आज मैं शिक्षक दिवस पर किसी एक शिक्षक या शिक्षिका को याद नहीं कर रही । वैसे पूरे अध्ययनकाल में ऐसे कई शिक्षक मिले जिनका बहुत प्रभाव रहा जीवनमूल्यों पर । आज मैं याद कर रही हूँ अपने स्कूल को ।
पढाई की शुरुआत मेरी डालटनगंज में हुई । पहली कक्षा की पढाई वहीं के एक स्कूल "आनंदमार्ग" में हुई । वहाँ का कुछ भी याद नहीं बस ये कि कोई सांस्कृतिक कार्यक्रम था जिसमें मुझे एक विशाल कागज के कमल के फूल के अंदर से निकलना था और उस फूल का गुलाबी रंग मेरे उजले कपडों पर लग गया था । उसके बाद हम राँची चले आये और कक्षा दो से लेकर दसवीं तक खूँटी के पास सेकरेड हार्ट स्कूल में पढते रहे । स्कूल बेहद सुन्दर था । राँची के HEC इलाके से खूँटी की ओर एक गाँव था हुलहुंडू , ये स्कूल वहीं पर एक विशाल कैम्पस में "आवर लेडी फातिमा , सिस्टर्स ऑफ चैरिटी " द्वारा चलाया जाता था । स्कूल के अलावा चर्च और एक डिस्पेंसरी भी था जो वहाँ के आदिवासियों के लिये चलाया जाता था ।
फलों के बगीचे , खेत , एक ओर डिस्पेंसरी , एक और छोटा स्कूल गाँव की लडकियों के लिये सेंट जोसेफ और लडकों के लिये सेंट जॉन, बीच में नन्स के रहने का हॉस्टल , हॉस्टल में एक छोटा चैपेल ,कुछ दूरी पर बडा चर्च । सारी इमारतें लाल ईंट की सफेद धारी वाली । स्कूल के ठीक सामने जहाँ असेम्बली होती थी वहाँ खूब चौडी घुमावदार सीढी थी , बहुत ऊँची नहीं । इसके ठीक ऊपर मरियम की शिशु यिशू मसीह को गोद में लिये एक बडी सी मूर्ति । असेम्बली के समय इसी सीढी की लैंडिंग पर मदर सुपीरीयर हिल्डेगार्ड ( ये बेल्जियन थीं ) और प्रिसीपल, सिस्टर रोज़ेलिन खडी होतीं । बाकी सब टीचर्स सीढी के नीचे एक कतार से । सामने खूब बडा मैदान आम के पेडों से घिरा हुआ चौकोर टुकडा , जिसके अंत में एक समरहाउस था ( यहाँ हमारी सिक्रेट सेवेन तर्ज़ पर खुफिया मीटिंग्स होती दोपहर के खाने के बाद बचे थोडे समय में )। हर पेड के नीचे बैठने की सीमेंट की बेंच , जहाँ हम बैठकर अपना टिफिन खाते थे । सीढियों के एक तरफ एक बडा सा फव्वारा था जिसे चारों ओर पत्थर से बना एक गोल घेरा था जिसमें नल लगे हुये थे ढेर सारे । टिफिन खाने के बाद इन्हीं नलों से हम चुल्लु कर के पानी पीते थे । कक्षाओं के सामने चौडे चमकते हुये बरामदे थे जिनकी पत्थरों की रेलिंग के ऊपरी हिस्से में मिट्टी डालकर छोटे छोटे पौधे लगाये हुये थे , छोटे बैंगनी फूल शायद ट्वेल्व ओ क्लॉक फ्लावर जो बारह बजे के बाद मुर्झाने लगते थे ।
बरामदे और कक्षाओं के चमकते फर्श से याद आया उर्सुला और गोदलीपा दीदी को जो सफाई करती थीं । उर्सुला दीदी छोटी , नाटी , घुंघराले बालों वाली खूब हंसमुख आदिवासी महिला थी । गोदलीपा दीदी , लम्बी , पतली , तुरत नाराज़ होने वाली । कुछ गिरा देख कर बिगड जाती ।
कक्षा में खूब बडी खिडकियाँ दो ओर । बरामदे वाली खिडकियों के नीचे कबर्डस , बैग रखने के लिये । कक्षा में घुसते ही हमें अपनी किताबें बैग से निकालकर डेस्क में जमा लेना होता । अंतिम काम ,कक्षा शाम को समाप्त होने पर ,बैग पैक करना होता । ब्लैकबोर्ड के ऊपर ईसा मसीह की सलीब पर लटकी छोटी मूर्ति हर क्लास में ।मिशनरी स्कूल में पढने का ये फायदा हुआ कि क्रिश्चियन धर्म के बारे में बहुत कुछ पता चला । कई बार फ्री पीरीयड में सिस्टर सुशीला बाईबल की कहानियाँ किसी किताब से पढकर सुनातीं ।क्रिश्चियन लडकियाँ जब कैटेकिस्म के लिये जातीं तब हमारी मॉरल साईंस की क्लास लगती । कक्षाओं की ईमारत के बगल में एक ऑडिटोरियम था । स्टेज पर ग्रीनरूम को छुपाने के लिये कैनवस के विशाल छत को छूते दोनों ओर ,तीन तीन पेंटिग्स, जो नाटक मंचन के समय नेपथ्य का दृश्य बन जाते । उन विशाल कैंवस पर लहराते नारियल के पेड , पीछे दीवार पर सूर्यास्त का पेंटेड चित्र अब तक मन में ताज़ा हैं ।
मिशनरी स्कूल के फायदे नुकसान पर बहुत बहस हो सकती है पर मुझे लगता है कि कई ऐसी चीज़ें अपने में आत्मसात की जो सिस्टर्स की देन है । नैतिक मूल्य ,सही गलत की समझ , एक मूलभूत नैतिक आधार , ये भी उन्ही नन्स की देन है । एक और चीज़ जो ध्यान में आती है वो ये कि मदर हमेशा लंच के समय सामने वाले मैदान में चक्कर लगातीं और गिरी हुई कोई भी चीज़ उठाकर बिना हमलोगों को डाँटे कूडेदान में डालती जातीं । तब हम हँसते , खुसुर फुसुर करते । अब मजाल है कि कभी कोई चीज़ मैं सडक पर ऐसे ही फेंक दूँ । कूडेदान तलाशती हूँ । कई बार तो वापस घर तक भी लेकर आई हूँ अगर कोई सही जगह नहीं दिखाई दी है फेंकने के लिये । बच्चे अभी कुडबुडाते हैं मेरी इस आदत पर , डाँट भी सुन जाते हैं ऐसे ही कभी कुछ इधर उधर फेंक देने पर । पर शायद बडे होने पर सफाई उनकी आदत में शुमार हो जाये । मदर का वात्सल्य से भरा चेहरा मुझे याद आता है । मेरे बच्चों के मैं याद आऊँगी ।
सिस्टर्स की एक और बात जो मुझे अब भी कहीं गहरे छूती है वो ये कि उन्हें अपने बहुत से छात्र हमेशा याद रहे । मेरा छोटा भाई अभिषेक कक्षा 1 तक सेकरेड हार्ट में पढा ।उसके बाद सेंट ज़ेवियर और फिर नेतरहाट चला गया । ICSE के बाद एक दिन जब मैं अपनी स्कूल लीवींग सर्टिफिकेट लेने गई तो सिस्टर टेस्सा जिन्हे प्रिंसिपल के तौर पर स्कूल में आये सिर्फ साल भर हुआ था , उन्होंने मेरे भविष्य की योजनायें पूछने के बाद अचानक पूछा कि अभिषेक कैसा है ? मैं हैरान । इन्हें मेरे भाई के बारे में कैसे पता जिसे स्कूल छोडे अरसा बीता , जिसे उन्होंने कभी नहीं देखा । मेरे हैरान चेहरे को देखकर सिस्टर टेस्सा हँसी थीं फिर कहा था कि कुछ दिन पहले सिस्टर साईमन उन्हें मिली थी जिन्होंने मेरे भाई को पढाया था । मैं भाई को हँसी से कहती कि मेरे वजह से उसे भी याद रखा गया
( मैं पढाई में हमेशा अव्वल रही और ICSE में मेरिट सर्टिफिकेट शिक्षा मंत्रालय , भारत सरकार से भी मिला ) खैर , बात जो भी रही हो सिस्टर्स की छात्रों के प्रति प्रतिबद्धता का ये जीता जागता उदाहरण है ।
स्कूल छूटे अरसा बीता , युग बीता । फिर भी आँखों के सामने लाल ईंटॉं की इमारत , सिस्टर्स , शिक्षिकायें सब ऐसे याद आते हैं जैसे कल की ही बात हो ।
एक वाटर कलर फूलों का बहुत पहले बनाया हुआ