skip to main |
skip to sidebar
ये तस्वीर है मेरे भतीजे दिव्यांश की । इसे हम प्यार से दिवि पुकारते हैं । दिवि महाराज ने हाल में ही प्री स्कूल जाना शुरु किया है । ये सिंगापुर में रहते हैं ।
ये तस्वीर ली गई उनके स्कूल के कंसर्ट वाले प्रोगराम से जहाँ वो मधुमक्खी बने थे । दायीं ओर वाला बच्चा दिवि है । अब आप बताइये जब मधुमक्खी इतनी सुंदर है तो फूल कितने सुंदर होंगे ।
ओ मधुमक्खी
कितने फूल देखे
कितनी वादियाँ घूमे
आओ अब सुस्ता लो
बैठो कुछ पल
और हँसो
हँसो कि
हम भी खुश हो लें
हँसों कि
हम भी
मुस्कुरा लें
कि हम भी
घूम लें तुम्हारे संग
फूलों भरी वादियों में
हर्षिल को खेल में ज्यादा रुचि है । कला से उसका दूर दूर का भी नाता नहीं । दूसरी ओर पाखी नृत्य ,संगीत और चित्रकारी में खूब रुचि रखती है । दोनों बच्चे बिलकुल विपरीत रुचि वाले । अचानक एक दिन पाखी ने भैया की शिकायत करते हुये कहा कि वो पढाई नहीं करता सिर्फ पढने के वक्त फोटोज़ बनाता रहता है । इसे हमने भाई बहन के बीच की लडाई का एक नमूना समझा । आखिर हर्षिल से ऐसी कोई उम्मीद नहीं थी । एक सीधी रेखा तो वो खींच नहीं पाता । हर प्रोजेक्ट में आकर मिन्नते करता है मुझसे कि कोई ड्राईंग मैं बना दूँ ।
पर पाखी की बात सही थी । गणित की पुस्तक को एकदिन मैं उसे पढाने की नीयत से पलट रही थी कि पिछले पन्नों पर मुझे ये दिखा ।
और ये
हरेक चेहरे पर अलग भाव भंगिमा । बडा बरीक काम था । हर्षिल से इतनी तन्मयता की अपेक्षा मैंने नहीं की थी । पर मैं गलत साबित हुई ।
फिर पिछले दिनों उसे तीरंदाज़ी का शौक चर्राया । स्कूल के कोच ने कहा अच्छा करता है । हमने बहुत ना नुकुर के बाद उसे चंडीगढ भेजा जहाँ उसे चुना गया हरयाणा का प्रतिनिधित्व करने को राष्ट्रीय तीरंदाज़ी प्रतियोगिता में । जिस लडके में एकाग्रता की बेहद कमी थी वही पूरी एकाग्रता से तीरंदाज़ी कर रहा है । आगे वो जीते या न जीते , एक बात हमें सीखा गया कि किसी भी बच्चे में कोई क्षमता ऐसी होती है जिसे माता पिता भी कई बार नहीं पहचान पाते ।
बस यही उम्मीद रखती हूँ कि ऐसी ही एकाग्रता से वो अपने सभी काम करे ।
पिछले दिनों हमारे कार्यालय द्वारा बच्चों के लिये करियर काउंसेलिंग की एक कार्यशाला अयोजित की गई थी । वहाँ से लौट कर मैंने हर्षिल से पूछा ,
“ तुम्हारा लक्ष्य क्या है ?”
( अभी अभी एक सेशन सुन कर आये थे तो कुछ देर तक तो असर लाजिमी था )
उसने जवाब दिया ,
“ मैं एक अच्छा इंजीनियर बनना चाहता हूँ “
मैं ‘अच्छे ‘ पर खुश हुई । सिर्फ इंजीनीयर भी कह सकता था । मैंने पूछा ,
“ और ? “
” मैं एक सानंद इंसान (हैप्पी पर्सन ) बनना चाहता हूँ “
मुझे लगा कि लडका सही रास्ते जा रहा है ।
ऊन के गोले
गिरते हैं खाटों के नीचे
सलाईयाँ करती हैं गुपचुप
कोई बातें
पीते हैं धूप को जैसे
चाय की हो चुस्की
दिन को कोई कह दे
कुछ देर और ठहर ले
इस अलसाते पल को
कुछ और ज़रा पी लें
जिन्दगी के लम्हे
कुछ देर और जी लें
माथे पर सुहाग सूरज चमकता है
नाक के नकबेसर का स्वर्ण सूरज दिपता है हथेलियों पर लाल सूरज दमकता है दोनों हथेलियों से मैं आँखों को छूती हूँआँखों में स्वप्न सूरज महकता हैमिट्टी के दीयों से आँगन को भरती हूँ मन आँगन में दीप सूरज जलता हैलीपे हुये आँगन में रँगोली सजाती हूँहृदय सागर में फूल सूरज खिलता हैरोली अक्षत चंदन से आराध्य को पूजती हूँघर घर में पावन दीप पर्व मनता हैहर्ष उल्लास छलकता हैघरबार जगमगाता है लाल सूरज हँसता हैशुभ दीपावली !!!
पुस्तक का नाम - चाँदनी बेगम
लेखिका - कुर्रतुलएन हैदर
प्रकाशक - भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन
मूल्य - १६० रुपये
भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित उर्दु की महान कथाकार कुर्रतुलएन हैदर का उपन्यास "चाँदनी बेगम" कथ्य और शिल्प के स्तर पर एक ऐसा प्रतीकात्मक उपन्यास है जिसके कई कई पहलू हैं, और कथानक के धागे में समर्थ कथाकार ने सबको इस तरह पिरोया है कि किसी को अलग करके नहीं देखा जा सकता । उपन्यास के केन्द्र में है ज़मीन की मिल्कियत की ज़द्दोज़हद, यानि लखनऊ की 'रेडरोज़' की कोठी और उसके इर्दगिर्द रचे बसे बदलते समाज तथा रिश्तों और चरित्रों की रंगारंग तस्वीरें । इन्सानी बेबसी की इतनी जानदार और सच्ची अभिव्यक्ति इस उपन्यास में है कि चरित्रों के साथ पाठक का एक हमदर्द जुडाव हो जाता है ।
भाषा की दृष्टि से भी चाँदनी बेगम बेजोड़ है और लेखिका ने कहानी और माहौल के हिसाब से इसका बेहद खूबसूरती के साथ इस्तेमाल किया है । समूचे उपन्यास में एक ओर जहाँ आमलोगों की बोली बानी में पूर्वी और पश्चिमी उर्दू के साथ अवधी , भोजपुरी और पछाँही हिन्दी है , वहीं साहित्यिक लखनवी उर्दु की भी छटायें हैं ।नतीजतन उपन्यास का सारा परिवेश पाठक के दिलोदिमाग पर सहज ही अपनी अमिट छाप बनाता है ।
चाँदनी बेगम कहानी है रेडरोज़ के मालिक कँबर अली की जिनका ब्याह चाँदनी बेगम से तय होता है पर निकाह करते हैं सनूबर फ़िल्म कंपनी की चँबेली बेगम और गीतकार आई बी मोगरा की अहली शाहकार बेटी बेला रानी शोख से । कहानी साथ साथ चलती है तीनकटोरी हाउस की , जरीना उर्फ़ जेनी , परवीन उर्फ़ पेनी और सफ़िया की जिनके लिये कँबर मियाँ पार बसने वाले हीरो थे , बकौल लेखिका 'जानलेवा रोमांस'और जिन्हें बाद में आवाज़ें सुनाई पड़नी लगी थीं 'लिटिल सर ईको' की ।पात्रों के नाम आपको दूसरी दुनिया में ले जायेंगे , चकोतरा गढ़्वाली,( जो सनूबर फ़िलम कंपनी के लिये गीत लिखते लिखते उत्तराखंड से माउन्टेन गॉड बन कर लौटे) खुशकदम बुआ , इलायची खानम ,परीज़ादा गुलाब , बहार फ़ूलपुरी , मुंशी सोख्ता । कहानी लखनऊ से बम्बईया फ़िल्मी , पारसी , पूर्बी ,हिन्दू मुस्लिम सस्कृति , भाषा , बोली पहनावा को अपने विशाल कैनवस मे समेटते चली है। यहाँ तक की रेडरोज़ कोठी जल जाने के बाद उपन्यास के अंत में कहा जाता है ,
"आज वहाँ महादेव गढ़ी का मेला हुइहै , कँबर भैयावाले मंदिर में"।या फ़िर,
"सुनो , इन्सान की पाँच मंजिलें हैं । पहले वो रोमांटिक होता है ,फ़िर इन्कलाबी, फ़िर कौमपरस्त फ़िर कट्टर मज़हबपरस्त या फ़िर सूफ़ी या कुनूती (निराशावादी) या फ़िलूती ( एक मिस्री लेखक ) अल मनफ़िलूती " या ,
" छुट्टा पाजामा । खड़ा पाईँचा । यह तो पहले लौंडियों बांदियों का पहनावा था । मिलकियाने में घुर्सव्वा "।नूरन ने जवाब दिया ।"मिलकियाना कहाँ है ?""मिलकियाना ...बिटिया जैसे आपलोग , अमीर लोग ""मुमानी दुल्हन आप मेरे लिये घुर्सव्वा बनवा देंगी ?""ज़रूर । माही पुश्त ? कुहनी की गोट ? गलोरी चटापटी"।
भाषा की खूबसूरती से पूरा उपन्यास अटा पड़ा है । कुछ व्यंग सामाजिक मूल्यों पर , "इंग्लिश मीडीयम स्कूल अगर कान्वेन्ट न कहलायें तो लोग अपने बच्चे नहीं भेजते । अब तो यहाँ दुर्गादास कान्वेन्ट और अब्राहम लिंकन कान्वेन्ट भी खुल गये हैं । कराची में परवीन बाजी की चचेरी ननद ने स्कूल खोला है पाक कान्वेन्ट " या फ़िर"वह बड़ी मासूम जेनेरेशन थी , सहेलियों को बुलाकर दिलीपकुमार की सालगिरह मनाती थीं"
इस उपन्यास में उच्च वर्ग का ग्लैमर भरा जीवन , अतीत की स्वप्नीली खूबसूरत यादें , रिश्तों के टूटने , खानदानों के बिखरने और अतीत के उत्कृष्ट मानवीय मूल्यों के चूर चूर हो जाने का बेहद सूक्ष्म चित्रण है।
तो लब्बोलुबाब ये कि किताब पढिये , एक दूसरी दुनिया में खींच कर ले जायेगी ।
लेखिका के विषय में
ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित और साहित्य अकादमी की 'फ़ेलो' , उर्दु की महान कथाकार कुर्रतुलएन हैदर को साहित्यिक सृजनात्मकता विरासत में मिली । उनके पिता सज्जाद हैदर यल्दराम और माँ नज़र सज्जाद हैदर दोनों ही उर्दू के विख्यात लेखक थे ।उनके क्लासिक उपन्यास "आग का दरिया " का जिस धूमधाम से स्वागत हुआ था उसकी गूँज आज तक सुनाई पड़ती है ।उनके उपन्यास सामान्यत: हमारे लम्बे इतिहास की पृष्ठभूमि में आधुनिक जीवन की जटिल परिस्थितियों को अपने में समाते हुये समय के साथ बदलते मानव संबंधों के जीते जागते द्स्तावेज़ हैं ।इनकी रचनायें विभिन्न भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त अनेक विदेशी भाषाओं में भी अनुदित हो चुकीं हैं।
कुछ प्रकाशित कृतियाँ
मेरे भी सनमखानेसफ़ीन ए गम ए दिलआग का दरिया कारे जहाँ दराज़निशांत के सहयात्री ( आखिर ए शब के हमसफ़र )गर्दिशे रंगे चमनपतझड़ की आवाज़ सितारों से आगेशीशे का घरयह दाग दाग उजालाजहान ए दीगर (रिपोर्ताज़)
सम्मान कहानी पतझड़ की आवाज़ पर १९६७ का साहित्य अकादमी पुरस्कारअनुवाद के लिये सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार १९६९पद्मश्री १९८४गालिब मोदी अवार्ड १९८४इकबाल सम्मान १९८७ज्ञानपीठ पुरस्कार १९९१
(मेरी पसंदीदा किताबें ... गर्दिशे रंगे चमन , आखिर ए शब के हमसफ़र , सारी कहानियाँ , (आग का दरिया पढ़ना बाकी है ) , मतलब इनकी सभी किताबें ।)
बचपन में माँ की नानी को देखा था । बडी कडक और गुस्सेवर महिला थीं । सफेद साडी, पूरे आस्तीन का ब्लाउज़ , यही उनका पहनावा था । हुक्का पीतीं और याद आता है कि उनके शरीर से अजीब सी मीठी खुशबू आती रहती । हम सब बच्चे उनसे खूब डरते । मिलना बहुत कभी कभार किसी शादी ब्याह पर ही होता । मेरी नानी उनसे एकदम विपरीत स्वभाव की थी , शाँत और सौम्य । । हम जब छोटे ही थे तभी उनकी मृत्यु हो गयी । बाद में जब कुछ बडे हुये तब माँ से उनकी कहानी सुनी । हमारे बडे नाना जमींदार थे और उसी जमींदारी का ठसका बूढी नानी के व्यवहार में दिखता था । बाद में उनकी एकमात्र संतान यानि मेरी नानी बहुत ही कम उम्र में विधवा हो गईं और बूढी नानी ने ही अपने बलबूते पर अपनी बेटी और उनकी पाँच बेटियों और दो बेटों का संसार सुचारु रूप से चलाया ।
उनकी एक श्याम श्वेत तस्वीर थी जिसे देखकर मैंने ये पेंसिल स्केच बनाया था ।
अब आज समझ में आता है कि अकेले , बिना किसी पुरुष के सहारे के , किस तरह उन्होंने जमींदारी सँभाली होगी , अपनी बेटी को सँभाला होगा ।कितना साहस , कितना जीवट रहा होगा उनमें । बाद में नाती नातिनों और उनके भरे पूरे परिवार को देखकर कितना संतोष मिलता होगा । इस स्केच से उनकी धुँधली सी याद अब भी तरोताज़ा हो जाती है ।और कहीं ये विशवास भी उपजता है कि कोई बीज उनके साहस का , लगन का , हिम्मत का हमें भी . और आने वाली पीढी में भी पनपे , पले बढे और मजबूत हो ।