12/05/2006

निर्मल वर्मा की रचनाओं का माया दर्पण

अभी हाल में निर्मल वर्मा की 'एक चिथडा सुख' पढी । दोबारा पढने के लिये सहेज कर रखा है । इसकी समीक्षा लिखने की सोच रही थी फिर याद आया कि उनपर एक लेख लिखा था जो शब्दाँजलि में छपा था । फिर से यहाँ डाल रही हूँ । कोशिश रहेगी कि अगले भाग में 'एक चिथडा सुख ' पर कुछ लिखूँ बाँटू ।



निर्मल वर्मा को पहली बार पढा जब स्कूल में थी । घर में किताबों की भरमार थी और मैं एक किताबी कीडा . जिस किताब पर हाथ लगता उसे पढ डालती . तो कई ऐसी किताबें भी उन दिनों पढी जो बडो के पढने की थी. ये बात और है कि अब बडे होने पर भी कई ऐसी किताबे पढती हूं जो बच्चो के लिये होती हैं.

खैर, जब उन दिनो उनको पढा था तब कई कहानियाँ समझ में नहीं आई थी. शायद कथा प्रधान नहीं थी . फ़िर बीच बीच में जब कभी उनकी कोई किताब हाथ लगी तो पढती गई और उनको पढने का आकर्षण प्रबल होता गया .उनकी एक किताब "लाल टीन की छत ", कालेज के ज़माने मे पढी थी . तब ऐसा लगा था कि कहीं बहुत दिल के पास पास की सारी बाते हैं. वो अनुभूति आज़ तक ताज़ा है.

निर्मल वर्मा का जन्म शिमला में हुआ था . उनकी कई कहानियां और उपन्यासों में पहाड के जीवन का छाप स्पष्ट दिखता है. बचपन की मनस्थिति का जो सहज चित्रण उनकी लेखनी मे दिखता है, कहीं से पाठक को खींच कर अपने बचपन में लौटा ले जाता है. उनके लेखन की सफ़लता शायद यही है.

साठ के दशक मे पूर्वी यूरोपिय देशो के प्रवास के दौरान लिखी गई कई कहानियाँ वहाँ के जीवन और प्रवासी ह्दय के अकेलेपन की पुकार को दर्शाता है. उनकी कुछ बेहद बारीकी से आँकी गई, खूबसूरत उदासी में लिप्त लँबी कहानियाँ और बेह्द उम्दा उपन्यास ,मन को मोह लेते हैं.खुद उनके शब्दो में ,

"लम्बी कहानियों के लिये मेरे भीतर कुछ वैसा ही त्रास भरा स्नेह रहा है, जैसा शायद उन माँओ का अपने बच्चों के लिये, जो बिना उसके चाहे लम्बे होते जाते हैं, जबकि उम्र मे छोटे ही रहते हैं"

उनकी कहानियों की दुनिया अपने आप में मुक्क्मल होती है, शान्त ठहरी हुई, कुछ सोचती हुई सी (रिफ़्लेकटिव ). शब्द अपनी जगह खुद निर्धारित करते हुये- बाहर की बजाय अंदर की तमाम तहों को परत दर परत खोलते हुये, एक बेचैन उदासी के साये में लिपटे, जैसे पुराने फोटोग्राफ़, जो उम्र के साथ पीले पड जाते हं, सीपीया रंगो में, और जिन्हे कभी आप यूँ ही देख लें तो तस्वीर मे बंद चेहरे आपको खीच कर उस समय और जगह पर ले जाये जिन्हे आप पोर पोर पर महसूस कर सके, जिसका तीखा उदास स्वाद आपको धीरे से सहला दे, आपकी चेतना को थपकी दे कर सुला दे.

अभी उनकी ग्यारह लंबी कहानियों का संग्रह पढ रही थी जब उनके निधन का खबर पढा."परिन्दे" , "अँधेरे में ", " पिछली गर्मियों में ", " बुखार ", "लन्दन की एक रात " .................

इन सब को एक बार पढा, फ़िर दोबारा और अब भी बगल के मेज़ पर पडा है. रात को कई बार बस बीच बीच से कहीं भी एक कहानी पढ लेती हूँ.

हाँ , मुझे लगता है, निर्मल वर्मा को पढने के लिये कोई उम्र नहीं होती. हर उम्र मे उनको पढने का मज़ा कुछ और होता है. कोई नया तह खुलता है फ़िर से,कोई नई मायावी दुनिया फ़िर आपको बुलाती है .

(अनूप जी से एक बार बात हो रही थी । तब उन्होंने ज़िक्र किया था कि उनके पास निर्मल वर्मा के साथ तस्वीरें हैं । ये उन्होंने भेजा था । तस्वीरों की कहानी ,आगे उनसे गुज़ारिश है , उनकी ज़ुबानी )

राकेश जी , अनूप जी , निर्मल जी

11/21/2006

मुझे आज भी गणित समझ नहीं आता

मुझे बचपन से गणित समझ नहीं आता
जब छोटी थी तब भी नहीं
और आज जब बड़ी हो गई हूँ
तब भी नहीं

कक्षा में पढ़ाया जाता गणित
और मैं देखती , ब्लैकबोर्ड के ऊपर
टंगे ईसा मसीह ,सलीब पर
छोटी सी मूर्ति पर बिलकुल सानुपातिक
या फ़िर शीशे के फ़्रेम में मरियम को
दराज़ों के कतार वाले दीवार पर , ऊपर

या कभी कभी बाहर खिड़कियों से
नीला आसमान , रूई के फ़ाहे से बादल
गलियारे के पार , गमलों में छोटे छोटे
बैंगनी फ़ूल ,ट्वेल्व ओ क्लॉक फ़्लावर्स !

स्कूल की आया , गोडलीपा और उर्सुला
लंबे लकड़ी वाले पोछे से
गलियारा चमकाते हुये
गमले और फ़ूलों का प्रतिबिम्ब
चमकते गलियारे के फ़र्श पर
उड़ती हुई तितली ,दोपहर के सन्नाटे में
एक फ़ूल से दूसरे फ़ूल पर

टीचर की आवाज़ अचानक मेरे सन्नाटे को
तोड़ देती है
दो और दो क्या होते हैं ?
मैं घबड़ा जाती , हड़बड़ा कर कहती , बाईस
पूरी कक्षा हँस देती
मेरी हड़बड़ाहट , टीचर के गुस्से और मेरी बेचारगी पर


अब मैं बड़ी हो गई हूँ
घर सँभालती हूँ , ऑफ़िस देखती हूँ
फ़ाईलों को निपटाती हूँ , अंकों से खेलती हूँ
स्वादिष्ट पकवान पकाती हूँ , मेहमाननवाज़ी में
कुशल हूँ
वित्तीय मसलों पर गँभीरता से चर्चा करती हूँ
पर आज भी गणित मेरी समझ में नहीं आता है
किसी चर्चा के बीच कोई अगर पूछ बैठे
दो और दो क्या होते हैं ?
अब मैं आत्मविश्वास से जवाब देती हूँ, चार

पर सब हँस पड़ते हैं
आप भी श्रीमति जी ....?
दो और दो कभी चार हुये हैं
बाईस होते हैं बाईस
मैं हड़बड़ा जाती हूँ
मेरे चेहरे पर वही बेचारगी होती है
मैं बदल गई हूँ या गणित के
नियम बदल गये हैं ?
मुझे आज भी गणित समझ नहीं आता

11/06/2006

ज़ायका

ये है छुट्टी के दिन का नाश्ता ! अब कहें मुँह में पानी आया कि नहीं ?

नाश्ता

(अब कैमरा नया नया होगा तो ऐसी ही तस्वीरें खींची जायेंगी न :-)

10/31/2006

ओ मधुमक्खी

ये तस्वीर है मेरे भतीजे दिव्यांश की । इसे हम प्यार से दिवि पुकारते हैं । दिवि महाराज ने हाल में ही प्री स्कूल जाना शुरु किया है । ये सिंगापुर में रहते हैं ।
ये तस्वीर ली गई उनके स्कूल के कंसर्ट वाले प्रोगराम से जहाँ वो मधुमक्खी बने थे । दायीं ओर वाला बच्चा दिवि है । अब आप बताइये जब मधुमक्खी इतनी सुंदर है तो फूल कितने सुंदर होंगे ।

दिवि

ओ मधुमक्खी
कितने फूल देखे
कितनी वादियाँ घूमे

आओ अब सुस्ता लो
बैठो कुछ पल
और हँसो

हँसो कि
हम भी खुश हो लें
हँसों कि
हम भी
मुस्कुरा लें

कि हम भी
घूम लें तुम्हारे संग
फूलों भरी वादियों में

10/27/2006

अलसाते पल को कुछ और ज़रा पी लें

हर्षिल को खेल में ज्यादा रुचि है । कला से उसका दूर दूर का भी नाता नहीं । दूसरी ओर पाखी नृत्य ,संगीत और चित्रकारी में खूब रुचि रखती है । दोनों बच्चे बिलकुल विपरीत रुचि वाले । अचानक एक दिन पाखी ने भैया की शिकायत करते हुये कहा कि वो पढाई नहीं करता सिर्फ पढने के वक्त फोटोज़ बनाता रहता है । इसे हमने भाई बहन के बीच की लडाई का एक नमूना समझा । आखिर हर्षिल से ऐसी कोई उम्मीद नहीं थी । एक सीधी रेखा तो वो खींच नहीं पाता । हर प्रोजेक्ट में आकर मिन्नते करता है मुझसे कि कोई ड्राईंग मैं बना दूँ ।

पर पाखी की बात सही थी । गणित की पुस्तक को एकदिन मैं उसे पढाने की नीयत से पलट रही थी कि पिछले पन्नों पर मुझे ये दिखा ।

DSC00194

और ये

DSC00189


हरेक चेहरे पर अलग भाव भंगिमा । बडा बरीक काम था । हर्षिल से इतनी तन्मयता की अपेक्षा मैंने नहीं की थी । पर मैं गलत साबित हुई ।

फिर पिछले दिनों उसे तीरंदाज़ी का शौक चर्राया । स्कूल के कोच ने कहा अच्छा करता है । हमने बहुत ना नुकुर के बाद उसे चंडीगढ भेजा जहाँ उसे चुना गया हरयाणा का प्रतिनिधित्व करने को राष्ट्रीय तीरंदाज़ी प्रतियोगिता में । जिस लडके में एकाग्रता की बेहद कमी थी वही पूरी एकाग्रता से तीरंदाज़ी कर रहा है । आगे वो जीते या न जीते , एक बात हमें सीखा गया कि किसी भी बच्चे में कोई क्षमता ऐसी होती है जिसे माता पिता भी कई बार नहीं पहचान पाते ।
बस यही उम्मीद रखती हूँ कि ऐसी ही एकाग्रता से वो अपने सभी काम करे ।

पिछले दिनों हमारे कार्यालय द्वारा बच्चों के लिये करियर काउंसेलिंग की एक कार्यशाला अयोजित की गई थी । वहाँ से लौट कर मैंने हर्षिल से पूछा ,

“ तुम्हारा लक्ष्य क्या है ?”
( अभी अभी एक सेशन सुन कर आये थे तो कुछ देर तक तो असर लाजिमी था )
उसने जवाब दिया ,

“ मैं एक अच्छा इंजीनियर बनना चाहता हूँ “

मैं ‘अच्छे ‘ पर खुश हुई । सिर्फ इंजीनीयर भी कह सकता था । मैंने पूछा ,

“ और ? “

” मैं एक सानंद इंसान (हैप्पी पर्सन ) बनना चाहता हूँ “


मुझे लगा कि लडका सही रास्ते जा रहा है ।




ऊन के गोले
गिरते हैं खाटों के नीचे
सलाईयाँ करती हैं गुपचुप
कोई बातें
पीते हैं धूप को जैसे
चाय की हो चुस्की
दिन को कोई कह दे
कुछ देर और ठहर ले
इस अलसाते पल को
कुछ और ज़रा पी लें
जिन्दगी के लम्हे
कुछ देर और जी लें

10/18/2006

लाल सूरज हँसता है

माथे पर सुहाग सूरज चमकता है
नाक के नकबेसर का स्वर्ण सूरज दिपता है

हथेलियों पर लाल सूरज दमकता है

दोनों हथेलियों से मैं आँखों को छूती हूँ
आँखों में स्वप्न सूरज महकता है

मिट्टी के दीयों से आँगन को भरती हूँ
मन आँगन में दीप सूरज जलता है

लीपे हुये आँगन में रँगोली सजाती हूँ
हृदय सागर में फूल सूरज खिलता है

रोली अक्षत चंदन से आराध्य को पूजती हूँ
घर घर में पावन दीप पर्व मनता है

हर्ष उल्लास छलकता है
घरबार जगमगाता है
लाल सूरज हँसता है


शुभ दीपावली !!!

10/06/2006

किताबी कोना ..कुर्रतुलएन हैदर की चाँदनी बेगम

पुस्तक का नाम - चाँदनी बेगम
लेखिका - कुर्रतुलएन हैदर
प्रकाशक - भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन
मूल्य - १६० रुपये

चाँदनी बेगम

भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित उर्दु की महान कथाकार कुर्रतुलएन हैदर का उपन्यास "चाँदनी बेगम" कथ्य और शिल्प के स्तर पर एक ऐसा प्रतीकात्मक उपन्यास है जिसके कई कई पहलू हैं, और कथानक के धागे में समर्थ कथाकार ने सबको इस तरह पिरोया है कि किसी को अलग करके नहीं देखा जा सकता । उपन्यास के केन्द्र में है ज़मीन की मिल्कियत की ज़द्दोज़हद, यानि लखनऊ की 'रेडरोज़' की कोठी और उसके इर्दगिर्द रचे बसे बदलते समाज तथा रिश्तों और चरित्रों की रंगारंग तस्वीरें । इन्सानी बेबसी की इतनी जानदार और सच्ची अभिव्यक्ति इस उपन्यास में है कि चरित्रों के साथ पाठक का एक हमदर्द जुडाव हो जाता है ।

भाषा की दृष्टि से भी चाँदनी बेगम बेजोड़ है और लेखिका ने कहानी और माहौल के हिसाब से इसका बेहद खूबसूरती के साथ इस्तेमाल किया है । समूचे उपन्यास में एक ओर जहाँ आमलोगों की बोली बानी में पूर्वी और पश्चिमी उर्दू के साथ अवधी , भोजपुरी और पछाँही हिन्दी है , वहीं साहित्यिक लखनवी उर्दु की भी छटायें हैं ।नतीजतन उपन्यास का सारा परिवेश पाठक के दिलोदिमाग पर सहज ही अपनी अमिट छाप बनाता है ।

चाँदनी बेगम कहानी है रेडरोज़ के मालिक कँबर अली की जिनका ब्याह चाँदनी बेगम से तय होता है पर निकाह करते हैं सनूबर फ़िल्म कंपनी की चँबेली बेगम और गीतकार आई बी मोगरा की अहली शाहकार बेटी बेला रानी शोख से । कहानी साथ साथ चलती है तीनकटोरी हाउस की , जरीना उर्फ़ जेनी , परवीन उर्फ़ पेनी और सफ़िया की जिनके लिये कँबर मियाँ पार बसने वाले हीरो थे , बकौल लेखिका 'जानलेवा रोमांस'और जिन्हें बाद में आवाज़ें सुनाई पड़नी लगी थीं 'लिटिल सर ईको' की ।पात्रों के नाम आपको दूसरी दुनिया में ले जायेंगे , चकोतरा गढ़्वाली,( जो सनूबर फ़िलम कंपनी के लिये गीत लिखते लिखते उत्तराखंड से माउन्टेन गॉड बन कर लौटे) खुशकदम बुआ , इलायची खानम ,परीज़ादा गुलाब , बहार फ़ूलपुरी , मुंशी सोख्ता । कहानी लखनऊ से बम्बईया फ़िल्मी , पारसी , पूर्बी ,हिन्दू मुस्लिम सस्कृति , भाषा , बोली पहनावा को अपने विशाल कैनवस मे‍ समेटते चली है। यहाँ तक की रेडरोज़ कोठी जल जाने के बाद उपन्यास के अंत में कहा जाता है ,

"आज वहाँ महादेव गढ़ी का मेला हुइहै , कँबर भैयावाले मंदिर में"।


या फ़िर,

"सुनो , इन्सान की पाँच मंजिलें हैं । पहले वो रोमांटिक होता है ,फ़िर इन्कलाबी, फ़िर कौमपरस्त फ़िर कट्टर मज़हबपरस्त या फ़िर सूफ़ी या कुनूती (निराशावादी) या फ़िलूती ( एक मिस्री लेखक ) अल मनफ़िलूती "

या ,

" छुट्टा पाजामा । खड़ा पाईँचा । यह तो पहले लौंडियों बांदियों का पहनावा था । मिलकियाने में घुर्सव्वा "।नूरन ने जवाब दिया ।

"मिलकियाना कहाँ है ?"

"मिलकियाना ...बिटिया जैसे आपलोग , अमीर लोग "

"मुमानी दुल्हन आप मेरे लिये घुर्सव्वा बनवा देंगी ?"

"ज़रूर । माही पुश्त ? कुहनी की गोट ? गलोरी चटापटी"।


भाषा की खूबसूरती से पूरा उपन्यास अटा पड़ा है । कुछ व्यंग सामाजिक मूल्यों पर ,

"इंग्लिश मीडीयम स्कूल अगर कान्वेन्ट न कहलायें तो लोग अपने बच्चे नहीं भेजते । अब तो यहाँ दुर्गादास कान्वेन्ट और अब्राहम लिंकन कान्वेन्ट भी खुल गये हैं । कराची में परवीन बाजी की चचेरी ननद ने स्कूल खोला है पाक कान्वेन्ट "

या फ़िर

"वह बड़ी मासूम जेनेरेशन थी , सहेलियों को बुलाकर दिलीपकुमार की सालगिरह मनाती थीं"

इस उपन्यास में उच्च वर्ग का ग्लैमर भरा जीवन , अतीत की स्वप्नीली खूबसूरत यादें , रिश्तों के टूटने , खानदानों के बिखरने और अतीत के उत्कृष्ट मानवीय मूल्यों के चूर चूर हो जाने का बेहद सूक्ष्म चित्रण है।

तो लब्बोलुबाब ये कि किताब पढिये , एक दूसरी दुनिया में खींच कर ले जायेगी ।


लेखिका के विषय में

ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित और साहित्य अकादमी की 'फ़ेलो' , उर्दु की महान कथाकार कुर्रतुलएन हैदर को साहित्यिक सृजनात्मकता विरासत में मिली । उनके पिता सज्जाद हैदर यल्दराम और माँ नज़र सज्जाद हैदर दोनों ही उर्दू के विख्यात लेखक थे ।उनके क्लासिक उपन्यास "आग का दरिया " का जिस धूमधाम से स्वागत हुआ था उसकी गूँज आज तक सुनाई पड़ती है ।उनके उपन्यास सामान्यत: हमारे लम्बे इतिहास की पृष्ठभूमि में आधुनिक जीवन की जटिल परिस्थितियों को अपने में समाते हुये समय के साथ बदलते मानव संबंधों के जीते जागते द्स्तावेज़ हैं ।इनकी रचनायें विभिन्न भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त अनेक विदेशी भाषाओं में भी अनुदित हो चुकीं हैं।


कुछ प्रकाशित कृतियाँ

मेरे भी सनमखाने
सफ़ीन ए गम ए दिल
आग का दरिया
कारे जहाँ दराज़
निशांत के सहयात्री ( आखिर ए शब के हमसफ़र )
गर्दिशे रंगे चमन
पतझड़ की आवाज़
सितारों से आगे
शीशे का घर
यह दाग दाग उजाला
जहान ए दीगर (रिपोर्ताज़)


सम्मान
कहानी पतझड़ की आवाज़ पर १९६७ का साहित्य अकादमी पुरस्कार
अनुवाद के लिये सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार १९६९
पद्मश्री १९८४
गालिब मोदी अवार्ड १९८४
इकबाल सम्मान १९८७
ज्ञानपीठ पुरस्कार १९९१

(मेरी पसंदीदा किताबें ... गर्दिशे रंगे चमन , आखिर ए शब के हमसफ़र , सारी कहानियाँ , (आग का दरिया पढ़ना बाकी है ) , मतलब इनकी सभी किताबें ।)

10/04/2006

बूढी नानी

बचपन में माँ की नानी को देखा था । बडी कडक और गुस्सेवर महिला थीं । सफेद साडी, पूरे आस्तीन का ब्लाउज़ , यही उनका पहनावा था । हुक्का पीतीं और याद आता है कि उनके शरीर से अजीब सी मीठी खुशबू आती रहती । हम सब बच्चे उनसे खूब डरते । मिलना बहुत कभी कभार किसी शादी ब्याह पर ही होता । मेरी नानी उनसे एकदम विपरीत स्वभाव की थी , शाँत और सौम्य । । हम जब छोटे ही थे तभी उनकी मृत्यु हो गयी । बाद में जब कुछ बडे हुये तब माँ से उनकी कहानी सुनी । हमारे बडे नाना जमींदार थे और उसी जमींदारी का ठसका बूढी नानी के व्यवहार में दिखता था । बाद में उनकी एकमात्र संतान यानि मेरी नानी बहुत ही कम उम्र में विधवा हो गईं और बूढी नानी ने ही अपने बलबूते पर अपनी बेटी और उनकी पाँच बेटियों और दो बेटों का संसार सुचारु रूप से चलाया ।
उनकी एक श्याम श्वेत तस्वीर थी जिसे देखकर मैंने ये पेंसिल स्केच बनाया था ।

बूढी नानी

अब आज समझ में आता है कि अकेले , बिना किसी पुरुष के सहारे के , किस तरह उन्होंने जमींदारी सँभाली होगी , अपनी बेटी को सँभाला होगा ।कितना साहस , कितना जीवट रहा होगा उनमें । बाद में नाती नातिनों और उनके भरे पूरे परिवार को देखकर कितना संतोष मिलता होगा । इस स्केच से उनकी धुँधली सी याद अब भी तरोताज़ा हो जाती है ।और कहीं ये विशवास भी उपजता है कि कोई बीज उनके साहस का , लगन का , हिम्मत का हमें भी . और आने वाली पीढी में भी पनपे , पले बढे और मजबूत हो

9/30/2006

टोटल कन्फ़्यूज़न....कैसे खरीदें डिजिटल कैमरा

हम जब भी कहीं बाहर गये या फ़िर घर में ही कोई उत्सव हुआ , फ़ोटो खींचना उस अवसर का एक ज़रूरी हिस्सा हुआ करता था । हमारे पास एक कैमेरा तो था , बहुत अच्छा पर वही पुराने ज़माने वाला , मतलब कलर रॉल खरीदो फ़िर फ़ोटो साफ़ कराओ । कई बार तो फ़ोटो खी‍चने के बाद महीनो रील साफ़ होने के लिये पड़ा रहता । फ़िर जब फ़ोटो स्टूडियो में डेवलप होने को दिया जाता तो अचानक से बड़ी बेकरारी हो जाती देखने की कि कैसे फ़ोटो आते हैं । फ़ोटो आता , कुछ दिन बार बार देखा जाता , खासकर उन फ़ोटोज़ को जिसमें हमारी शक्लें ठीकठाक नज़र आती ।फ़िर उनको सँभाल कर रख दिया जाता और हम भूल जाते उनके बारे में । बाद में कभी याद आने पर खोजा जाता और मर्फ़ी के शाश्वत नियम को एक बार फ़िर सही साबित करते हुये बाकी सब फ़ोटो मिल जाते उन खास फ़ोटोज़ के सिवा । धीरे धीरे हमारे पास बक्से भर फ़ोटोज़ जमा हो गये , सगाई , शादी से लेकर बच्चों के पैदा होने के बाद से लेकर हर छोटे बड़े पल का कोडक साक्षी । उन्हें सँभालना क्रमश: मुश्किल हुआ जा रहा था कि इसी बीच माँ ने एक पुलिंदा फ़ोटोज़ हमारे बचपन की हमें भेज दिया । इस तरह हमारी मुसीबत का इजाफ़ा हुआ चला जा रहा था ।

इधर हमने नोटिस किया कि अब हर किसी के पास डिजिटल कैमरा है । आसपास , बँधु पड़ोसी , भाई बहन , नाते रिश्तेदार , हर कोई डिजी कैमरा से लैस घूम रहा है । इन्स्टैंट फ़ोटो और हम अब भी उसी पुराने ज़माने में रिप वैन विंकल हुये घूम रहे हैं ।हमारे ऊपर सीवीयर
इन्फ़ीरीयोरिटी कॉम्प्ले़क्स का भूत सवार हो गया । हमने तय कर लिया है कि अब हम चोपड़ा , खोसला , मिश्राजी , राय जी , वगैरह वगैरह से पीछे क्यों रहें । हम भी खरीदेंगे एक डिजिटल कैमरा ।

तो यहीं से असली कहानी शुरु होती है जिसके लिये इतनी भूमिक बाँधी गई । तो भाईयों आपकी मदद की ज़रूरत है । बतायें कि एक बढिया (ऐडिक्वेट ?)डिजिटल कैमरा खरीदने के लिये क्या ध्यान में रखना ज़रूरी है । इन्टरनेट पर कैमरा पढ पढ कर टोटल कन्फ़्यूज़न का आलम है । कौन सा ब्रांड लिया जाय ? क्या फ़ीचर्स ध्यान में रखना चाहिये ? हमारी ज़रूरत सिर्फ़ घरेलू फ़ोटोज़ खींचनी है , हाँ ओप्टिकल ज़ूम शायद लेनी चाहिये । प्राईस रेंज , दस से पंद्रह (?)या फ़िर बीस । ये भी पता नहीं । अब समझ गये न कितने कन्फ़्यूज़्ड हैं हम ।

9/25/2006

धूप जनवरी की फूल दिसंबर के

प्रत्यक्षा अनूप संतोष
फुरसतिया जी ने जहाँ अपना लेख समाप्त किया था , मैं वहीं से आगे बढती हूँ । अनूप जी जितने अच्छे कवि हैं उससे बहुत ज्यादा अच्छे इंसान हैं । उनकी सहज सरल आत्मीयता कहीं गहरे छूती है । मेरा पहला परिचय उनसे ईकविता के माध्यम से हुआ था । उनकी ये कविता पढी और विस्मित रह गयी थी । ऐसा लगा जैसे कविता नहीं दो प्रेमियों की बातचीत किसी ने चुपके से सुना दी हो ।

अब समझ आया है मुझ को ,
हर फ़ूल में क्यों आ रही थी तेरी खुशबू ,
तितलिओं नें काम ये अच्छा किया है ।
और वो नदी जो
तुम्हारे गाँव से
मेरे घर तक आती है
सुना है
रात उस में खलबली थी
मछलियां आपस में कुछ बतिया रहीं थी
कुछ बात कह कर आप ही शरमा रहीं थी
क्या हुआ गर बात तुम जो कह न पाई
शब्द ही तो प्रेम की भाषा नहीं है ?


तो कविता ऐसे भी की जा सकती है ये समझ में आया । ई कविता में कई जुगलबन्दियाँ चली , कविताओं का आदान प्रदान हुआ ।पत्राचार चलता रहा । फिर 2004 में उनसे मुलाकात हुई । लगा जैसे अपने ही किसी बेहद आत्मीय से मिल रहे हों । फिर इस साल रजनी जी से मुलाकात हुई । ईश्वर ने बडी सुघडता से इनकी जोडी बनाई है । दोनों एक दूसरे के पूरक । सहज आत्मीयता , सौम्य व्यहवहार जैसे छलक पडता था । अनूप जी और रजनी जी की कविताओं के फैन तो थे ही , मिलने के बाद उन दोनों की शख्सियत ने भी गहरी छाप छोडी । ऐसे लोग विरले ही मिलते हैं ।

अनूप जी की ही वजह से हिमानी और विष्णु से भी परिचय हुआ । हिमानी का भी ब्लॉग शुरु होने वाला है । आप सब खुद उनके बिंदास शैली का और सुंदर कविताओं का आनंद उठायेंगे । विष्णु की हाज़िरजवाबी और हिमानी की मस्ती दोनों देखने वाली चीज़ है ।

16 सितंबर को अनूप जी लखनऊ से वापस आये । सुबह फोन पर बात हुई । हमारे परिसर में क्लब है और उसमें खासा बढिया औडिटोरियम । तो इसी औडी में हिन्दी पखवाडा के अवसर पर एक कवि सम्मेलन होने वाला था उस शाम जिसमें बशीर बद्र , उदयप्रतापसिंह , शैलेश लोढा , आशाकरण अटल , अरुण जेमिनी आने वाले थे । बशीर बद्र और उदय प्रताप सिंह का नाम सुनकर( हम कोई क्रेडिट ले नहीं सकते ;-( ) अनूप जी ने अपने बाकी कार्यक्रम रद्द किये और तय हुआ कि शाम हम मिलते हैं ।
शाम हुई । हॉल में अनूप जी , हिमानी ,संतोष और मैं काव्य रस का आसास्वादन कर रहे थे । इसी दौरान अरुण जेमिनी, जो मंच संचालन कर रहे थे , ने अनाउंस कर दिया कि अगर अनूप भार्गव आ गये हों तो मँच पर आ जायें । ( अब कहिये सेलीब्रिटी कौन है :-) ) पुष्प गुच्छों को ग्रहण करने के बाद अनूप जी मँच पर । हम तो आम जनता थे सो पिछली कतार में बैठे रहे । अंत में अनूप जी का भी काव्यपाठ हुआ । उन्होंने अपनी कविता सुनाई ।

कल रात एक अनहोनी बात हो गई

मैं तो जागता रहा खुद रात सो गई ।”

रात्रि भोजन , जो वहीं पर आयोजित था , के बाद हम बशीर बद्र साहब , जो वहीं परिसर में स्थित गेस्ट हाउस में ठहरे थे , से मिलने हम उनके कमरे की ओर चल पडे ( ये भी अनूप जी का ही कमाल था वरना हमें कौन पूछता )। रत्रि भोज के पहले मैंने और हिमानी ने उनकी किताब पर उनके औटोग्राफ लिये । किताब अनूप जी ही लाये थे ,” धूप जनवरी की ,फूल दिसम्बर के “ । मुझे डबल फायदा हुआ , बढिया किताब मिली और सोने पर सुहागा बशीर बद्र का औटोग्राफ भी । खैर , हम सब बद्र साहब से गुफ्तगू करते रहे , उनकी गज़लें , उनके शेर , हिन्दी में गज़ल , दुष्यंत कुमार की गज़लें ,उनकी पारिवारिक बातें और भी कई बातें । अनूप जी ने भी अपनी ये कविता सुनाई



रिश्तों को सीमाओं में नहीं बाँधा करते

उन्हें झूठी परिभाषाओं में नहीं ढाला करते
उडनें दो इन्हें उन्मुक्त पँछियों की तरह
बहती हुई नदी की तरह
तलाश करनें दो इन्हें सीमाएं
खुद ही ढूँढ लेंगे अपनी उपमाएं
होनें दो वही जो क्षण कहे
सीमा वही हो जो मन कहे



हिमानी ने अपना एक शेर..

तू समझ न खुद को खुदा मेरा
ये भरम तेरा है मेरा नही
ये शफ़ा है मेरे इश्क की
जो तूने ऐसा समझ लिया

और मुझ खाकसार को भी मौका मिल गया । हाँ जी मैं ये मौका क्यों चूकती सो मैंने भी अपनी ये कविता सुना दी ।(अब झेलते रहें सब ;-) )

हिमानी का कैमरा ऐन वक्त पर जवाब दे गया और बशीर बद्र के साथ तस्वीर खिंचवाने का अरमान ,अरमान ही रह गया ।( अब इस वाकये का तस्वीरी प्रमाण नहीं है तो क्या , भाई लोग बिना तस्वीर के मानने से इंकार जो कर देते हैं , ऐसे शक्की मिजाज़ प्राणियों के लिये साक्षी स्वरूप अनूप और हिमानी हैं )

अगले दिन एक काव्य गोष्ठी का आयोजन अनूप जी ने हिमानी और विष्णु के साथ ‘ऐम्बियांस’ के ‘लगून क्लब ‘ में किया । यहाँ एकत्रित होने वालों में कुँअर बेचैन ,जगदीश व्योम, कमलेश भट्ट कमल , शास्त्री नित्य गोपाल कटारे , मोना कौशिक ( बल्गारिया से) रेणु आहूजा उमा माल्वीय , श्री गौड थे ।व्योम, गौड, कुँअरबेचैन, अनूप, भट्ट,कटारे,रेणु,मोना,हिमानी,उमा,प्रत्यक्षा काव्य चर्चा हुई , इंटरनेट पर हिन्दी का प्रचार , (अनूप जी ने बारहा कैसे इस्तेमाल करें का लाईव डेमो दिया ) हाइकू पर विशेष चर्चा ( चूंकि व्योमजी और भट्ट जी थे तो होना ही था )। हमसब ने एक दूसरे की तारीफ की ;-) कविता पाठ हुई ।( कटारे जी की संस्कृत में काव्यपाठ उल्लेखनीय रही ) और इन सब के बीच हिमानी के कुशल प्रबंधन में चाय , कॉफी और स्नैक्स का दौर चलता रहा । दोपहर के भोजन के बाद तस्वीरें ली गईं । जी हाँ फोटोज़् हैं , अभी दिखाते हैं । कुँअर बेचैन ने औटोग्राफ के साथ फ्री हैंड स्केचिंग की जो कि बेहद खूबसूरत थीं ।
कुँअर बेचैन

आगे की कहानी फिर आगे , तब तक बशीर बद्र की किताब “धूप जनवरी की , फूल दिसंबर के “ से कुछ पसंदीदा शेर

“अजीब शख्स है , नाराज़ होके हँसता है
मैं चाहता हूँ खफा हो तो वो खफा ही लगे”


“ वो जाफरानी पुलोवर उसी का हिस्सा है
कोई जो दूसरा पहने तो दूसरा ही लगे “


“ वो हाथ भी न मिलायेगा जो गले मिलोगे तपाक से
ये नये मिज़ाज़ का शहर है ज़रा फासले से मिला करो”




9/13/2006

चाय की प्याली ..जुगलबन्दी

राकेशजी ने कहा चाय पुराण होनी चाहिये , तो लीजिये हाज़िर है चाय की प्याली । ये भी ई-कविता में चली थी कई दिन । आप भी चाय का लुत्फ उठाईये





बाँग घड़ी की,ट्रैफ़िक वेदर बच्चों का स्कूल
स्नो, बारिश धूप कार का और वेन का पूल
रिस्टवाच,पीडीऎ प्लानर सेलफोने और टाई
प्रेजेन्टेशन ओरियेन्टेशन मीटिंग सर पर आई
मिनी वेन ट्रक ट्रेक्टर ट्रेलर ट्रेफ़िक जाम हुआ सा
इन्टरस्टेट टौल रोड और बेक अप अच्छा खासा
हैश ब्राऊन काफ़ी बिस्किट और डोनट बेगल हाय
वाशिंगटन में मिल न पाती अब सुबह की चाय

(राकेश खँडेलवाल )



हर सुबह
गर मयस्सर हो
एक चाय की प्याली
तुम्हारा हँसता हुआ चेहरा
और
एक ओस में भीगी
गुलाब की खिलती हुई कली
तो

सुबह के इन हसीं लम्हों में
मेरा पूरा दिन
मुक्कमल हो जाये
बस यूँ ही

(प्रत्यक्षा)



लेकिन है तकलीफ़ यही, हम किये कामना जाते हैं

पर उस सुखद भोर के पल से हम वंचित रह जाते हैं
यही त्रासदी, भाग-दौड़ है और दूरियाँ हाय
इसीलिये तो साथ न पी पाते सुबह की चाय

(राकेश)



बिना दूध की, दूध की, फीकी, चीनीवाली
जैसे भी हो, दीजिये भरी चाय की प्याली
भरी चाय की प्याली, बिस्कुट भी हों ट्रे में
जैसे लोचन मिलें नयनसुख को दो फ्री में
चुस्की ले-ले पियो अगर हो आधी खाली
जैसे साली कहलाये आधी घर वाली

(घनश्याम)



काली हरी और मिलती है जड़ी बूटियों वाली
पीच ,संतरा चैरी बैरी कई फ़्लवर वाली
कभी ट्वाईनिंग, अर्ल ग्रे तो कभी मिली जापानी
लिपटन,टिटली अमदाबादी मिलती हिन्दुस्तानी
पढ़ते अखबारों को लेकिन फ़ुरसत वाली हाय
वाशिंगटन में मिल न पाती अब सुबह की चाय.

(राकेश खंडेलवाल)



जिह्वा खोज्रे वही बारबार
थोडा कसा चाय
जितने भी फ्लेवर्स गिना दिये हैं हाय
मुझे तो भाये वही फ्लावरी आरेंज चाय
वाशिंगटन की बात को छोडो
जब आओगे हिन्दुस्तान
तब पिलाएंगे तुम्हे हम
अपनी इंडिया वाली चाय

(प्रत्यक्षा)


भूल गया था सिलीगुड़ी की और असामी चाय
अदरक और इलायची वाली हिन्दुस्तानी हाय
येलो लेबल या रेड लेबल या पंसारी वाली
मिलती है या जो ढाबे पर साठ मील की प्याली
मिला आपका आज निमंत्रण, रह रह जी ललचाय
वाशिंगटन से दिल्ली जल्दी आऊं पीने चाय

(राकेश)




साठ मील की प्याली तो (;-))
मुझे न बनानी आये
गर आओगे आप तो मिलेगी
वही पत्ती वाली चाय

(प्रत्यक्षा)



इक कप में इक चम्मच पत्ती डालें, होती बीस मील की
तीन चम्मचें डालें पत्ती, सहज बनेगी साठ मील की
सफ़र हजारों मीलों का मैं तय करके यदि दिल्ली पहुँचूं
तब चाहूँगा मिले चाय कम से कम छह सौ साठ मील की.

(राकेश )



सुनो !
तुम जानती हो
मुझे चीनी की मनाही है
फ़िर
आज चाय में कितनी
चम्मच मिलाई है ?

मुस्कुराते हुए
जवाब आया,जानती हूँ प्राणनाथ
लेकिन आज हमारी
शादी की सालगिरह है,
घर में चीनी नहीं थी
चाय में बस
अपनी प्यार भरी
उँगली घुमाई है ।

(अनूप :-)



सीमित रहे चाय तक केवल
हम अपना क्या हाल बतायें
उसने मधुपूरित नजरों से
एक बार देखा था मुझको
बस तब से हर चीज मुझे
न जाने क्यों मीठी लगती है

(राकेश)



अब तो हमने शुरु कर दिया
ख्याली पुलाव पकाना
गर हों आप तैयार हमारी
कविताएँ सुनने को
छह सौ साठ मील तो छोडो
छह सौ टू दी पावर एक्स की चाय
हम सीख लें बनाना

(प्रत्यक्षा)


है यकीन चाय के संग अब हमें पकोड़े मिल जायेंगे

और आप निश्चिन्त रहें हम धैर्य साथ लेकर आयेंगे
हम न थकेंगे कविता सुनते, शायद आप सुनाते थक लें
चाय समोसे मिलें स्वयं ही श्रोता वहाँ चले आयेंगे

(राकेश )


चाय पर हो गर यूँ लम्बी बात खत में
तो घर पे आये मेहमान का क्या कहिये
यूँ नशा छाया है गर चाय के नाम से
तो जो पीते है इसे उनकी खुमारी का क्या कहिये

(मनोशी )



कविताएँ सुनने का क्यों किया रेट बढाय
अभी तो भाई सुनने का रेट सिर्फ है चाय
वो भी तब जब आपकी
भी सुन नी पडे हाय ;-))

(प्रत्यक्षा )



एक चाय के बदले सुनना एक गज़ल काफ़ी है
क्योंकि, सुना डायरी आपकी भरी हुई खासी है
इसीलिये आहिस्ता आहिस्ता बढ़ती है फ़रमाईश
अगर सुनायें आप न कुछ भी, सिर्फ़ चाय काफ़ी है.

(राकेश)


चलें, आपकी एक शर्त
ये भी मंजूर
पिलायेंगे आपको सिर्फ
चाय की एक प्याली
क्योंकि
हमारे पास तो है एक ही डायरी
आपकी तो सुना , पूरी दीवाने गालिब !

(प्रत्यक्षा)



माफ़ी पहले ही मांग ली जाये तो अच्छा है) अब जो ई-कविता में हो रहा है
होने दीजे
लेकिन गालिब को हिचकियाँ आ रही होंगी
उन्हें तो चैन से कब्र में
सोने दीजे .........

(अनूप )

हाँ इसी बात पर एक वाकया याद आ गया , याद नहीं प्रत्यक्षा को भारत यात्रा के दौरान सुनाया था या नहीं । अभी पिछले वर्ष Philadelphia में एक Literary Conference
हुई थी , वहां सलमान अख्तर (जावेद अख्तर के छोटे भाइ और जाँ निसार अख्तर के सुपुत्र) से मिलना हुआ , ये किस्सा उन का सुनाया हुआ है । एक सज्जन जो उर्दु शायरी की थोडी बहुत
जानकारी रखते थे (कुछ Buzz Words भी सीख लिये थे) , सलमान जी के पास आये और कहनें लगे । जनाब आप तो इतनी बेहतरीन गज़ल लिखते हैं , रुबाई लिखते हैं , नज़्म भी
लिखते हैं , क्या बात है , हम तो आप के बहुत कदरदान हैं , ये बताइये कि आप का 'दीवान-ए-गालिब' कब छप रहा है ? आशा है इस Context में प्रत्यक्षा की कविता और अच्छी लगेगी और हाँ जिस सरलता सुगमता से 'राकेश जी' लिखते हैं , उस हिसाब से तो उन के अब तक कई 'दीवान-ए-गालिब' छप
जानें चाहियें. :-)




और क्योंकि बार बार क्षमा न माँगनी पड़े, इसलिये अभी के लिये और आगे की संभावनाओं के लिये मैं अग्रिम निवेदन कर रहा हूँ.

एक गज़ल की बात हुई थी आप डायरी तक जा पहुँचे
इसी तरह तो लोग उंगलियाँ थाम, पकड़ लेते हैं पहुंचे
दीवान-ए-गालिब तो बल्लीमाराँ से है लाल किले तक
उसे ढूँढने आप यहाँ अमरीका तक कैसे आ पहुंचे

हाँ वैसे जो पास डायरी, कितने मुक्तक? कितनी गज़लें?
और बतायें ये भी, कितनी उगा रखीं गीतों की फसलें ?
ताकि योजना बना सकें हम, कितना जगना कितना सोना
कितना सर को धुनना होगा, कितना रोलें कितना हंसलें

(राकेश )



maaf karen ..aaj kuchh font ki samasysa hai..isliye ye roman lipi

kahan le aayee aaj hamenye kambakht chai ki pyali
shuru shuru me aas jagi thhee
shrota ek yun milega
kavitayen , muktak sun lega
ab to asaar madhim lagte hain
sar dhun ne ki baat karte hain
ye haal aapka abhi hua hai
kavitaon ke baad kya hoga???

(pratyaksha)



फोंट्स विचारे हिन्दी के भी,
कविता पढ्‍ बेहोश हो गये
सहन न कर पाये वे जिसको,
हम तैयार हुए सुनने को
इसीलिये तो एक चाय की प्याली और पकोड़े माँगे
कुछ तो हमें चाहिये ऊर्जा, आखिर अपना सर धुनने को
रचनाओं का असर क्लोरोफ़ार्म सरीखा अभी दिख रहा
एनेस्थेशिया के प्रभाव को दूर करेगी केवल चाय
एक चाय पर एक गज़ल की, पूर्व सूचना इसीलिये तो
अगर शर्त मंज़ूर, आयेंगे, वरना ओके टाटा बाय
और क्षमा मैं पहले ही माँग चुका हूं.

(राकेश )



हम तो यूँ ही डूबे हुये हैं :-o
हमें और न डुबाईये
पहले तो ये फॉंट धोखा दे गई
अब आपकी बारी भी आ गई
ले देकर मिला था एक श्रोता
वो भी पतली गली से भाग निकला
अब आप व्यर्थ न घबडाईये

हमने अपनी कविता ,मुक्तक, छन्द
को कर दिया है तलाबन्द
अब आप बेधडक चले आईये
आकर अपने गीत सुनाते जाईये
चाय भी मिलेगी साठ मील की
साथ में नमकीन पकौडे और मिठाई

(प्रत्यक्षा :-)))



आप डूबेंगे रस में मेरे हमसुखन
तब ही कविता का आनंद आ पायेगा
एक डुबकी लगा करके मकरन्द में
छ्म्द थोड़ा अधिक मन को भा जायेगा
फ़ोंट्स तो पारखी मित्र ! कविता के हैं
जानते, किसे लेंगे आगोश में
कौन से काव्य के साथ मुस्कायेंगे
साथ में किसके आ पायेंगे

जोश में तालों में बंद करो मत तुम
कविता को और निखरने दो
श्रोता खुद ही मिल जायेंगे , मुक्तक को और संवरने दो
रसगुल्ले अन्नपूर्णा के, घंटेवाला के सेम-बीज
के साथ चाय की जमनाजी, अपने आँगन में बहने दो

(राकेश)


और अंत में अभिनव शुक्ला जी ने कहीं सुनी/पढी हुई एक कविता भेजी थी

चाय का कमाल

चाय चुस्ती को जगाती है सदा
नींद , सुस्ती को भगाती है सदा
लक्षमण जी रात भर जागा किये
चाय पीते थे बिना नागा किये
एक दिन थी चाय मिल पायी नहीं
युद्धरत थे याद ही आयी नहीं
कई रातों के जागे थे ,सो गये
लोग ये समझे कि मूर्छित हो गये
वैद्यजी ने जो मँगाई थी दवा
पवनसुत लाये जिसे होकर हवा
चाय थी संजीवनी बूटी नहीं
सत्य मानो ये बात झूठी नहीं
द्रोणगिरि की स्थिति है अब जहाँ
चाय ही उत्पन्न होती है वहाँ

अनाम


9/08/2006

कुछ मेरे हिस्से की धूप .....जुगलबंदी

धूप पर कुछ कवितायें ...... राकेश खँडेलवाल , हिमानी भार्गव अनूप भार्गव और मेरी साथ में एक पेंटिंग भी

धूप के रंग



"रोशनी धुली धुली सी लगती है
स्वर्णमय गली गली लगती है
श्याम घन केश हटा दो मुख से
रूप की धूप भली लगती है "

(राकेश खँडेलवाल )


धूप के रंग में
उँगली डुबाकर
खींच दिया मैंने
तेरे होठों पर
वही उजली सी हँसी
हथेलियों पर तभी से
खिलता है रंग मेंहदी का
कैद हैं जब से
मेरे हाथों में
स्पर्श
तेरे होठों की हँसी का

(प्रत्यक्षा )



तेरी हँसी की शरारती खनक
ऐसी
जैसी
सरसों की बालियों की धनक
झरिया में छनती कनक
मकई की रोटी की महक
तंदूर की आग की धमक
अब समझी
क्यों चूल्हे पर बैठी
अपने आप ही
मुस्कुराती रहती हूँ मैं

(हिमानी भार्गव )



मैं भी अब समझ
जाता हूँ , तुम्हारा यूँ ही बेबात
मुस्कुरा देना
कभी आँखों से
तो कभी होंठों के
कोनों को ज़रा सा
दबा देना

मैं भी तो
यूँ ही , ऐसे ही
मुस्कुराता रहता हूँ
तुम्हारी धूप सी हँसी में
अपने हिस्से की धूप
देखा करता हूँ


(प्रत्यक्षा )



कब तक बन्द किये रखोगी
अपनी मुट्ठी में धूप को
ज़रा हथेली को खोलो
तो सवेरा हो


(अनूप भार्गव )



एक सूरज रहा मुट्ठियों में छुपा
रोशनी दीप के द्वार ठहरी रही
धुंध के गांव में रास्ता ढ़ूंढ़ती
भोर से सान्झ तक थी दुपहरी रही
इसलिये मैने खोली हथेली नहीं
स्वप्न आँखों के सारे बिखर जायेंगे
लेके निशिगंध संवरे हुए फूल ये
रश्मियाँ चूम ऊषा की मर जायेंगे

( राकेश खँडेलवाल )



याद रखना
फिर मुझे
दोष न देना
अगर सवेरा हो जाये
धूप मुट्ठी से निकलकर
बहक जाये......

( प्रत्यक्षा ).



भूल गया था
तुम्हारी मुट्ठी में
धूप के साथ
मेरी उँगलियाँ भी कैद हैं
सवेरा ही रात के आलिंगन
की परिणिति भी होगा


(अनूप भार्गव )


तभी तो
हथेली पर
खुश्बू है धूप की
रात भर
तुम्हारी उँगलियाँ
कांपती हैं
उस अनजानी तपिश से.
अब मुझे जरूरत नहीं
चाँद की..

.(प्रत्यक्षा )



ऐसा लगा
तुमने मुझे धूप नहीं
मुट्ठी भर
विश्वास सौंप दिया हो
हर प्रश्न आसान
और
गंतव्य सहज
लगता है

(अनूप भार्गव )



अँजुरी में भर कर
तुम्हारा विश्वास

माथे पर लगाया
अरे !
कब इस माथे पर
सूरज का
टीका उग आया !!!

(प्रत्यक्षा )



उसी सूरज की
एक नन्ही सी
रश्मि किरण
मेरे ललाट पर
चमक जाती है
और मुझे
ज़िंदगी को जीने का
सलीका सिखा जाती है
अच्छा ही किया
जो तुमने मुट्ठी
खोल दी


(अनूप भार्गव )



मेरी आँखों में
ये चमकते हुए सितारे
शायदउसी किरण का
प्रतिबिम्ब हैं
और मैं इन्हें
मुट्ठी में समेट लेने
को फिर
आतुर हो उठा हूँ

(राकेश खँडेलवाल )



ये गजब न करना
ये मुट्ठी फिर
बंद न करना
ये रौशनी जो
फैल गयी थी
अब फिर
अँधेरा न करना....

(प्रत्यक्षा )

9/05/2006

सेकरेड हार्ट ...निर्मल हृदय

आज मैं शिक्षक दिवस पर किसी एक शिक्षक या शिक्षिका को याद नहीं कर रही । वैसे पूरे अध्ययनकाल में ऐसे कई शिक्षक मिले जिनका बहुत प्रभाव रहा जीवनमूल्यों पर । आज मैं याद कर रही हूँ अपने स्कूल को ।

पढाई की शुरुआत मेरी डालटनगंज में हुई । पहली कक्षा की पढाई वहीं के एक स्कूल "आनंदमार्ग" में हुई । वहाँ का कुछ भी याद नहीं बस ये कि कोई सांस्कृतिक कार्यक्रम था जिसमें मुझे एक विशाल कागज के कमल के फूल के अंदर से निकलना था और उस फूल का गुलाबी रंग मेरे उजले कपडों पर लग गया था । उसके बाद हम राँची चले आये और कक्षा दो से लेकर दसवीं तक खूँटी के पास सेकरेड हार्ट स्कूल में पढते रहे । स्कूल बेहद सुन्दर था । राँची के HEC इलाके से खूँटी की ओर एक गाँव था हुलहुंडू , ये स्कूल वहीं पर एक विशाल कैम्पस में "आवर लेडी फातिमा , सिस्टर्स ऑफ चैरिटी " द्वारा चलाया जाता था । स्कूल के अलावा चर्च और एक डिस्पेंसरी भी था जो वहाँ के आदिवासियों के लिये चलाया जाता था ।
फलों के बगीचे , खेत , एक ओर डिस्पेंसरी , एक और छोटा स्कूल गाँव की लडकियों के लिये सेंट जोसेफ और लडकों के लिये सेंट जॉन, बीच में नन्स के रहने का हॉस्टल , हॉस्टल में एक छोटा चैपेल ,कुछ दूरी पर बडा चर्च । सारी इमारतें लाल ईंट की सफेद धारी वाली । स्कूल के ठीक सामने जहाँ असेम्बली होती थी वहाँ खूब चौडी घुमावदार सीढी थी , बहुत ऊँची नहीं । इसके ठीक ऊपर मरियम की शिशु यिशू मसीह को गोद में लिये एक बडी सी मूर्ति ।


असेम्बली के समय इसी सीढी की लैंडिंग पर मदर सुपीरीयर हिल्डेगार्ड ( ये बेल्जियन थीं ) और प्रिसीपल, सिस्टर रोज़ेलिन खडी होतीं । बाकी सब टीचर्स सीढी के नीचे एक कतार से । सामने खूब बडा मैदान आम के पेडों से घिरा हुआ चौकोर टुकडा , जिसके अंत में एक समरहाउस था ( यहाँ हमारी सिक्रेट सेवेन तर्ज़ पर खुफिया मीटिंग्स होती दोपहर के खाने के बाद बचे थोडे समय में )। हर पेड के नीचे बैठने की सीमेंट की बेंच , जहाँ हम बैठकर अपना टिफिन खाते थे । सीढियों के एक तरफ एक बडा सा फव्वारा था जिसे चारों ओर पत्थर से बना एक गोल घेरा था जिसमें नल लगे हुये थे ढेर सारे । टिफिन खाने के बाद इन्हीं नलों से हम चुल्लु कर के पानी पीते थे । कक्षाओं के सामने चौडे चमकते हुये बरामदे थे जिनकी पत्थरों की रेलिंग के ऊपरी हिस्से में मिट्टी डालकर छोटे छोटे पौधे लगाये हुये थे , छोटे बैंगनी फूल शायद ट्वेल्व ओ क्लॉक फ्लावर जो बारह बजे के बाद मुर्झाने लगते थे ।

बरामदे और कक्षाओं के चमकते फर्श से याद आया उर्सुला और गोदलीपा दीदी को जो सफाई करती थीं । उर्सुला दीदी छोटी , नाटी , घुंघराले बालों वाली खूब हंसमुख आदिवासी महिला थी । गोदलीपा दीदी , लम्बी , पतली , तुरत नाराज़ होने वाली । कुछ गिरा देख कर बिगड जाती ।

कक्षा में खूब बडी खिडकियाँ दो ओर । बरामदे वाली खिडकियों के नीचे कबर्डस , बैग रखने के लिये । कक्षा में घुसते ही हमें अपनी किताबें बैग से निकालकर डेस्क में जमा लेना होता । अंतिम काम ,कक्षा शाम को समाप्त होने पर ,बैग पैक करना होता । ब्लैकबोर्ड के ऊपर ईसा मसीह की सलीब पर लटकी छोटी मूर्ति हर क्लास में ।मिशनरी स्कूल में पढने का ये फायदा हुआ कि क्रिश्चियन धर्म के बारे में बहुत कुछ पता चला । कई बार फ्री पीरीयड में सिस्टर सुशीला बाईबल की कहानियाँ किसी किताब से पढकर सुनातीं ।क्रिश्चियन लडकियाँ जब कैटेकिस्म के लिये जातीं तब हमारी मॉरल साईंस की क्लास लगती । कक्षाओं की ईमारत के बगल में एक ऑडिटोरियम था । स्टेज पर ग्रीनरूम को छुपाने के लिये कैनवस के विशाल छत को छूते दोनों ओर ,तीन तीन पेंटिग्स, जो नाटक मंचन के समय नेपथ्य का दृश्य बन जाते । उन विशाल कैंवस पर लहराते नारियल के पेड , पीछे दीवार पर सूर्यास्त का पेंटेड चित्र अब तक मन में ताज़ा हैं ।

मिशनरी स्कूल के फायदे नुकसान पर बहुत बहस हो सकती है पर मुझे लगता है कि कई ऐसी चीज़ें अपने में आत्मसात की जो सिस्टर्स की देन है । नैतिक मूल्य ,सही गलत की समझ , एक मूलभूत नैतिक आधार , ये भी उन्ही नन्स की देन है । एक और चीज़ जो ध्यान में आती है वो ये कि मदर हमेशा लंच के समय सामने वाले मैदान में चक्कर लगातीं और गिरी हुई कोई भी चीज़ उठाकर बिना हमलोगों को डाँटे कूडेदान में डालती जातीं । तब हम हँसते , खुसुर फुसुर करते । अब मजाल है कि कभी कोई चीज़ मैं सडक पर ऐसे ही फेंक दूँ । कूडेदान तलाशती हूँ । कई बार तो वापस घर तक भी लेकर आई हूँ अगर कोई सही जगह नहीं दिखाई दी है फेंकने के लिये । बच्चे अभी कुडबुडाते हैं मेरी इस आदत पर , डाँट भी सुन जाते हैं ऐसे ही कभी कुछ इधर उधर फेंक देने पर । पर शायद बडे होने पर सफाई उनकी आदत में शुमार हो जाये । मदर का वात्सल्य से भरा चेहरा मुझे याद आता है । मेरे बच्चों के मैं याद आऊँगी ।

सिस्टर्स की एक और बात जो मुझे अब भी कहीं गहरे छूती है वो ये कि उन्हें अपने बहुत से छात्र हमेशा याद रहे । मेरा छोटा भाई अभिषेक कक्षा 1 तक सेकरेड हार्ट में पढा ।उसके बाद सेंट ज़ेवियर और फिर नेतरहाट चला गया । ICSE के बाद एक दिन जब मैं अपनी स्कूल लीवींग सर्टिफिकेट लेने गई तो सिस्टर टेस्सा जिन्हे प्रिंसिपल के तौर पर स्कूल में आये सिर्फ साल भर हुआ था , उन्होंने मेरे भविष्य की योजनायें पूछने के बाद अचानक पूछा कि अभिषेक कैसा है ? मैं हैरान । इन्हें मेरे भाई के बारे में कैसे पता जिसे स्कूल छोडे अरसा बीता , जिसे उन्होंने कभी नहीं देखा । मेरे हैरान चेहरे को देखकर सिस्टर टेस्सा हँसी थीं फिर कहा था कि कुछ दिन पहले सिस्टर साईमन उन्हें मिली थी जिन्होंने मेरे भाई को पढाया था । मैं भाई को हँसी से कहती कि मेरे वजह से उसे भी याद रखा गया
( मैं पढाई में हमेशा अव्वल रही और ICSE में मेरिट सर्टिफिकेट शिक्षा मंत्रालय , भारत सरकार से भी मिला ) खैर , बात जो भी रही हो सिस्टर्स की छात्रों के प्रति प्रतिबद्धता का ये जीता जागता उदाहरण है ।

स्कूल छूटे अरसा बीता , युग बीता । फिर भी आँखों के सामने लाल ईंटॉं की इमारत , सिस्टर्स , शिक्षिकायें सब ऐसे याद आते हैं जैसे कल की ही बात हो ।

एक वाटर कलर फूलों का बहुत पहले बनाया हुआ

बैंगनी फूल

8/31/2006

मास्टर जी

बचपन में तस्वीरे‍ बनाने का शौक था पर कभी ऐसी स्थिति नहीं आई कि सीख सकूँ । जब कॉलेज में थी तब एक बार नाज़िर बाबा (इनके बारे में यहाँ पढिये ) आये । मेरी कुछ आड़ी तिरछी लकीरें देखी और कहा , चलो तुम्हें एक जगह ले चलें । हमारे घर से लगभग १० मिनट की दूरी पर एक लड़्कों का सरकारी स्कूल था , काफ़ी बड़ा (आम सरकारी स्कूलों से भिन्न )बहुत बड़ा कैम्पस ,शि़क्षकों के क्वार्टस वहीं अन्दर । मास्टर जी इसी स्कूल में आर्ट टीचर थे । नाज़िर बाबा के परिचित ।" ये तुम्हें सिखायेंगे " , उन्होंने परिचय कराते हुये कहा । मास्टर जी बड़े शान्त स्वभाव के लगे । दुबला पतला इकहरा शरीर , साँवला रंग , घुँघराले बाल कँधे तक बढे हुये । उनकी पत्नी बाहर आई , गोरी , गोल मटोल , चौड़ा आकर्षक चेहरा और चेहरे से अंकवार ले लेने वाला अपनापन मुस्कान से भी ज्यादा खिलता हुआ ।

आम , जामुन और बेर के पेड़ों के बीच घिरा हुआ दो कमरे काक्वार्टर , बाहर वाले कमरे में कैन्वस , रंग , कूची ,तमाम चित्रकारी के अल्लम गल्ले , कुछ बेहद सुंदर पोट्रेट्स , आँगन में खटिया पर बच्चों के कपड़े,थोड़ा सा जो बरामदा दिख रहा था वहाँ रसोई के कुछ इंतज़मात, अलगनी पर टंगे कपड़ो‍ का ढेर , धूप में मर्तबान में पकते अचार ।सब एक नज़र में देखा।तय हुआ कि अगले इतवार मास्टर जी घर आयेंगे ।देखेंगे हमारी चित्रकारी के नमूने फ़िर आगे कैसे सिखाना है इसपर विचार होगा । मेरा ख्याल था कि मास्टर जी लिहाजवश मना नहीं कर पाये । वरना उनकी बातों से लगा कि बहुत व्यस्त रहते हैं । ये बाद में पता चला कि लोगों के आग्रह पर पोर्ट्रेट्स अपने खर्चे पर बनाते हैं,वक्त और पैसे दोनों जाता है पर लोगों को इन्कार नहीं कर पाते ।

इतवार आया और साथ में बिलकुल समय पर मास्टरजी । बाहर धूप में चाय की दौर चली । मैंने अपनी बनाई एक स्केच उनको दिखाई । एक ब्रिटिश पत्रिका आती थी 'विमेन एंड होम ' , उसी से देखकर नकल उतारी थी , हाथ में मशाल लिये दौड़ते हुये एक पुरुष की जिसके एड़ियों पर पंख लगे थे ।मास्टरजी ने देखा और कहा " हम सिखायेंगे "
उनके एक इस वाक्य से मुझे कैसा खज़ाना मिला था । लगा अब मुराद पुरी हुई । आँखों के सामने खूबसूरत पेंटिग्स एक एक करके लहरा गई , पैलेट,कूची हाथ में लिये ,ऑयल कलर्स के रंगीन धब्बों से सुसज्जित एप्रन पहने मैं कैन्वस के सामने सपनीली आँखों से रंगों की दुनिया में विचर रही थी । बस अब ये सब हाथ बढाकर मुट्ठी में भर लेने लायक दूरी पर ही तो था ।
अगले इतवार हम उनके घर पर थे । पहली सीख ये दी कि अभी खूब पेंसिल स्केचेज बनाऊँ श्वेत श्याम तसवीरों की । किन पेंसिल से चित्र बनाना है ये बताया । घर लौट कर सब सरंजाम किये । घर पर दो मोटी मोटी चमकीली कागज से सजी हुई फोटोगराफी की किताबें थीं । उनमें कई श्वेत श्याम फोटोज़ भी थे । सब धीरे धीरे मेरे पेंसिल के कैद में आकर अपना चेहरा बिगाड चुके । एक लडकी की तस्वीर तब बनाई थी , फिर उसी पत्रिका 'वीमेन एंड होम ' से , कहानी के साथ ये स्केच था । कहानी का नाम अब तक याद है ,'द फ्लावरिंग डिसेम्बर ' , एस्सी सम्मर्स का लिखा हुआ ।

अनामिका
पहली क्लास के बाद करीब दो हफ्ते बीत गये । मास्टरजी फिर एक दिन आये । मेरे स्केचेज़ देखे , कुछ सुधारा , कुछ गल्तियाँ बताई । फिर रंगों के बारे में बताया । कुछ बेसिक रंग खरीदने को कहा और कैनवस बनाने की प्रक्रिया समझाई । कहा कि पहले कैनवस खुद से बनाऊँ । प्लाई , मार्किन का कपडा , सैंडपेपर और शायद ज़िंकपाउउडर । पहला कैनवस पीसी मॉनिटर जितना बडा रहा होगा ।प्लाई पर मार्किन चिपका कर , पाउडर का घोल लेप करके रगडना सैंडपेपर से । ये प्रक्रिया तीन चार बार करनी थी । मेरा कैनवस तैयार होता तबतक N.T.P.C. से चिट्ठी आ गई कि मेरा चयन हो गया है । चित्रकारी सीखना कोल्ड स्टोरेज में चला गया । वो तब था और आज भी ये अरमान अधूरा ही है । देखें भविष्य में कुछ जुगाड बैठता है या नहीं ।बाद में , कई साल बाद जार्जिया ओ कीफ की पेंटिंग "पॉपीज़" की नकल बनाई थी उसी अपने हाथों से बनाये कैनवस पर । अब ये चित्र कहाँ है पता नहीं , शायद खो गया कहीं घर बदलते रहने के चक्कर में ।एक और बडी सी पेंटिंग बनाई थी दौडते हुये घोडों की ।ये भी कहीं खो गई ।
मास्टर जी से फिर मुलाकात नहीं हुई । पटना छूट गया । मास्टरजी की एक बात और याद आई । कहते थे कि उनके पिता स्वतंत्रता सेनानी थे , क्रांतिकारी थे । जेल में थे रामप्रसाद बिस्मिल के साथ ।

"सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है

देखना है ज़ोर कितना बाज़ू-ए- कातिल में है"

ये मशहूर शेर उनके पिता का लिखा हुआ था , न कि बिस्मिल जी का । अपने पिता की बात करते करते मास्टरजी जोकि आमतौर पर बेहद शांत , सौम्य और नफासत से बोलने वाले थे , एकदम आवेश में आ जाते । कहते कि ये साबित कर के रहूँगा कि यह शेर मेरे अब्बा का लिखा हुआ है ।आज मास्टरजी कहाँ हैं , कैसे हैं कुछ पता नहीं पर जब अपने स्केचेज़ और वाटर कलर्स निकाला तो उनकी याद आई । दुआ करती हूँ कि जहाँ भी हों स्वस्थ हों , सुखी हों

मेरी कविता .........................

रंग

मन था, कोरा सफेद कैनवस,
कुछ आडी तिरछी लकीरें
कुछ अमूर्त भाव
कुछ मूर्त कल्पनाएँ

उँगलियाँ कूची पकडे
काँपती थीं
उत्सुकता से..
आज नया क्या सृजन हो
जो खुद को भी कर दे
चमत्कृत

रंग बिखरे थे, गाढे, चटक,
कुछ हल्के, सपनीले…
सफेद कैनवस पर
लाल सूर्य सा,बिंदी गोल
मन वहीं टँक जाता है

सृजन का ये पहला रंग
हर बार पीडा देता है
और खुशी भी, जैसे
गर्भस्थ शिशु की
पहली चीख , माँ के कानों में,
इस दुनिया में आने पर….

8/25/2006

टाईगर टाईगर बर्निंग ब्राईट

बचपन में पढी थी विलियम ब्लेक की कविता , "टाईगर "।
तब कल्पना की उडान खूब लगती थी । मुझे अबतक याद है कि कक्षा में बैठे हुये खिडकी से बाहर देखते हुये घने अँधियारे जँगलों में विचरते रौबीले खूँखार बाघ की कल्पना की थी ।

बाद में कई बार सबसे पसंदीदा जानवर कौन है के जवाब में हमेशा बाघ ही दिमाग में आया । बाघ से ज्यादा राजसी और कोई जानवर नहीं । मेरे हिसाब से जँगल का राजा शेर भी नहीं

तो पेश है अपनी बनाई एक पेंसिल स्केच और एक कविता

टाईगर



एक पत्ता खडका था
एक चाप सुनाई दी थी
एक साया डोल गया था
दूर बियाबान जंगल में
रात का जादू फिर छा गया था
इस औचक आखेट का अंत
क्या फिर वही होगा
क्या फिर किसी की जीत में
मेरी हार होगी ?

8/23/2006

मैं और मेरी कूची

मुझे चित्रकारी का बहुत शौक था । पहले रंगों में खेलती थी , पेंसिल स्केचेज़ भी खूब बनाये । सीखने की बहुत इच्छा रही पर मौका नहीं मिल पाया ।जब स्कूल में थी तो किताबों और कॉपियों के मार्जिंस पर तरह तरह के चेहरे बनाना पसंदीदा समय निकालने का , वो भी पढाई के वक्त , तरीका था । अब भी मीटिंग्स में , वर्कशॉप में , कॉंफरेंसेस में , लोगों की शक्लें बनाना , मज़ा आता है ।

कई साल पहले बनाये गये अपने दो वाटर कलर पेंटिग्स पेश हैं


water colour village


और ये रहा एक और

water colour solitary house

ये शौक अब छूट सा गया है । कभी खूब सारी छुट्टी मिले तो फिर शुरु किया जाय ।

8/17/2006

छुट्टी के दिन की सोंधी बातें

छुट्टी का दिन था । सुबह सवेरे ही हमने एलान कर दिया था ,'आज हमारे ऊपर अन्न्पूर्णा अवतरित हुई हैं । आज जो भी खाने की इच्छा हो माँगो, आज हमारे मुँह से तथास्तु ही निकलेगा ।'भाई लोग मौका क्यों चूकते । तुरत फ़रमाईश की फ़ेहरिस्त हमें थमा दी गई ।(बाकी के दिनों में तो उन्हें वही खाना होता है जो मैं अपने समय के हिसाब से पकाऊँ ) हर्षिल के लिये बनाना हनी पैनकेक , पाखी के लिये रोटी पित्ज़ा , संतोष के लिये बेसन के चीले । रसोई में प्रवेश करते ही हमारे दो हाथ चार हाथ में तब्दील हो गये ।वाकई अन्न्पूर्णा साक्षात हमारे शरीर में प्रवेश कर चुकीं थीं ।

ऐसा था कि सुबह ही संतोष ने ये कह कर कि आज मैं आराम करूँ और रसोई का कार्यभार वो संभालेंगे , मेरा मन प्रसन्न कर दिया था ।मैं भी अपने कुशल गृहिणि , आदर्श माँ और समर्पित पत्निहोने का मौका कैसे चूकती सो 'वर माँगो वत्स' मोड में आ गई । तीन लोगों के लिये तीन व्यंजन । पर मैं अपनी उदारता और सदाशयता से खुद अभिभोर थी । रसोई के शेल्फ़ में 'पाक कला के बेहतरीननमूने', '१०० प्रकार के अचार','माईक्रोवेव कुकिंग''तरला दलाल के साथ ' जैसी कई किताबें धूल खा रही थीं । उन पर झाड़न चलाई । सिमोन द बोवुआ और जरमेन ग्रीयर को दिमाग से आउट कियाऔर जुट गयी पैनकेक बनाने में ।संतोष को अखबार चैन से पढने छोड़ दिया । आज ये भी नियामत तुम्हारी ।

सुबह का काफ़ी बड़ा हिस्सा जो कि चैन से अखबार पढते , चाय पीते , बात करते बिताया जा सकता था वो अब रसोई की भेंट चढ रहा था ।

"अमूमन हम छुट्टियों के दिन
खूब बातें करते हैं ,
दो तीन दफ़े
चाय का दौर चलता है
फ़िर नाश्ता बनाने किचन में
बात अनवरत चलती है
कटे प्याज़ और भुने पनीर पर ,
सिंकते पराठे और टमाटर की कतली पर ,
नाश्ते की टेबल पर
काँटों और चम्मचों की खनखनाहट
और तश्तरियों और प्यालियों पर
फ़ैलती हुई
अलसाई छुट्टी की बातें
बेपरवाह बातें
अलमस्त बातें

कुछ गंभीर मसले भी
कभी कभार
पर ज्यादातर
अपनी बातें
हँसी की बातें
पसरे हुये दिन की
पसरी हुई बातें "

पर नाश्ते की टेबल पर बच्चों के चेहरे से तृप्ति और हाथों से शहद टपकता देख कर जो तृप्ति मुझे हुई उसको क्या बयान करें । बस सुबह बहुत अच्छा बीता । तब और भी ज्यादा जब बढिया नाश्ते के बाद संतोष ने खूब जानदार कॉफ़ी पिलाई ।

संतोष कई बार मज़ाक में मुझे छेड़ते हुये कहते हैं कि औरतों को बहलाना (इसे पढें ,बेवकूफ़ बनाना ) बड़ा आसान है । सिर्फ़ ये कह भर दो कि फ़लाँ काम , अलाँ काम ,मैं कर दूँगा फ़िर देखो कितनी तत्परता और प्यार से वे उसी काम को बिना शिकायत ,पूरा कर देती हैं । और तुर्रा ये कि खुश भी रहती हैं । मेरा जवाब होता है कि ये सच है । औरतों को खुश करना बड़ा आसान है । सिर्फ़ दो मीठे बोल ही तो चाहिये । पर ये भी हमेशा बिजली की तरह शॉर्ट सप्लाई में ही रहता है,न जाने क्यों । मेरा ये मानना है कि अगर जीवनसाथी को आपकी चिन्ता है तो वो ऐसा कोई काम कैसे कर सकता है जिससे आप को तकलीफ़ हो । आपकी तकलीफ़ और परेशानी उसे कैसे बरदाश्त हो सकती है ।ये बात दोनो तरफ़ लागू होती है । अगर एक दूसरे की चिन्ता में ईमानदारी हो तो उड़ चलें आसमान में ,पँख तो उड़ने के लिये ही हैं न ।जब घर साझा हो तो जिम्मेदारी भी साझी ही होगी ,चाहे घर की हो या बाहर की ।और जो पकती फ़सल काटेंगे उसको भी मिलबाँट कर ही खायेंगे ।

तो अभी मुझे आदेश हुआ है कि मैं लिखने पढने का काम करूँ । किचेन में खूब हँगामा मचा है । दोपहर का खाना पक रहा है ।कुछ जलने की भी बू आ रही है । तीन लोग मिलकर एक व्यंजन बनाने की कोशिश जो कर रहे हैं ।

8/15/2006

महिला मुक्ति ... किससे मुक्ति , कैसी मुक्ति


कभी बड़ा द्वंद मचता है , बड़ी लड़ाई के पहले का गर्दो गुबार , आखिर महिला मुक्ति मोर्चा की सरगना बनूँ या पतिव्रता भारतीय नारी के घूँघट में चैन की साँस लूँ ।

बचपन से माँ को बाहर नौकरी करते जाते देखते आये थे । कॊलेज में सोश्यालजी पढाती थीं । पर घर की सारी जिम्मेदारी उनकी थी । ये अलग बात थी कि कई बारघर के काम के लिये नौकर ,चपरासी रहते पर कई बार ऐसा नहीं भी होता था । पापा कई घरेलू चीज़ों में माँ का बराबरी से हाथ बँटाते पर, खाना बनाना और घर की तमाम अन्य चीज़ों का लेखाजोखा तो माँ का ही था । हमारे घर के हर पुरुष ( पापा , दोनों भाई ) खाना खाने और पकाने के बेहद शौकीन हैं । फ़िर भी उनका ये काम शौक की ही कैटेगरी में आता । बड़े तामझाम से पापा कभी रसोई में आते , माँ को रसोईनिकाला हो जाता और हम सब भाई बहन पापा के असिस्टेंट्स बन जाते ।कुछ बड़ा शानदार लेकिन अजीबोगरीब सी रेसिपी से खाना बनाया जाता । माँ ताकझाँक करतीं , हैरान होतीं , भविष्यवाणी करतीं कि जिस तरीके का खाना पक रहा हैउसे घर का कुत्ता भी न खाये । पर जब खाना पक कर तैयार होता और खाया जाता तो हमसब ,माँ सहित , पापा की पाक कला और कुछ नये तरीके से खाना पकानेकी कला का लोहा मान लेते । बचपन की कई मधुर यादों में से ऐसे कई वाकये मुझे अब तक याद हैं ,उन पकाये खानों की खुश्बू और स्वाद आज भी ज़ुबान और मन कोभिगा जाते हैं ।

पर ये सब भी एक पिकनिक की तरह होता । रोजमर्रा के खाना बनाने और घर की साफ़सफ़ाई जैसा एकरसता भरा काम तो स्त्री के जिम्मे ही हो सकता था । पापा और माँ जिस संस्कार और समाज में पले बढे थे उसमें पापा का इतना करना ही उन्हें एक लिबरल और समझदार जीवन साथी का तमगा आसानी से दिला देता था । पर बावजूद इसके औरतऔर मर्द का रोल परिभाषित था । ये मेरा काम है , ये तुम्हारा । बात सही भी है , डिविशन औफ़ लेबर तो होना ही चाहिये । पुरुष बाहर जाये कमाये परिवार का पोषण करेऔर स्त्री घर देखे , बच्चों की परवरिश करे ।सदियों से चली आ रही इस व्यवस्था की नींव मजबूत भी थी और व्यावहारिक भी ।

परेशानी तो तब शुरु हुई जब इस परिभाषित रोल को उठा कर पटक दिया गया । स्त्री घर की चाहरदीवारी फ़लांग कर बाहर की दुनिया में उड़ने की ज़ुर्रत करने लगी ।तब ये कहा गया, ठीक बाहर कदम रख रही हो पर घर की व्यवस्था में जरा सा भी ढील ...न , बरदाश्त नहीं किया जायेगा ।और औरत जी जान से जुट गई घर को संभालनेमें , बाहर की दुनिया अपने पँखों से छूने की, उड़ने की । भागदौड शुरु हो गई थी और ये तो सिर्फ़ शुरुआत थी । साहब बीबी और गुलाम में रहमान का मीना कुमारी को कहना,'गहने तुड़वाओ , गहने बनवाओ', वाला ऐशो आराम ( उसी ऐशोआराम से छुटकारा पाने की तो सारी जद्दोजहद थी )अब कहाँ ?

हम अभी ट्रांसिशन फ़ेज़ में हैं । हमारी माँओं को फ़िर भी आसानी इस मायने में थी कि उन्हें इस बात की इतनी शिद्दत से कमी महसूस नहीं होती कि पति उन के घर की जिम्मेदारियों मे बराबरी का हिस्सेदार नहीं । एक वजह तो ये भी थी कि घर में उनके मददगार कई थे , संयुक्त परिवार भी और नौकरों की कतार भी आमतौर पर । हमारी पीढी सबसेकठिन दौर में है । संयुक्त परिवार डायनासोर की तरह लुप्त हो गये हैं , घर के काम में मदद के लिये लोग आसानी से नहीं मिलते , ऒफ़िस में अपने को पुरुष की बराबरी या कभीउनसे भी बेहतर साबित करना अब भी जरूरी है ।शायद अगली पीढी इस मामले में हमसे ज्यादा भाग्यशाली साबित हो । जब बाहर अपने को हर वक्त साबित करने की होड न हो ,जब घर में पति "मदद " न करे अपना काम समझ कर हिस्सेदारी करे , जब आज़ादी का मतलब बाहर जाकर नौकरी करना न हो बल्कि आजादी का मतलब चुनाव कीआज़ादी हो कि औरत घर में रहे या बाहर नौकरी करे ।

आज भी हमारे पुरुष प्रधान समाज में अगर कोई पुरुष गाहे बगाहे भी घर में खाना पका दे , बच्चों को कभी कभार देख दे , खासकर तब जब उसकी बीवी नौकरी न करती होतो उस पति के पत्नि को एक भाग्यशाली स्त्री का खिताब मिल जाता है ।अगर बीवी नौकरी कर रही हो तो स्थिति बदल जाती है । पुरुष घर में मदद करने लगता है । स्त्री उसके एहसान के तले दब जाती है । ऐसा अपने आसपास कई घरों में देखा है कि बीवी नौकरी कर रही है पर आर्थिक स्वतंत्रता उसकी नहीं है । उसके काम का दायरा बढा दिया गया है पर फ़ैसले लेने की जवाबदेही का सुख उसका नहीं ।

ऐसी स्थिति में जब अपने घर में नज़र दौड़ाती हूँ तो सुखद आश्चर्य होता है । संतोष की सबसे बड़ी खूबी इस मामले में ये है कि खाना पकाना (संतोष बहुत बढिया खाना पकाते हैं ) या घर का और कोई भी काम ,वो सिर्फ़ मेरा नहीं समझते । अगर मैं दो घँटे किचन में बिताती हूँ तो संतोष अपराधबोध से ग्रसित हो जाते हैं ।उन्हें लगता है कि ऒफ़िस की भागदौड़ के बाद रसोई में फ़िर समय देना मेरे साथ ज्यादती है ।ये और बात है कि खाना पकाना मुझे बहुत अच्छा लगता है । अन्न्पूर्णा की तरह अपने प्रियजनों के लिये स्वादिष्ट भोजन बना कर उन्हें खिलाना बड़ी तप्ति का एहसास दिलाता है । इस मामले में शायद भगवान ने ही हमारे साथ नाइंसाफ़ी करदी है कि ये सब किये बिना हमें चैन नहीं आता । कितना भी बाहरी दुनिया में भागदौड़ करलें घर का सुख बार बार हमें खींच कर अंदर कर देता है ।तो जब तक हमारे मेंटल मेक अप की रीवाईरिंग नहीं होती हम लाचार हैं ट्रेडमील पर दौड़ते रहने के लिये ।

तो आप ही बतायें हमने क्या अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मार ली है ? घर से हम छूटना नहीं चाहते , बाहर की दुनिया में अपने आप को साबित करने की उबलब्धि का रस हमने भी चख लिया है । हम जायें तो कहाँ जायें ? शुक्रिया भगवान छोटी बड़ी दयानतदारियों के लिये । शुक्रिया ऐसे जीवनसाथी के लिये जिसके साथ घर और बाहर की दुनिया में सन्तुलन बनाना साथ साथ सीखा है और ये भी सीखा है कि शादी शुदा जीवन , जिम्मेदारियों का सी-सौ नहीं है । संतुलन बीच बीच का बनाया जा सकता है , आसान नहीं लेकिन असंभव भी नहीं । तो कभी जब महिला मुक्ति मोर्चा का सरगना बनना होता है , तब हमारे ऊपर सति सावित्री सवार हो जाती है । जब पतिव्रता पत्नि बनना होता है तो म. मु. म. का विद्रोह गीत फ़ूटने लगता है ।जीवन में बड़ा द्वंद है , कुछ अपना कुछ औरों का ।

फ़िलहाल तो सीज़फ़ायर है लड़ाई के मैदान में ।संतोष की वजह से म. मु .म. ने एक बहुमूल्य सदस्य खो दिया है।

8/12/2006

कुछ तस्वीरें जो मैंने नहीं खींची

ये तस्वीरें भाई की खींची हुई हैं, जब पिछले दिनों वो भारत आया हुआ था ।

DSC_1340

ये फ़ोटो रांची में खींची गई है ।

DSC_1322

ये कुछ और भी

DSC_1356


और एक

DSC_1313

छाया जी , बताये‍ कैसी तस्वीरें हैं ? मैंने नहीं खींची तो क्या

8/10/2006

खिलने दो , खुशबू पहचानो

आज जगदीशजी की "तुम मुझे जन्म तो लेने देते" पढकर अपनी एक पुरानी कविता याद आ गई ।


खिलने दो , खुशबू पहचानो
आज तुम ,और तुम ,और तुम
कल मैं ,हम सब

क्योंकि मैंने देखा है
नन्हे फेफडों को फफकते हुये
साँस के एक कतरे के लिये
नन्ही मुट्ठियों को
हवा में लहराते लहराते
शाँत गिर जाते हुये

अब कोई किलकरी नहीं गूँजेगी
क्योंकि
चारों ओर लटके हैं बेताल
उलटे वृक्षों पर
शिशु कन्याओं के रूदन से
भरा है रात का सन्नाटा

ये अभिशप्त हैं पैदा होते ही
मर जाने को
या फिर ख्यालों में ही
दम घोंटे जाने को
और अगर इस धरती पर
आ भी गये
तो अभिशप्त हैं तिलतिल कर
रोज़ मरने को

हँसी की कोई आवाज़ नहीं गूँजेगी
कोई छोटे हाथ ,फूलों के हार
नहीं गूँथेंगे
तुम्हारे लिये
क्योंकि
अब अभिशप्त वो नहीं
तुम हो
एक मरुभूमि में जीने को

इसलिये एक मौका और दो
अपने को ,जीने के लिये
खिलने दो , खुशबू पहचानो


(शिशु कन्याओं की भ्रूण हत्या के विरोध में एक छोटी सी आवाज़ मेरी भी)

7/31/2006

मुन्नार , मुन्नार , हम आ रहे हैं

मुन्नार का रास्ता बेहद खूबसूरत था . इतनी हरियाली कि हमारी आँखें ठंडी हो गई . हमने महेश को पहले ही कह दिया था कि पहाडी रास्ता शुरु होने के आधे घंटे पहले हमें बता दे ताकि मैं और हर्षिल एवोमिन की गोली गटक लें . हम माँ बेटा पस्तहाल हो जाते हैं . पापा और उनकी दुलारी बेटी कैसा भी रास्ता हो मस्त रहते हैं. हमारे लटके चेहरे देखकर उन्हें आश्चर्य होता है . एक और मज़ेदार बात है कि सफर शुरु होते ही भूख भी उतनी ही तेज़ी से लगती है. हमने महेश को कह दिया था कि किसी ऐसे रेस्तरां में रोके जहाँ बिलकुल मलयाली भोजन मिले.

जहाँ हमने खाना खाया वो छोटा सा होटल था . चेमीन यानि 'प्रॉन" , करीमीन "मछली" और चावल . मज़ा आ गया . सफर फिर शुरु हुआ . सडक का कुछ हिस्सा खराब था औत अचानक एक धक्के से गाडी रुक गई . एक बडा सा पत्थर नीचे आ गया था . एक्सल की अलाईनमेंट शायद गडबडाई थी . महेश की चिंता शुरु हो गई . कुछ हमारी भी . रास्ते में एक जगह हम रुके. एक वर्कशॉप था जहाँ कंप्यूटर से अलाईनमेंट ठीक की जाती थी . संतोष और महेश वर्क्लशॉप के अंदर , मैं और बच्चे बाहर .गाडी से उतर कर हम यूं ही इधर उधर देखते रहे , सडक पर चल रहे लोगों को , स्कूल से लौटते बच्चों को , आस पास के घरों को . दस कदम दूरी पर लगा कि झाडी में एक बकरी खडी है . कुछ देर बाद फिर देखने पर लगा कि बकरी बको ध्यानम की मुद्रा में है. कोई हलचल नहीं . इंवेस्टिगेट करने हम आगे बढे तो पाया कि बकरी की मूर्ति खडी है एक दुकान के सामने . सडक पर बोर्ड लगा था "स्नूपी गार्डेन पेट शॉप " हमारी जिज्ञासा बलवती हुई . दो पिंजरे रखे थे दुकान के दरवाजे पर . एक में एक टर्की और दूसरे में दो बत्तख . अंदर झाँका , एक छोटा सा तालाब , खूब सारी हरियाली , पेड पौधों के बीच कुछ बेडौल मूर्तियाँ , और उनसब के बीच एक मरियल सा पिल्ला जो हमें देखकर खुशी से कूंकने और पूँछ हिलाने लगा . अब तक हमारी जिज्ञासा तीर पर कमान की तरह हो चली थी , अब छूटी कि तब . अंदर दुकान के , एक आदमी बडे मनोयोग से छाता ठीक कर रहा था , उसकी कमानी से उलझ रहा था . हमारी तरफ एक उडती नज़र डाली फिर मशगूल हो गया .हमने भी उसे नज़रांदाज़ किया और दुकान में दाखिल हो गये . एक तरफ कतार से अक्वेरियम, लगभग दस बारह , जिसमें तरह तरह की मछलियाँ , एकाध कछुआ भी , दूसरी तरफ पिंजरों में रंगीन चहचहाती चिडियों का झुरमुट , कुछ मुर्गियाँ , एकाध बत्तख .. बस मज़ा आ गया . ये भी आश्चर्य हुआ कि इस छोटे से कस्बे में मछलियाँ कौन खरीदता होगा . मुर्गियाँ और् बत्तख तो समझ में आया .खैर , जितनी देर गाडी बनने में लगी उतनी देर हम स्नूपी गार्डेन पेट शॉप में घूमते रहे . छाता वाला आदमी अपने मूंछों में मुस्कुराता रहा , नो हिन्दी , ओंनली मलयालम , जताने के बाद .

गाडी अंतत ठीक हुई और हम चल पडे .पहाडी रास्ता अब शुरु हो चला था. साथ में बारिश भी . दोनों तरफ घने पेड . बीच बीच में पहाडों से बहती प्रचंड धारा , कुछ तो हाथ बढाकर छू लें , इतनी दूरी भर सिर्फ . पाखी हर छोटे जल प्रपात को देखकर उल्लास से चीखती. महेश ने हमें आश्वासन दिया कि थोडी दूर पर एक ढाबा है जहाँ गर्मागरम चाय मिलेगी . वहाँ रुके तो सडक के पार विशाल हुहुआता हुआ पानी का प्रपात . देखकर एकदम से डर लगा . जैसे पानी का सारा गुस्सा उफन कर बह रहा हो . उसकी प्रचंड शक्ति का वेग दूर से ही महसूस किया जा सकता था . बारिश अब भी हो रही थी . छाता लगाकर हम सडक के दूसरी ओर गये नज़दीक से देखने के लिये . सतोष के हाथ में हैंडी कैम, मेरे हाथ में छाता. प्रकृति का नृत्य इससे सुंदर और क्या हो सकता था . और इससे भयावह भी क्या जब कल्पना की कि अगर इसमें कोई गिर जाये तो उसका क्या हश्र हो . लौट कर ढाबे में बैठे . ढाबा कहना गलत होगा क्योंकि केन की खूबसूरत कुर्सियाँ और शीशे का टेबल , स्नैक्स का विस्तार शीशे की आलमारियों में , इसे ढाबे के स्तर से ऊपर उठा रहा था . हमने चाय पी , बच्चों ने चिप्स और नारियल की मिठाई . कुछ पैक कराया और निकल पडे . बाद में हम कई जगह वैसी ही नारियल की मिठाई खोजते रहे पर हमें निराशा ही मिली .

मुन्नार के करीब हम पहुँच गये थे . चाय की वादियाँ शुरु हो गई थीं . ऐसे ढलवाँ पहाड पहले सिर्फ तस्वीरों में ही देखा था. कच हरी चादर ओढे , अधलेटे ,अलसाये पहाड . " रॉलिंग हिल्स " किसे कहते हैं अब समझ में आया . हर मोड पर लगता अब इससे सुंदर और क्या होगा . महेश को कहा कि अगला जब चाय बगान आये तो गाडी रोक दे, कुछ तस्वीरें हम उतार लें . पर चाय के बगान पर बगान निकलते रहे . महेश हंसता , " सर, अब्बी और सुंदर पहाड आयेगा , पूरी दुनिया में इससे सुंदर आप नहीं देका होगा . फॉरेन टूरिस्ट बी यही बोलता ".
मुन्नार शहर में हम प्रवेश कर गये थे . एक अंतिम तीखा मोड , उससे भी तीखी चढाई और हम "टी काऊंटी रेसोर्ट " पहुंच गये थे . थके हारे सैलानी कमरे में पहुँच कर ढह गये . कमरा बेहद सुंदर . बॉलकनी से पहाडों का नज़ारा , चोटी पर धुंध की चादर. सब कुछ एक रहस्यमय चादर में लिपटा हुआ . थोडी ढंड और गर्म कॉफी , नर्म बिस्तर और आराम . हम अगले दिन की घुमाई के लिये खुद को तैयार करने वाले थे .

7/13/2006

आखिर निकल पडे सैलानी



बोलगट्टी महल





सुबह 9.30 की उडान थी. रात की सूट्केस वाली मगज़मारी के बाद हमारा हौसला पस्त हो चला था.सारी पैकिंग सुबह के भरोसे छोड कर हम निढाल बिस्तर पर गिर पडे थे.

सुबह देर से उठे, बेहद हडबडी में निकले और फायदा ये हुआ कि ऐयरर्पोर्ट वक्त से पहले पहुँच गये. सेक्युरिटी चेक के बाद ही आराम की साँस ले पाये. उडान आधे घंटे देर से उडी पर आखिर सैलानी निकल पडे थे.

3.30 के आस पास कोची पहुँचे. ऐयर पोर्ट से निकलते ही अनगिनत नारियल के पेड . वाह मज़ा आ गया . गुडगाँव के ठिठुरे हुये पेडों के बाद इतनी घनी हरियाली. आँखें ठंडी हो गई . मौसम बेहद खुशगवार . यहाँ से त्रिवेन्द्रम तक हमारी यात्रा इंडिका से होने वाली थी . गाडी चालक महेश पिल्लई अब सात दिन हमारे साथ रहने वाला था . 22 साल तक फौज़ की नौकरी करने के बाद चार साल से टूरिस्ट गाडी चला रहा था .

महेश ने बताया कि हमें रुकना बोलगट्टी पैलेस में है जो कि एक द्वीप पर बना हुआ है. बोलगट्टी एक डच व्यापारी द्वारा बनाया गया महल था . इसे 1744 में बनाया गया . 1909 में अंग्रेज़ों को लीज़ पर दे दिया गया .तब से 1947 तक ये उनका रेसीडेंसी रहा .
भारत के आज़ाद होने के बाद सरकार ने इसे ले लिया और फिर इसे एक हेरिटेज़ होटेल में बदल दिया.

तय ये हुआ कि हम बोलगट्टी पहुँच कर कुछ देर थकान मिटायेंगे फिर निकल पडेंगे घूमने. बोलगट्टी पहुँच कर मन प्रसन्न हो गया. हरियाली से घिरा हुआ बेहद खूबसूरत डच शैली का महल .के टी डी सी ने इसे बहुत ही सुंदर तरीके से रखा है . हमारा कमरा और भी शानदार था . एक बैठक , एक सोने का कमरा और एक विशाल बॉलकनी जहाँ से अरब सागर दिखता था . डच अमीरों की शानशौकत, एक दिन के लिये ही सही , हम राजा या कहें रानी थे.

उस शाम खूब बारिश हुई. कमरों के बीच गलियारे से घिरा एक लंबोदरा आँगन था जहाँ पॉम और अन्य पौधे रखे हुये थे. छत से लंबी मजबूत सिकडी लटकी हुई थी जिसके सहारे पानी हरहराता हुआ नीचे गिर रहा था. चमकते फर्श पर पानी और पौधे की परछाई, टाईल वाली छत पर बारिश का संगीत , नारियल के पेड हवा में मस्त झूमते हुये और रेस्तराँ में गर्मागर्म कॉफी. घूमने न भी निकल पाये तो क्या. शीशे के पार से बरसात का मज़ा क्या कम था . पानी थमा तो बोलगट्टीमहल का अंवेशण किया . जगह जगह विशाल तैलचित्र, अंग्रेज़ों के या फिर डच परिवारों के , पुराने फर्नीचर .सौ साल पहले लोग कैसे रहते होंगे , कौन से लोग होंगे, क्या जीवनशैली रही होगी .

रात का खाना , केरेला पराँठा , करीमीन पोलिचाडु , चिकेन वेरिथ्राचा ( वर्तनी गलत हो सकती है , बडी मुश्किल से नाम याद रखा है ) उम्म्म अभी भी मुँह में पानी आ गया. डट कर खाना खाया और चैन की नींद सोये . सुबह नाश्ते के बाद हम निकल पडे कोची घूमने.

यहाँ देखने लायक कई जगहे हैं कोची शहर बहुत पुराना है और इसका महत्त्व इससे आँका जा सकता है कि इसे अरब सागर की रानी "क्वीन ऑफ अरेबियन सी " कहा जाता है . प्राचीन समय से व्यापार की वजह से यहाँ अरब , ब्रिटिश , चीनी , डच , पोर्तुगीज़ और अन्य कई संस्कृतियों की छाप स्पष्ट देखने को मिलती है . कहा जाता है कि यहाँ एक घर ऐसा भी है जहाँ वास्को दिगामा रहता था .

खैर , सुबह हम हिल पैलेस की ओर निकल गये . रास्ते में कोची पोर्ट देखा . बच्चे जहाज देखकर बेहद उत्साहित हुये .एक और नई चीज देखी , चीनावाला , मतलब चीनी तरीके की मछली पकडने की जाल . हिल पैलेस उन्नीसवीं सदी का बना हुआ कोची के राजा का महल है जो अब म्यूजियम में बदल दिया गया है . कोची राजा का स्वर्ण मुकुट देखा , जो वहाँ के गाईड ने बताया कि पुर्त्गालियों ने इसी मुकुट को दे कर व्यापार के अधिकार पर राजा से अनुमतिपत्र प्राप्त किये थे .

एक जगह जो और देखने लायक है वो संत फ्रांसिस चर्च जहाँ वास्को डि गामा को दफनाया गया था जब वो योरोप से आकर यहाँ बीमार पडा और मृत्यु को प्राप्त हुआ . बाद में अवशेष को पुर्तगाल ले जाया गया . सोलहवीं सदी में पुर्तगालियों द्वारा बनाया गया सांता क्रुज़ बासिलिका भी देखने लायक है .

चूँकि हमें मुन्नार के लिये निकल पडना था इसलिये हम और ज्यादा वक्त चाहते हुये भी कोची में नहीं बिता पाये . हिल पैलेस से हमारी सवारी बढ चली मुन्नार की ओर.

7/06/2006

यूरेका यूरेका

गतांक से आगे.....

समय सात बजे सायं......प्रयास जारी है. हर्षिल ने अब तक 300 तक के कॉम्बिनेशन आजमाने का महारथ हासिल किया. उसकी उँगलियाँ अब दर्द कर रही हैं . लिमका रिकार्ड हो सकता है क्या ? आशावान जिज्ञासा !
मेरी प्रतिक्रिया.....करते रहो वरना ट्रिप कैंसिल . टिकट भी एहतियातन सूट्केस के अंदर वाले पॉकेट में रखा था .
पाखी..रहरह कर बिसूरने के अलावा उलजलूल सुझाव देकर हमारी चिडचिडाहट को बढा रही है.

अब मैं ने भार लिया पर 400 तक पहुँचते पहुँचते उँगलियाँ जवाब दे गईं . बच्चों की उँगलियाँ ज्यादा लचीली होती हैं क्या ?
ये भी लग रहा है कि इस तरह शायद ही खुले. हो सकता है कि सही कॉम्बिनेशन आ कर जा चुका. शायद लिड को खींचना चाहिये सही नंबर पर , तब ही खुले. हे ईश्वर ! अब क्या. एक घंटा बीत चुका है.

पाखी ने एलान किया, "जब पापा आयेंगे वो खोल देंगे"
हर्षिल ," पापा क्या सुपरमैन हैं ?"
हाँ हैं न , मेरे पापा सब कुछ कर सकते हैं.

चलो यही सही. हताश हम भी पलंग पर लेट गये . अब आयें संतोष.

साढे आठ... संतोष का पदार्पण.
"चाय पिलाओ तो सूटकेस खोलें "
हम उवाचे ," अरे जाओ , तुमसे क्या खुलेगा. हमने सब कोशिश कर देख ली "
संतोष का रिकार्ड सबसे खराब. दस मिनट में ही हार मान लिया.

चाय बकायदा पी गई और हम निकल पडे मय सूटकेस लाम पर . इतनी देर हो गई थी. घर के पास ही नुक्कड पर वर्कशॉप है वहाँ पूछा कोई चाभी ताले वाला है आस पास .
"था अभी पाँच मिनट पहले तक "
आशा ने गोता मारा
"उसका मोबाईल नंबर उसके पोल के साथ लगे पेटी पर लिखा है "
( अरे तो ये पहले बताना था न )

आशा ने एक छोटी सी कुदान मारी
तुरत मोबाईल लगाया गया. उसने बताया पास में ही है और दस मिनट में पहुँचेगा.
हम ने डेरा डाल लिया, गाडी पार्क की गई. इंतज़ार शुरु

बंदा बात का पक्का निकला. दस मिनट में हाज़िर . शुरुआती दरियाफ्त की गई. कैपेबिलिटी अस्सेसमेंट के बाद सूट्केस थमा दिया गया.
पोल की रौशनी में सलीम मियाँ ने काम शुरु किया.
"पाँच मिनट में खुल जायेगा .ऐसे ही काम तो रोज़ किया करते हैं"
संतोष ने मौके और हालात का फायदा उठाते हुये सिगरेट सुलगा लिया . (अब इतने नाज़ुक मौके पर क्या गुस्सा होती मैं)

हम बैठे रहे , हम बैठे रहे , हम बैठे रहे, कुछ इस तरह जैसे कहा गया है न "सुबह हुई शाम हुई , जिंदगी तमाम हुई "
इतनी देर बाद पता चला कि सलीम मियाँ भी तार लेकर हमारा वाला ही तरीका आजमा रहे हैं, यानि एक एक करके नंबर.
इस बीच लोग आते , सिगरेट खरीदते वहीं नुक्कड पर वाली दुकान से , जिज्ञासु होते हमें वहाँ बैठे देखकर, कुछ सुझाव उछालते, अपने एकाध इसी किस्म का अनुभव सुनाते कि किस तरह ऐसा ही सूटकेस खोला ( जैसे सूटकेस न खोला रण जीत लिया, वर्ल्ड कप जीत लिया )
हम कुढते रहे, सुनते रहे, खून उबलता रहा .

संतोष ने तंग आ कर अल्टीमेटम दिया, "अगर दस मिनट में नहीं खुला तो तोड दो"
सलीम मियाँ पर भी सलीम की आत्मा सवार हो चुकी थी. जिद ठन चुकी थी.
"खुलेगी कैसे नहीं साहब "
अब हम गिडगिडा रहे थे, "अरे तोड भी दे यार "

ग्यारह बजने वाले थे. सलीम नें कमर्शियल ब्रेक लिया. अपने साथी को उसके मोबाइइल पर फोन किया ( जियो हिन्दुस्तान, हर किसी की जेब में सेल फोन )
हमें दिलासा दी ,"एजाज़ एक्स्पर्ट है , खोल देगा "

आधे घंटे बाद खुदा खुदा करके एजाज़ का आगमन. तब तक पोल की लाईट मुर्झा कर धीमी हो चुकी थी . एजाज़, सलीम और सूटकेस के साथ हम घर की ओर प्रस्थान कर गये . गार्ड के कमरे में गेट पर उतार उन्हें हिदायत दी कि अगर खुल जाये तो फ्लैट में फोन करे. दो मिनट में पस्तहाल बाँकुडे पलंग पर निढाल पाये गये.

अभी ठीक से लेटे भी नहीं थे कि फोन आ गया.

सूटकेस खुल गया था. आर्कीमीडीज़ को कैसा लगा होगा, आज जाकर समझ आया


(अगला भाग कोची का )