(छुट्टी का अंतिम दिन)
पिछले दरवाज़े के पार थोडी सी ज़मीन थी। उसके अंत में तार के बाड़ के पार दूसरों का अहाता था। बाड़ से सटे सीमेंट के ढाले हुये बड़े पटरे बेतरतीबी से फिंके पड़े थे , जाने किस ज़माने से। फट्टों के बीच में घास की उबड़ खाबड़ पैदावार , कीड़े मकोड़ों की ठंडी अँधेरी दुनिया , भूले भटके गिरे सिक्के , टूटी चूड़ियाँ , इमली के बीज .. माने एक पूरा संसार था। मेरी दुनिया में लॉस्ट एटलांटिस , खोया शहर! नम ठंडी मिट्टी की छुअन नींद तक में सिहरा देती। मेरी बौराहट सुनकर कितनी बार मुझे दुस्वप्न से निजात दिलाने के लिये बेदर्दी से झकझोर कर उठा दिया जाता।
एक किनारे टी रोज़ की झाड़ी दुर्निवार बढ़ती जाती। रोज़ चाय की पत्तियों का खाद शायद इस बढ़वार के लिये ज़िम्मेदार था। पड़ोसिनें रश्क रश्क कर जातीं। पर आज मैं बैठी थी , भरी दोपहर में , अकेले। सबसे नीचे वाले फट्टे पर , सींक के टुकड़े से आड़ी तिरछी लकीरें खींचते। हम आज सुबह ही लौटे थे वापस छुट्टियों के बाद। छुट्टी का अंतिम दिन था। मुट्ठी से भरे खज़ाने का एक एक करके खत्म होना। उफ्फ कितनी उदास पीली दोपहरिया थी। न एक पत्ता न कोई चिड़िया का बच्चा। इन पटरों के बीच की दुनिया कितनी शीतल और सुखद थी तुलना में। उस मखमली लाल कीड़े के पीठ की तरह जो बरसाती दिनों में भीगे पत्तियों के बीच रेंगता दीखता। होड़ लगती माचिस की डिबिया में इकट्ठे करने की। कैसा जादू ! आह! या फिर पतली सूई सी ड्रैगनफलाई जो चमकती धूप में एक चमकीली विलीन होती रेखा सी दिखती। ये सब बरसात में होगा , जाड़ों में होगा।
अभी , अभी क्या होगा ? बस छुट्टी के खत्म होने का उदास उदास गीत होगा। गले से लेकर छाती तक कंठ को फोड़ता , सुबकियों सा हिचकता , रिसता। घर के अंदर सब सोये हैं। आस पास सब सोये हैं। वो बदमाश बिट्टू भी सोया है। और सामने के घर में पपली भी सोयी है। शाम होगी तब सब जगेंगे। बगल वाले मनी भैया , दुष्ट अन्नू , प्रभा दीदी , पपली और उसकी छोटी बहन सुपली और बूनी। गुड़िया सी बूनी । सींक से मैंने लाईन पाड़ कर एक लड़की बनाई है , धूल में। दो चोटी वाली। ये मैं नहीं हूँ। मेरे दो चोटी नहीं है। मेरे बाल छोटे हैं , लड़कों जैसे। पर मैं चाहती हूँ कि मेरे बाल खूब लम्बे हों , कमर से भी नीचे , माँ जैसे। माँ कहती है बड़ी हो जा फिर लम्बे रखना बाल। बड़े होने में अभी बहुत वक्त है। बड़े होकर बहुत कुछ करना है। हर बात में माँ कहती जो है कि बड़ी हो जा फिर। बड़ी होकर मैं सिर्फ अपने मन का करूँगी सिर्फ अपने मन का। छुट्टी के बाद स्कूल नहीं जाने का मन न हो फिर भी जाओ जैसी बात किसी को नहीं कहने दूँगी। पटरे पर डूबते सूरज की तिरछी किरणें पड़ रही हैं अब। छुट्टी का अंतिम दिन अब कुछ घँटे ही बचा है। मैं इस खत्म होने के उदासी को उँगलियों से भींच लेती हूँ। मेरे होंठ रुलाई की याद में बनते बिगड़ते हैं ,गाल पर सूखे पुँछे आँसू के लकीरों की तरह।
मिन्नी मिन्नी , कोई पुकारता है बाड़ के पार से। अन्नू , पपली सुपली सब बुला रहे हैं। खेलने का समय हो गया। माँ भी पुकार रही है। मेरा मन अचानक आहलाद से भर जाता है। इन दोस्तों को महीने भर बाद देख रही हूँ। कितना मज़ा आयेगा छुट्टियों की कहानी सुनाने में। खरीदे गये दूरबीन दिखाने में , आँखें बन्द कर सो जाने वाली नीली आँख और सुनहरे बाल वाली गुड़िया दिखाने में , कल स्कूल के नये टीचर की बात करने में।
“ आई , आई “ । सींक फेंक कर , हाथ झाड़ कर मैं कूद पड़ती हूँ पटरों पर से। मेरी फ्रॉक पर मेरे साथ साथ एक लाल पर काली बुन्दकियों वाली लेडीबर्ड मेरे खेल में शामिल हो जाती है।
माँ देखती हैं लड़कियाँ मगन चहचहा रही हैं , इखट दुखट खेल रही हैं। शाम के झुटपुटे में पंछियों का कलरव जैसे।
फताड़ू के नबारुण
1 week ago