रंग अक्रिलिक , नृत्यरत |
किसी गीत का बजना जैसे
ये सोचना कि
उदासी का रंग हर सिंगार क्यों है
उमगती खुशी क्यों नहीं
जैसे बच्ची हँसती है , अनार खाती है
उसके अनार से दाँत में फँसी हँसी हँसती है
कानों के पीछे खुँसा जबाकुसुम का फूल ढलकता है
कैलेंडर पर कतार में नीले हाथी चलते हैं
सूँड़ उठाये
रसोई से उठती है महक हींग की
और कहीं बाहर से आता है स्वर
रेडियो सीलोन का
रात के बारह बजे हम गले लगते हैं
और थक कर सोते हैं नींद में
सब सपनों को फिलहाल मुल्तवी करते
मुकेश का गीत कभी इतना मार्मिक
पहले नहीं लगा था जैसे इस वक्त
शाम की उदासी में लगता है
जबकि हम कहते रहे एक दूसरे को
खुश रहो खूब खुश रहो
जानते हुये कि ऐसा कहना
अपनी सब सद्भावना देना है लेकिन
खुशी निश्चित कर देना नहीं
फिर भी ऐसा कहना अपनी ओर से
कोई कमी नहीं छोड़ना है
कैलेंडर के हाथी मालूम नहीं इकतीस दिसंबर के बाद
कहाँ जायेंगे
मालूम नहीं अनारदाँत लड़की बड़ी हो कर
कितना दुख पायेगी
मालूम नहीं उदास गाने क्यों न हमेशा के लिये बैन कर दिये जायें
क्यों नहीं किसी भी चीज़ के खत्म होने के खिलाफ कड़े नियम बनाये जायें
क्यों नहीं तुम मेरा हाथ पकड़ कर भाईचारे में सूरज की तरफ उठे चेहरे
की खुशी के पोस्टर बनाओ
और ये न कहो कि कागज़ चारकोल से गंदे करो
जबकि मैं पानी के रंग की खुशी चाहूँ
जबकि मैं गाने बिना शब्द के गाऊँ
जबकि मैं आग में पकाऊँ बैंगन का भरता
और अपने लिये खरीदूँ नई किताबें
और कहूँ तुमसे , सुनो तुम को मेरी सब सद्भावना
और ये संगीत तुम्हारे लिये
और ये शब्द तुम्हारे लिये
और ये रंग तुम्हारे लिये
और चाहूँ कि तुम भी चाहो यही सब
मेरे लिये
यही सब सबके लिये
कि भीड़ में खड़े हम सब
आमने सामने खड़े गायें कोरस में
कि भाषा के पहले भी प्यार था भले वो
उस लड़की के दो चोटियों और मनुष्य के जानवरों की नकल में था
शायद खलिहान में लगे उस कनकौव्वे में या फिर उस पाजी की गुलेल में था
लोर्का की कविता और चवेला वार्गास के गीतों में था या फिर बाउलों की संगत में था
किसी फकीरी फक्कडपने का ठसक भरा राग था
या किसी बीहड़ महीनी का अंतरंग रंग था
जो था सब था
तुम्हारी आँखों के सामने जस था
रूठे बच्चे की आधी सिसकी था
किसी के भय का खट्टा स्वाद था
कहीं दूर सुदूर से आते साईबेरियन क्रेन सी उड़ान था
किसी टीवी चैनेल पर जोश उन्माद भरा बीच बहस
किसी जोकर का रसरंग था
इस चिरकुट सी दुनिया के भ्रष्ट अफसाने और
व्हाई इज़ लाईफ सो ब्लडी अनफेयर का रिफ्रेन था
सुनो अब भी , इतना सब होने पर भी हम कहते रहे
दॉन कियोते न बन पाये कोई साँचो पाँज़ा ही बन गये होते
क्यों हम कभी अल बेरुनी फहियेन या मार्को पोलो न बन सके
कभी सोचा कि अलेक्सांन्द्र या कोलम्बस होना क्या होना होता होगा
कि शब्दों की नौका पर सवार अटलांटिक ही घूम आयें ? या फिर
अफ्रीका की धूपनहाई धरती पर एक झँडा , न सही आर्कटिक
और ग्रीनलैंड , न सही एस्कीमो या ज़ुलु या फिर कोई मुंडा ओराँव भी चलता
किसी टोटेम की पूजा और पत्तों पर खाना , जँगल के जँगल
की पहचान
कितने प्रश्न हैं , लेकिन तुम कहते हो सोचा मत करो
मैं सोचती नहीं , न हरसिंगार न जबाकुसुम
मैं सोचती हूँ , खुशी
सोचने से मिलती है चीज़ें जैसे किसी साईंस फिक्शन या फंतासी साहित्य में
पढी गई कहानी , जो हर होने को सँभव बनाती हैं
तो आज के दिन , जो कि हर किसी और दिन की तरह खास है
आओ हम मिलकर सोचें , खुशी
और सोचें उम्मीद
और सोचें , उस सोच को जो हर इन एहसासों को मूर्त करता है
जैसे बच्ची के चेहरे पर हँसती मैना
जैसे गाने का कोई भूला मुखड़ा
गोगां के पैलेट का कोई चहकता रंग
या फिर हमारी साझी हँसी का तरल संसार
इन टैंगो , ईवन इफ इट इज़ द लास्ट वन
क्योंकि इस विशाल विस्तृत संसार में सुनियोजित है
हमारा इस तरह कभी उदास होना और
कभी तरल , कभी कहना बहुत और सुनना और ज़्यादा
कभी तुम होना और कभी मैं
और हमेशा , अकेलेपन , तीव्र अकेलेपन के बावज़ूद
उड़ान लेना किसी पक्षी के जोड़े की तरह , इन टैंडेम
वाल्ट्ज़िंग इन द इनर स्काई
अपने भीतर के संगीत की संगत में
होना
ऐसे जैसे इस भरपूर संसार में खुद से बेहतर और कोई न हुआ
खिली धूप , नीले आसमान में सबसे सफेद
सबसे खूबसूरत परिन्दा