलने का कोई अवलंब नहीं है ।
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अगर आप उन क्षेत्रों में कभी गये या आपने अखबारों और टीवी स्क्रीन पर देखा तो देखेंगे उनके चेहरे और शरीर .. कृश, दुर्बल, नंगे पांव, और चिथड़ों में । हज़ारों की तादाद में । किस अबूझ रसायन क्रिया द्वारा वे राष्ट्र या बंगीय वाम (लालगढ़ के संदर्भ में ) के दुश्मन घोषित हो गये ? क्या गरीब सर्वहारा वर्ग के विचार में फिट नहीं है? अगर आप उनके लिए बात नहीं करते, तो माओवादी करेंगे । लेकिन उस दिन के लिए इंतजार मत करें जिस दिन वे खुद के लिए बात करना शुरू करेंगे क्योंकि तब वो सचमुच कोई और ही दिन होगा।
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अठारह सौ तीस में, अमेरिकी दक्षिणी भाग के अधिकांश मूल निवासी अमेरिकियों को मिसिसिपी नदी के पश्चिम में उनके स्वदेश से हटा कर विस्थापित कर दिया गया इसलिये कि संयुक्त राज्य अमेरिका से यूरोपीय मूल के अमेरिकी विस्तार को समायोजित करना था । कुछ समूह रह गये अलबामा, फ्लोरिडा, लुइसियाना, मिसिसिपी, उत्तरी केरोलिना, और टेनेसी में ।
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पुलिसकर्मी मरते हैं , नक्सल मरते हैं, गाँव वाले गरीब आदिवासी मरते हैं । जो पुलिसकर्मी मरे हैं वो भी उतने ही शिकार हैं सरकारी नितियों के जितने की अन्य । सरकार और निगमों के लिये वो भी उतने ही नगण्य हैं जितने कि आदिवासी । डिस्पेंसेबल । क्योंकि यहाँ खेल बहुत बड़ा है , इस खेल की बाह्य भूमिका रचने के लिये ये सब छोटे मोहरे हैं , गिरते रहेंगे ।
सरकार के भारी अन्याय के प्रतिकार में किया गये आंदोलन को उसके समकक्ष रखना जो अन्याय को लागू कर रहा है , बेतुका है । अहिंसक प्रतिरोध के सब दरवाज़े क्यों बन्द किये गये ? जब आमजन हिंसा की तरफ अग्रसर होते हैं तब हर किस्म की हिंसा सँभव बनाई जाती है , क्रांतिकारी , आपराधिक , दहशतगर्दी , गुँडागर्दी। ऐसी राक्षसी स्थितियों के लिये कौन ज़िम्मेदार है ?
सलवा जुड़ुम और नक्सल , इनके बीच आदिवासी .. जिनके लिये कोई रिकोर्स कहीं नहीं है।
बिना ज़मीन जंगल पानी के ..हम कहाँ जायें ..मछली मर गई , पंछी उड़ गई , जाने कहाँ कहाँ ....
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हाल ही में भारत में ग्रामीण विकास मंत्रालय की रिपोर्ट जारी हुई जो छत्तीसगढ़ के भीतरी प्रदेश के अधिग्रहण का दोष सरकार और टाटा और एस्सार जैसी कंपनियों को देती है । यह रिपोर्ट दावा करती है कि यह ज़मीन की सबसे बड़ी हड़प है कोलंबस के बाद । और यह महज इत्तेफाक नहीं है कि भारत का खनन गढ़ माओवादी गढ़ भी है ।
कर्नाटक में रेड्डी बंधुओं के कारनामों‘ पर हमारी कोई नज़र है ? हम चाहें उससे भविष्य का एक सबक ले सकते हैं, लेकिन सबक लेने की हमारी आदत है ?
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1885 और 1969 तक के वर्षों में आदिवासी बच्चों को उनके परिवारों से अलग ले जाया गया घरेलू नौकरों के रूप में काम करने के लिए और सफेद लोगों के सरकार द्वारा नियंत्रित मिशनों और भंडार पर रहने के लिये। यह सफेद ऑस्ट्रेलिया के शर्मनाक इतिहास की दास्तान है। न्यू साउथ वेल्स राज्य में आदिवासी जनजातियों को अपने आदिवासी भूमि छोड़ने के लिए मजबूर किया गया और सरकार नियंत्रित सुरक्षित क्षेत्रों में खदेड़ दिया गया । आमतौर पर सफेद सेटलर्स द्वारा माना जाता था कि आदिवासी जल्द ही लुप्त हो जायेंगे और आरक्षित भूमि बेचा जाएगा और खेती के लिए इस्तेमाल किया जायेगा ।
जब यह स्पष्ट हो गया कि आदिवासी खत्म नहीं होंगे तब संरक्षण बोर्ड ने सभी आदिवासी समुदायों को तोड़ने का फैसला किया। उनकी ज़मीन नव कृषि के लिए यूरोप पहुंचे लोगों को बेचा गया । बोर्ड ने आदिवासियों से उनके भूमि संबधित सभी अधिकार छीन लिये । उनका न सिर्फ अपनी ज़मीन पर से बल्कि सभी चीज़ों पर से स्वामित्व खत्म कर दिया गया । आरक्षित क्षेत्र आदिवासी बच्चों को नौकर बनने के प्रशिक्षण केन्द्र बन कर रह गया । बच्चों को उनके परिवार से हटा कर उनके सफेद मालिकों के नियंत्रण में रख दिया गया । और इस तरह ये हटाये गये बच्चे फिर दोबारा कभी घर नहीं लौटे ।
बीसवीं सदी के मध्य में, आदिवासी आटा, चीनी और चाय के बदले काम कर रहे थे , उत्तरी, मध्य और पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया के पशु स्टेशनों पर। आदिवासी महिलायें स्टेशनों पर अक्सर पुरुषों की तुलना में अधिक कठिन काम कर रही थीं । पुरुष मवेशियों के साथ काम कर रहे थे ।महिलाओं न सिर्फ घरेलू काम जैसे खाना पकाना , सफाई, धुलाई, और बच्चों की देखभाल बल्कि बाहर के काम भी जैसे पशुओं चालकों के रूप में , ऊँट की टीमों के साथ, चरवाहे के रूप में, सड़क मरम्मत, पानी वाहक, घर बिल्डरों, और माली के रूप में भी कर रहीं थीं । अगर वे भागने की कोशिश करते उन्हें पकड़ लिया जाता और निर्ममता से पीटा जाता ।
जनजाति मूल के बच्चों को ज़बरदस्ती हटाने का काम ऑस्ट्रेलिया के हर राज्य और क्षेत्र में हुआ ।बच्चों की जुदाई 1885 में विक्टोरिया और न्यू साउथ वेल्स में शुरू हुई और, कुछ राज्यों में, 1970 तक बंद नहीं किया गया। 85% आदिवासी परिवार इस योजना से किसी न किसी तरह से प्रभावित हुये । न्यू साउथ वेल्स में 1885 से 1996 तक आठ हज़ार बच्चों को उनके परिवार से अलग किया गया ।
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प्रश्न: नक्सली सहानुभूति रखने वाले को परिभाषित करें
जवाब: एक व्यक्ति जो आदिवासियों को मुफ्त स्वास्थ्य सेवा प्रदान करता है, उनको आश्रय देनेके लिए आश्रम खोलता है, उन बैठकों में शिरकत करता हैं जहाँ नक्सल युद्ध में मारे लोगों के रिश्तेदारों का सम्मान होता है आपरेशन ग्रीनहंट पर स्वतंत्र जांच आयोजित करता है , उदाहरण के लिए, बिनायक सेन, हिमांशु कुमार, संदीप पांडे, नंदिनी सुन्दर
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जनजातीय समय सपना धरती के अस्तित्व को गाती हैं । आदिवासी और भूमि एक है । धरती को गाने से ही धरती का अस्तित्व है , पहाड़ का , रास्तों का ...
आदिवासी निर्माण मिथकों में वे पौराणिक प्राणी है जो स्वप्न समय में महाद्वीप पर फिरते थे गाते थे सभी उन चीज़ों को जो उनके सामने आते , पक्षी , जानवर , पौधे, चट्टान,पानी , और इन्ही गीतों से संसार का जन्म हुआ
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मैंने पहले कहा था पहाड़, जंगल, आदिम जीवन के ढेरों ‘नैरेटिव्स’ हैं, प्रताड़ना, तिरस्कार, घेराबंदी करके अमानवीयीकरण के यंत्रणाकारी किस्से, हम भूले नहीं उन्हें, उनकी रौशनी में भविष्य की तैयारी करें । अगर समाज और जीवन को हम सफेद और काले के विभाजन में नहीं देखते , इतिहास और सभ्यता से अगर सीखना चाहते हैं । अंतत: सवाल यही बनता है कि सीखना चाहते हैं ? लोकतंत्र को उसकी समूची गरिमा में इज्जत देने का नैतिक बल रखते हैं?
साभार
सदानंद मेनन का लेख
अबॉरिजिनल चिल्रेन ,”अ लॉस्ट जेनेरेशन “ रेबेका बर्क और ट्रेसी ले
तुम्हें याद है गर्मी की दोपहरी खेलते रहे ताश, पीते रहे नींबू पानी, सिगरेट के उठते धूँए के पार उडाते रहे दिन खर्चते रहे पल और फिर किया हिसाब गिना उँगलियों पर और हँस पडे बेफिक्री से
तब , हमारे पास समय बहुत था
***
सिगरेट के टुकडे, कश पर कश तुम्हारा ज़रा सा झुक कर तल्लीनता से
हथेलियों के ओट लेकर सिगरेट सुलगाना
मैं भी देखती रहती हूँ शायद खुद भी ज़रा सा
सुलग जाती हूँ
फिर कैसे कहूँ तुमसे धूम्रपान निषेध है
***
तुम्हारी उँगलियों से आती है एक अजीब सी खुशबू, थोडा सा धूँआ थोडी सी बारिश थोडी सी गीली मिट्टी , मैं बनाती हूँ एक कच्चा घडा उनसे क्या तुम उसमें रोपोगे गेहूँ की बाली ?
***
सुनो ! आज कुछ
फूल उग आये हैं खर पतवार को बेधकर हरे कच फूल क्या तुम उनमें खुशबू भरोगे
भरोगे उनमें थोडी सी बारिश थोडा सा धूँआ थोडी सी गीली मिट्टी
***
अब , हमारे पास
समय कम है, कितने उतावले हो कितने बेकल पर रुको न धूँए की खुशबू तुम्हें भी आती है न गीली मिट्टी की सुगंध तुमतक पहुँचती है न
कोई फूल तुम तक भी खिला है न
***
जाने भी दो आज का ये फूल सिर्फ मेरा है आज की ये गेहूँ की बाली सिर्फ मेरी है इनकी खुशबू मेरी है इनका हरैंधा स्वाद भी
मेरा ही है
आज का ये दिन मेरा है, तुम अब भी झुककर पूरी तल्लीनता से सिगरेट सुलगा रहे हो मैं फिर थोडी सी सुलग जाती हूँ.
*** *** ***
हरी फसल, सपने मैं और तुम
हम सडक पार करते थे हम बात करते थे तुम कह रहे थे मैं सुन रही थी तुम सडक देखते थे मैं तुम्हें देखती थी
फिर तुमने हाथ थाम कर मुझे कर दिया दूसरे ओर
तुम्हारी तरफ गाडी आती थी
तुम बात करते रहे मैं तुम्हें देखती रही
राख में फूल खिलते रहे गुलाबी गुलाबी
***
तुम निवाले बनाते मुझे खिलाते रहे तुम ठंडे पानी में मेरा पैर अपने पाँवों पर रखते रहे तुम मुझे सडक पार कराते रहे
तुम मुझे गहरी नींद में चादर ओढाते रहे
मैं मिट्टी का घरौंदा बनती रही मैं खेत की मिट्टी बनती रही
मैं हरी फसल बनती रही
मैं सपने देखती रही मैं सपने देखते रही
*** *** ***
नीम का पेड , सोंधी रोटी..मैं और तुम
नीम के पेड के नीचे कितनी निबौरियाँ कभी चखा उन्हें तुमने ? नहीं न कडवाहट का भी एक स्वाद होता है मैं जानती हूँ न
तुम भी तो जानते हो
***
हम बात करते रहे अनवरत, अनवरत कभी मीठी , कभी कडवी सच !
उनका भी एक स्वाद होता है न
***
बीत जायें कितने साल जीभ पर कुछ पुराना स्वाद अब भी
तैरता है
तुम्हारी उँगली का स्वाद नीम की निबौरी का स्वाद अनवरत बात का स्वाद !
***
जंगल रात आदिम गंध, मैं पकाती हूँ लकडियों के आग पर मोटे बाजरे की रोटी निवाला निवाला खिलाती हूँ तुम्हें
मेरी उँगली का स्वाद, सोंधी रोटी का स्वाद मीठे पानी का स्वाद.
***
परछाईं नृत्य करती है मिट्टी की दीवार पर, तुम्हारे शरीर से फूटती है,
गंध ,रोटी का स्वाद नीम की निबौरी का स्वाद मेरी उँगली का स्वाद
***
मैंने काढे हैं बेल बूटे, चादर पर हर साल साथ का एक बूटा, एक पत्ता फिर भरा है उनमें हमारी गंध, हमारी खुशबू हमारा साथ हमारी हँसी, आओ अब इस चादर पर लेटें साथ साथ साथ साथ
*** *** ***
मैं और तुम..हम
तुम और हम और हमारे बीच डोलती ये अंगडाई, आज भी .....
कल ही तो था और कल भी रहेगा
***
स्पर्श के बेईंतहा फूल मेरी तुम्हारी हथेली पर, कुछ चुन कर खोंस लूँ बालों में
कानों के पीछे
***
टाँक लूँ तुम्हारी हँसी अपने होठों पर , कैद कर लूँ तुम्हें फिर अपनी बाँहों में ?
***
तुम्हारे सब जवाबों का इंतज़ार करूँ ?
या मान लूँ जो मुझे मानना हो , सुन लूँ जो मुझे सुनना हो
***
ढलक गये बालों को समेट दोगे तुम ?मेरी हथेलियों पर अपना नाम
लिख दोगे तुम ?
***
मेरे तलवों पर तुम्हारे सफर का अंश क्या देखा तुमने , मेरे चेहरे पर अपने सुख की रौशनी तो
देख ली न तुमने
***
मैं क्या और तुम क्या , मेरा और तुम्हारा नाम मेरी याद में गडमड हो जाता क्यों
क्या इसलिये कि अब हम सिर्फ हम हैं ?
सिर्फ हम
*** *** ***
हम
एक फूल खिला था कुछ सफेद कुछ गुलाबी , एक ही फूल खिला था फिर ऐसा क्यों लगा
कि मैं सुगंध से अचेत सी हो गई
***
मेरी एडियों दहक गई थीं लाल, उस स्पर्श का चिन्ह , कितने नीले निशान , फूल ही फूल
पूरे शरीर पर
सृष्टि , सृष्टि कहाँ हो तुम ?
***
कहाँ कहाँ भटकूँ , रूखे बाल कानों के पीछे समेटूँ कैसे ?
मेरे हाथ तो तुमने थाम रखे हैं
***
मेरे नाखून, तुम्हारी कलाई में , दो बून्द खून के धीरे से खिल जाते हैं ,तुम्हारे भी
कलाई पर
अब ,हम तुम हो गये बराबर , एक जैसे फूल खिलें हैं
दोनों तरफ
***
आवाज़ अब भी आ रही है कहीं नेपथ्य से , मैं सुन सकती हूँ तुम्हें
और शायद खुद को भी , मैं चख सकती हूँ , तुम्हें और शायद अपने को भी
लेकिन इसके परे ? एक चीख है क्या मेरी ही क्या ?
***
न न न अब मैं कुछ महसूस नहीं कर सकती , एहसास के परे भी
कोई एहसास होता है क्या