मेरे हाथ की लकीरों से भाप निकलती थी । मैंने रात का अँधेरा अपनी आँखों में सजाया और सूरज माथे पर खुद ब खुद सज गया । बारिश ने मेरी त्वचा में एक गीली महक भर दी और शरीर से फसल उगने लगी । उसकी गमक ऐसी बेसुध गमक थी कि जिसके पँखों पर चलकर वो मेरे पास आया । हमने हाथ बढ़ाये और समय को पकड़ लिया । उसने मेरे पैर के नीचे अपनी हथेली रखी और मैं आसमान में उड़ चली । धुँध में छिपे झील के नीले हरे पानी में कोई नाव बेआवाज़ चली जाती थी । चप्पुओं की आवाज़ किनारे झुक आये हरियाले घास को छूकर फिर सतह पर लौटती । उसी दिन तय हुआ था कि दो लोगों के बीच न रात होगा न दिन , न स्पर्श होगा न साँस की छुअन ,न देह की तपन ।
धरती पर तब नदी आयी पानी आया , जंगल आये पेड़ आया , पहाड़ आये चट्टान आया , स्त्री और पुरुष आये लोग आये ....हाथी , बाघ , भेड़ फतिंगा ...और न जाने क्या क्या । फिर एक दिन ...
उस दिन जंगल में घूमते समूह ने देखा आसमान में दो सफेद पँखों वाले परिन्दे उड़ते हैं । उन्होंने घुटनों के बल झुककर उनका अभिवादन किया । बुज़ुर्ग ने कहा इस रुत में हमारे शरीर भरे पूरे रहेंगे । सोंधा अन्न और मीठा पानी मिलेगा ।
उस समय में भाले और तीर लिये कबीले घूमते थे । खच्चरों पर असबाब बाँधे , पीठ पर बच्चों को थामे औरतें और बिन बच्चों वाली औरतें सर बोझा लिये चलती जातीं चलती जातीं । कहीं बहती नदी के किनारे तम्बू गड़ता । अलाव जलता । कुछ दिन को थिर जीवन स्थिर जीवन । चाँद बढ़ता घट जाता । रात चाँदनी होती फिर अमावस । आदमी औरत ऊपर आसमान देखते और गोल चाँद को काले आसमान में जड़ा देख घुटनों के बल बालू पर सर नवाये गिर पड़ते , हे देवता कृपा करो ! देवता की कृपा से शिकार होता , अन्न उगता , मीठा पानी मिलता । मोटे गदबद शिशु मिट्टी में खेलते , लड़कियाँ औरतों की नकल में मोती की माला पिरोतीं , सजतीं , पानी में छाया देखतीं । बच्चे बड़े होते , उनके होठों पर देवता लकीरें खींचते , उनकी छाती को बलिष्ठ बनाते , उनके बाल किसी सिंह के आयाल जैसे उनके कँधों तक झूलते । सजीले जवान लड़के शिकार को जाते , ऊपर आसमान को देख जीवन देखते । जन्म मृत्यु का रास रचता । कभी देवता हारी बीमारी भेजते । झुंड के झुंड साफ हो जाते । एक दो तीन से फिर कबीला बनता बढ़ता । ऐसी कितनी जद्दोज़हद के बीच कोई पुरुष किसी स्त्री को अपना आसमान अपनी धरती दाँव धरता । स्त्री उसका दिया फूल अपने कमर में खोंस लेती । दोनों नदी पार कर लेते । फूल वहीं किसी मछली के पेट से किसी सीप का मोती बन जाता । पुरुष अपने हाथों से माला गूँथता और स्त्री उसे अपने हाथों से गले में पहनती । और कबीले के लोग देखते आसमानी सफेद परिन्दे फिर से सूरज की रौशनी में नीले आसमान में एक चमकीली रेखा बनाते विलीन हो जाते । उस रुत फिर खूब अन्न उगता , पानी मीठा होता , शिकार इफरात होता ।
फिर एकदिन बिजली कड़कती , नदी उफनती , कोई बाघ चौकन्ना चमकीली आँखों से बस्ती के पिछवाड़े दबे पाँव गुज़र जाता । बुझे आलाव के राख के पास हड्डियाँ दिखती अगली सुबह । अगली सुबह बस्ती उखड़ जाती , कबीला घुमंतू हो जाता । रास्ते में , नदी नाले चट्टान पत्थर सुनते नये शिशु का रुदन , सुनते नये जीवन का उत्सव , सुनते मौत का क्रन्दन । किसी बुज़ुर्गवार को किसी अजानी जगह जहाँ कोई कभी वापस नहीं आयेगा , वहाँ किसी पेड़ की छाया में तने से बिठाकर बढ़ जाते आगे । ये समय लौट कर आने का समय नहीं था । लौटकर आने का समय आयेगा कभी भविष्य में , पर अभी वो समय नहीं था । समय था आगे और आगे जाने का ..सिर्फ धरती पर नहीं , सिर्फ दूरी में नहीं , सिर्फ समय से नहीं , सिर्फ रात तारों को देखते दिशा तय करने का नहीं , सिर्फ समन्दर के किनारे किनारे आगे बढ़ते रहने का नहीं बल्कि जीवन का , उत्थान का , सभ्यता का । ऐसे समय में निर्ममता समय की देन थी । झुर्रीदार चेहरे की अथक पीड़ा और अथक थकान में अकेले छोड़ जाने की , नये जीवन को पोसने की , आगे शक्ति और ताकत की , जवानी की जोश की । ये मानव थे , ये इतिहास था , ये सीखना था । उस सीख को आत्मसात करना था । गेहूँ से रोटी और माँस में नमक की खोज थी , चमकते चकमक पत्थर का आग था , बुनकारी थी , खेती की आजमाईश थी और इन सब के बीच , जीवन मरण के बीच जो अंतराल था , उसका महा उत्सव था ।
तो ऐसे लौटेंगे हम एक दिन ..फिर एक दिन ..