3/28/2008

पर कहोगे कभी नहीं प्यार ?

कितनी बार कहोगे
लेकिन प्यार नहीं कहोगे
कहोगे
दुनिया जहान की बातें
इसकी बातें उसकी बातें
वो जो गौरैया थी
जो उड़ जाती थी
जो मेमना था
जो बच्चा था
कहीं हर्ज़ेगोविना बॉस्निया में
या
गाज़ा में , अनाथ अकेला
गिरजे पर हुये हमले
और मेधा पाटकर के धरने
कहोगे
फिर बुश और इराक
सद्दाम की मौत
और
पेंटागन की साजिश
नौ ग्यारह
कैसे गिरा था
ट्विन टॉवर
तब शायद खा रहे थे
रात का खाना
लिया था पहला कौर
रोटी का शोरबे के साथ
बगल में फेन उगलता
बीयर का मग
कैसे रह गया था
अधूरा
और फेंका था अगली सुबह
काँता बाई ने
ज़रा नाक सिकोड़ते हुये
तुम्हारे अफसोस के साथ

कहोगे
कि शेयर मार्केट के उछाल के इंतज़ार में
रोक रखा है तुमने
खरीदना किसी अपमार्केट सबर्बिया में
पॉश एक फ्लैट
कि कितने लाख
तुमने खोये पिछली गिरावट में
पर
परवाह नहीं
कर लोगे भरपाई
किधर और से
पढ़ लोगे
इकॉनिमिक टाईम्स और मनी मार्केट
नब्ज़ है तुम्हारी सेंसेक्स पर
सिर्फ यही नहीं
फुरसत में
पढ़ोगे रेनर मारिया रिल्के को
सुन लोगे मधुरानी को
पुरानी बदरंग अल्बम से चुनकर
देख लोगे उदास कर देने वाली तस्वीरें
धूप में भी सर्द सिहर लोगे
और परे हटा दोगे
फ्लावरी ऑरेंज पीको
कहोगे
एक अलस दोपहरी में
नींद की बातें
नमक में डुबाकर हरी मिर्च का स्वाद
देर रात तक थियेटर का रंग
कि हम सब कठपुतली है रंगमँच के
फिर उस नाटकीय डायलॉग पर
ठठाकर हँस पड़ोगे
फिर संजीदा
कहोगे
कि अब हमें लाना चाहिये
एक बदलाव
कहोगे
कि चलो अब किसी दूसरी तरह से
जिया जाय
किसी और तरीके से
रहा जाय
फिर उबासी लेकर औंधे पड़े
कहोगे
कल से ?
अच्छा ?
पर कहोगे कभी नहीं प्यार ?

3/25/2008

शारुख शारुख कैसे हो शारुख ?

बेड नम्बर बयालिस , न्यूरो डिपेंडेंस वार्ड

राफेल राफेल
आवाज़ खोज रही थी । दोपहर की सुन सन्नाट गलियों में गोलगाल घूम रही थी। कभी पास आ जाती तो तेज़ हो जाती। मद्धम होती तो राफेल समझ जाता दूर हो गई। हथेली में चार चमकीले पत्थर पसीने से चमकते थे जैसे उस रात पेड़ पर बैठे उल्लू की आँखें।


हथेलियों को हथेलियों में थामे कलाईयों को मोड़ते हुये जोएल सोचता है , बोलेंगे कभी ? पहचानेंगे कभी ? कलाईयों के बाद कुहनी फिर बाँह। उसके बाद एड़ियाँ , घुटने। हर एक घँटे एक्सरसाईज़ करायें । जोड़ लचीले रहें बाद में आसानी होगी । घड़ी देखता है जोएल। ठीक ग्यारह बज कर दस मिनट पर एक्सरसाईज़ का दूसरा दौर। अभी नेब्यूलाईज़र लगेगा फिर सक्शन कर के छाती पर जमा कफ निकाला जायेगा । सिस्टर जब पाईप डालती है मुँह में तो दाँत से पकड़ लेते हैं। गाल थपथपा कर सिस्टर चिल्लाती है , बाबा छोड़ो । तब जोएल की इच्छा होती है ठीक वैसे ही पकड़ कर सिस्टर को झकझोर दे । उनकी तकलीफ देखकर हट जाता है जैसे उसकी छाती तक पाईप रेंग गया हो ।

बगल वाले बेड पर लेटा बच्चा शारुख अपने पिता को बेहोशी के आलम में अंकवार भर लेता है। उसकी बैंडेज बँधी मुट्ठियाँ पिता के पीठ पर बेचैन थरथराती हैं। डी वार्ड में हर वक्त मरघट शाँति रहती है। सारे पेशेंट नीम बेहोशी में । अटेंडेंट्स थके हारे निढाल क्लांत । बाहर रुलाई की महीन रेखा उठती गिरती विलीन होती है। शायद कार्डियाक वार्ड से आती है । बीमारी की महक जैसे ज़्यादा पके फल की महक नाक में भर जाती है। कुछ कुछ सड़े हुये आम की महक जैसे।

वाईटबोर्ड पर जोएल पढ़ता है

नाम राफेल टिर्की
डेट ऑफ एडमिशन चौदह जनवरी दो हज़ार आठ
कॉज़ ब्रेन प्लस हाईपोथैल्मस कंट्यूशन
प्रोसीजर फ्रांटल क्रेनियोलजी
मेल कैथ /फॉलीज़ चौदह जनवरी
डाएट .........
राईलीज़ ट्यूब.......
..........
..............

नीचे नीचे और नीचे ऐसे ही कितने अजाने मेडिकल टर्म्ज़ ..सारे शब्द गडमड होते हैं । माँ कहती है मैं आऊँगी । आकर भी क्या करेगी । संस्था वाले कहते हैं सात लाख खर्च हो गये । एक ही आदमी पर कितना खर्च। और भी तो हैं मदद के लिये ..बेबस बेचैन बेसहारा । पिता अनदेखी आँखों से देखते हैं । कुछ भी नहीं देखते हैं। कहाँ चले गये तुम ? किस दुनिया में ? जहाँ मेरा रास्ता नहीं , जहाँ मेरी दरकार नहीं , घुसपैठ नहीं ? हमेशा अपनी की । अंत तक। और मैं अब क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ , कहाँ इन्हें ले जाऊँ ..उस छोटे से बीहड़ जसपुर के पास जंगल वाले गाँव में , उस दो एकड़ के खेत में ? उस सरकारी लावारिस से बे-डॉक्टर अस्पताल में ? कहाँ ले जाऊँ । अबकी बार जोएल देखता है खिड़की के बाहर अनदेखी आँखों से । कुछ भी नहीं देखता ।

पोखर पर लिपटती शाख से पानी में छपाक कूदते लहर बनाता तैरता है राफेल । मछली जैसा । पानी में काला चिकना बदन छहलता है।
राफेल , राफेल
आवाज़ कभी पीछा नहीं छोड़ती । सटती चिपकती है । सर झटकता है एक बार ज़ोर से । ओह अभी नहीं , अभी तो बिलकुल नहीं ।


सिस्टर सिस्टर ।
जोएल उत्तेजना से सिहर रहा है । अभी इन्होंने अपना सर हिलाया । मैंने देखा , अभी देखा । आप भी देखना सिस्टर ।

बाबा बाबा , मैं जोएल । मुझे सुनते हो तो अपना सर हिलाओ । जोएल उनको पकड़ कर हिला रहा है । दो मिनट इंतज़ार कर सिस्टर बेजार लौट जाती है कुर्सी पर ।

खिड़की के सिल पर गिलहरी भौंचक इस शोर से थमती ठिठकती है फिर पूँछ उठा विलीन हो जाती है।

सिस्टर बेड नम्बर चौआलिस पर झुकी पुकार रही है ,
शारुख शारुख कैसे हो शारुख ?

3/19/2008

अंतरे में रौशनी

अँधेरा था। अँधेरा एक दरवाज़ा था जिससे रौशनी की तरफ जाया जाय। शायद टटोलना पड़ता। लेकिन दरवाज़ा तो था। कोई स्विच अलबत्ता नहीं था जिससे खट रौशनी जला दी जाय। इस रौशनी के लिये जद्दोज़हद करनी पड़ती। अच्छा ही था आसानी से मिली चीज़ का क्या मोल। लेकिन प्रश्न ये था कि इस दरवाज़े की भनक किसी को नहीं थी। कोई आभास था रौशनी का, अँधेरे का, दरवाज़े का। इसी आभास का सिरा पकड़े ,अँधेरे को मुट्ठी में जकड़े उस पतली रौशनी के लकीर पर एहतियातन पाँव रखते , न इधर डोलते न उधर डगरते . चलते रहने , आगे बढ़ने ,उस दरवाज़े को उँगलियों से छू लेने का दिवास्वप्न ये दिन , महीने , रात ?
पत्तियों पर कचर मचर चलते रहने , छतनार शाखों से झरती रौशनी , हरा ताज़ा ..कोई उड़ती तितली के पँख पर एक लहर कौंध की , कोई सुनहरी रेखा हथेली पर ..ऐसी कितनी स्मृति दबा कर रखी पन्नों के बीच सूखा कोई फूल। आह कोई स्मृति रौशनी की ..दबी दबी राख में दबी चिंगारी।

लैम्प की झरती रौशनी वृत बनाती है फर्श पर ..अ परफेक्ट सर्कल। उसी वृत पर एक कीड़ा चलता है गोल गोल। रेडियो से आती है आवाज़ रसीली उदास , दुख में नहाई हुई ..एक टेक बार बार घूम फिर कर लौट कर बार बार वही एक टेक। उसी आवाज़ के सम पर घूमता है रामजी का घोड़ा , उँगलियाँ देतीं हैं थाप। खिड़की से आती हवा से लहराता है पर्दा , काँप जाता है वृत एक बार को , ठिठक कर डिसऑरियेंट होता है कीड़ा और भटक जाता है अँधेरे में। रेडियो की आवाज़ छूती है दीवार को , छत के कॉर्निस को , पर्दों के हेम को ,शेल्फ में रखे काले पत्थर के बस्ट को , कोने में पड़े इज़ेल के अधूरी औरत को , खुरदुरे कैनवस पर पेंट को , मेरे दिल को । एक रौशनी भरती है किसी कोने से , फैलती है , थमती ठिठकती है फिर वृत की रेखा पर गोल चलती है। मैं देखती हूँ देखती हूँ। दरवाज़ा धीरे धीरे खुलता है , आवाज़ के सम पर खुलता है। न ये दिवास्वप्न है न स्मृति। बस रौशनी है ... ब्लाईंडिंग लाईट ... बन्द आँखों के भीतर रौशनी का सपना .. दुनिया के भीतर एक और दुनिया , बुलबुले के भीतर का रहस्य।

अँधेरा चिपटता है पोरों से। छुड़ाओ तो छूटता नहीं। दरवाज़ा दिखता नहीं। बन्द आँखों के अँधेरे में तो बिलकुल नहीं। सपने में दिखा दरवाज़ा हर बार बस खुलते खुलते रह जाता है। अँधेरे में रौशनी होते होते रह जाती है। दरवाज़े के फाँक से दिखता है .. आस , स्मृति , आवाज़। पान के रस से सराबोर है आवाज़, घुलती है सुपारी और मीठी इलायची , खुशबू कत्थे की , गमक सुर की । घुँघरू की आवाज़ पर कोई भंगिमा लेती है अंगड़ाई , लचक जाती है आवाज़ फिर एक बार और। ठुड्डी पर हाथ धरे कटीली रसीली आँखों से पूछती है नायिका ... अंतरे में रौशनी देखोगे?


( बड़ी परेशानियों में घिरे मन का प्रलाप.... इतना टेढ़ा कितना सीधा पर सच ! वो दरवाज़ा खुल जाये। कोई सिम सिम की चाभी पसीजी हथेलियों में औचक मिल जाये..इतनी दुआ करें)