12/08/2009

तुमी बाजना बाजाओ ना कैनो ?

अनुराज रामदूथ पुराने मंदिर के चबूतरे पर सूखे पत्ते हटाता जीर्ण खंभे से पीठ टिकाता बैठ जाता है । धूप चेहरे पर बरसती है । कपड़े के जूते धूल से अटे हैं । इस बियाबान सुनसान में छूटा लूटा भक्ति स्थल , साँप की बाँबी और फर्श फोड़ते तने का बवंडर । कोई राहगीर दूर से आता दिखता है । पास आता है । चुग्गी बकरा दाढ़ी और गिरी हुई मूछें । अपने कद से लम्बी लाठी को टेढ़ा करता अपनी हथेली टिकाता और हथेली पर ठुड्डी टिकाता ताकता है । चेहरे पर निश्छल भोली पर एकदम जानकार मुस्कान ।

नी हाउ

राहगीर मुस्कुराता है , उसकी मुस्कान मीठी है , आँखें शरारत से हँसती हैं । रामदूथ अकबका कर बोलता है , सात भाषायें जिनको जानता है । राहगीर अपने चमड़े के चप्पल उतारता चबूतरे का कोना पकड़ लेता है । चप्पल पर उसकी उँगलियों के निशान खुन गये हैं ।

मैं गलत आ गया इस बार , फिर धूप से बदरंग पड़े थैले से नक्शा निकालता है । देखो , यहाँ से चला था , यही रास्ता था । मार्कस औरेलियस को कोट करता है , इतिहास की अपनी सांत्वनायें होती हैं , नहीं ? हमेशा । गलत रास्तों की तो और भी

रेगिस्तान में गर्म हवा और दुष्ट शैतान होते हैं और राहगीर उनका सामना होने पर खत्म हो जाते हैं । उसकी आवाज़ साफ और स्थिर है , जैसे खुद से पाठ कर रहा हो । सही मार्ग चुनने का सिर्फ एक तरीका है , रास्ते भर मृत लोगों की सूखी हड्डियों के संकेत निशान खोज लेना ।

मिला था मुझे एक , चौदह सौ अठासी का केप ऑफ गुड होप से होता हुआ बार्थोलोमियो डियाज़ का नक्शा , कोई नाविक था तीन सौ निनावे ईस्वी में , ताओ चिंग का परिचित था । रात भर सर्द हवा से बचते हम उसके समुद्री संगीत को सुनते रहे थे । तब हम तुन हवांग से शेनशेन ही पहुँचे थे । हमारा पूरा सफर हमारे आगे था , फिर कियेह चा में हमें ऐसे ही मिल गया था । उसकी दाढ़ी में कुछ और सफेदी आ गई थी और उसने कुछ और नये धुन सीख लिये थे । गोबी मरुभूमि में रात को अलाव के घेरे में बैठे हम खोतान और पामीर की बात कर रहे थे और वही धुन रबाब पर बजाता कोई मूर अँधेरे में अस्पष्ट दिखा था । कॉर्दोबा से आया था । आरागॉन के फर्दिनांद और कास्तील की इज़ाबेल्ला के विवाह के बाद मुसलमानों और यहूदियों की नृशंस हत्या के दास्तान सुना रहा था ।

अल अन्दलूस , कंस्तुंतुनिया , कतालोनिया , रामदूथ बुदबुदाता है । फिर अकबका कर सोचता है , गाज़ीपुर आरा और हज़ारीबाग । मैं तो अपने पुरखे खोजने आया , गन्ने के खेत में काम करने वाले अनुबंधित गुलाम रामदूत और रामनगीना , अप्रवासी संख्या तीन एक दो चार एक शून्य और तीन एक दो चार एक एक । आरा से पोर्ट लुई तक का सफर । और अब क्वात्र बोर्ने से फिर बिहार बंगाल ।

राहगीर नक्शा थैले में समेटता उठ खड़ा होता है । कुछ सौ साल गलत आ गया हूँ , बस , एक मीठी मुस्कान के साथ कहता है , खैर कोई बड़ी बात नहीं । सांतरागाछि का रेलवे स्टेशन गजरमगर है । दक्खिन को जाने वाली गाड़ी पकड़ूँगा फिर मुर्शिदाबाद , बैन्डेल , चन्दननगर , फिर नादिया , बारासत , तामलुक। सोलह सौ साठ में गोमेज़ डी सोतो ने बैन्डेल में चर्च बनाया था , कुछ समय वहाँ फिर आगे । शांदेमागोर में जोसेफ्ह फ्रांसुआ दूप्लेक्स । कोल्याण हाल्दार ने यही पता बताया था । एक मुड़ा तुड़ा पुरजा निकाल कर पता देखता है ।

कितना समय हुआ ?

रामदूथ घड़ी देखता है । अभी सिर्फ बारह बजे हैं । राहगीर च्च च्च की आवाज़ निकालता नकार में सर हिलाता है , नहीं नहीं ईस्वी कौन सी ?

रामदूथ कलाई पर बंधे क्रोनोग्राफ में साल देखता है , चाँद समय देखता है । राहगीर की कलाई पर कोई घड़ी नहीं सिर्फ एक गोदना है , देवनागरी में या शायद कैथी में ..फा हियेन । तीन सौ निनावे ईसा पूर्व और वो स्पैनिश इंक्विज़िशन तो पंद्रहवीं सदी में और सत्रह सौ तीस में व्यापार के लिये ट्रेडिंग पोस्ट , हुगली नदी के दायें तट पर फ्रांसिसियों ने बंगाल के नवाब इब्राहीम खान से व्यापार करने का करार नामा लिया .. समय का ऐसा फेर ?

राहगीर धूल भरे सड़क पर ओझल होता छोटी आकृति मात्र है । रुको रुको , मुझे उस पन्द्रह सौ दो वाले नक्शे का पता तो बताते जाओ और उस जहाज का जिसमें मेरे पुरखे अपनी धरती छोड़ किस अजाने देश निकल पड़े थे ।

लो पानी पीयो । मैं हिमालया मिनरल वॉटर की बोतल रामदूथ की तरफ बढ़ाता हूँ । तमतमाये चेहरे की बेचैन हड़बड़ाहट से उसकी नींद खुलती है । सुनो अभी फाहियान को देखा । यहीं था , मुझसे सदी पूछता था ।

धूप ने तुम्हारा दिमाग पगला दिया है । चलो गाड़ी का टायर बदल गया है । निकलें ?

आपनार की कॉथा बोलेछिलाम ? बाबू ऐई रोकॉम चोलबे ना , बेनीमाधव घोसाल ड्राईवर से बहस कर रहे हैं । गाड़ी के पिछले सीट पर हमने सामान पटक दिया है । रामदूथ लौटता है , चबूतरे पर छूटी किताब उठाने । सूखे पत्तों के बीच नरम मिट्टी में दो पाँव के और एक लाठी के टेक का निशान और उसके बगल में धूल में कुछ आड़ी तिरछी लाईनें पाड़ी हुई हैं । बज्जिका में लिखा है आरीवे देस कूलीज़ आनीनेम, सिर्का अठारह सौ साठ । अठारह सौ साठ में कुलियों का आगमन ।


तुमी बाजना बाजाओ न कैनो ? सड़क पर रुकी बस में बैठी औरत बच्चे के हाथ में दस पैसे वाला इकतारा देख उससे रार कर रही है , कैनो ?

11/23/2009

शेक्सपियर ऐंड कम्पनी

इस जगह को देख कर सबसे पहले इच्छा होती है कुछ दिन यहाँ रहा जाय । सचमुच रहा जा सकता है अगर आप लेखक हैं और दुकान की मालकिन सिल्विया को आपकी शकल और आपकी लिखाई पसंद आ जाये । सैंतीस रू दला बूशेरी पर स्थित ये शेक्सपियर ऐंड कम्पनी है । लैटिन क्वार्टर्स में सोर्बॉन वाला इलाका । सेन नदी के किनारे साँ मिशेल के ठीक बगल में, नात्र दाम के सामने । दुकान के दरवाज़े पर एक बड़े ब्लैकबोर्ड पर सफेद चॉक से लिखा है ..

" कुछ लोग मुझे लैटिन क्वार्टर्स का डॉन किहोते कहते हैं , इसलिये कि मेरा दिमाग कल्पनाओं के ऐसे बादल में रमा रहता है जहाँ से मुझे सब बहिश्त के फरिश्ते नज़र आते हैं और बनिस्पत कि मैं एक बोनाफाईड किताब बेचने वाला रहूँ , मैं एक कुंठित उपन्यासकार बन जाता हूँ । इस दुकान में कमरे किसी किताब के अध्याय की तरह हैं और ये तथ्य है कि तॉलस्ताय और दॉस्तोवस्की मुझे मेरे पड़ोसियों से ज़्यादा अज़ीज़ हैं .."

कुछ पागलपने की मज़ेदार सनक वाली बात है । कहते हैं जॉर्ज विटमैन ने कई साल दक्षिण अमेरिका में घुमक्कड़ी करते बिताया । उन दिनों की शानदार दिलदार मेहमाननवाज़ी की याद में जब उन्होंने ये किताबघर शुरु की , इसे एक आसारा बनाया नये लेखकों , कलाकारों के लिये। कहते हैं , एक बार फिर , कि पचास हज़ार लोगों ने रातें शेक्सपियर में बिताई हैं , उसके मशहूर तकिये पर अपना सर रखा है । हेनरी मिलर , आने निन , गिंसबर्ग , डरेल ने विटमैन के साथ चाय और पैंनकेक साझा किया है । ये भी संभव है कि जब आप किताबों को पलट रहे हों , शायद लेखक के ह्स्ताक्षर कहीं आपको दिख जायें ।

पुरानी शहतीरों पर टिकी छत , लकड़ी की तीखे स्टेप्स वाली सीढ़ी , किताबें अटी ठँसी हुई , बेंचों के नीचे , सीढियों के बगल में , रैक्स पर , फर्श पर ..सब तरफ । कुछ वैसा ही एहसास जैसे आप लेखकों से वाकई मिल रहे हों ..कुछ उनकी दुनिया छू रहे हों ।

मैंने बताया उन्हें , मैं भी लेखक हूँ , हिन्दी में लिखती हूँ , शायद क्या पता कभी अगली दफा आने का मौका हो तो ... उन्होंने कहा आने के पहले बात ज़रूर करिये अगर जगह होगी ..क्यों नहीं । सचमुच क्यों नहीं ..किसी ऐसी दुनिया में खुलने वाली खिड़की हो ..क्यों नहीं




शेक्सपियर महाशय कैसे ताक रहे हैं अचंभित खुशी से । स्ट्रैट फोर्ड से निकल कर पेरिस की गलियाँ





ये पहली मंजिल पर वो कमरा है जहाँ स्लीपींग बैग बिछाकर सोया जा सकता है । कमरे में एक काउच है , एक प्यानो है और ढेर सारी किताबें है , किताबों की पुरानी गँधाई महक है , ज़रा सा पागल कर देने वाली ..


बाहर एक तरफ अंटीक्वेरियन , दूसरी तरफ मुख्य दुकान , रंगीन बेंच और मोटी किताबें । धूप में बैठ कर ठीक अंदर जाने के पहले का मज़ा , थोड़ी उमगती उत्तेजना कि जाने अंदर क्या क्या होगा ..खुशी को कुछ देर स्थगित कर थोड़ा मज़ा बढ़ा लेने वाला बचकाना खेल ही सही


किताबें ही किताबें , पुरानी शहतीर देख रहे हैं आप ?




रीडिंग रूम ..यहाँ रीडिंग सेशंस होते हैं , खिड़की से रौशनी , धूप , बाहर गलियों से आवाज़ें , किताबों के बीच लकड़ी के बेंच पर बदरंग कुशंस ..छत तक किताबें , सुंदर नकाशीदार मेज़..

11/01/2009

परती परिकथा

उनके बीच उल्लास खत्म हो गया है । बावज़ूद, वो अब भी किसी मोह में डूबे बात करते हैं । चौंक चौंक कर हड़बड़ा कर किसी आवेग में एक दूसरे को तलाशते हैं । लेकिन बात शुरु करते ही , पहला शब्द बोलते ही लगता है , ओह क्या बात कहनी थी ? जेब में रेज़गारी टटोलने जैसी जुगत से बात खोजते हैं फिर दो वाक्य के बाद ही लगता है ये तो पहले की जा चुकी थी । फिर अटपटा कर , लम्बे मौन में जहाँ सिर्फ एक दूसरे की साँस सुनी जाती हो . एक लम्बी उसाँस भरकर कहते हैं , कई बार बिलकुल एक साथ ..अच्छा फिर करते हैं बात । फिर किसी अजनबी के साथ हँसी बाँटने जैसा महसूस करते हुये अलग निकल जाते हैं ।

(पिछले दिनों की रंग रंगाई )

10/10/2009

शहर पार अजनबी .. एक मोंताज़ , चीन की दीवार

पत्थर के चौकोर टुकड़ों पर हाथ फिराते बार बार खुद को याद दिलाया , ये इतिहास का एक हिस्सा है और इसे छूते ही मैं उस समय से इस समय तक खिंचा तार हूँ । नीचे पेड़ों के झुरमुट से चमकते शीशे जैसा लाल रंग कौंधता है । लड़की अपनी आँखें मींचे हँसती है और बूढ़ी औरत बार बार इल्तज़ा करने पर भी अपना चेहरा नहीं उठाती । मैं कैमरा साधे इंतज़ार करती हूँ फिर थक कर उसके झुके चेहरे और गरदन पर पसीने की बून्द की तस्वीर खींच कर सुखी होती हूँ ।

उसने तुम्हारी बात नहीं समझी । ऐसा कह कर उसे कुछ मज़ा मिलता है । उसकी तरफ ध्यान न देते हुये मैं फिर भी औरत से पूछती हूँ , सुनो कौन कौन है तुम्हारे घर में ?

उस पच्चीस साल की लड़की से जैसे मैं पूछती रही थी उसके दोस्त के बारे में जो उसके साथ रहता था । उस लड़की से मैं सिर्फ एक बार मिली थी । उसने अपनी टूटी अंग्रेज़ी में मुझे अटक अटक कर बताया था अपने प्यार और अपने झगड़े की कहानी । मैं अमूमन इतनी जिज्ञासु नहीं होती । पर पराये देश में कई चीज़ें पीछे रह जाती हैं । एक तरीके की सौजन्यता भी । फिर शायद सब कुछ तुरत जान और कर लेने की ज़रूरत भी तो होती है । टाईम इज़ कॉम्प्रेस्ड । और उम्र के इस मोड़ पर हम कई फालतू चीज़ें ट्रिम करते चलते हैं । हू केयर्स अ डैम । जैसे ग्रेट वॉल वाईन पीना और ऑयस्टर्स खाना और चॉपस्टिक्स से मूँगफली न खा पाने की दुर्दशा में ऐलान करना कि गाईज़ आम गॉन्ना यूज़ माई फिंगर्स ।

लौटकर तस्वीरें देखते हैरान होती हूँ उस औरत पर जो उँगलियों से विक्टरी साईन बनाती हँसती है और कहती है इट वाज़ नो बिग डील । बिग डील तो होना ही चाहिये था । मैं ऐसी जगह खड़ी थी जो समय का रुका हुआ हिस्सा है । इस दीवार की नींव में कितने मजदूरों का खून है । उनकी आत्मा विचरती है यहाँ ? आँख मूंद कर ठीक यहीं खड़े खड़े मैं वहाँ पहुँच जाती हूँ , ठीक इसी जगह पर । बीम मी अप मिस्टर स्कॉटी ! ये कहकर मैं त्वचा सिहराने वाले एहसास से बेहूदे तरीके से निकल आने की जुगत करती हूँ । पत्थर के ठंडेपन या जाने किस और वजह से मेरी साँस तेज़ हो जाती है । मेरे पीछे सैनिकों की फौज है । उनके साँस का उच्छावास मेरे गर्दन को छू रहा है । मेरे रोंये खड़े हो जाते हैं । उस पत्थर के अँधेरे कमरे में रौशनी की एक दीवार है । नीचे दुकान में मिंग टोपी है , लम्बी चोटी वाली जिसे खरीदते खरीदते मैं रह गई । बदले में बीस युआन में एक चॉपस्टिक्स का सेट लिया और पच्चीस में गीशा वाला चोगा जिसे पहनते ही मैं गायब हो जाती हूँ ।

मुझे खेत नहीं दिखते , मुझे किसान नहीं दिखते , मुझे छोटे घर नहीं दिखते । क्वायो में दोमंजिला मकान दिखते हैं , बोहाई में कुछ और छोटे लेकिन फिर भी वो दुनिया नहीं दिखती जिसे मैं आने के पहले देखती आई थी , जिसे देखने के लिये यहाँ तक आई थी । कोई किताब कोई सिनेमा कोई गीत का टुकड़ा , जाने क्या लेकिन शर्तिया ये नहीं । दीवार के चौकोर खिड़की से कोई काफिला धूल उड़ाता , घोड़े के खुर से टपटप नगाड़े बजाता नहीं दिखता । आँख बन्द कर लूँ फिर भी नहीं दिखता । दीवार के सफेद चूने लगे सतह पर सिर्फ ये लिखा दिखता है ..इट्स ऑल अबाउट डिसिप्लिन ।

सियाओ वेन चश्मे के पीछे से हँसती है और कहती है मेरी माँ ने मेरे लिये बहुत पैसे खर्च किये । वो मुझसे बहुत प्यार करती है । दीवार से लगे हम कुछ देर बैठते हैं । उस हवा में साँस लेते हैं जिस हवा में हज़ारों साल पहले मिंग और किन साम्राज्य के सैनिक मंगोल और माँचू आतताइयों के खिलाफ इन्हीं दीवार के झरोखों से पीठ टिकाये साँस रोके अपने हथियार थामे बैठते होंगे । दूसरे बच्चे के लिये पच्चीस साल पहले हज़ार युआन । अब कितना देना होता है के बेशर्म और ढीठ सवाल पर ताई यंगयो हँस पड़ती है , मालूम नहीं ।

सियाओ वेन मेरी तरफ सूखे फलों का पैकेट बढ़ाती है । उसका कामकाजी नाम अलिस है । जैसे मेई हुई का मरिया । मैं छोटा नोटबुक निकाल कर देवनागरी में उसका नाम लिखती हूँ । फिर अपना लिखवाती हूँ , उसकी भाषा में । मुझे मेरा नाम फूलों के गुच्छे की तरह दिखता है । हवा में हल्की खुनक है । मुझे विश्वास नहीं होता इस वक्त मैं यहाँ हूँ । लेकिन आश्चर्य , मेरे मन में हमेशा एक बहुत चौड़े और वृहत जगह की कल्पना थी , कुछ टूटी फूटी । और मालूम नहीं क्यों हमेशा ऐसा लगा कि ग्रेट वॉल पर साईकिल चलाता कोई चीनी बूढ़ा दिखेगा । लेकिन यहाँ साईकिल नहीं चलाई जा सकती । चढ़ाई तीखी है और सीढ़ियाँ ऊँची । अलबत्ता एक बूढ़ा धूप का चश्मा लगाये बैठा ज़रूर दिखता है । उसकी निगाह मुझ पर है । मेरे मुस्कुराने पर कोई जवाबी मुस्कान नहीं देता । मैं फिर भी मुस्कुराती हूँ । उसकी उम्र मुझे उदार बना देती है । ये अनजान जगह , सुबह की खुशगवार हवा ..सब ।

मैं रात को इस अनजान देश के अनजान शहर में , अनजान होटल के अकेले कमरे में बैठी नेट से कनेक्टेड हूँ , मेरी अपनी परिचित दुनिया । मेरे आसपास परिचित प्रिय आवाज़ें हैं । थके पाँव को गुनगुने पानी से धो देने जैसा और कभी कभी टियरिंग इंटेंस कट जैसे विकट चोट पर ठंडी रूई रखने जैसा , कभी लिनस के कंबल जैसा । खिड़की के बाहर दूसरी दुनिया है । ज़मीन पर पाँव रखकर मैं हिसाब करती हूँ कि अगर पैदल चला जाय तो एक सीध में चलते चलते कब तक यहाँ पहुँच पाती । ये वही मेरी ही ज़मीन तो है । सड़क के किनारे की धूल और पेड़ और पानी का स्वाद और लोगों की हँसी और उनकी तकलीफें और उनका जीवन । सब एक सा फिर भी कितना अलग । तियानजिन में सड़क के किनारे लगी दुकान में कान बाली के सिरे पर झूलते नन्हें जिराफ छूकर मैं बच्ची बन जाती हूँ । चिया अपने घर की बात सुनाती है । सास के टंटे और पति से कहा सुनी । बात बात में आँखें सिकोड़कर नाक मिचमिचाकर हँस देती है । मासूम खरगोश की मूँछें । उसे मेरे मुस्कुराने की वजह नहीं मालूम । कहती है इस सड़क बज़ार में अपने पति के साथ छोटी मोटी चीज़ें खरीदने आती है । एच एस बी सी बैंक की निकी लियु दिखती है , किसी के साथ है । पीछे से बच्ची सी दिखती है । बैंक में तेज़तर्रार अफसर लग रही थी ।

कुछ दोस्तों ने कहा था कि वहाँ लोग हर वक्त चाय पीते हैं । मुझे सिर्फ कमरे में रखा चाय नसीब है । रिलिजियसली सुबह उठकर हरी चाय बनाकर पी रही हूँ । चाय पीते खिड़की से दिखता है यूनिवर्सिटी बिल्डिंग की चहलपहल । साईकिल वाली लेन में भीड़ है । मैं खिड़की से मुँह निकाल कर देखती हूँ देर तक । उस दिन किताबों के दुकान में कितनी किताबें थीं , अंग्रेज़ी सीखने वालीं । और मज़े की बात , एक तरफ मदाम क्यूरी का पोस्टर । फिर मुझे याद आता है चेयरमैन माओ की तस्वीर वाली टीशर्ट्स , दीवार के नीचे वाली छोटी दुकानों में , जहाँ औरत हँस कर कहती थी , सिर्फ एक डॉलर बस । मैंने नहीं ली थी वो टीशर्ट पर उस औरत के साथ एक फोटो ज़रूर खिंचवाई थी । उसने पूछा था , पाकिस्तानी ? मैंने कहा था इंडिया फिर हम सब हँस पड़े थे ।

बुद्ध भगवान की मूर्ति के आगे लोग अगरबत्ती जला रहे हैं । मंदिर के बाहर लोहे के बड़े कठौत में हाथ भर भर कर अगरबत्ती के गट्ठर । मैं फोटो खींचते सोचती हूँ , कैप्शन अच्छा बनेगा , प्रेईंग इन चाईना । चिया को धर्म और भगवान समझाने में कैसी दिक्कत हुई थी । कम्यूनिज़्म और धर्म और फ्री इकॉनॉमी । मेरे पल्ले कुछ नहीं पड़ता । मॉल में चमकते दुकानों में ब्रांडेड सामान , स्टेट कंट्रोल , ओलम्पिक्स और बेहतरीन इंफ्रास्ट्रक्चर ..पिंगपॉंग बॉल की तरह हम वापस लौटते इन विषयों पर बहस करते हैं । चीन में रिलोकट की इटैलियन कंपनी की देखरेख करते फ्रेंच राष्‍ट्रीयता के अंतोआन से मैं पूछती हूँ , चीन छोड़ो अब अपने देश के हाल बताओ । थकेहारे दिनभर की घुमाई से क्लांत , हम धीरे धीरे धीमी आवाज़ में अलग शहरों की बात करते हैं , रहनसहन के खर्चे , ज़रूरतें , सोशल सेक्यूरिटीज़ , खानापीना , ट्रांसकॉंटिनेंटल फ्लाईट्स के उबाऊ समय के सदुपयोग , जेटलैग से बचने के तरीके ।

बाहर भागते सड़क के पार पेड़ों की कतार है । इतनी सघन कि उनके पार की दुनिया नहीं दिखती । मुझे कभी पढ़े ,रूस की ज़ारीना कैथरीन का एक किस्सा याद आता है । वो जब महल से देहात की ओर निकलती थी , तमाम रास्ते नकली घर और पेड़ और खुशनुमा जीवन दिखाते कटआउट्स उसे दिखाये जाते , प्रजा कितनी समृद्ध है । मुझे ऐसा ही कुछ भास होता है । अंतोआन पेरिस की बात करता है जहाँ साल के छ आठ महीने रहता है । बाकी के दिन यहाँ और भारत के बीच शटल करता है । चिया से फ्रेंच में बात करता है और चिया फिर अपनी चीनी भाषा में ड्राईवर से । चिया ट्रांसलेटर है । उसकी फ्रेंच उसके अंग्रेज़ी से बेहतर है । मायूस होकर बताती है कि ट्रांसलेटर को अच्छी तनख्वाह नहीं मिलती । गाड़ी के अँधेरे में हम धीमी आवाज़ में बात करते हैं । मुझे लगता है ये सफर कहीं भी हो सकता है , किसी भी देश किसी भी काल में । मैं चाहती हूँ अब चुप हो जाऊँ । अँधेरे में आँख गड़ाकर खेत और पोखर देखूँ , लोगों को देखूँ , बत्तख और मुर्गियाँ देखूँ , चिया का घर देखूँ , उसकी रसोई में पकते खाने की भाप और खुशबू सूँघू , उसके नहानघर में मग्गे और बाल्टियों में भरा पानी अपने बदन पर उलीचूँ । आश्चर्य , पूरे शहर में एक भी जानवर नहीं देखा । कोई परिन्दा , गौरैया कौव्वा तक नहीं । अब लोगों को भी कहाँ ठीक से देखा । सिर्फ सड़क देखे , बड़ी बड़ी इमारतें देखीं , फ्लाईओवर्स का जाल देखा , शहर की आत्मा कहाँ देखी ? पर्ल बक की पियोनी और गुड अर्थ याद करते रहने का फायदा क्या हुआ ? मिंग वासेज़ और पेंटिंग और हँसते हुये बुद्ध । फिर और क्या ? होटल के कमरे में रात को मेई हुई का फोन आता है । मैं अचानक बेहद आत्मीय और तरल हो जाती हूँ । पीछे से उसके तीन साल की बच्ची के झिलमिल हँसने की आवाज़ आ रही है ।

सुबह की चाय मुँह में हल्का कसा स्वाद देती है । मैं सुबह से कमरे का मुआयना कर रही हूँ । कबर्ड में कपड़े के चप्पल के साथ साथ आईरनिंग बोर्ड और आईरन , छतरी और जूते साफ करने का ब्रश , बाथरोब । जाने क्या क्या दराज में , स्टेशनरी, पिंस स्टेपलर । मैं कमरा सहेजती हूँ , ये जानते हुये भी कि मेरे निकल जाने के बाद हाउसकीपींग वाली औरत कमरा साफ करेगी । उसका चौड़ा चेहरा मुझे देखकर मुस्कुराता है । कल ज्योवान्नी ने कहा था कि चीनी लोग विश्वास करने योग्य नहीं होते और ये कि उनके चेहरे से उनके भाव को भाँपना बेहद मुश्किल होता है । मुझे तो सबकी मुस्कान भली लगती है । फूटमसाज करने वाली लैन फेन का और दो छोकरे जो रात के ग्यारह बजे , पहले दिन चेक ईन करने के तुरत बाद मेरे कमरे में आकर मेरे लैपटॉप पर नेट का जुगाड़ कर गये थे , और मेरे बाबा आदम लैपटॉप को देखकर जिस तरह मैन्दरीन में कुछ कह कर हँसे थे कि मैं भी हँस पड़ी थी , पुराना खस्ताहाल लैपटॉप है न ! या फिर मेई हुई जिसने सेल फोन पर अपनी बेटी की तस्वीर दिखाई थी और इसरार किया था कि मैं भी उसे अपने परिवार की दिखाऊँ । या फिर किताबों के दुकान में मेरे पास युआन न होने पर उसने किसी मशहूर चीनी लेखक की बाईलिंगुअल चीनी अंग्रेज़ी किताब मेरे लिये खरीद देने की ज़िद की थी ।

यहाँ मुझे बार बार भारत में रहने वाले रॉबर्ट वॉंन्ग की भी याद आती है । वो मेरे बाल काटता है और चीनी है और हर बार मेरे पूछने पर हसरत से कहता है एक दिन ज़रूर चीन जाऊँगा , कैंटन, जहाँ से मेरे माता पिता सत्तरएक साल पहले भारत आये थे । हम कहाँ से कहाँ पहुँच जाते हैं , शायद सब किसी वृत में गोल घूमने जैसा है ।

तियानजिन के चीनी रेस्तरां में बड़े टैंक में तैरते ओक्टोपस और क्रैब्स और मछलियाँ पसंद करते , मेरे सहकर्मी की , जो वोकल वेजीटेरियन है , दिक्कत साफ दिखती है । उसे पूरे देश में खाने की महक ने परेशान कर रखा है । मुझे इस नई जगह में खाना भी एक नई दुनिया तलाशने का सा रोमाँच दे रहा है । पानीदार सूप में ताज़ी हरी सब्जियाँ मुझे खुशी से भर देती हैं । मैं उस सहकर्मी को समझाती हूँ , शायद इन लोगों को हमारे यहाँ के गरम मसाले की खुशबू जान मार देती हो । वो अपनी बात पर अड़ा है । मैं उसे अनसुना करते एक साबुत भाप से पकाई मछली का आनंद लेती हूँ , चॉपस्टिक की बजाय काँटा चम्मच माँगने पर काफी देर बाद एक सूप पीने वाले चम्मच के जुगाड़ होने के इंतज़ार में लू सिन से सीखती हूँ चॉप स्टिक पकड़ने की अदायें । कुछ कुछ उसी तरह जैसे बचपन में सीखा था नाईफ फोर्क के एटीकेट और पाया था कि चाहे उनसे खाना कितना सॉफिस्टिकेटेड लगे उँगलियों से खाना हमेशा ज़ायके को दुगुना करता है । कई बार लगता है हमारे भीतर वे चीज़ जिनसे हम जीवन के किन्ही स्टेज पर विद्रोह करते रहे हों , नकारते रहे हों , वही सब अपना प्रतिशोध, वक्त आने पर, हमारे व्यक्तित्व पर हावी होकर लेती हैं । मैं उँगलियों से भुट्टे के दाने एक एक करके मुँह में डालती हूँ । बचपन में ठेले के सामने खड़े होकर आग में पके भुट्टे पर नीबू और काली नमक लगाकर खाने का सुख जैसे फिर से मुँह में भर जाता है । मैं एक ही समय में दो जगहों पर हो जाती हूँ , दो वक्त पर भी । आँख बन्द किया तो बचपन में । और ऐसे स्मृति को पकड़ कर जैसे इस समय को एक संदर्भ देना चाहती हूँ । अपने को ज़मीन देती हूँ और एक आह्लाद से भर उठती हूँ । ये पक्का उस ग्रेट वॉल वाईन का असर तो नहीं ही है ।

साईकिल चलाते लोग, साफ सुथरी चौड़ी सड़कें , इमारतें , हाईहे नदी के किनारे , शहर के वो हिस्से जहाँ इटैलियन और जर्मन , फ्रेंच , बेल्जियन ऑक्यूपेशन के प्रभाव दिखते हैं , सुन्दर बंगले .. मैं फोटो खींचती हूँ लगातार । लोगों के चेहरे , दूर से पास से , हँसते , भौंचक , जिज्ञासु , बच्चे , बूढ़ी औरतें , रेस्तराँ के मेज़ पर चॉपस्टिक्स और खाने से भरे बोल का संयोजन , कमरे में फल , वास में बैम्बू शूट्स , बाथरूम में कतार से रखे बाथफोम्स .. तस्वीरें वैसी ही आती हैं जैसे कहीं की भी खींची गई तस्वीरें .. सचमुच जो मुझे दिखा था ..कितना कितना सुंदर ..उनका रंग , उनका आकार , उनकी गहराई , उनका परिपेक्ष्य .. फोटो पर अचानक कई बार उनका जादू जैसे गायब हो जाता है । सब महज़ फोटोज़ ही रह जाते हैं ..लैपटॉप स्क्रीन पर चमकते रंगीन दस्तावेज़ ..कहीं के भी हो सकते हैं .. सिर्फ मैं जो उनको देखती हूँ तो सिर्फ तस्वीर में दर्ज़ चीज़ें ही नहीं , उनके साथ उस समय का तत्व , खुशबू , त्वचा पर हवा की छुअन . जीभ पर किसी शब्द का स्वाद , होंठों पर किसी हँसी की स्मृति , सब हरहरा कर टूटकर झम्म से कूद जाते हैं .. उस जगह का जादू , मेरा जादू । शायद सिर्फ मेरी स्मृति का भ्रम !


टीवी पर कोई चीनी गाना बज रहा है और मैं सोचती हूँ मैं कहीं की भी हो सकती हूँ या शायद कहीं की भी नहीं । और ये कि कल्पना में कोई जगह इतनी रूमानी और रहस्य भरी कैसे होती है । और ये भी कि सच भी कितना अलग होता , अलग किस्म की रूमानियत और जादू भरी दुनिया लेकिन कल्पना से कितनी दूर फिर भी कितना सच्चा सुंदर और भरपूर । ईट रियली इज़ अ बिग बिग डील !

किसी भी नई जगह को देखने का सबसे बड़ा फायदा सिर्फ ये होता है कि हम अपने आप को नये स्पेस में रख कर देख पाते हैं । आप जगह नहीं देखते , जगह आपको देखती है और आप खुद को । आईने के सामने सफेद बाथरोब पहने मेरा चेहरा मेरा नहीं लगता ।




प्रतिलिपि से साभार

9/17/2009

हाय गज़ब ! कहीं तारा टूटा

पलथी मार कर बैठीं मुन्नी दीदी के चेहरे पर हँसी दौड़ रही थी । जैसे कोई छोटा बच्चा चभक कर उनके चेहरे पर आ बैठा हो । कोई किस्सा सुना रही थीं और उस किस्से के होने की याद में , बोलने के पहले ही उनका शरीर उस हँसी में बार बार डोल जाता । मैं ज़रा मुस्कुराती , उस किस्से की मज़ेदारी से ज़्यादा उनकी भंगिमा पर आनंद ले रही थी । उनका लम्बा चिकना शरीर अब भी , इतने साल बाद भी वैसे का वैसा था , उनके बायीं आँख के नीचे गाल पर मस्से का निशान भी ।

तब मकान बन रहा था । प्लिंथ तक बना था । नल के पास बालू और ईंट का ढेर । नल से पानी लगातार सों सों आवाज़ से टपकता । ठीक पीछे मेंहदी की झाड़ से सटे पुदीने का फैलाव और उसके पीछे अमरूद का छोटा ठिगना सा पेड़ । पराठे और आलूमटर की मसालेदार तरकारी बनी थी और शेड की छाँह में बैठे पत्तल पर खाना पिकनिक था , हम बच्चों के लिये । बड़ों के लिये बनते मकान को देख लेने की गर्व भरी खुशी थी । सलवार का पायँचा उठाये और कमर पर दुपट्टा कसे मुन्नी दी सबको खाना खिला रही थीं , नल के पास फिसलीं थी , कुहनी तोड़ लिया था । कैसा बवेला मचा था । रात को क्लांत मुरझाई दीदी के पास बैठी फुआ उसाँस भर कर बोलीं थीं , अब हुआ महीने दो महीने का रोग , सब ठप्प । मरी किस्मत ! मुन्नी दी की शादी की बात चलती थी तब।

मकान बना था । बाहर धूप का साम्राज्य था , हवा और पानी और पेड़ और चिड़िया , गिलहरी , बिल्ली , नेवला , आवारा कुत्ता , गौरेया , कौव्वा और कभी कभार अमरूद के पेड़ पर तोता तक । पिछवाड़े पानी भरा होने की दुर्दशा में बरसाती घास , केंचुआ , मेंढक और बरसात के दिनों में जाने किस दैव योग से आई केवई मछलियाँ तक , जो पानी से निकाले जाने पर घँटों छटपटाती अधमरी , कीचड़ लिसड़ी जिन्दा रहतीं । घर के भीतर अँधेरी ठंडी दुनिया थी । दिन में भी आँख फाड़े गलियारे की दीवार हाथ से टोते एक कमरे से दूसरे कमरे जाने का सफर था । ईंट की जाली से मद्धम छायादार रौशनी छनछन कर आती और फर्श पर चौकोर डिजाईन बनाती । बाहर की दुनिया वही आम रोज़ की दुनिया थी । भीतर की दुनिया अलग अजूबा थी । चीज़ें थीं और नहीं भी थीं । जिनका उपयोग होता वो नहीं थी और जो थीं वो अपने होने की उपयोगिता को बरसों पहले छोड़ चुकी थीं । लकड़ी की बड़ी आलमारियाँ थी बैठने को ढंग की कुर्सियाँ नहीं थी । चीनी मिट्टी के दरके बेमेल बर्तनों के नफीस अधूरे सेट्स थे ठीक ठीक खाने को स्टील की साबुत बेपिचकी थालियाँ नहीं थीं । हरी चाय के पुराने काठ के छोटे बक्से थे , रोज़ चाय पीने की हाहाकार थी । घर घर नहीं अजायबघर था । हम सब दबे पाँव हथेलियों से दीवार टोते दम साधे घर में घूमते जैसे नींद में सपने तलाशते हों ।

लकडी की बड़ी आलमारियों में चीज़ें ठुँसी पड़ी थीं । उनकी दराज़ों में गये दिनों की महक कैद थी , समय रुका जमा था । बाबा की वर्दी , बर्मा से लाई गई काही खोल वाली मिलिट्री थर्मस , कोई ऐयरगन , भारी बूट , छर्रे , शेफील्ड नाईव्स , मोटे चमड़े के बेल्ट । रसोई की जाली वाली खिड़की से पनडुब्बी चिड़ियों का शोर सुनाई देता । दो ईंटे जोड़ कर खड़े होने से बाहर का नज़ारा सही सही दिखता । अँधेरे में रौशनी का एक टुकड़ा । मुन्नी दी की हँसी भी तो रौशनी का एक टुकड़ा थी ।


मुन्नी दी हँसते हँसते दोहरी हो जाती हैं । इतना हँसती हैं इतना कि उनके आँख से पानी गिरने लगता है । थमते कहती हैं , कहाँ तुम्हें ये सब याद होगा तुम कितनी तो छोटी थी तब । फिर एकदम उदास हो जाती हैं । बड़ी तकलीफों वाले दिन थे नन्हीं , पैसों की तंगी , बाबू की मौत और नाना के पास आकर रहना । बस चावल और पानीदार दाल खाते थे हमलोग । फिर एकदम उमग कर बोलतीं हैं , लेकिन जानती हो कितना हँसते थे हम सब , मैं , बुलु , तुपु , अनु ..सब । उसी तंगी में कैसा उमगता उल्लास हमें ज़िन्दा बनाये रहता । दस दस रोटिय़ाँ हम दो आलू और अचार के साथ खा जाते । कितनी भूख लगती थी तब । गर्मी में फर्श पर मूड़ी जोड़े चित्त लेटे हाथ से पँखा झलते कितने गाने गाते थे .. हाय गज़ब कहीं तारा टूटा और बदन पे सितारे लपेटे हुये .. दीदी फिर गुनगुनाती हैं , सुहानी शाम ढल चुकी ... उनकी आँखें मुझे नहीं देख रहीं , दिन में सपना देख रही हैं

लोहानीपुर के उस छोटे से घर की याद है मुझे । बाबा के कमरे में किताबें ही किताबें । और वो टाईपराईटर .. द क्विक ब्राउन फॉक्स जम्प्स ओवर द लेज़ी डॉग । यादें अल्बम में लगी पुरानी फोटो जैसी ही है , खटाक और एक तस्वीर नीचे गिरती है । कॉर्नर्स में अटका एक पल , खत्म हुआ फिर भी ज़िंदा है , कितना तो अमूर्त है ।

मुन्नी दी की शादी के बाद खिंचवाई फोटो , उँगलियों में कमरधनी फँसाये , ठीक उसके बीच से झाँकती उनकी हँसती आँखें और हँसते दाँत , चमकते मोतियों जैसे । पर हँसने जैसा कुछ रहा नहीं था उनके जीवन में । कब रहा था ? और बाबा , अपने फौज़ी वर्दी में चुस्त सतर , बर्मा के मोर्चे पर । घुटनों के ऊपर गोली लगी थी । अस्पताल में सन्निपात में बौराते थे । मुझे नहीं पता पर जाने कितनी बार सुनी कहानियाँ हैं , जैसे अलमारी में बन्द वो दूसरी दुनिया । खाकी सोला हैट को पहनते माथे पर गरम गुनगुनेपन के एहसास जैसा । अँधेरे में डूब जाने जैसा । बाबा की महक पा जाने जैसा ।

मुन्नी दी के हाथ में पुरानी मुड़ी तुड़ी ब्लैक ऐंड वाईट फोटो है । कम रौशनी में चमकती आँखें हैं , चेहरे पर एक उत्कंठा भरी इंतज़ार जैसा मुस्कान है , पीछे घर की बिन पलस्तर वाली दीवार पर चौकोर ईंटो की जाल है , उनके गोद में लुढ़की हुई मैं शायद पाँच छ साल की रही होऊँगी । मेरा फ्रॉक उठंगा है । दीदी की सूतीसाड़ी के मुचड़े पल्ले को खींचती मैं बिसुरती दिखती हूँ । उनका कमसिन पतला चेहरा किसी नये खिले फूल सा ताज़ा है । अँधेरे में रौशनी की कौंध ।

एक पेंडुलम डोलता है आगे पीछे आगे पीछे । दीदी ने फोटो वापस बैग में डाल लिया है । जानती हो , वो धीमे उसाँस भरती कहतीं हैं , पिछली दफा गई थी वहाँ । घर नहीं था सिर्फ मलबा था । शायद वहाँ एक मल्टीस्टोरी अपार्टमेंट बन रहा है । जिन्होंने मकान खरीदा था उनका बेटा कैनडा जा रहा है , तो सब बन्दोबस्त ... । उनकी आवाज़ बीच में थमती ठिठकती है । उस लकड़ी की आलमारी की याद है तुझे ? जाने कहाँ किसके पास होगा ? बुलु के पास क्या ? या तुपु ? और वो फ्रेम में नाना की वर्दी वाली तस्वीर ? और तेरा बनाया नदी और घर और नारियल के पेड़ वाली बचकानी पेंटिंग , मेरे स्कूल के मार्कशीट्स और जूट का वो झोला जो तेरे स्कूल के नीडलवर्क क्लास के लिये मैंने बनाया था ?

खिड़की से रौशनी छन कर उनके चेहरे पर पड़ती है , आधे चेहरे पर । ये वही फोटो वाली मुन्नी दी ही तो हैं , गज़ब ! गज़ब !

8/25/2009

बरसात की एक रात ..द स्टेज इज़ सेट फॉर द क्राइम

कुहासा झम झम गिर रहा था । जाड़े के सर्द दिनों में बारिश का तीसरा अवसाद भरा दिन था । दिन के बाद रात अचक्के नकाबपोश सी आई थी। सड़क वीरान थी। घरों की खिड़कियाँ बन्द थीं , पर्दे गिरे थे । अँधेरे में लैम्पपोस्ट से लटका एक पीला फीका गोला धीरे धीरे हिल रहा था । बारिश झीसियों में किसी पुराने रुदन की धीमी अंतहीन सुबकियों सी गिरती थी । सब रहस्यमय रोमाँचक था , जैसे पुरानी थ्रिलर फिल्मों में किसी अनहोनी घटना के घट जाने का स्टेज सेट हो , किसी लम्बी खींची तान के दहशतपने को उकेरता वायलिन का सुर हो।

ट्रेंचकोट और फेल्ट हैट पहने लम्बा सा शख्स तेज़ कदमों से चलता आया फिर ठिठक कर लैम्प पोस्ट के ऐन नीचे खड़ा हुआ । ऊपर से गिरती रौशनी में हैट के नीचे सिर्फ उसके चेहरे का निचला हिस्सा दिखता था । मज़बूत जबड़े और शायद बाज़ की सी मुड़ी हुई कठोर सी नाक का आभास । वो कुछ देर अँधेरे में जाने क्या देखता खड़ा रहा फिर कोट के भीतरी पॉकेट से निकाल , हथेलियों की ओट में, पानी और हवा से लौ बचाते, तल्लीन होकर सिगरेट सुलगाया । एक पल को भक्क से लौ की तेज़ी भड़की फिर एक लाल बिन्दू में तब्दील हो गई । गहरा कश खींचते उसने कँधे सिकोड़े फिर कोट के कॉलर को खड़ा करते , गर्दन को तीखी हवा और पानी से बचाते तीन चार तेज़ कश खींचे । फिर आधे सिगरेट को बिना पिये ही अचानक किसी बेताबी से नीचे फेंका , बूट के टो से उसे मसला , कोट के पॉकेट में हाथ ठूँसे और जिस तेज़ी से आया था उसी तेज़ी से मुड़ कर अँधेरे किसी रास्ते में विलीन हो गया । उसके सशरीर चले जाने के कुछ देर बाद तक उसके बूट की आवाज़ एक फौज़ी दुरुस्ती में गूँजती रही ।

ऊपर एक खिड़की खुली । एक औरत ने पर्दे हटाते नीचे झाँका , आवाज़ की ओर । कुछ देर सतर्क चौकन्नेपन के टेढ़ेपने में सर बाहर निकाले अँधेरा पीती रही । फिर हताश खिड़की बन्द की । किसी गली में छत से निकले ड्रेन पाइप से हड़हड़ाते पानी का शोर हुआ फिर सब एकदम शाँत हो गया । आग से हाथ सेंकते बूढ़े आदमी ने बेचैन टहलती औरत को देखा । इस छोटे से कमरे में उसका यों टहलकदमी करना उसे परेशान कर रहा था । घर के अंदर यों लगातार बन्द होना भी , और इतनी ठंड में मनपसंद शराब का न होना भी ।

बगल के फ्लैट से , जहाँ वो पीली जांडिस वाली लड़की अकेली रहती थी , संगीत की धीमी सुबकती आवाज़ आने लगी । इन लगातार की बरसाती सर्द दिनों में लड़की का चेलो बजाना बेतरह बढ़ जाता था । सूखते काँपते पत्तों की तरह उसका संगीत फिज़ाओं में थरथराता गूँजता था । बारिश की संगत में हुहुआती बर्फीली हवाओं पर सवार छतों की काई पर जम जाता , स्यामीज़ बिल्ली की गुपचुप चाप पर घूमता उसकी सीधी तनी खड़ी पूँछ के शिखर पर टिक जाता , फायरप्लेस की लकड़ियों पर तड़तड़ाता , पड़ोस के घरों की खिड़कियों पर टपटप दस्तक देता , फिर वापस घूमता लड़की के चेलो बजाते हाथों में समा जाता । उसकी उँगलियाँ कुछ पल को थरथरातीं , उसके होंठ उदासी में नीचे गिर जाते । खिड़की के सिल पर रखे पौधे का अकेला फूल धीमे से मुरझा जाता ।

बिल्ली भीगते दीवार पर कदम जमाये चलती , चौंक कर पीछे पेड़ों पर कुछ देखती । उसकी पूँछ तन जाती , उसके रोंये खड़े हो जाते , उसका बदन अकड़ जाता । पेड़ों के झुरमुट के पीछे ट्रेंचकोट वाला शख्स लम्बे डग भरता , पानी के बौछार के आगे ज़रा सा झुकता , तेज़ी से जाता अचानक मुड़ कर बिल्ली को देखता है ।

द स्टेज इज़ सेट फॉर द क्राइम ...

( जारी.... )

8/21/2009

गली के पीछे

कौन सा पुराना बाजा बजता है , पता नहीं पर रात बीतते नस पर चढ़ता है दर्द , और कोई धीमे से पूछता है , डर तो नहीं लग रहा ? तिरती खामोशी में खुद की साँस का शोर बेशर्म बेढपपने में छूटता गिरता है । एक सुबुक सिसकी दम तोड़ती है , हँसी फुसफुसाती है दबी शैतानी में और पीछे से कोई बुदबुदाता है , कितना सताया तुमने , ऐसे ही बिलावज़ह ? आवाज़ में शिकायत नहीं दमतोड़ उदासी है जैसे शाम का चुक जाना । किस पागलपने में मन बिफरता है , क्यों शाम का चुक जाना ऐसा नियत हो ? क्यों क्यों । किसी खाई के मुहाने पर खड़े नीचे गिरने के डर का नशा ? आखिर किस बात का मोह ? बेकली एक तार खींचती है , एक सर्द आह पर मन बिखरता है , कोई हिचकी कोई याद करता है भला ?


किसी पहचानी आवाज़ की खनक दिखा जाती है एक बार , वही समय , वही दुलार । दिल अब भी धड़कता है मेरी जान , अब भी ..

उस बन्द गली के बाद एक गली और है , एक सड़क और , और मैं हूँ और शायद तुम भी हो । उँगलियों के पोरों पर साँसों को सजाये , बेचैन लड़खड़ाहट में थमते थामते हम चलते हैं साथ शायद सिर्फ मेरी ही स्मृति में । करवटों की कराह पर चाक होते दिल का चूर चूर होना कौन देखता है । नदी का पानी तब भी बहता था , अब भी .. आश्चर्य ! दोस्त को दिल का हाल कहते देखते हो तुम, एक बार फिर तुम्हारे आवाज़ की उदासी छूती है जबकि तुम कहते हो वो दिन खत्म हुये अब । खत्म ! तुम हँसते हो अजीब सी बेमन सी हँसी फिर दोहराते हो .. खत्म खत्म ।

दोस्त देखता है खत्म होते दिन की रंगत कैसी फीकी होती है , जान निचुड़ जाने जैसी , छूटती हिचकी के अंतिम उठान की तरह ...बदहवास , बा हवास !



(पॉन नफ के आगे रू द नेवर की पिछले दिनों ली हुई एक तस्वीर )

8/02/2009

मोहब्बत

उसकी आवाज़ कूँये में गिरते छोटे पत्थरों जैसी थी । हर शब्द के बाद एक चुप्पी का छोटा तालाब जिसमें शब्द की अनुगूँज सुनाई दे । दबी कसक में लिपटी जाने कहां से अचानक उस बचपन की याद हो आई जब हम घर के पीछे पोखरे पर कितनी शामें कमीज़ और निकर में , घुटने छिलाये , पानी में चिपटे पत्थर छिहलाते थे । कई बार देर-देर अँधेरा घिरने तक । उसकी आवाज़ मुझ तक उन सारे समयों को पार कर, तमाम अँधेरों को चीरती आती लगी । ठहरी हुई , बिना हड़बड़ी के , जैसे ये शब्द और वाक्य भी उसके दिमाग में अभी पहली बार बन रहे हों ।

गौर से सुनना । सुन रहे हो ? जब आप मोहब्बत में होते हैं आपके भीतर का अंतजार्त गुण हज़ारगुणा बढ़ जाता है । जैसे आप पोसेसिव हुये तो ये पोसेसिवनेस जान मारने की हद तक बढ़ जाता है । आप किसी का कत्ल कर सकते हैं अपनी जान ले सकते हैं और अगर आप उदार हुये तो फिर आपके सूफी होने से कोई आपको रोक न सकेगा ! जिसको प्यार किया उसका अच्छा बुरा सब प्यारा और भला । इश्क की इंतहा । सब्लाईम ..

जिस सिम्त भी देखूँ नज़र आता है कि तुम हो ...


उसने फराज़ पढ़ा फिर कहा-

सोचता हूँ मैं कि तीन चार साल में काम से निजात पा लूँ । तुम जानते हो हमारा जो घर है , उस छोटे से नामालूम से शहर में , वहाँ आँगन आँगन चलते चलो तो एकाध किलोमीटर चल लेते हो । एक खत्म हुआ कब दूसरा शुरू पता तक नहीं चलता । अब भी ऐसा ही है । सबके आँगन एक दूसरे में समाये हुये , सबकी ज़िंदगी भी ऐसी ही , खाला चाचा , आपा , बुआ ..सब परिवार हैं । सब आसपास । कब्रिस्तान भी । बुढ़ापे की जवानी वहीं बितानी है । शायद कुछ खरगोश ही पाल लूँ । और कुछ कबूतर । शायद फिर तब कुछ लिखूँ । प्रेम कहानी नहीं जीवन कहानी, क्‍यों ? फिर ब्रोदेल और स्‍तेंधाल पढ़ूँगा , जीवन पढ़ूँगा ।


उसकी आवाज़ दूर चली गई थी पर शब्द साफ थे । उनका स्वाद साफ था । उसमें एक भयानक किस्म की यर्निंग थी ।


तुम जानते हो आजकल मैं अपने नशे में रहता हूँ । पीना छोड़ दिया है । तब हर शाम पीता था , याद है तुम्हें ? क्‍या दिन थे । अब खुद को पीता हूँ । रात निकल जाता हूँ सड़कों पर । बारिश से भीगी सड़कों पर स्ट्रीट लाईट्स की झिलमिल रौशनी में भागते शहर को देखता हूँ , लोगों के हकबक चेहरों को देखता हूँ , औरतों के उजाड़ चेहरों को देखता हूँ , रास्ता जोहते उन सस्ती कॉलगर्ल्स को देखता हूँ चटक मेकअप से पुते चेहरे, फूहड़ कपड़ों और उससे भी ज़्यादा फूहड़ तरीके से कूल्हे मटकाती फाहश इशारे करतीं । घरों के अंदर उदास पीली रौशनी में नहाई खिड़की से जीवन का एक टुकड़ा देखता हूँ और सोचता हूँ , जीवन ऐसा क्यों है ? व्हाई ? व्हाई लाईफ इस सच अ कैरीकेचर ऑल द टाईम ? क्या कहते हो तुम ?


फिर बिना मुझे सुने या मेरी जवाब का इंतज़ार किये वो हँसने लगा था। उसकी हँसी एक छोटे बच्चे के असमय बूढ़े हो जाने की हँसी थी । फिर हँसते हँसते वो हिचकियाँ खाने लगा । मैंने घबराकर कहा , सुनो पानी पी लो , गिनकर सात घूँट । उसने कहा , मैं सात घूँट खुद को पी लूँ ? क्या कहते हो तुम ? मैंने सोचा इसकी आदत गई नहीं अब भी । हर बात में दूसरे की एंडॉर्समेंट क्यों चाहिये इसे ।

हम चार साल बाद बात कर रहे थे । पूरे चार साल । इस दौरान हम एक दूसरे के लिये इस दुनिया से विलीन थे । फिर अचानक किसी पुरानी डायरी में एक छोटे से पीले पुरजे में तीन बार इसका नाम लिखा दिखा और हर नाम के साथ एक दूसरा नम्बर । मैंने पहला नम्बर लगाया था जिसपर किसी औरत आवाज़ ने सर्द सुर में यहाँ नहीं रहते , कहकर फोन काट दिया था । दूसरे नम्बर पर इसने उठाया था । और बिना हैरान हुये , बिना शिकायत तंज किये हुये , बिना इस चार साल की चुप्पी की कैफियत दिये हुये या पूछते हुये , वो शुरु हो गया था । जैसे हमने पिछली बात कल की ही छोड़ी हुई तार से फिर शुरु किया हो ।


तुम जानते हो जीवन मेरे लिये एक महंगी शराब और कीमती सिगरेट जैसी है । हर कश , हर घूँट ( फिर वो चुप हुआ , इतनी देर कि मुझे लगा फोन कट गया है ) अच्छा हटाओ इस बात को , सुनो पिछली दफा मैं गाँव गया था , शहर के और भीतर और हफ्ते भर रहा था वहाँ , बिना बिजली के । रात को लालटेन की रौशनी में बैठे , किताब सिर्फ हाथ में थामे मैं उन जगहों की सोचता था , जहाँ कभी गया नहीं । किसी सेब के बगान में दिनभर सेब तोड़ना और रात को रोटी खाकर सो रहना । ऐसा सहज जीवन हो जाये तो क्या फिर भी मन अकुलाता रहेगा ? मन की खुराक आखिर कहाँ से मिलती है ? किससे मिलती है ? मन क्या हमेशा ऐसा ही भूखा नंगा बना रहेगा ? गरीब का गरीब ? जानते हो , दिन में मैं खेत पर चला जाता था । किसी पेड़ की छाँह में बैठकर खेत देखता था । किसानों से बात करता था । मिट्टी में पैर धँसाये मिट्टी का सुख लेता था । पूरी छाती भर साँस लेता था , लम्बी गहरी साँस , हवा का सुख भी सुख है । लेकिन गाँव के लोग मुझे ऐसे देखते जैसे मैं किसी सनक की पिनक में हूँ । शायद हँसते भी थे । अच्छा बताओ सरल जीवन कहाँ मिलेगा ? माने मटीरियली सरल भी और दिमागी जज़्बाती सरल भी ?



फिर उसकी आवाज़ अचानक धीमी हो गई । जैसे खुद को कोई सफाई दे रहा हो ,



सुनो , रात के वक्त किसी का शरीर आपके पास हो , सिर्फ पास , न भी छूओ लेकिन ये तसल्ली हो कि छूना चाहो तो है कोई जिसे प्यार से , सुकून से छूआ जा सके , जो आपके ज़िंदा होने के अहसास को जिलाये रख सके ...


वो चुप था । मैं भी साँस रोके चुप रहा ।


निपट अकेली रातों में खुद को छू कर सहला कर , अपने भीतर गर्मी तलाशना , ज़िंदगी तलाशना , कब्र में अकेले लेटने जैसा है । सब ठंडा और बेजान । कई बार मन होता है किसी औरत का शरीर खरीद लूँ सिर्फ उसके बगल में लेट पाने के लिये । शायद नींद आ जाये । (फिर एक खोखली हंसी की टेक पर जैसे अपनी कही हर बात को खारिज करते हुए) देखो, कैसी बहकी बातें कर रहा हूं ।



फिर उसने एकदम से फोन काट दिया था। यही इतनी ही बात हुई थी उस दिन उससे । किसी ने कभी बताया था कि उसकी बीबी उसे छोड़ गई है और अब वो शराब बहुत पीता है । और झूठ तो किस ठाट से बोलता है । निक्कमेपने का बेशर्म इश्तेहार बना फिरता है । किसी गिरे हुये नीच कमीने इंसान को देखना हो तो उसे देख लो , ऐसा कहते जिसने ये बातें कही थीं उसका मुँह विद्रूप में बिगड़ गया था ।


मैंने उस पीले पुरजे से उसका नम्बर अपने मोबाईल पर सेव नहीं किया था । शायद मैं भी उससे मोहब्बत करता था , उसके अच्छे बुरे के बावज़ूद पर फिर भी मैं सूफी नहीं था । मैं उसके जैसा इंसान तक नहीं था । अब कभी सिगरेट या शराब पीता हूँ पता नहीं कहां से उसकी याद चली आती है । उस पीले पुरजे की जगह डायरी में ऑबिटुअरी की वो कटिंग मैंने सहेज रखी है जिसे कभी कभार नशे की बेशर्म बहक में निकाल कर देख लेता हूँ । उसका चेहरा ग्रेनी है मगर गौर से देखो तो आँखें मानो साफ़ सवाल करती दिखती हैं , व्हाई लाईफ इस सच अ कैरीकेचर ऑल द टाईम ?


(पिछले दिनों दैनिक भास्कर में छपी कहानी )

7/31/2009

क्‍या बात करें ?

किससे बात करें ? क्‍या बात करें ? गालों पर पेंसिल टिकाये सोचते हुए चेहरे दीखते हैं , सोच की घरघराती मशीन का वाजिब प्रॉडक्‍ट क्‍या है, हाथ नहीं आता । हाथ आता है, स्‍वाति ? स्‍वाति मेरी तरफ देख रही है, दीखता है, वाकई सुन पा रही है ऐसा नहीं लगता । लंच के बाद बेसमेंट के कॉरिडोर के भीड़ के अकेलेपन में फिर अपना शिकायतनामा पढ़ेगी, ‘ तुम आजकल बात नहीं करती !’ भीतर कोई बात थी , तैर रही थी , एकदम से ठहर जाती है , स्‍वाति इज़ राईट , बहुत कर लिया , अब करती- करती थक गई हूं , लेट मी थिंक फॉर अ मिनिट । ज़रा साथ सोच लें , स्‍वाति , बुरा तो नहीं मानोगी ना ?

मौसम , ट्रैफिक , अखबार के हेडलाईंस , बिजली की आउटेजेस , दफ्तर की पॉलिटिक्स , कामवाली के नखरे और माईग्रेन की दहशत , उसके बाद ? उसके बाद क्‍या , कोई बतायेगा मुझे ? जीवन बीतता रहता है । रीतता रहता है , मतलब की बात नहीं आती पकड़ में। बारिश की झड़ी में भीतर समटाये , काले घने बादलों को देखते सिर्फ खुद से हो सकती है बात । तुम्‍हें बुरा लगता है तो आई एम हर्ट, स्‍वाति , बट दैट इज़ हाउ इट इज़ ।

बच्ची की उँगली हथेली में थामे मैं पूछती हूँ उससे , बच्चे मुझसे बात करो । बच्ची हाथ छुड़ाती भागती है , अभी नहीं बाद में । बाथरुम , डिनर, मां का फ़ोन , कुर्सी पर बैठे- बैठे जाने कब झपकी आ गई के बाद बालकनी में लगा कोई चिड़ि‍या आकर बैठी है , होश में लौटती , हाथ तोड़ती बालकनी में झांकती हूं तो कोई चिड़ि‍या नहीं दीखती । चिड़ि‍या का पर भी नहीं दीखता । दोस्त से पूछती हूँ , आखिर क्यों करते हैं बात हम ? मिलता क्या है आखिर ?

दोस्त बिना जवाब दिये जारी रहता , कॉफी की घूँट के बीच व्यस्त कहता है , समय नहीं है इसके लिये , पहले ये तय करो कि कुछ मिलना ही क्यों ज़रूरी है । व्हाई यू आर सच अ मटीरियलिस्ट ? बात से भी कुछ पा जाओ ऐसी बुर्जुआ आकांक्षा , रियली दिस इस द लिमिट ।

दफ्तर में कोई और दिन । कामों के शोर में मतलब के खालीपन से भरा दिन । सहकर्मी से फाईल्स निपटाते बीच में पूछ लेती हूँ , तुम क्यों करते हो बात ? भौंचक देखता , कहता है पहले ये फाईल निपटा लें ? फुरसत मिली फिर तो बैंगलोर में एक घर खरीदने की बात चल रही है उसके बारे में तुमसे राय लेनी है ?

कैफेटेरिया में खाने की मेज़ पर देखती हूँ , तश्तरी और चम्म्च की खनक के बीच , बात को कटोरियों से होते , नमकदान से गुज़रते , नैपकिंस की तह में खोते । वही, खाने में आज तीखा कम है , तेल ज़्यादा है , सामने लगे टीवी पर राखी सांवत है , पीछे दीवार पर टंगी पेंटिग में अफ्रीकी औरत है , अक्वेरियम टैंक में तैरती , गोल गोल गप्पी मछलियाँ हैं , बात कहीं नहीं है । नोव्‍हेयर । और डैम्‍म , क्यों नहीं है कि चिंता किसी को नहीं है ।

रात को चैट मित्र से हरी बत्ती टिमटिमाते ही , क्या खबर में कोई खबर नहीं का रसीद नत्थी करती , चैट लिस्ट की सब लाल हरी बत्ती को नमस्कार करती पूछती हूँ , अच्छा सोच कर बताना , आज कोई बात जैसी बात हुई ?

सबकी रौशनी गुल हो जाती है ।

याद आता है बरसों पहले किसी ने कहा था , तुम बड़ी अजीब बातें करती हो ।

7/03/2009

सबसे बड़ा ग्लोब

हमारे घर एक बैरोमीटर , एक लक्टोमीटर और एक ग्लोब था । एक थर्मामीटर भी था जो टूट गया था और जिसका पारा हमने एक छोटे पारदर्शी डब्बे में इकट्ठा कर रखा था । लैक्टोमीटर से हम दूध की शुद्धता नापते थे । उन दिनों हमारे घर में फ्रिज़ नहीं था और माँ दिन में चार बार दूध गरम करती थीं कि खराब न हो । हम स्टील के कटोरे में दूध डालकर जाँचते थे । उसमें पानी डाल डाल कर देखते कि लैक्टोमीटर सही बता रहा है कि नहीं । हर बार सही माप हमें भौंचक करता और हम एक दूसरे को देख विजयी भाव से हँसते थे जैसे कि ये कोई जादू का खेल था जिसे हमने ही अंजाम दिया था ।

गर्मी की चट दोपहरियों में माँ साड़ी का आँचल एक तरफ फेंक कर पँखे के नीचे फर्श पर चित्त सो जाया करती थी तब हम चुपके दबे पाँव बरोमीटर लेकर बाहर निकल जाया करते । पुटुस की झाड़ियों की ठंडी छाँह में भुरभुरी मिट्टी में तलवे धँसाये हम बैरोमीटर पढ़ते । उसका माप हमारे समझ के बाहर था । फिर भी उसको हाथ में थाम कर उसके बढ़ते घटते रीडिंग को देखना हमें अंवेषण कर्ता बना देता था । ग्लोब पढ़ना अलबत्ता अकेले का खेल था । ग्लोब नीले रंग का था और उस पर दर्शाये ज़मीन के टुकड़े भूरे हरे रंग के । उसका ऐक्सिस हल्के पीले रंग का था । धीमे धीमे उसे हम घुमाते और आँख बन्द कर कहीं उँगली रख देते । कुछ पल में ही ऐशिया से योरोप या दक्षिण अमरीका पहुँच जाते । हम जगह सीख रहे थे .. लीमा, पेरु , इस्तामबुल से बढ़ते हुये हम बुरकिना फास्सो , उलन बटूर , युरुग्वे , समोआ, तिमोर , इस्तोनिया, किरीबाटी, सान मरीनो तक पहुँच गये थे । फिर हमने ऐटलस पढ़ना शुरु किया । ज़मीन पर ऐटलस फैलाये हम मूड़ी जोड़े महीन अक्षरों को उँगलियों से पढ़ते । फिर हमने पुरानी दराज़ों को खँगालते हुये मैग्नीफाईंग ग्लास का अंवेषण किया था । उससे न सिर्फ अक्षर बड़े हो जाते थे बल्कि हथेलियों की रेखायें और उँगलियों के पोरों के महीन घुमाव से लेकर त्वचा के रोमछिद्र तक विशाल दिखाई देते । पकड़ी हुई मक्खी का शरीर और चम्मच पर रखे शक्कर का दाना भी । और सबसे मज़े की चीज़ कि सूरज की किरण को फोकस कर नीचे रखे अखबार का एक कोना भी जलाया जा सकता था ।

पर ये सब दूसरे दर्जे के खेल थे । असली मज़ा ऐटलस और ग्लोब पढ़ने का ही था । टुंड्रा और सवाना और पम्पास समझने का था । पहाड़ों पर उगते मॉस लिचेंस और रोडोडेंड्रॉन जानने का था । ऐटलस को छाती से सटाये चित्त लेटकर छत देखने का था । छत देखते उन दूरदराज जगहों की गलियों में भटकने का था । मोरोक्कन जेल्लाबा , अरब हिज़ाब , काहिरा की गलियाँ , स्पैनिश क्रूसेड्स बोलने का था । दिन में सपने देखने का था । जबकि स्कूल में भूगोल मेरा प्रिय विषय नहीं था । इसमें सरासर गलती सिस्टर रोज़लिन की थी । सिस्टर रोज़लिन हमें भूगोल पढ़ाती थीं । उनके टखने नाज़ुक थे और उनके पाँव सुडौल । वो पतले काले फीते वाले सैंडल पहनती थीं और उनके सफेद हैबिट के नीचे उनके टखने और पाँव नाज़ुक सुडौल दिखते थे । जब वो टेम्परेट और मेडिटेरानियन क्लाईमेट पढ़ातीं थीं मैं उनके पाँव और पतली कलाई और लम्बी उँगलियाँ देखती थी ।

माँ सुबह रोटियाँ बेलते वक्त गाने गातीं थीं । बँगला गीत , चाँदेर हाशी या फिर भोजपुरी लोकगीत , कुसुम रंग चुनरी या फिर फिल्मी गाने , रहते थे कभी जिनके दिल में । माँ काम करते वक्त गाने गाती थीं । माँ चूँकि दिनभर काम करती थीं , हम दिन भर उनके गाने सुनते थे । उनकी आवाज़ में एक खनक थी । उनकी आवाज़ तहदार थी और पाटदार । मुझे लगता था उनकी आवाज़ पतली क्यों नहीं । मैं कई बार रात को प्रार्थना करती , सुबह उठूँ तो उनकी आवाज़ पतली हो जाये या फिर मैं अपने कश्मीरी दोस्त की तरह गोरी हो जाऊँ । बहुत बरस बीतने पर ये मेरी समझ में आना था कि माँ की आवाज़ बेहद खूबसूरत थी , उसका एक अपना कैरेक्टर था , अपना वज़न और जो अपने आप को कहीं भी पहचान करवा सकता था । उस आवाज़ में एक खराश भरी लय थी , लोच था जो लम्बी तान में चक्करघिन्नियाँ खा सकता था , बिना टूटे , बिना बिखरे , जो कहीं दूर वादियों से उदास झुटपुटे की महक ला सकता था , जिसमें दिल मरोड़ देने वाली चाहत की प्रतिध्वनि थी । मेरे पिता माँ की उस आवाज़ पर कैसे फिदा हुये होंगे ये समझना बेहद आसान था । पर ये सब भविष्य की बातें थीं ।

माँ दिन में एक घँटा सोतीं थीं । तब हम दूसरे कमरे में होते जहाँ किताबें ही किताबें थीं। चौकोर भूरे दस लकड़ी के बक्से जिनको हम कभी पिरामिड की तरह सजाते , कभी एक के ऊपर एक रखते । चार नीचे फिर उनके ऊपर तीन फिर उनके ऊपर दो और सबसे ऊपर एक । सबमें किताबें सजी होतीं । बालज़ाक , प्रूस्त , ज़ोला , फ्लॉबेयर , इलिया कज़ान , लौरेंस । इनके साथ साथ महादेवी , रेणु , निराला , प्रेमचंद । बरसात के दिनों में गीले कपड़ों की महक इन किताबों में बस जाती । आज भी बरसात की महक से उन किताबों की महक आती है । पेट के बल लेट कर किताब पढ़ते थक कर सो जाते फिर माँ के गाने की आवाज़ से नींद खुलती । माँ शाम के खाने की तैयारी में लगीं होतीं । बाहर धुँआ होता या फिर शायद रात घिरने को आती । लैम्पपोस्टस पर बल्ब के चारों ओर लहराते फतिंगो का गोला होता और झिंगुरों की हमहम होती । हमारे सब साथी छुट्टियों में गाँव गये होते और अचानक शाम घिरते हम मायूस उदासी में डूब जाते । बैरोमीटर , टूटे थर्मामीटर का पारा , ग्लोब , सब आलमारी पर असहाय अकेले रखे होते । बिना संगी के , सिर्फ एक दूसरे के साथ से हम अचानक ऊब से भर उठते । माँ के गाने में भयानक उदासी होती । हम चुप खिड़की के शीशे से नाक सटाये अँधेरे में आँख फाड़े देखते , शायद पिता , जो महीने भर के लिये बाहर थे , आज आ जायें । आज ही आ जायें ।


माँ दूध में रोटी डालकर पका देतीं । दूध ज़रा सा किनारों पर जल जाता और रोटी भीगकर मुलायम हो जाती । घर में सोंधी खुशबू फैल जाती । खिड़की के बाहर अमरूद के पेड़ की डाली शीशे से टकराती । माँ कहतीं जल्दी खाना खा लो फिर हम बाहर बैठेंगे । रात की हवा गर्मी भगा देती और हम खटिया पर लेटे चित्त तारों को देखते । माँ धीमे धीमे गुनगुनातीं । फिर कहतीं बस अब बीस दिन और । फिर कहतीं गर्मी अब कम है । हम दोनों माँ को देखते फिर चुपके से हँसते । पिता ने वादा किया था कि इस बार बड़ा ग्लोब लायेंगे , जिसमें छोटे शहर और नदियाँ और पहाड़ भी दिखेंगे । हम चाँद को देखते और हमारी आँखों में नींद भर जाती । रात किसी वक्त , जब शीत गिरती और हम ठंड से सिकुड़ जाते , हमारे पैर हमारी छाती से जुड़ जाते , माँ हमारे शरीर पर चादर डाल देतीं और दुलार से हमारे बाल सहला देतीं । हम नींद में मुस्कुराते और अस्फुट बुदबुदाते , शायद समोआ और तिमोर और लीमा ।

(ऊपर की तस्वीर, सुल्तानपुर)

5/29/2009

समय सपना

मैं सपने देखने के सपने देखता हूँ ।
हवा तेज़ चलती है , सीटी बजाती और गौरैया फुदकती है खिड़की के सिल पर ,रेडियो सिलोन पर पुराने गाने बजते हैं, प्रीतम आन मिलो ....और बाहर सड़क पर सिलबट्टे कूटने वाला फेरी लगाता है सुनसान सड़क पर , अकेला

सब दरवाज़े बन्द हैं , एक परिन्दा तक झाँकता नहीं सिर्फ एक लाल चेहरे वाला लंगूर सफेद चूने लगी छत पर से ताकता है , बिटर बिटर आँखों से , कपड़े तार पर फड़फड़ाते हैं , अबरक लगे दुपट्टे और कलफ की गई पाँच गजी साड़ियाँ और सफेद पजामे के नाचते पैर, बिन बाँह की नीली शमीज़

शायद जब बादल घुमड़ेंगे तब मोर नाचेगा अपने पँख फैलाकर
शायद उसका एक जादू गिर जायेगा , फिर टंग जायेगा उस दीवार पर जिसमें एक खिड़की खुलती है , रंगीन छीटदार परदे के पीछे

बाबू रात को बारह बजे तक लैम्प की रौशनी में पढ़ेगा , माँ रात को एक गिलास हॉरलिक्स रख जायेगी फिर,बिवाई वाले तलवे पर वेसलीन मलेगी , बिंटी पॉंन्ड्स ड्रीमफ्लॉवर टॉल्क अपने गरदन पर छिड़क कर डूब जायेगी उमस भरे नींद में

रात के अँधेरे में बहादुर की जागते रहो गूँजेगी , फिर लाठी की ठकठक और तेज़ सीटी , चाँद साक्षी है ... साक्षी है तब जब टीवी पर देर रात देखता है कोई पेरिस ज़तेम और सोचता है इस समय का हो कर भी इस समय का मैं नहीं

मैं पन्ने पलटता हूँ , ये दुनिया झप्प से ओझल हो जाती है, शब्दों का बोध खत्म होता है , समय खत्म होता है , मैं एक गुमशुदा घर का बाशिन्दा हूँ , एक खोये सपने का मालिक , अपने समय से बिछुड़ा एक अदना सा मुसाफिर

नीलगाय चर जाते हैं सपने हर रोज़ और मैं हर दिन की ऊब को जम्हाई में भर कर पी जाता हूँ , आईने में देखकर कहता हूँ ..यू आर ऐन ऐडिक्ट नीडिंग यॉर फिक्स ऑफ ड्रीम्ज़ एवरी नाईट ..शुक्र है अब भी सपने देखने के सपने देखता हूँ , दीवार पर जबकि काली परछाईयों का शोकगीत है ..

3/30/2009

सफ़ीना ए ग़मे दिल

कभी आप इश्क़ में पड़ जाते हैं , कुछ पढ़ते हैं और मोहब्बत हो जाती है । क़ुर्तुल एन हैदर को पढ़ा था जब दस बारह साल की रही हूँगी । अपरम्परा एक पत्रिका थी जिसके सिर्फ तीन अंक निकले । बड़े लोग जुटे थे इस पत्रिका से और इसके छपने से घरैया संबंध भी था जो खैर महत्त्वपूर्ण नहीं। बस इतना था कि उसके दो अंक हमारे घर पर थे । पहले अंक में ऐनी आपा की ज़िलावतन थी । उस दस साल की उमर में मुझे पहला इश्क हुआ। फिर जहाँ जहाँ कहाँ कहाँ खोज कर उनको पढ़ा .. उनकी कहानियाँ , उनके कुछ उपन्यास , अपरम्परा के दूसरे अंक में रिपोर्ताज ।

आप किसी लेखक को प्यार करते हैं तो उसके बारे में उमग कर बात करना चाहते हैं , उनकी लिखी पंक्तियाँ आप हँस कर एक प्यार भरी हैरानी से दूसरों के साथ बाँटना चाहते हैं । आप इश्क में होते हैं और सबको बता देना चाहते हैं । शब्दों की दुनिया के चमकीले संसार की रौशनी आपकी आत्मा में भरी होती है । हैरानी होती है कि दूसरे उसे देख नहीं पा रहे , शब्दों के जादू की थाह नहीं पा रहे । कैसी नज़र है ? कैसी आत्मा है ? और कैसी गरीबी है । कुर्तुल ऐन हैदर के बारे में बात करते हमेशा ऐसा ही महसूस हुआ । लेकिन कहीं भी उनका नाम लिया , उत्साह से छलकते किताबों का ज़िक्र किया ..

ओह , अच्छा ..आग का दरिया हाँ हाँ , फिर बात बदल गई..। जैसे कोई दीवार खड़ी हो ।

उनकी "गर्दिशे रंगे चमन" पाँच सात साल पहले पढ़ी थी । कुछ बहुत कुछ पागल हुई थी । कुछ मित्रों से ज़िक्र किया । इस मुगालते में थी कि कुर्तुल की किताब है , कहीं भी मिल जायेगी । ऐसे भोलेपन का टूटना ही था । तब तक हिन्दी साहित्य समाज की गरीब दिशाहारेपन से वास्ता न पड़ा था । आग का दरिया तक जो उनका मैग्नम ओपस समझी जाती है , उस तक पहुँचने के लिये भी कम तकलीफ नहीं उठानी पड़ी । भला हो श्रीराम सेंटर की पुस्तक दुकान (अफसोस अब वो जगह भी बंद हुई )जिन्होंने मिन्नत करने पर कहीं से एक प्रति उठवाई । ये कहानी अलग है कि उसकी छपाई , कागज़ की क्वालिटी सब , कई कई बार अपने कंगलेपन में आपका दिल तोड़ दें और आप फिर याद करें कि किसी भी और विदेशी भाषा के क्लासिक्स कैसे चमकीले साज सज्जा में आपका दिल जुड़ाते हैं । खैर , वो उनके लिखे के प्रति मेरी अगाध अनुरक्ति है कि उस घटिया कागज़ के बावज़ूद उस दुनिया ने मुझे जकड़ पकड़ लिया , छू लिया । रंगे चमन अब तक खोज रही हूँ। तमाम लोगों को कह रखा , वैसे लोग भी जो उस दुनिया के हैं। हर जगह बड़ी ठंडक दिखी और मुझे इस बात से हैरानी भरी तकलीफ और न समझ में आने वाला गुस्सा ।

आमेर हुसैन, टाईम्स लिटररी सप्प्लीमेंट में लिखते हैं कि आग का दरिया उर्दू साहित्य में वो जगह रखता है जो हिस्पानिक साहित्य में वन हंड्रेड ईयर्स ऑफ सॉलिट्यूड का है । और ये कि अपने समकालीन लेखकों, जैसे मिलान कुंडेरा और मार्खेज़ से उनकी तुलना की जाये तो उनके लेखकीय संसार की वृहत्ता , उनकी दृष्टि , उनका अंतरलोक . समय के पार और उसके परे जाता है । अमिताव घोष कहते हैं कि वो बीसवीं सदी की सबसे महत्त्वपूर्ण भारतीय आवाज़ हैं । फिर वो सबसे महत्त्वपूर्ण आवाज़ क्यों हमें उपलब्ध नहीं है ? क्यों जब हम महत्त्वपूर्ण किताबों की बात करते हैं तो कुर्तुल का नाम अमूमन उस आसानी से नहीं लिया जाता ? किसी ने कभी मुझे कहा था कि वो उर्दू की हैं , डोंट क्लेम हर ऐज़ योर ओन (यहाँ ओन मतलब हिन्दी साहित्य )

एक बार मैने किसी से शिकायत की थी क्यों नहीं उनकी सब चीज़ें एक जगह एकत्रित की जा सकती हैं । मुझे कॉपीराईट रूल्स और पब्लिकेशन के नियम बताये गये थे । मैं नहीं जानती उनकी चीज़ों के कॉपीराईट्स किसके पास हैं, मुझे नहीं पता कि पब्लिशिंग़ हाउसेस उन चीज़ों को नहीं छापता जो किसी और ने छापी हैं पहले से । मुझे सचमुच इन नियमों के बारे में कुछ नहीं मालूम। मैं सिर्फ एक अदना पाठक हूँ जिसको उनके लिखे से बेपनाह मोहब्बत है। मैं सिर्फ ये जानती हूँ कि उन जैसी लेखिका के लिये शायद ऐसे सब नियम तोड़े जा सकते हैं और इस बात का क्षोभ कि मैं सिर्फ अदना पाठक क्यों हूँ । मैं ऐसे किसी समाज का हिस्सा क्यों नहीं जहाँ एक पाठक की हैसियत इतनी महत्त्वपूर्ण हो कि किताबें उनके माँग को ध्यान में रखकर मुहैय्या करायीं जायें ।

मैं याद करती हूँ कि चाँदनी बेगम, सीताहरण या गर्दिशे रंगे चमन मे उन हिस्सों को जहाँ कहानी खत्म होती है और लूज़ली स्ट्रक्चर्ड बातचीत के ज़रिये वो हमें कहीं और ले जाती हैं , वहाँ जहाँ जीवन अपनी संपूर्णता में, अपने कच्चे पक्केपन में धड़कता है । उन हिस्सों को पढ़कर कई बार मुझे लगा है कि उनसे बात करना ऐसा ही होता , अगर मिल लेती तो और अगर वो मुझे प्यार से , ए लड़की इधर बैठो ..कहतीं ।

नेट पर खंगालते मुझे उनके बारे में बहुत कुछ नहीं मिला ..लेकिन रज़ा रूमी के उनसे मिलने की दास्तान मिली, उनकी कुछ औडियो लिंक्स , यहाँ भी , कुछ उनपर लिखे पुराने ब्लॉग लिंक्स मिले ..यहाँ

बस इतना सा ही । कुछ दिन पहले ज़ुबानबुक्स पर सीताहरण का अंग्रेज़ी तर्ज़ुमा अ सीज़न ऑफ बिट्रेयल्स देखकर मन प्रसन्न हुआ था । इस उम्मीद में हूँ कि ऐसे ही "कारे जहाँ दराज़" और "मेरे भी सनमखाने" कहीं मिल जायें ।

उनके बारे में कुछ यहाँ भी पढ़ा जा सकता है।

ये भी तकलीफ की ही बात है कि नेट तक पर उनसे संबंधित कितनी कम सामग्री है । ऐनी आपा होतीं अभी, कहतीं, अच्छा लड़की , तू इतना ही समझती है?

शी वुडंट हैव केयर्ड अ डैम ..

3/26/2009

तैमूर तुम्हारा घोड़ा किधर है ?

बूढ़ा गरम कपड़ों में लिपटा , पनियायी आँखों से देखता है , जीवन जो बीत चुका । अब और कुछ नहीं है इंतज़ार के सिवा । चाय की प्याली से हाथ सेंकता सोचता है अब भी वही तीस साल का फुर्तीला जोशीला लड़का कुँडली मार कर बैठा है भीतर । क्या होगा उसका मृत्यु के बाद ।


ये वो नहीं, मैं सोचती हूँ । बियाबान चट पहाड़ों के बीच कहीं खो जाती सी , जाने कहाँ जाती सी सड़क पर घँटों चलते शरीर अकड़ जाता है । इतनी ऊँचाई पर साँस की भी दिक्कत । तराई पर अपने कमरे का गर्म सुकून याद आता है । सच पागल हुये थे जो ऐसे जोखिम भरे रास्ते पर चल पड़े । ऐसी कैसी घुमाई । हल्की धीमी उबकाई साँस के साथ चलती है । उस उचाट बियाबान में इस चाय की गुमटी का मिल जाना भगवान का मिलना है । गुमटी के पीछे दो देसी मुर्गियों के बीच एक बाँका मुर्गा कलगी फैलाये शान से देखता है । मुर्गियाँ अच्छी गृहणियों की तरह एक बार हमें देखकर पथरीली चट ज़मीन में फिर कीड़े मकोड़े तलाशने में जुट जाती हैं । टेढ़े बेढ़ंगे दो टाँग पर टिके पटरे पर बैठना खतरे से खाली नहीं पर बूढ़े के इशारे पर हम बैठ जाते हैं , ठंड से सिकुड़ते और लालसा से ओट में जलते चूल्हे की आग की गर्मी और खदबदाते देग से गर्म भाप को आँखों से पीते , हम ताकते हैं .. बाहर की पहाड़ियों की तरफ , फिर भीतर के सफेद गंदलाये अँधेरे की तरफ , फट्टों की दीवार के फाँक से आती हवा से हिलते पिछले साल के कैलेंडर और ताक पर रखे पीतल के बुद्ध भगवान की मूर्ति के सामने लोबान के उठते धूँये की तरफ । बुद्ध अपनी मंगोल आँखों से अनुक्म्पा बरसाते हैं ।


कभी तैमूरलंग इसी रास्ते आया होगा , समरकंद , अमु दरिया से ऐटॉक होते हुये दिल्ली । शहरों और गाँवों को लूटते हुये , बाशिन्दों को मौत के घाट उतारते हुये , औरतों को हवस का शिकार बनाते हुये और फिर नब्बे हाथियों पर सिर्फ बेशकीमती पत्थरों को लाद कर और बाकी लूट का माल लिये लौटा होगा बीबी खानम मस्जिद बनाने के लिये ।


मुझे नक्शे देखना पसंद है । उँगली रखकर मैं तैमूर के रास्ते चलती हूँ , हेरात , इस्फाहन , शीराज़ । क्या ज़मान रहा होगा । तैमूर सुनते हैं लंगड़ा था और घोड़ों पर सवार अपने सैनिकों के साथ , दुर्गम दुर्दांत दर्रों और पहाड़ियों से , बर्फीली हवाओं वाली तराई से , कँपकँपाते ठंड में कैसे जोखिम उठाते निकल पड़ा होगा । कैसी अदम्य जीवनी होगी । धूल उड़ाते , भालो और तलवारों और नेज़ों से लैस, चमड़ों के पट्टों की जीन कसे अरबी घोड़े मुँह से झाग उड़ाते उड़ते होंगे , धूल , पसीने , थकन से पस्त , भूरी दाढ़ियों में कहाँ कहाँ की धूल भरे, अपने अंदर की आग जलाये । जीना , मरना फिर जीना । व्यर्थ नहीं , हमेशा किसी सार्थकता की तलाश में । और बेचारी औरतें ? हमेशा पहला निशाना , आतताईयों के , हमलावरों के , लूटेरों के । वही जीवन का तरीका था । अ वे ऑफ लाईफ । कितना ऐडवेंचर , कितनी तकलीफें ।

मेरी उँगली तैमूर के साम्राज्य की सीमाओं पर फिरती लौट आती हैं । अपने खोल के अंदर दुबक जाती हैं। पोरों से मैंने एक संसार छू लिया । किसी ने कहा था , तुम्हारे अंदर वो आग कहाँ है ?
मैं खोजती हूँ , टटोलती हूँ अपने भीतर । इस आग को लेकर मैं भी तैमूर बन जाऊँगी । सब तज कर किधर अपने सपने खोजती निकल जाऊँगी ? अपने मन की भीतरी सब गुफाओं और खोह की पड़ताल कर लूँ पहले , दुबके अँधेरों को पहचान लूँ , अपनी आत्मा से सब संताप मिटा दूँ तब मेरे पैरों की नीचे ज़मीन होगी न , ठोस ज़मीन । मैं अपने पँख चमकते धूप में फैला कर आसमान देखती हूँ । आसमान आज खुशी का नाम है ।


गाड़ी के बोनट पर थोड़ी धूल जमी है । उसका पिछला चक्का बैठ गया है और स्टेपनी , मालूम पड़ता है कि पिछले पंक्चर के बाद बदला गया था , बनवाया नहीं । दोनों पुरुष गहन बहस में जुटे हैं । चाय गुमटी बूढ़ा अपनी पनियायी आँखों से चुप देखता है । उसकी जवान चिपटे सेब गाल चेहरे वाली बहू बिना कुछ समझे हँसती है । कोई गैराज ? मेकैनिक ? पर भी मुँह पर हाथ धरे फिर हँसती है । रियर व्यू मिरर से लटकती घँटी धीमे से हिलती है , पेंडुलम की तरह , फिर स्थिर हो जाती है । मैं अपने दुखते एड़ियों को जूते की कैद से निकालते सोचती हूँ , तैमूर तुम्हारा घोड़ा किधर है ?

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3/24/2009

चीख

खुशी एक याद है । बचपन जैसे । फिर कैसे भूलती हूँ । वो रास्ता गुम हो जाता है समय में । पीछे पीछे पाँव रखते पहुँच नहीं पाती वहाँ जहाँ से सब शुरु हुआ था । उन दिनों को याद रखना इतना ज़रूरी क्यों था ? अब सिर्फ एक चीख की गूँज जैसा कुछ सिर्फ क्यों बाकी है ।

बच्चा ज़ोर से खिलखिलाता है । उसके चेहरे से धूप छिटकती है । मुड़ कर जाती हुई औरत देखती है , मुस्कुराती है फिर चल पड़ती है । हवा में अचानक जाने कहाँ से आये कपास के फूल तैर रहे हैं । तितलियों को देखे ज़माना बीता । और शायद कुछ दिनों में पेड़ और हरियाली को देखे भी , ऐसे ही ज़माना बीतेगा । मेरे आसपास लोग बात करते हैं , ज़ोर शोर से । शेयर प्राइइसेज़ और रियल एस्टेट के फ्लकचूयेटिंग रेट्स पर । आचार संहिता लागू हुआ तो अब किसी भी नये काम के लिये एलेक्शन कमीशन की अनुशंसा लेनी पड़ेगी । काम का लीन पीरीयड ..अच्छा है । बैंगलोर में कोई मकान खरीद रहा है । ई एम आई और ब्याज़ दर ..ये बैंक और वो बैंक , योरप टूअर के लिये एस ओ टी सी का शानदार स्कीम , स्पाउज़ की बजाय कम्पैनियन ले जायें पर ज़ोरदार कहकहा ..

कोई नहीं देख रहा कि अब तितलियाँ नहीं दिखतीं । या ये कि खुशी सिर्फ गये दिनों की याद है । या ये कि काम क्यों रुक रहा है ? इसीलिये हम अभी तक इंफ्रास्ट्रक्चर के मामले में इतने कंगाल हैं , सिर्फ इंफ्रास्ट्रक्चर क्यों ? और हर मामले में ..बस कंगाल । भावनात्मक रूप से भी ..गरीब गरीब। किसी तरीके का बोध हम में नहीं है । मोहन-जो-दारो और हरप्पा बनाने वालों की संततियाँ कूड़े के दलदल में बसती हैं । सामने शीशे की विशाल खिड़कियों से मेट्रो का घुमावदार कंक्रीट दिख रहा है । उसमें भी एक तरीके की सुंदरता है । स्लीकनेस है , नई तकनॉलॉजी का क्या शानदार नमूना है । कुछ कुछ ‘द ग्रेट बाथ’ जैसा ही शायद। फिर यहाँ से वहाँ जाना कितना सुविधाजनक , नहीं ? पीले सेफ्टी हेलमेट में मजदूरों की शक्ल की भुखमरी नहीं दिखती । सिर्फ रौशन पीलापन दिखता है , कंक्रीट कर्व का स्लीकनेस दिखता है । हम उतना ही देखते हैं जितना देखना कम्फर्टेबल होता है । रिश्तों में भी तो । हम ऐसे ही ब्रीड के हैं। हमारे आसपास भय का गहरा कूँआ तैरता है , अनाम चीखों का और हम पुरज़ोर कोशिशों में लगे हैं , अपने आप को बचा लेने की, अपनी आँखें और कान बन्द कर लेने की। हम सब इस पृथ्वी के शुतुर्मुर्ग हैं ।

मैं क्लयरवॉयेंट हूँ । चीज़ों के घट जाने का अभास एक छाया है । मैं सिद्धार्थ बन कर निकल जाऊँ कहीं और बुद्ध बन जाऊँ ? या कहीं किसी गाँव में संतरे के पेड़ के नीचे बैठकर होमर पढ़ूँ या मेघदूतम । एक महक आती है , सूखे पत्तों के जलने की । धूँये का स्वाद मुझे अच्छा लगता है । मुझे लगता है कि मैं भारी लती बन सकती हूँ । धूँये का स्वाद कूँये के पानी के स्वाद सा लगता है । कल सबसे तीव्रता से ऐसा लगा । पीछे , कॉल सेंटर की बिल्डिंग से लड़के और लड़कियों की चहचहाहट सुनाई देती है , फिर एक तेज़ आवाज़ , डोंट एवर कॉल मी नाउ । मैं मुड़ कर देखती हूँ । अँधेरे में कोई लड़की शायद सेलफोन पर अपने दोस्त से झगड़ा कर रही है । मैं अँधेरे में उठते धूँये को , जिसमें युक्लिप्टस की पत्तियों की खुश्बू है , छाती में भरते सोचती हूँ अँधेरी रात और निर्वाण का कैसा अनोखा संबंध है ।


(Edvard Munch ..The Scream )

3/23/2009

स्वप्न गीत

किसी छोटी सी बात का सिरा कहाँ तक जाता है । उसने सिर्फ ये कहा था , लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में । उसकी आवाज़ में उदासी का बेहोश आलम था । जैसे अफीम के पिनक में कोई नशेड़ी । मैंने पूछना चाहा था , कौन सा दयार था जो उजड़ गया ? लेकिन पूछा नहीं था । सिर्फ कविताओं की पतली सी किताब उठा कर पढ़ना शुरु किया था । वो लगातर खिड़की से बाहर देखती रही । मैं हर तीन पंक्ति के बाद निगाह उठाकर उसे देख लेता । उसका थ्री फोर्थ चेहरा । आम के फांक सा चेहरा । बचपन में किताबों के मार्जिन पर ठीक ऐसा ही आम के फांक सा चेहरा बनाता था , खूब घने बरौनियों वाली आँखें और झुकती हुई लटों वाले बाल । वो सब टेढ़े मेढ़े प्रपोर्शन वाली औरतें , सब जीवित होंगी अब भी उन किताबों के मार्जिंस में । या शायद सब किसी कबाड़ी के दुकान के तहखाने में । उन्हीं किसी कबाड़ी की दुकान से ली थी मैंने कौड़ियों के मोल या शायद मुफ्त , हेमिंग्वे की द मूवेबल फीस्ट । किसी दोपहरी में सुगबुगाती खुशी से पन्नों को सूँघ कर शुरु किया था । कविता पढ़ना रोक कर बताना चाहता हूँ उसे ये सब । लेकिन वो आम फांक चेहरे से अब भी बाहर देख रही है । मैं चुपचाप उठ कर निकल जाता हूँ । वो मुझे रोकती नहीं है ।

मेरे पैरों की नीचे पत्तियाँ चुरमुराती हैं । एक औचक बवंडर का गोला उठता है , सड़कों को पागलपने में बुहारता है , सूखे जंगियाये पत्तों को एक उन्मादी पल भर के जुनून में ऊपर और ऊपर गोल गोल उठाता फिर धीरे से छोड़ देता है । मेरे हाथों में किताब भारी हैं । वो किताब जिन्हें मैं पहली बार नहीं पढूँगा । वो किताबें जिन्हें मैं कई कई बार पढ़ चुका हूँ । मेरे सबसे आत्मीय , मेरे सबसे अंतरंग । इन किताबों से मैं और जीवन जी लेता हूँ , वो सारे जो स्थिति शरीर के अवरोधों के गुलाम नहीं हैं । मैं समय और स्थान के परे हो जाता हूँ । मैं भाव और बोध के ऐसे स्तर पर पहुँच जाता हूँ जो मेरे वास्तविक परिस्थितियों से भिन्न हैं । मैं बेहतर मनुष्य हो जाना चहता हूँ , हो जाता हूँ । मैं उस सब ज्ञान , प्रज्ञा , विवेक का अधिकारी हो जाता हूँ जो मनुष्य ने आज तक अर्जित किया है । मैं वो पात्र हो जाता हूँ जहाँ सभ्यता अपनी अंजुरी से जीवन अनुभव भरती है । मैं एक मानव हो जाता हूँ , सबसे अलग , सबसे उच्च । पर सबके साथ । मैं ठीक उसी वक्त पूरी मानवजाति का प्रतिनिधि हो जाता हूँ । मैं संपूर्ण होता हूँ । एक साथ मैं अपने अंदर उतने जीवन इकट्ठा कर लेता हूँ , जितनी किताबें मैंने पढ़ी हैं । मैं किताबों से बेइंतहा प्यार करता हूँ । मैं एक साथ सौ लोग होता हूँ , सैकड़ों लोग होता हूँ । मैं स्त्री होता हूँ , बच्चा होता हूँ ,पुरुष होता हूँ । मैं कभी अफ्रीकी मसाई और कभी मोरक्कन बरबर होता हूँ , कभी औस्ट्रलियाई अरूंता , कभी रेडइंडियन नवाज़ो लड़ाका । मैं रेगिस्तान में प्यासा दौड़ता हूँ , कभी समन्दर के थपेड़ों से नमक कटे गालों को थामता हूँ । मैं सूली पर मरता हूँ , मैं भाले की नोक पर जीता हूँ । कितनी बार जिया और कितनी बार मरा ।
मैं ये सब उसे बताना चाहता हूँ ।

मैं बताना चाहता हूँ ..कोई दयार नहीं उजड़ता । मन में इतने लोग एक साथ वास करते हैं । फिर उजाड़पना कैसा । मैं उँगली पर रंग लगाकर शीशे रंगना चाहता हूँ और उसके चेहरे से उदासी पोंछ देना चाहता हूँ । मैं जीवन से टूटकर मोहब्बत करता हूँ । मैं रात दिन चलता हूँ । जंगलों के बीच , पानी पर , रेत पर , दलदल के पार । मेरे घुटने छिले हैं , मेरे पैर कड़े हैं । मेरे कँधे दर्द से झुके हैं , मेरे अंगूठे चोटिल ठेस खाये हुये हैं । फिर भी मैं चलता हूँ , इसलिये कि जीता हूँ ।

ये सब वो आमफांक चेहरा नहीं समझता । सिर्फ दर्द में डूबा रहता है । अपने छोटे से दर्द के पिंजरे में । मैं अपनी ऊँचाई में सिहरता हूँ फिर एक बार भी पीछे मुड़कर नहीं देखता ।

वो अब भी खिड़की के बाहर देख रही है । उसकी उदासी धीरे धीरे निथर जाती है । जैसे पानी से थकान धो दिया गया हो । वो चीज़ों को रचाती बसाती है । फूल उगाती है और सूरज के निकलने पर अपनी आत्मा धो पोछ कर चमकाती है । कहती है , मैं वो औरत नहीं ...

(गोगां Ia Orana Maria (Hail Mary). 1891

3/19/2009

बैठे बिठाये

उदास संगतों के बीच कोई सुर तलाशते हैं , खोजते हैं मायने सपनों के । झरते फूलों और गिरते पत्तों के सारंगी सुरबहार तान में , कोई विकल बेचैनी नये पत्ते की तरह फूटती है । काली बिल्ली एक बार घूम जाती है पूँछ उठाये । मैं अँधविश्वासी नहीं फिर भी रुकती हूँ , सोचती हूँ । देखती हूँ लोगों को बोलते बतियाते जीते और हैरान होती हूँ । हर पल हैरान ।

किसी रोज़ बारिश में भीगते देखा था
देखा था मिट्टी में पानी की धार
भीगते शब्द थरथराते काँपते
निचोड़ते थे अर्थ
छोड़ते थे अपनी जगह
कुछ शर्मिन्दगी से
बियाबान मैदान पर
विचरती जैसे कोई अकेली नीलगाय
पुरानी पोथियों में छुपी किसी
गोपन कथा के संकेत चिन्ह
जिनको बाँचते पहुँचेंगे
पकड़ लेंगे तुम्हारे सब अर्थ
तुम समझते थे तुम्हीं चालाक
हम भी सीखते हैं , पकड़ते हैं औज़ार
तलवार की तेज़ी सा, पैनी बुद्धि की कसम
एक दिन सब होगा हमारी पकड़ में
नीलगाय का झुँड तब आराम से विचरेगा , निर्द्वन्द
शब्द लटकेंगे रस भरे , लदी टहनियों से
पहुँच के पास
गप्प से मुँह में धर कर
कर लेंगे अंदर
और बहेगा तब
हमारी मांस मज्जा रक्त में
शब्द अपने पूरे अर्थ में
फिर तुम कैसे बच पाओगे
कैसे कहोगे
मेरा ये मतलब तो नहीं था

मार्गरेट ऐटवुड की इन पंक्तियों को पढ़ते हुये
You fit into me
like a hook into an eye
A fish hook
An open eye

2/25/2009

लमोरे के

कैसी आवाज़ थी ? जैसे किसी तूफान में समन्दर हरहराता हो , जैसे रेत का बवंडर गले से उठता था । उसमें पत्थरों की खराश थी , नमी थी एक खुरदुरापन था । रात में खुले में चित्त लेटे तारों को देखना था और किसी ऐसे ज़मीन के टुकड़े पर पाँव रखना था जो इस दुनिया का नहीं था । जैसे छाती में कोई तार अटका कर खींच ले गया हो , वहाँ जहाँ अँधेरे में छिटपुट जुगनू सी रौशनी थी , फुसफुसाहटों की दुनिया थी और बहुत कुछ था , न समझने वाला बहुत कुछ । शायद उस बच्चे की भौंचक रुलाई सा जिसे ये नहीं पता कि उस बड़े ने क्यों उसे एक थप्पड़ मार दिया । सपने की रुलाई , गालों पर नमी छू जाती है । सपने और हकीकत के कैसे तकलीफदेह झूलों पर झुलाती , उसकी आवाज़ । बीहड़ गुफा में अँधेरे को छूती आवाज़ जिसके सुरों पर ..किसी एक टिम्बर पर रौशनी की चमकती किरण सवार हो , आँखों में चमक गया धूप का टुकड़ा , आवाज़ , जिसके सब रेशे बिखरते हों ..

उसकी आवाज़ ऐसी ही थी , रात के फुसफुसाहटों की आवाज़ , जंगल में पेड़ के पत्तों के सरसराने की आवाज़ , आग में लकड़ियों के चटकने की आवाज़ , मुझे मार देने वाली आवाज़ । मुझे कभी प्यार नहीं हुआ । मर जाने वाला प्यार । उस न होने वाले प्यार के सोग में मैं इश्क वाले गाने सुनती हूँ और कल्पना में जीती हूँ कि अगर प्यार हुआ होता तो ऐसा ही होता , रुखड़ा , टेढ़ा , आड़ा तिरछा , बाँका , पागल , अस्तव्यस्त , शायद । हवा के झोंके से झिलमिलाता फिर भी न बुझने वाला प्यार । पर प्यार नहीं हुआ इसलिये मैं इस शब्द को हाथेलियों में भरकर पानी पर तैरा देती हूँ , कोई मछली गप्प से गड़क जाती है । मैं उदास , बहुत उदास होती हूँ पर अच्छा हुआ नहीं तो 'लमोरे के' सुनकर शायद मैं पागल हो जाती । सचमुच ।




पाओलो कोंते की लमोरे के सुनते हुये

2/13/2009

डांस मी टू द एन्ड ऑफ लव

कोई ताला था जिसकी चाभी बस मेरे पास थी । नीम अँधेरी रातों में अपने भीतर की गर्माहट में उतर कर देखा था मैंने ..ठंड से सिहरते किसी ऐसी अनजान लड़की को बाँहों में भरकर ताप दिया था और फिर पाया था , अरे इसकी शकल तो हू बहू मेरी है । उसके चेहरे को हथेलियों में भरकर कितने प्यार से उसके भौंहों को चूमा था । उस हमशकल की आँखें कैसी मुन्द गई थीं सुख से । उसके नीले पड़े होंठ पर जमी बर्फ पिघल रही थी । किसी ने कहा था न कभी कि ऑर्किड के फूल पास रखो तो उम्र बढ़ती है ..बस ऐसे ही उसके नीले ऑर्किड होंठ अपने पास , अपने होंठों पर रखने हैं । अचानक खूब लम्बी उम्र हो ऐसी इच्छा फन काढ़ती है ।
पीछे से कोई अपनी उँगलियों से गर्दन सहलाता है । ठीक बाल के नीचे का हिस्सा । एहसास के रोंये हवा में लहराते झूमते हैं । फिर ऐसी झूम नीन्द आती है कि बस ।




आजकल उसने पाया है कि हर रात सपने आते हैं । जब से उससे मिली है तबसे । उससे मिलना भी क्या मिलना था । किसी बिज़ी ट्राफिक सिग्नल पर अगल बगल दो गाड़ियों के चालक , शीशे के आरपार एक दूसरे को पलभर नाप लें । काले चश्मे और सॉल्ट पेपर दाढ़ी में अटकी आँख एक बार फिर देख ले । उसके चेहरे पर कोई भाव नहीं था । क्षण भर को अपना चेहरा मुस्कान में खिंचता सर्द होता है इस भावहीनता पर । रात वॉशबेसिन पर दिनभर की गर्द धोते शीशे में नज़र जाती है । उसकी आँखों से देखती हैं होंठों की बुनावट जब मुस्कान इतनी फिर इतनी फिर इतनी होती है । क्या दिखा होगा कि उसने कुछ नहीं देखा ..कुछ भी नहीं देखा ।

उसने कुछ अस्फुट मंत्र बुदबुदाये थे । अब मैं तुम्हारे सपने में मिलूँगी । उन नीली कुहासे ढँक़ी पहाड़ियों की तराई में , नीले हाथियों के झुंड के पीछे किसी पत्तों भरी टहनी से ज़मीन बुहारते तुम्हारे पदचिन्ह खोज लूँगी ।


गाड़ी के शीशे के पार गीयर न्यूट्रल करते बेपरवाही से मुड़ा था । उसका साफ शफ्फाक चेहरा और पीछे समेटे सारे बाल में खिलता उगा चेहरा अचानक एक मुस्कुराहट से भीग गया था । जबतक उसकी मुस्कान को मैं छूता पकड़ता गाड़ी आगे बढ़ गई थी । मेरे बाँह पर के रोंये अचानक खड़े हो गये थे । स्टीरियो पर लियोनार्दो कोहेन ‘ डांस मी टू द एन्ड ऑफ लव ‘ , गा रहा था ।



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2/06/2009

ओ लाल मेरी पत रखियो ...


दिन गुज़रता है , दीवार पर हिलते काँपते सिमटती छाया , साया गुज़र जाता है आसपास , रात बीतती नहीं , आँखों में सपना बीत जाता है । आग के फूल रेगिस्तान में उगते हैं , पैर के तलवे फटते हैं , सफर होता नहीं खत्म , दिन बीतता है , बीतती है साँस और छाती पर हर रोज़ जमता है , फिर रात होते पिघलता है अँधेरा , ऐसे ही .. ऐसे ही

रात के अँधेरे में मेज़ पर एक गोल टुकड़ा रौशनी का उगता है धीरे से । स्याही की शीशी , फाउंटेन पेन और कॉपी और किताब के बीच रखी चिट्ठी , एक पोस्टकार्ड सुघड़ अक्षरों में । चाय की प्याली पर हल्दी के निशान और टूटा एक कोना । लकड़ी की कंघी जो खरीदी थी पिछले दफे दो सौ रुपये में दस्तकार बाज़ार से और कितने अल्लम गल्लम चिड़िया पक्षी फुदने गुदने सब देखा था । गाता था पीछे से ..ओ लाल मेरी पत रखियो बला झूले लालण ... सिन्दरी दा सेवण दा सखी शाबाज़ कलन्दर ...

उसकी आवाज़ में शहद घुला था । उतना ही जितना आँखों की पुतलियों में था । गाढ़ा नशीला । आवाज़ ऐसे गमक के साथ उठती थी कि दिल तक फँसा कर खींच ले जाये । तान मुरकियाँ बारीक कभी घनेरी । पान के पत्ते पर खुशबूदार सुपारी का छल्ला । सुन कर दिल लटपटा जाये , ज़ुबान की औकात क्या ।

बंजारों की टोली रातोंरात उठ गई । खिड़की से झाँकता देखता है , चाँद के पिछवाड़े टप्परगाड़ी पर असबाब लादे भूतिया टोली विलीन होती है , शायद जाने कब की पढ़ी किसी किताब के पन्ने पर या फिर किसी सपना कल्पना में । लौटता है , फिर फिर लौटता है , छूता है किताब के पन्नों को , सूँघता है दिन को , चहक पहक रोता है मन ही मन सोचता है , जाने क्या देखता है ,उन आँखों से ? जाने क्या देखता है ..

2/02/2009

मैं तुम्हारे लिये गुमनाम सडकों पर बसों से उतरता अकॉर्डियन बजाता रहता हूँ ..

तुमने कहा था – मैं तुम्हारे लिये गुमनाम सडकों पर बसों से उतरता अकॉर्डियन बजाता रहता हूँ .. ढेर सारी सूखी पत्तियाँ फिर भी झरती रहतीं हैं । बचपन में देखे पोस्टकार्ड्स में पीले और सुर्ख पत्तों से भरे बाग के नीचे एक अकेला बेंच। कुछ कुछ उस फेल्ट लगाये दढ़ियल बूढे की हल्के नशे में बेहद नरम उदासी से बार बार मेर्सी कहना , किसी फिल्म का अटका कोई दृश्य । मुझे कई बार लगता है मैं कोई सोख्ता हूँ और सब एहसास एक एक करके मुझमें जज़्ब होते रहते हैं । मोटी किताबों की कहानियाँ जो भीतरी तह तक रिस कर कहीं लुकछिप बैठी रहती हैं और त्वचा से साँस लेती ज़िंदा रहती हैं और कभी भी , जानते हो, के साथ बाहर उचक कर आ जाती हैं ।

मैं तुम्हें कहानी सुनाना चाहती हूँ , तमाम कहानियाँ जो मैंने अब तक देखी पढ़ी हैं , और सारे नये शब्द जो मेरी ज़ुबान पर आ कर चिपक जाते हैं , जैसे कल मैंने पढ़ा ..नदामत ..शर्मिंदगी । और याद करती रही कि इस शब्द को और कब कब बिना अर्थ जाने पढ़ा है और कितनी बार तुम्हें नहीं बताया है या फिर कितनी बार ये कहकर , सुनो तुम्हें एक बात बतानी थी पर अब भूल गई हूँ कह कर सचमुच भूल गई हूँ ।

या ये कि मैं बकलावा बनाना सीखना चाहती हूँ और तुम मुझे मोरक्को ले जाओगे ? अकॉरडियन की धुन वहीं सुन लेंगे और वहीं से निकल पड़ेंगे किसी और देश । या फिर ये कि आज नहीं करनी कोई राजनितिक बहस या आर्थिक मन्दी पर सर नहीं फोड़ना । ये सब मैंने औरों के साथ कर लिया है , और ये कि परसों, मैं दिनभर किसी कम्पनी के बैलेंस शीट को अनलाईज़ करती रही और अब दुखते कंधे लिये और भारी सर लिये कहीं शब्दों की यात्रा पर निकल पड़ना चाहती हूँ , कि कल मैं सारे दोपहर ऐनी आपा को पढ़ती रही और उदास होती रही कि कभी मिली क्यों नहीं , क्या इसलिये कि मेरी भीतरी औरत उनके बाहरी और भीतरी औरत जैसी है , हू बहू वैसी और इस नाते मैं उनसे जुड़ी हूँ , समय , उम्र के परे , मौत के भी परे । कि उनके शब्द मेरे अंदर एक दुनिया रच देते हैं शायद बिलकुल वैसी दुनिया जैसी उन्होंने देखी थी और मैं देखती हूँ उनके शब्दों से , या उसके परे भी जैसे हर साँस के बाद एक और साँस ज़्यादा भीतर आये , जैसे मैंने बिना देखे भी देख लिया और बिना छूये भी छू लिया । या ये कि , जानते हो कल मैं एक उदास सुखी कर देने वाले सफर पर थी ..पाकिस्तान , सिंध , कोलंबो और उससे भी ज़्यादा ..किसी के भीतर की यात्रा , उसे उसके शब्दों के ज़रिये जानने की दिल तोड़ देने वाले अनुभव , कि देखो अब तक जैसे कुछ जाना ही न था , जैसे परदा अचानक उठ गया हो और धूप खिल गई हो । खूब खूब उदास चेहरे पर हँसी की आभा देखी है तुमने ? रक्त मांस मज्जा के भीतर छू कर देखा है तुमने ? किसी की दुनिया कितनी वाईब्रैंट हो सकती है इसका अंदाज़ा है तुम्हें ?

मैं भी बजाना चाहती हूँ अकॉर्डियन या फिर कोई सा भी सितार । डूब जाना चाहती हूँ फिर हँसना भी चाहती हूँ । तुम भी जानते हो न कैसी बेचैनियों भरी उदासी में भी कैसे कोई गहरा कूँआ खिल जाता है , मीठे पानी का सोता फूट पड़ता है । उसी उदासी के साये में कैसी अमीर खुशी कौंध पड़ती है । आई फील रिच । ऐसी अमीरी ..जानते हो न तुम ।

तुम कहते हो संजीदगी से - मैं तुम्हारे लिये गुमनाम सडकों पर बसों से उतरता अकॉर्डियन बजाता रहता हूँ ..

(शगाल ... वायलिन वादक ..अकॉर्डियन नहीं , न सही )

1/30/2009

एक ऐसा प्यार भी ..

कुछ बेहद उदासी वाला गाना क्रून करना चाहती हूँ , नशे में डूब जाना चाहती हूँ । माई ब्लूबेरी नाईट्स । अँधेरे रौशन कमरों की गीली हँसी में फुसफुसाते शब्दों को छू लेना चाहती हूँ , उस धड़कते नब्ज़ को छू कर दुलरा लेना चाहती हूँ । गले तक कुछ भर आता है उसे छेड़ना नहीं चाहती , बस रुक जाना चाहती हूँ एक बार , तुम्हारे साथ ।

चलते चलते धुँध में खो जाना चाहती हूँ एक बार । और एक बार उस मीठे कूँये का पानी चख लेना चाहती हूँ । एक बार तुमसे बात करना चाहती हूँ बिना गुस्सा हुये और एक बार प्यार , सिर्फ एक बार । फिर एक बार नफरत । सही तरीके से नफरत , न एक आउंस कम न एक इंच ज़्यादा , भरपूर , पूरी ताकत से । और उसके बाद तुम्हें भूल जाना चाहती हूँ । और चाहती हूँ कि तुम मेरे पीछे पागल हो जाओ , मेरे बिना मर जाओ ..सिर्फ एक बार !

अगली ज़िंदगी अगली बार देखी जायेगी...फिर एक बार !

( मार्क शगाल के चाँदनी रात में प्रेमी युगल )

1/28/2009

मेरी यात्रा शुरु होती है अब ..

मेरा मन ऐसा क्यों हुआ ? जैसे दरवाज़े पर लटका भारी ताला ? और तुम्हारी
संगत के दिन ? ऐसे थे क्या कि धूप अब खत्म हुई सदा के लिये । मेरे दिन क्या ऐसे ही लाचार बेचारे थे ? अपाहिज़ ,जो तुम्हारी संगत के बिना एक पल धूप और रौशनी की तरफ चल न पायें ? उन दिनों का रंग माना चटक था , फिज़ाओं में खुशबू ऐसे घुली थी जैसे ज़ुबान पर हमेशा प्लम वाईन का स्वाद | मन में कोई जंगल पत्ते खोलता था , फुनगियाँ आसमान छूती सी थीं ..सही है वो दिन वैसे ही थे । फिर उनकी परछाई इतनी लम्बी क्यों पड़ी कि आज तक के दिन ठंडे , अँधेरे , बिना किसी ताप के हुये । किसी अच्छी चीज़ का बुरा कसैला आफ्टरटेस्ट ?

न ! मैंने स्वाद चखा और अब बस । बस । फिर इसके आगे दिन कुछ और होंगे । जीवन बहुत बड़ा है और तुम्हारा दुख ? दुख है लेकिन ऐसा तीखा नहीं कि पहाड़ों पर छाया सर्द हो गई हो । तुम्हारे साथ के दिन वो चाभी नहीं जो इस ताले को खोल दें । वो चाभी उस अल्बम में भी नहीं जिसके फोटो पीले पड़ गये हैं , उस पीलेपन में उन दिनों की रौशनी और खुशी कैद है । न चाभी उन यादों में है जिन्हें याद कर मैं हंसता तो हूँ पर छाती हुमहुम कर जाती है । पर ये हँसी भी उस तार की तरह है जिसके खिंचने पर अजीब ऐंठी हुई सी खुशी तड़क जाती है । किसी दोपहर में फर्श पर लेटे छत ताकते किसी दोस्त से , किसी पुराने दोस्त से बतियाने जैसा सुख । ऐसा है तुम्हें याद करना , सिर्फ ऐसा । न उससे ज़्यादा न उससे कम ।

मेरे मन में तुमने खिड़की खोली थी , किसी और प्यारी दुनिया की झलक दिखाई थी , जब तक थी सुहानी थी । उसका सुहानापन, दिनों के किनारे पर जड़ी किरणें और सितारे थे । उसकी चमक अब भी है मेरे अंदर चमकती हुई लेकिन मैं सिर्फ तुम्हारे साथ के दिनों से खुद को सीमित कैसे कर लूँ ? दुनिया बड़ी है , बहुत बड़ी और जीवन नियामत है , एक बार मिली हुई नियामत । और हज़ार चीज़ें करनी हैं इस एक जनम में। तुमसे मोहब्बत की , टूट कर इश्क किया , मेरी आत्मा में नये रंग भरे । उन रंगों का वास्ता , अब मुझे कुछ और करना है । सामने हरा मैदान फैला है , सड़क कहीं दूर जाती है , कोई अपहचाना छोर कूल किनारा दिखता है । मैं यायावर होना चाहता हूँ , उस नीले आसमान की चमक मुझे खींचती है । मैं तुमसे प्यार करता हूँ, अब भी। इसलिये तुम्हारे बिना जीना चाहता हूँ । दुख तकलीफ में नहीं । खुशी से जीना चाहता हूँ । जैसे कोई बच्चा सुबह उठते ही किलकारी से नये भोर को बाँहें फैला कर गले लगाता है ..वैसे । तुम कहती थीं मेरे बिना तुम टूट जाओगे न । मेरा टूट जाना मेरे प्यार को साबित करता था ? तुम्हारे लिये ?

मैं हैरान हूँ । मैं जीता हूँ , साबुत हूँ । इसलिये कि एक समय मैंने प्यार किया , बेहद किया । इसलिये , अब तक जुड़ा हूँ । अब शायद तुमसे प्यार नहीं करता । शायद बहुत करता भी होऊँगा , अब भी । प्यार , तुमसे । या प्यार से । प्यार । शायद पागल हूँ कि सफेद कैनवस को रंगना चाहता हूँ उँगलियों से , रीम के रीम कागज़ भरना चाहता हूँ शब्दों से , कैनवस के जूते पहन किसी तंग गलियों में लोगों के चेहरे देखता , घरों की खिड़कियों से भीतर झाँकता , चलना चाहता हूँ , दुनिया के हर कोने का खाना चखना चाहता हूँ , धूप में बैठकर अपने पसंद के लोगों से जी भरकर बात करना चाहता हूँ , कितना कितना करना चाहता हूँ । मैं अपने मन का ताला अपनी चाभी से खोलना चाहता हूँ । मैं जीना चाहता हूँ , तुम्हारे बिना भी ..खुशी से उमगना चाहता हूँ । एक समय मैंने प्यार किया था इसलिये..इसलिये भी कि उस पार जाने के लिये दरवाज़ा मेरे ही अंदर है जो है अगर मैं देख सकूँ , अगर खोल सकूँ ..मेरी यात्रा शुरु होती है अब ..

(कार्तिये ब्रेसों की 1975 रोमानिया )

1/23/2009

चुंगकिंग एक्सप्रेस ?


सब चीज़ें एक्स्पायरी डेट के साथ आती हैं । प्यार , स्नेह , भरोसा , अंतरंगता , भोला सहज विश्वास ..सब । उम्र तक ! मैं कहती हूँ ।
तुम कहते हो ,चुंगकिंग एक्स्प्रेस का डायलॉग बोल रही हो ?

मैं लेकिन पाईनऐप्पल खाते नहीं मर सकती , मैं हँसती हूँ । मैं दुख में कुछ भी नहीं खाती ।

पाईनऐप्पल के सारे टिन जो मैं कल खरीद लाई थी उसका क्या करूँ अब ? ये अब हँसने वाली बात कहाँ रही । लेकिन सचमुच दुख में मैं कुछ भी नहीं खाती । फिर बिना एक्सापयरी डेट जाँचे , मैं सारे टिन गटर में फेंक देती हूँ । सड़क पर चलती औरत ठिठक कर देखती है , खराब है ? पूछती है ।
मेरे लिये , हाँ , मैं बुदबुदाती हूँ । बाहर बारिश झूमती है । गाड़ी के अंदर स्टिरियो पर बेगम अख्तर टूट कर गाती हैं

हम तो समझे थे कि बरसात में बरसेगी शराब
आयी बरसात तो बरसात ने दिल तोड़ दिया


मैं बेतहाशा हँसती हूँ । इसलिये कि मुझे रोना नहीं आता । शीशे के पार सब धुँधला है । सड़क नहीं दिखती , गटर नहीं दिखता , वो दुकान नहीं दिखती जहाँ से टिन खरीदा था , तुम भी नहीं दिखते और शायद उससे ज़रूरी , तुम मुझे नहीं देखते , वैसे जैसे मैं तुम्हें दिखना चाहती हूँ ।
तुम कुछ कहते हो लेकिन अब मैं नहीं सुनती । मैंने सारे पाईनऐप्पल टिन गटर में जो फेंक दिये ।

तुम कहते हो तुम्हें विदा गीत तक लिखना नहीं आता
मैं कहती हूँ मैं अजनबियों से बात नहीं करती
तुम कहते हो मेरी छतरी बहुत बड़ी है
मैं कहती हूँ बारिश में मैं फिर भी भीग जाती हूँ
तुम कहते हो मेरे पास आसमान है
मैं कहती हूँ ज़मीन किधर है
तुम कहते हो सपने नहीं देखती तुम
मैं कहती हूँ मैं सच देखती हूँ , सपने के पार का सच

बारिश थम गई है । तमाम लिखाई के बावज़ूद सच मुझे विदागीत लिखना नहीं आता । उसमें ग्रेस और डिग्निटी नहीं आती , उसमें निस्पृहता नहीं आती । मैं अब तक सड़क पर ठिठक कर देखती फिर आगे बढ़ जाती औरत नहीं बन पाई । मैं अब भी छोटी बच्ची हूँ जो बड़ों की दुनिया में जबरदस्ती घुस आई है ।

(किसी बारिश के रोज़ की खींची तस्वीर)

1/20/2009

एक दोपहर ..तुम यकीन नहीं करोगे

हम जब बात करते हैं हमारे बीच की हवा तैरती है , तरल । तुम यकीन नहीं करोगे लेकिन कई बार मैंने देखी है मछलियाँ , छोटी नन्ही मुन्नी नारंगी मछलियाँ , तैरते हुये , लफ्ज़ों के बीच , डुबकी मारती , फट से ऊपर जाती, दायें बायें कैसी चपल बिजली सी । तुम कहते हो ,
मेरी बात नहीं सुन रही ?

मैं जवाब में मुस्कुराती हूँ , तुम्हारी बात पर नहीं । इसलिये कि कोई शैतान मछली अभी मेरे कान को छूती कुतरती गई है ।तितलियाँ भी उड़ती हैं कभी कभार । और कभी कभी खिड़कियों पर लटका परदा हवा में सरसराता है । हमारी कितनी बातें घुँघरुओं सी लटकी हैं उसके हेम से । मेज पर रखे तश्तरी और कटोरे में दाल और चावल के साथ हमारी उँगलियों का स्वाद भी तो रह गया है ।

तुम यकीन नहीं करोगे । दीवार पर जो छाया पड़ती है , जब धूप अंदर आती है , उसके भी तो निशान जज़्ब हैं हवा में । सिगरेट का धूँआ , तुम्हारे उँगलियों से उठकर मेरे चेहरे तक आते आते परदों पर ठिठक जाता है । मैं कहाँ हूँ पैसिव स्मोकर ? न तुम्हें नैग करती हूँ , छोड़ दो पीना । सिगरेट का धूँआ मुझे अच्छा लगता है । मैं मुस्कुराती हूँ । तुम कहते हो ,
मेरी बात नहीं सुन रही ?

मैं सचमुच नहीं सुन रही तुम्हारी बात । मैं खुशी में उमग रही हूँ । मैं अपने से बात कर रही हूँ । परदे के पीछे रौशनी झाँकती सिमटती है । उसके इस खेल में रोज़ की बेसिक चीज़ें एक नया अर्थ खोज लेती हैं , जैसे यही चीज़ें ज़रा सी रौशनी बदल जाने से किसी और दुनिया का वक्त हो गई हैं । तुम सचमुच यकीन नहीं करोगे

लेकिन कई बार मेरी छाती पर कुछ भारी हावी हो जाता है जो मुझे सेमल सा हल्का कर देता है । तब छोटी छोटी तकलीफें अँधेरे में दुबक जाती हैं । मेरा मन ऐसा हो जाता है जैसे मैं आकाशगंगा की सैर कर लूँ , दुनिया के सब रहस्य बूझ लूँ , पानी के भीतर , रेगिस्तान के वीरान फैलाव के परे , चट नंगे पहाड़ों के शिखर पर ..जाने कहाँ कहाँ अकेले खड़े किन्हीं आदिम मानवों की तरह प्राचीन रीति में सूर्य की तरफ चेहरा मोड़ कर उपासना कर लूँ ।

परदा हिलता है , रौशनी हँसती है , अँधेरा मुस्कुराता है । तुम कहते हो ,
मेरी बात नहीं सुन रही ?

तुम यकीन नहीं करोगे लेकिन अब मैं सचमुच तुम्हारी बात सुन रही हूँ ।




(रौशनी और अँधेरे का खेल एक दोपहर)

1/16/2009

उन सारी नियामतों के नाम

मैं उसे चिड़िया बुलाती हूँ। मेरी अवाज़ एक धीमी फुसफुसाहट है साँस जैसी, और
चिड़िया हँसती है लगातार। बेतहाशा। फिर नरमी से कहती है। अब सपने देखो।

समन्दर कहते मैं आहलादित होती हूँ। समन्दर समन्दर। लहरों का गर्जन मेरी शिराओं में गूँजता है। वहाँ जहाँ ज़मीन नहीं। मछलियाँ हैं। नमक है। सीगल भी हैं शायद और फेन। और। और पुराने जंगी जहाज़। कोलम्बस का बेड़ा। खतरा। बहुत सा रोमाँच। तेज़ थपेड़ों में उड़ते बाल , गालों पर नमक की तुर्शी , ज़िन्दगी। मैं थोड़ा सा मर जाती हूँ। मैं बहुत सा जी जाती हूँ।

किताब के पन्नों के बीच वो नक्शा। पेंचदार, गूढ़। कुछ पीला पड़ा। घुमंतु बंजारा रुककर साँस लेता खाता है पनीर का सूखा टुकड़ा पीता है घूँट भर कोई सस्ती शराब। आस्तीन से मुँह पोछता, नक्शे को समेटता चल पड़ता है मेरे सपने के बीच से ही अचानक।
समन्दर की छोटी सी लहर छूती है मेरे पैर को। चिड़िया मेरे बाल को। मेरा मन मुझे।

मैं उसे चिड़िया बुलाती हूँ। समन्दर कहते मैं आहलादित होती हूँ। रात भर नक्शे की महीन बारीक रेखाओं पर बनते हैं निशान , उँगलियों के, समन्दर आसमान रेत के , बवंडर चक्रवात के , छनती हुई रौशनी और झरते हुये अँधकार के , धूँये और सब्ज़ खुशबू के , होंठों पर नफीस स्वाद के , जीवन की सबसे बढ़िया चीज़ों के , उन सारी नियामतों के निशान , तमाम नियामतों के ..

अँधेरों के बावज़ूद ..बावज़ूद बावज़ूद

नसों के भीतर तब चाँद उतरता है , पत्थरों पर मूंगों पर , छतनार पत्तियों पर । कहते हैं कोई पूर्वज पागल जुनूनी यायावर रहा था। लहरों में जीया था , वहीं मरा था।





( तस्वीरें वागातोर , गोआ में ली गईं, एक शाम )